इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायाधीश शेखर यादव ने दो दिन पहले विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) द्वारा आहूत एक सम्मेलन में कुछ ऐसी बातें बोल दी हैं, जिसने समूची न्यायपालिका पर ही बड़ा प्रश्नचिन्ह लगा दिया है।
उक्त न्यायाधीश महोदय पिछले तीन दशक से इस पेशे से सम्बद्ध हैं, इसलिए भी यह प्रश्न काफी गंभीर हो जाता है। इसका मतलब है कि न्यायाधीश महोदय ने जो कुछ कहा, पूरे होशोहवास में कहा है।
आज की ताजा खबर यह है कि मामले की गंभीरता को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने भी उनके तेजी से वायरल होते बयान का संज्ञान ले लिया है।
इस सन्दर्भ में सर्वोच्च न्यायालय ने पूरे काग़ज़ात भी मंगाए हैं और उम्मीद की जानी चाहिए कि वह कड़ी से कड़ी कार्रवाई करेगा ताकि तमाम न्याय प्रदान करने वाले जज साहबान और न्यायिक जगत को भी ठीक-ठीक पता चले कि उन्हें क्या बोलना है और क्या नहीं।
बताते चलें कि यह घटना 10 दिसंबर, रविवार की है, जिसमें आरएसएस के धार्मिक विंग का कामकाज देखने वाले संगठन, विश्व हिंदू परिषद की लीगल सेल ने इलाहबाद उच्च न्यायालय परिसर के भीतर एक कार्यक्रम का आयोजन किया था।
इस कार्यक्रम में हाई कोर्ट के दो न्यायाधीश, शेखर कुमार यादव और न्यायाधीश दिनेश पाठक ने हिस्सेदारी के लिए अग्रिम सहमति प्रदान की थी। उनकी भागीदारी की सूचना पर भी समाचार पत्रों में चर्चा चल रही थी कि क्या किसी सिटिंग जज को ऐसे घोषित हिंदुत्वादी संगठन के आमंत्रण पर जाना चाहिए?
लेकिन दोनों माननीय न्यायाधीशों ने न सिर्फ इस सम्मेलन में भाग लिया, बल्कि न्यायाधीश शेखर यादव के बयान ने तो पूरे देश को ही बुरी तरह से चौंका दिया है। न्यायमूर्ति यादव को समान नागरिक सहिंता की “संवैधानिक अनिवार्यता” विषय पर अपना व्याख्यान देना था।
न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव का भाषण अगर समान नागरिक संहिता (UCC) की वकालत करने तक ही सीमित रहता तो भी गनीमत थी, लेकिन वे तो इसके पक्ष में उन दलीलों को हवा देने लगे, जो देश के अल्पसंख्यक समुदाय को निशाना बनाने के लिए हिन्दुत्वादी सांप्रदायिक शक्तियों का हथियार रही हैं।
उन्होंने मुसलमानों और उनके व्यक्तिगत कानूनों को निशाना बनाते हुए खुले तौर पर अपमानजनक और भड़काऊ टिप्पणियां कर डालीं, जिनसे उनके न्यायिक विवेक और निष्पक्षता को लेकर गंभीर प्रश्न खड़े हो गये हैं।
अपने 30 मिनट के भाषण की शुरुआत में ही जज साहब ने घोषित कर दिया कि देश में सभी लोग हिंदू हैं, भले ही वे कुरान या बाइबिल के हिसाब से चलते हों। इसी तरह समान नागरिक संहिता के समर्थन में उनकी तकरीर में कहा गया कि भारत एक है और संविधान एक है तो सबके लिए कानून एक क्यों नहीं?
