सोमवार को आरजी कर अस्पताल बलात्कार व हत्या मामले में सुनवाई होनी है। डॉक्टर ही नहीं, पूरे समाज में आक्रोश और हलचल है; एक किस्म की बेचैनी है। इसलिये 4 सितम्बर को पश्चिम बंगाल के कोने-कोने से आवाज़ उठ रही थी – ‘हमें न्याय चाहिये’! दरअसल 23 दिन बीतने के बाद भी केस अनसुलझा ही है; और लोगों का धैर्य टूट रहा है।
शायद आक्रोश के फूट पड़ने का फ्लैश-प्वाइंट भले ही अभया का मामला हो, लोगों के अंदर एक गहरी निराशा भरती जा रही है, क्योंकि विकास का पहिया कहीं रुक गया है। उसे पितृसत्ता और औरतों के प्रति घृणा ने रोक लिया है!
आखिर हम कहां जा रहे हैं? निर्भया- दिल्ली, उन्नाव, कठुआ, शमशाबाद, हाथरस, आईआईटी बीएचयू, मणिपुर, उत्तराखंड – रुद्रपुर सामूहिक बलात्कर व हत्या, बदलापुर-थाणे, कोलकाता, ट्रिची…..फेहरिस्त लम्बी होती जा रही है, और अपराध भी क्रूर से क्रूरतम!
अपराधियों को छूट?
अपराधियों का मन इतना बढ़ चुका है कि उन्हें बिना चेहरे पर शिकन लाये, अपने कुकृत्य को कबूलने में ज़रा भी हिचकिचाहट नहीं होती। कई मामलों में अपराधी उल्टे महिला पर प्राथमिकी दर्ज़ करा देते हैं, या उन्हें खत्म ही कर देते हैं। अक्सर उन्हें उनके समाज का एक हिस्सा और कुछ नेता महिमामंडित भी करते हैं।
उन्हें कभी नहीं लगता कि देश भर में उनकी भद्द पिटेगी। अगर महिला मुसलमान या निम्न जति की है तो उन्हें गौरव महसूस होता है। अगर औरत लड़ने वाली है तो मर्दवादी सोच वाले लोग उसे सबक सिखाने के पक्ष में आ जाते हैं।
उन्हें यह भी नहीं लगता कि उनके परिवार और समाज में वे मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे या उनका बहिष्कार होगा; वे अपने घर की बेटियों और महिलाओं का सामना कैसे करेंगे?
ऐसा कैसे हो गया है? क्या हमारे समाज में इतना अलगाव हो गया है कि किसी को किसी से मतलब नहीं… जिसको जो करना है करे! इतना बर्बर और विकृत है हमारा समाज? क्या बलात्कार को “नार्मल” मान लिया गया है; वह कहीं भी और किसी के साथ भी हो सकता है?
उसे ‘नार्मलाइज़” करने के लिये तर्क गढ़े जा रहे हैं, और औरत को दोषी ठहराया जा रहा है। क्या मीडिया और पापुलर कल्चर भी इसे नार्मल बना रहे हैं? इसे ही कहते हैं ‘रेप कल्चर’ और ‘हिंसा की संस्कृति’। इनका पोषण करती है पूंजीवादी पितृसत्ता। और आज हमारा संघर्ष इसी के विरुद्ध है -बिगुल बज चुका है।
इससे पहले दो खंडों में मैंने कोलकाता की वीभत्स घटना का वर्णन किया था और बताया था कि ममता सरकार ने कैसे चिकित्सकों के हक में काम करने की जगह अपराधियों को बचाने की हर सम्भव कोशिश की। उन बातों को दोहराया न जाये। आज ज़्यादा ज़रूरी यह है कि हम इस बात पर गौर करें कि एक खास ‘हाई प्रोफाइल केस’ में जांच का टाइमलाइन क्या है।
इससे हम समझ सकेंगे कि बाकी आदिवासी, दलित, अल्पसंख्यक और गरीब घरों की बहन-बेटियों के साथ क्या होता होगा।
- घटना 9 अगस्त की है। 14 तारीख को ‘रीक्लेम द नाइट, रीक्लेम आवर राइट्स’ के नारे के साथ सारा कोलकाता सड़कों पर उमड़ आया। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने 14 तारीख की रात को निहत्थी पुलिस को अस्पताल के पास तैनात रखा, ताकि 7000 की आक्रामक भीड़ अस्पताल में तोड़-फोड़ कर आसानी से सारे साक्ष्य नष्ट कर दे। (यह तो प्रशासन बता पायेगा कि पुलिस को तुरंत ऐक्शन में आने से किसने और क्यों रोका)। ममता गृह मंत्री हैं!
