यतो धर्मस्ततो जयः पूजा करना ही नहीं चाहिए, करते हुए दिखना भी चाहिए

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इस समय जब हमारे चारो ओर ‘न्याय चाहिए-न्याय चाहिए’ की गुहार गूंज रही है। न्याय विचार की गूंज को बड़े ध्यान से सुनना चाहिए। भारत के सर्वोच्च न्यायालय का ध्येय वाक्य है, ‘यतो धर्मस्ततो जयः’। अर्थात जहाँ ‘धर्म’ है वहाँ ‘जय’ है। धर्म और जय को ठीक से समझना होगा। क्योंकि इस दुनिया की बहुत बड़ी आबादी की न्याय व्यवस्था के शिखर का यह ध्येय वाक्य और लोकतंत्र का आखिरी भरोसा है।

धर्म का अर्थ बहुत व्यापक है। धर्म के अर्थ में कर्तव्य, जीने और जीने देने की इच्छा, न्याय, परोपकार, गुण नेति-नेति, यहीं अंत नहीं है। क्योंकि तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना नैको ऋषिर्यस्य मतं प्रमाणम् । धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पन्थाः। तर्क नहीं, श्रुतियां भी नहीं, ऋषि भी नहीं है, धर्म का तत्त्व बहुत गूढ़ है; अतः जिससे महापुरुष जाते रहे हैं, वही मार्ग है। मुश्किल यह है कि ‘महा-पुरुषों’ की भी भरमार है! तो फिर! कस्मै देवाय हविषा विधेम! अपना कौन, पराया कौन? अयं बन्धुरयं नेति गणना लघुचेतसाम्, उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्। संकीर्ण चेतना के लोग अपने-पराये का भेद करते हैं। उदार चेतना के लोग अपने-पराये का हिसाब-किताब नहीं करते हैं। उदार चेतना संपन्न लोगों के लिए पूरी पृथ्वी परिवार है, अपना है।

धर्म कहां है! धर्म का मुख्य स्थान दक्षता है। ‘यतो धर्मस्ततो जयः’ तो फिर जहां दक्षता है, वहीं जय है! हमें आधा ही याद रहता है, ‘सत्यमेव जयते’, पूरा है ‘सत्यमेव जयते नानृतं’! मन में कुछ, वचन में कुछ और व्यवहार में कुछ तो जय नहीं है। मन यानी सामूहिक रूप से लोकमन, वचन यानी संविधान और कानून और व्यवहार का मतलब लोकमन और संविधान की पारस्परिक अनुकूलता का लागू होना।

सामान्य रूप से जय का अर्थ जीत समझा और माना जाता है, लेकिन जय का अर्थ जीत नहीं है। जीत नहीं तो क्या है? जय शब्द का अर्थ महाभारत नामक इतिहास ही है; ‘जयो नामेतिहासोऽयम्’ कुल मिलाकर यह कि सभी आर्ष-ग्रंथों की संयुक्त संज्ञा ‘जय’ है।

न्याय की चाहत में मारी-मारी यहां-वहां दौड़ लगाती ‘हिंदुस्तानी आबादी’ बुदबुदाती फिरती है, ‘न्याय चाहिए’ और ‘न्याय होना ही नहीं चाहिए, होते हुए दिखना भी चाहिए।’ न्याय-सिद्धांत और व्यवहार के संदर्भ में इस वाक्य-खंड को याद किया जाना हमेशा प्रासंगिक हो जाता है। यह वाक्य-खंड कहां से आया! क्या था वह मामला! असल में इंग्लैंड के तत्कालीन लॉर्ड चीफ जस्टिस लॉर्ड हेवर्ट (Lord Hewart) ने रेक्स बनाम ससेक्स के मामले में (1924) कहा था “यह केवल कुछ महत्व का नहीं है, बल्कि मौलिक महत्व का है कि न्याय न केवल किया जाना चाहिए, बल्कि प्रकट रूप से और निस्संदेह होता हुआ दिखना चाहिए।”

न्याय के किसी भी संदर्भ पर विचार करते समय नैतिकता की भावनाओं, ज्ञान स्रोत, कार्यान्वयन के साधन को भी ध्यान में रखना जरूरी होता है। नैतिकता का अनिवार्य गुणसूत्रात्मक संबंध न्याय की अवधारणा से होता है। इच्छा स्वातंत्र्य की स्थिति में ही नैतिकता का सवाल उठता है। जहां इच्छा स्वातंत्र्य नहीं, वहां नैतिकता नहीं। न्याय इस अर्थ में नैतिकता से भिन्न होता है कि वह इच्छा स्वातंत्र्य के खुले आकाश को संवैधानिक दरो-दीवार और विवेक का कोर-किनारा देता है। संवैधानिक दरो-दीवार और विवेक का कोर-किनारा छूटते ही इच्छा स्वातंत्र्य मनमानेपन की अनैतिकता में बदल जाता है।