उनके पूरे भाषण में से कुछ आपत्तिजनक वाक्यों को ही सोशल मीडिया में चलाया जा रहा है, लेकिन यदि पूरे भाषण को सुनते हैं तो और भी भयानक तस्वीर सामने आती है।
न्यायमूर्ति ने सबसे पहले महिला की गरिमा और सम्मान की बात पर कहा कि हिंदू धर्म में नारी को देवी और पूजनीय माना जाता है, जबकि उनके धर्म में तीन तलाक, हलाला जैसी कुरीतियों को समान नागरिक संहिता के माध्यम से ही हटा पाना संभव है।
ये मेरा और तेरा और साथ ही सभी भारतीय हिंदू हैं, वाली उलटबांसी को सुनने से तो यही जान पड़ता है कि न्यायमूर्ति महोदय ने संविधान से ज्यादा हिंदुत्व के चश्मे से ही देश और समाज की तस्वीर अंकित की है।
हमारे बच्चों को संस्कारवान बनाने के लिए वेद और अहिंसा का पाठ पढ़ाया जाता है और उनके यहां बचपन से जानवरों की हत्या को बच्चे बचपन से देखने के कारण हिंसक प्रवृति का वाचन न्यायाधीश महोदय की समझ को पूरी तरह स्पष्ट कर देता है।
इतना ही नहीं न्यायमूर्ति श्रोताओं को संबोधित करते हुए यह तक कह जाते हैं कि हम यदि अहिंसक हैं तो हमें कोई कायर न समझे। अपने भाषण का अंत करते हुए उन्होंने बड़े ही आत्मविश्वास के साथ घोषित किया कि समान नागरिक संहिता हर हाल में लागू होकर रहेगी।
न्यायमूर्ति के पूरे भाषण की जांच होनी चाहिए, और उसके आधार पर ही तय किया जाना चाहिए कि क्या वे भारत के संविधान की आत्मा को समझते हुए देश एक हर व्यक्ति को न्याय दे सकते हैं या नहीं।
अच्छी बात यह है कि इस मामले पर देश के लगभग हर कोने से आवाज उठ रही है। सोमवार को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की नेता वृंदा करात ने मुख्य न्यायाधीश को एक पत्र लिखकर कहा था कि भारतीय न्यायालय में ऐसे लोगों के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए।
इसी प्रकार सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता, प्रशांत भूषण के नेतृत्व वाले एक गैर सरकारी संगठन के द्वारा आज मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना को पत्र लिखकर इस मामले की “इन-हाउस जांच” की मांग की गई, जिसके कुछ ही देर बाद सर्वोच्च अदालत ने मामले की गंभीरता को देखते हुए इसका संज्ञान लेने का फैसला लिया है।
देश के प्रबुद्ध नागरिक भी अब मानते हैं कि हाल के वर्षों में न्यायपालिका के फैसलों और पोस्ट रिटायरमेंट बेनिफिट की जैसी बन्दरबांट पिछले दस वर्षों में बढ़ी है, उसे देखते हुए न्यायपालिका के सर्वोच्च शिखर पर बैठे कुछ न्यायाधीशों के फैसलों से अदालत की साख वैसे ही रसातल में जा चुकी है।
अगर न्यायपालिका की साख को फिर से स्थापित करना है तो सुप्रीम कोर्ट को तुरंत इस मामले में कठोर कार्रवाई करनी चाहिए।
इतना ही नहीं, उसे अपने तमाम जजों को आचरण संहिता का सख़्ती से पालन करने के लिए निर्देशित करना चाहिए और उन्हें चेतावनी देनी चाहिए कि यदि वे उसका उल्लंघन करते हैं तो उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई की जाएगी। इसके साथ ही जस्टिस शेखर यादव के ख़िलाफ़ कार्रवाई कर मुख्य न्यायाधीश ये चेतावनी तुरंत दे सकते हैं।
आज यह बात एक हाई कोर्ट न्यायाधीश ने कही है, कल को देश के अन्य राज्यों से भी इसी तरह के बयान सुनने को मिल सकते हैं।
यदि ऐसा हुआ तो यह मानने में किसी को भी संदेह नहीं रहेगा कि जब संविधान की रक्षा करने वाले जज साहिबान ही उसकी धज्जियां उड़ा रहे हैं।
और बहुसंख्यकवाद के पक्ष में खुलकर भाषण दे रहे हैं, तो हिंदुत्ववादी संगठनों और धर्म संसद के माध्यम से आदेश जारी करने वाले धार्मिक संतों के भाषणों पर देश को आपत्ति करने का क्या हक है?
वहीं दूसरी तरफ, अल्पसंख्यक मुस्लिम, सिख, ईसाई और अन्य मतावलंबियों के लिए तो भारत भी एक तालिबानी किस्म का राज्य बनकर रह जाने वाला है। यदि ऐसा है तो हम किस मुंह से खुद को मदर ऑफ़ डेमोक्रेसी और बहुलतावाद की जननी वाला देश कह सकते हैं?
कई लोग तो अभी से प्रश्न करने लगे हैं कि हमारे देश के न्यायाधीश यहां पर बहुसंख्यकवाद की वकालत कर रहे हैं, और विदेश मंत्रालय बांग्लादेश से अपने देश के भीतर अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा करने का अनुरोध कर रहा है।
निःसंदेह हम उस मुकाम पर पहुंच चुके हैं, जहां देश अब और ज्यादा बहुसंख्यक सांप्रदायिकता की ओवरडोज नहीं झेल सकता। चीफ जस्टिस यदि कड़ा कदम उठाते हैं तो यह संदेश संविधानिक पद पर आसीन हर व्यक्ति तक पहुंचेगा। यदि अभी भी निर्णायक फैसला नहीं लिया तो मौका हाथ से हमेशा के लिए निकल जायेगा।
(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)
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