सेमिनार रूम और आस-पास के एरिया को कॉर्डन ऑफ नहीं किया गया था, और अभया की लाश को ताबड़तोड़ जला दिया गया, जबकि उसके विसरा को जांच के लिये भेजा जाना चाहिये था। पर डिप्टी एसपी ने पत्रकार सम्मेलन में दूसरी ही कहानी बतायी।
अभया के पिता का कहना है कि लाश को जल्दी जलाने का दबाव बनया गया- यहां तक कि डीसी नॉर्थ द्वारा उन्हें घूस में पैसा ऑफर किया गया।
- ममता ने अब जल्दी मचाई है कि सीबीआई केस क्लोज़ करे; कहीं मेडिकल कर्मी व चिकित्सक सरकार के विरुद्ध आक्रामक न हो जायें। सीबीआई को भी 23 दिन हो चुके।
- सीबीआई ने पहले ही घोषणा कर दी थी कि साक्ष्य बचे ही नहीं हैं।
- उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप पर संदीप घोष को नेशनल मेडिकल कालेज से हटाया गया (जहां उसे प्रमोट करके भेजा गया था) और लम्बी छुट्टी पर भेजा गया था। पर वह 2 तारीख तक गिरफ्तार नहीं हुआ था, इसलिये लोग डरकर बोल नहीं रहे थे।
- सर्वोच्च न्यायालय ने मामले का संज्ञान लिया और सुनवाई प्रारम्भ की, पर खबरों के अनुसार 5 तारीख की सुनवाई सीजेआई की तबीयत खराब होने के चलते टली।
- एससी ने नेशनल टास्क फोर्स के गठन का फैसला लिया है।
- 23 दिन से अधिक समय बीतने के बाद भी प्रगति के नाम पर दो ही बातें सार्वजनिक हुई हैं- कि आरोपियों का पालीग्राफ टेस्ट हुआ और 2 तारीख को प्रिंसिपल संदीप घोष की भ्रष्टाचार मामले में गिरफ्तारी हो गयी। सीबीआई ने 8 दिन की रिमांड पर लिया है।
- मुख्य आरोपी संजय राय के बारे में बताया जा रहा है कि वह पुलिस को दिये हुए अपने बयान से मुकर गया है। उसके अनुसार जब वह कमरे में पहुंचा था, ट्रेनी महिला मर चुकी थी।
- निवर्तमान सुपरिंटेंडेंट और एक डॉक्टर का मीडिया में बयान आ चुका है कि अस्पताल में कई किस्म के गलत काम होते थे। पर ये क्या थे, अब तक अखबारों के हवाले से इतना पता चला है कि बायोमेडिकल वेस्ट, और शवों की तस्करी होती थी। सबसे गम्भीर बात यह कि जीवित व मृत महिलाओं के संग सेक्स के वीडियो बनाकर विदेशों में महंगे दामों पर बेचे जाते थे। इसके सरगना प्रिंसिपल घोष थे।
- महिला आंदोलन ‘रीक्लेम द नाइट’ ने कहा कि भाजपा को कोई हक नहीं है कि वह महिला सुरक्षा की बात करे। उन्होंने कहा कि ‘रेप कल्चर’ को भाजपा ने सबसे अधिक बढ़ावा दिया है और बलात्कारियों को महिमामंडित भी किया है।
- इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के नार्थ बंगाल सिंडिकेट के अध्यक्ष संदीप घोष की आईएमए सदस्यता समाप्त कर दी गयी है।
- राज्य के चिकित्सकों ने पुलिस आयुक्त विनीत गोयल के इस्तीफे की मांग करते हुए मार्च किया। उन्हें प्लास्टिक की रीढ़ की हड्डी भेंट की।
- इधर ममता एक विधेयक लायी हैं- अपराजिता बिल, जिसका मकसद है भारतीय न्याय संहिता, 2023, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 और पाक्सो कानून 2012 में संशोधन कर कुछ खास मामलों-जैसे किसी भी संस्था के अधिकारी द्वारा या सैनिक अथवा संरक्षक द्वारा बलात्कार, सामूहिक बलात्कार, 12 वर्ष से कम उम्र की नाबालिग बच्ची का बलात्कार, 18 साल से कम उम्र की लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार, बलात्कार के बाद हत्या या पीड़िता को कोमा जैसी हालत में छोड़ना अथवा आदतन बलात्कार करने के मामलों में मौत की सज़ा तक होगी;
- तेजाब से हमला, 16 वर्ष से कम उम्र की लड़की के साथ बलात्कार के मामलों में अधिकतम आजीवन कारावास (जबतक उसकी ज़िंदगी प्राकृतिक रूप से समाप्त नहीं हो जाती) और पेरोल न मिलने की बात है। साथ ही, बिना अनुमति के कोर्ट केस संबंधित मामलों को छापना या पीड़िता का नाम व पहचान को उजागर करने के लिये अधिकतम 5 साल की सज़ा होगी।
ममता कहतीं हैं कि 21 दिनों के अंदर न्याय मिल जायेगा-इसके लिये विषेश अदालतें बनेंगी। अपराजिता टास्क फोर्स भी निर्मित किया जायेगा। ऐसा कहा गया है कि बिल के कोई वित्तीय निहितार्थ नहीं हैं।
अब लगभग सभी अखबार कह रहे हैं कि सीबीआई ने संदीप घोष की 8 दिनों की रिमांड प्राप्त कर ली है, और अब पता लगाना बाकी है कि क्या वह किसी बड़े नेक्सस (जो आरजी कर से चलता है) का सरगना है।
बिल की आलोचना हुई
महिला आंदोलन की कार्यकर्ताओं ने कहा है कि बिल पारित करने की हड़बड़ी क्यों? क्या ममता वर्तमान आक्रोश को शांत करने और लोगों की संवेदनाओं को तुष्ट करने के लिये इस किस्म के अतिवादी संशोधन लाना चाहती हैं? उनका मानना है कि मृत्युदंड समस्या का हल नहीं है।
क्योंकि हमारे देश में जांच की प्रक्रिया इतनी लापरवाही से होती है और इतनी लम्बी खिंचती है, कि न्याय का कोई मतलब नहीं रह जाता। फिर, न्याय प्रक्रिया में देरी के कारण पीड़िता का जीवन अधर में लटका रहता है- न ही वह पढ़ाई कर पाती है, न उसकी शादी हो पाती है, न ही वह शहर या देश छोड़कर कहीं जा सकती है।
उसके घर वाले लगातार तनाव में रहते हैं और कई बार तो वे इसके कारण दुनिया से ही चले जाते हैं। फिर, केवल दंड से इस समस्या का निदान सम्भव नहीं है- सामाजिक और सांस्कृतिक परिष्कार के बारे में सोचना होगा।
सर्विलांस राज नहीं, आज़ादी चाहिये!
ममता बनर्जी के प्रमुख सलाहकार अलापन बंधोपाध्याय की ओर से 18 अगस्त को एक बयान आया कि महिलाओं की सुरक्षा के लिये सरकार कई सख्त कदम उठाने का फैसला ले चुकी है। ये खास तौर पर उनके लिये होगा जो रात्रि पाली में काम करती हैं। पहली बात तो यह कही गयी कि जहां तक हो सके महिलाओं को रात की ड्यूटी नहीं दी जायेगी।
पर जहां एकदम आवश्यक होगा वहां कार्यस्थल के बाहर पुलिस पेट्रोलिंग बढ़ाई जायेगी, महिलाओं को ऐप का उपयोग करके पास के थाने से सम्पर्क करने को कहा जायेगा, सीसीटीवी कैमरे के दायरे में काम करने का प्रावधान होगा।
महिलाकर्मी 2-2 की टीम बनाकर एक दूसरे को अपनी गतिविधियों के बारे में अवगत कराते रहेंगे, सुरक्षाकर्मियों में महिला-पुरुष अनुपात को ठीक किया जायेगा। महिला स्वयं सेविकाएं तैनात की जाएंगी, वगैरह, वगैरह। ऐसे 17 बिंदु हैं।
आंदोलंकारी महिलाओं का मानना है कि जब तक बलात्कार की संस्कृति और उसका पोषण करने वालों पर चोट नहीं की जाती और पितृसत्तात्मक सोच से लोग बाहर नहीं निकल पाते, सर्विलांस बढ़ाने से कुछ हासिल नहीं होगा, बल्कि इससे औरतों की आज़ादी पर ही बंदिश लगेगी।
किसी भी हालत में ऐसे कदम अवांछित हैं। शायद कुछ अभिभावक इन कदमों को अच्छा समझें, पर सवाल तो यह है कि हमने जिस मेहनत और कठोर संघर्ष से अपने आप को चारदीवारियों से बाहर निकाला था और निर्भीक होकर कार्यशक्ति में हिस्सेदारी बढ़ाई थी, उसपर आज घड़ों पानी डाला जा रहा है।
कदम-कदम पर निगरानी नहीं की जा सकती, न ही सीसीटीवी कैमरा ऐसे वारदातों को रोक सकते हैं।
यदि महिला आयोग सचमुच स्वायत्त हों तो क्या वे औरतों के लिये आवाज़ नहीं उठा सकते? क्या वे तमाम जिलों के सेफ्टी आडिट नहीं करवा सकते? क्या वे असंगठित क्षेत्र की औरतों की शिकायतों को दर्ज़ करने के लिये हर ज़िले में डिप्टी एसपी रैंक की महिला अधिकारी की नियुक्ति नहीं करवा सकतीं?
क्या वे सुनिश्चित नहीं कर सकते कि हर कार्यस्थल, स्कूल-कालेज और स्पोर्ट्स संस्था में यौन उत्पीड़न विरोधी शिकायत समिति कार्य करे? तब निश्चित ही उन्हें संस्थान व सरकार के दबाव से मुक्त होना होगा। यह अब तक नहीं हुआ है।
आज सभी महिला ऐक्टिविस्ट महसूस कर रही हैं कि जब सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग बलात्कारियों को संरक्षण देंगे, जो उनके दल से जुड़े होंगे या उनका कोई स्वार्थ सिद्ध कराते होंगे, तो वे महिलाओं को सुरक्षा देने के नाम पर सिर्फ जुमलेबाज़ी ही कर सकते हैं।
पश्चिम बंगाल की बात करें तो पिछले 7 वर्षों में 30 लाख रोज़गार कम हुए हैं। राजनीति में लम्पट तत्वों का बोलबाला बढ़ा है, और हिंसा संस्थागत रूप में ऊपर से नीचे तक दिखाई पड़ती है।
गुरुदेव रविंद्रनाथ ठाकुर और सत्यजीत राय और महाश्वेता देवी की भूमि क्यों ऐसी हुई, इसे समझना होगा। महिलाओं और एलजीबीटीक्यू पर होने वाली यौन हिंसा को रोकने के लिये सबसे पहले मज़बूत राजनीतिक इच्छाशक्ति की ज़रूरत है।
बृजभूषण शरण सिंह ही नहीं, बहुत सारे सांसद और विधायक महिलाओं पर हिंसा के मामलों में फंसे हैं।
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफ़ार्म्स और नेशनल इलेक्शन वॉच की रिपोर्ट बताती है कि 21 सांसदों और 113 विधायकों पर महिलाओं पर अत्याचार के मामले दर्ज़ हैं। और भी कितने होंगे, जिनपर केस नहीं दर्ज़ हो पाये हैं। ये लोग कैसे नये कानून बना सकते हैं? आखिर ये कौन हैं कानून की रक्षा करने वाले?
यदि चुनाव में औरतों का वोट न लेना होता, तो न जाने और भी क्या कुछ होता; आज तक सीबीआई के किसी जांच से नतीजे समय से मिले हैं? हम याद करें कि रोंगटे खड़े कर देने वाले निठारी कांड में सीबीआई 2006 से लेकर अब तक साक्ष्य नहीं जुटा पायी है, और अब तक सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई जारी है। दोनों आरोपी बरी हो गये हैं।
ग्रामीण इलाकों की सच्चाई
आज एक डॉक्टर बेटी के साथ वीभत्स किस्म की दरिंदगी हुई तो देश भर में आवाज़ उठी है, यह अत्यंत सराहनीय है। पर इतने से ही काम नहीं चलेगा। हमें सोचना होगा कि जब दूर-दराज़ के किसी इलाके में, किसी गांव में शौच के लिये जा रही किसी बेटी पर यौन हिंसा होती है, तो देश भर में व्यापक गोलबंदी क्यों नहीं हो पाती?
उनकी तो प्राथमिकी तक नहीं लिखी जाती, लिखी जाती भी है तो घर वालों को धमकाकर चुप करा दिया जाता है, या मार डाला जाता है।
कोलकाता की मेरूना मुर्मू कहती हैं, “इस घटना के बाद ही दो आदिवासी बच्चियों के साथ बलात्कार हुए, पर मीडिया ने उनके बारे में कुछ नहीं लिखा। उनके मामले को भी जोड़ा जाना चाहिये।”
दूसरी ओर इलाहाबाद की सीपीएम नेत्री गायत्री गांगुली ने कहा, “ग्रामीण अंचलों में रोज़ ही सामूहिक दुष्कर्म होते हैं, जब गरीब, दलित, आदिवासी बेटियां शौच के लिये या पानी लाने बाहर जाती हैं।”
इन मामलों को घर में ही दबा दिया जाता है, कि ‘बाबू साहब’ और ‘पंडितजी’ लोग नाराज़ हो जायेंगे; जीना दूभर हो जायेगा। थाने पर रपट भी नहीं लिखी जाती, जबतक आंदोलन न हो!
महिलायें न्याय से वंचित
मुझे याद आता है, 1991 में भंवरी देवी पर उच्च जाति के द्वारा की गयी हिंसा से लेकर, 2002 में मानसा के बंत सिंह का मामला, 2006 में खैरलांजी कांड, 2008 में गुजरात का पाटन सामूहिक बलात्कार कांड, जिसमें 6 प्रोफेसर अपराधी थे, 2011 का पीपली, ओडिशा सामूहिक बलात्कार काण्ड, 2020 में हाथरस कांड तक आंदोलनों से मैं जुड़ी रही।
हर बार हमारी रूह कांप जाती, फिर हम देखते कि उच्च जाति के दरिंदे अपने जातीय वर्चस्व को बनाये रखने और दलित-आदिवासी गरीबों को दमन के सहारे उनके हकों से वंचित करने के लिये पूरी व्यवस्था का इस्तेमाल करते हैं। पंचायतें और पुलिस महकमा भी दबंगों का साथ देती हैं।
गुजरात में बिल्किस बानो के साथ कुकर्म करने वाले, और उसके परिवार की हत्या करने वाले जब छूट जाते हैं, तब भी हमें लगता है मानो न्याय का खुद ही गला घोंटा जा रहा है। तो क्या हम वर्तमान न्याय व्यवस्था के सहारे बैठे रह सकते हैं, जो खुद भ्रष्टाचार और मुकदमों के बैकलाग से दबी हुई है?
कारण अनेक हैं
बलात्कार एक कारण से नहीं, अनेकों कारण से होते हैं- कहीं हवस मिटाने के लिये, कहीं अपनी ताकत दिखाने के लिये, कहीं पूरे समुदाय का मनोबल गिराने के लिये, कहीं बदला लेने के लिये- कि आखिर गरीब ने कैसे उन्हें चुनौती दे दी।
जिन इलाकों को ‘कान्फ्लिक्ट ज़ोन’ के रूप में चिन्हित कर दिया जाता है, वहां सैनिक व अर्धसैनिक बलों को छूट मिल जाती है कि वे तलाशी और पूछताछ के नाम पर लड़कियों और महिलाओं के साथ जघन्यतम अत्याचार करें।
और यही होता है नक्सल के नाम से जाने जाने वाले इलाकों में। सोनी सोरी को पुलिस ने कैसे हिंसा का शिकार बनाया था, क्या किसी से छिपा है? साम्प्रदायिक दंगों में हो, या फिर युद्ध के समय, औरत की देह युद्धभूमि बन जाती है।
राजनीतिक इच्छाशक्ति बनाम कुर्सी बचाओ
अब सवाल आता है राजनीति का। क्या कभी किसी राजनीतिक दल ने यह तय किया कि अपने यहां और अपनी सरकार के तहत यौन उत्पीड़न के लिये ‘ज़ीरो टॉलरेंस’ की नीति अपनायेगी? सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता रवींद्र गढ़िया कहते हैं, “आईसीसी का गठन तो चुनाव के जरिये होना चाहिये ताकि वह संस्थान के मुखिया पर भी कानून लागू हो”।
“पर सबसे ज़रूरी है कि कानूनी तौर पर हर संस्था के मुखिया/चीफ को जवाबदेह बनाया जाये। दूसरे, पुलिस आयुक्त को जवाबदेह बनाया जाये। और तीसरा, यू एस के कानून की तर्ज़ पर दरिंदों को तब तक जेल में रखा जाये जब तक यह साबित न हो जाये कि वे समाज के लिये खतरा नहीं हैं।”
रविंद्र कहते हैं कि “ऐसे दरिंदे अचानक नहीं पैदा होते- वे समय के साथ अपराध में ‘ग्रेजुएट’ करते हैं।” इसलिये सत्ता और समाज को ‘ज़ीरो टॉलरेंस’ का रुख रखना होगा। यही ममता जी से अपेक्षित था। पर उन्होंने राज्य की जनता को इतना निराश किया है कि केसरिया ब्रिगेड को पश्चिम बंगाल में घुसने का बेहतर मौका उन्होंने स्वयं दे दिया है।
सरकार की पिछ्लग्गू महिला आयोग भी चुप है। पर चिकित्सक और महिलाएं एक महीने से वार पाथ पर हैं। लड़ाई कई स्तरों पर और काफी लम्बे समय तक लड़नी होगी, और उसमें समाज के समस्त प्रगतिशील हिस्सों को शामिल होना होगा। औरतों की आज़ादी के लिये जंग जारी रहे।
( कुमुदिनी पति महिला अधिकार कार्यकर्ता हैं)