मनमानेपन का आलम यह कि संस्कृति की राजनीति, भविष्य को इतिहास की तरह और इतिहास को भविष्य की तरह से बांचने लगती है। संस्कृति की राजनीति के पास वर्तमान का कोई भाष्य नहीं होता है। इसलिए संस्कृति की राजनीति वर्तमान की किसी भी पीड़ा को सुनने से परहेज करती है। संस्कृति की राजनीति की मनमानी समझ में वर्तमान वह बिंदु होता है जिस के दायें इतिहास और बायें भविष्य होता है। वर्तमान होता ही नहीं है। संस्कृति की राजनीति ‘दायें’ लपकती रहती है और ‘बायें’ झपटती रहती है। इतिहास और भविष्य काल के दो छोर होते हैं। संस्कृति की राजनीति के मनमानेपन की इंतहा यह कि काल-रेखा को काल-चक्र में बदल देती है। संस्कृति की राजनीति भाग्य-रेखा बांचने की ‘हिसाब-किताब की गलत कला’ से मनुष्य की कर्मठता के गले में भाग्य-चक्र का फंदा डाल देती है।

यहां धर्म और विज्ञान में काल की अवधारणाओं पर ध्यान देने से कुछ बातें साफ-साफ दिख सकती है। विज्ञान काल की गति को रैखिक मानता है। रेखाओं का आदि और अंत दोनों होता है। रैखिकता खुद को दोहराती नहीं हैं। इसलिए विज्ञान में पुराने से लगाव और नये का आकर्षण होता है। विज्ञान अपने को दोहराता नहीं है। धर्म काल की गति को चाक्रिक मानता है। चक्र का आदि होता है, न अंत होता है। धर्म काल को अनादि और अनंत मानता है। धर्म में नया कुछ नहीं होता है, बस दोहराव होता है। अधिकतर भारतीयों के मन का अधिकांश ‘धर्म’ के दखल में होता है। वह नयेपन के साथ नहीं मनमानेपन की काल्पनिकताओं के साथ जीने में भरमा रहता है।

सीधी रेखा पर चलनेवाला कार्तिकेय शक्ति की शर्त हार जाता है। शक्ति के चारो ओर वर्तुलाकर दिशा में गोल-गोल चक्कर लगानेवाला या चक्र बनानेवाला गणेश शक्ति की शर्त जीत जाता है। गणेश परिक्रमा का बहुत धार्मिक महत्व है; तीर्थ यात्री परिक्रमा की महिमा जानते हैं। यही महिमा धर्म-प्रधान देश के गणतंत्र को ‘पवित्र गणेशतंत्र’ में बदल देती है; कभी-कभी ‘अपवित्र गनतंत्र’ में भी। ‘चूहे’ की शक्ति के बल पर जनता ‘हाथी’ का बोझ उठाती है। जनता के जिस हिस्से का हाथ हाथी के जिस भाग को टटोल पाता है उसे लोकतंत्र के वैसे ही आकार-प्रकार का एहसास होता है। भगवान गणेश की तरह से शक्ति के चारो और गोल-गोल घूमते रहने में ही सफलता का रहस्य छिपा होता है। गोल-गोल चक्कर लगाने से सफलता के रास्ते के सारे विघ्न स्वतः समाप्त हो जाते हैं।

कहते हैं, धर्म-निष्ठ बाल गंगाधर तिलक ने देश के लोगों में एकता के लिए महाराष्ट्र में गणेश पूजा शुरू की थी। बाल गंगाधर तिलक का ‘कुनबी’ बच्चों और तथाकथित ‘निम्न जाति’ के लोगों की शिक्षा और रोजगार के बारे में क्या विचार थे? उन्हें आम जनता की एकता की जरूरत ब्रिटिश हुकूमत से देश की आजादी के लिए थी, सही बात। लेकिन ब्रिटिश हुकूमत से आजादी के बाद देश की बहुसंख्यक जनता के साथ कैसा व्यवहार किया जाना उन की धर्म-न्याय-निष्ठता को मंजूर था? इन कुछ सवालों के भी जवाब खोजे जाने चाहिए। बात न्याय की है तो यकीनन इन चंद सवालों के जवाब से भी साबित हो जायेगा कि सामाजिक और आर्थिक न्याय से किस विचारधारा के क्या संबंध होते हैं।

न्याय के होने के साथ-साथ न्याय के दिखने की बात की सैद्धांतिक स्वीकृति के साथ-साथ न्याय पर बहुसंख्यक के दबाव को भी आमंत्रण मिल गया। डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने संविधान के बारे में कहा था कि अच्छा-से-अच्छा संविधान भी गलत आदमी के हाथ में पड़कर अच्छा नहीं रह जाता है। कहने का आशय यह है कि गलत इरादे अच्छी-से-अच्छी सिद्धांतकी की हवा निकाल देती है। भारत के लोगों को इस का बहुत अनुभव है कि किस तरह से बहुसंख्यकों के दबाव का लाभ किस प्रकार से जनोत्तेजक दुर्जन नेताओं (Demagogue) ने भरपूर उठाया था। लोकलुभावन नारों के साथ लोकतंत्र की मूल भावनाओं को साथ खेल जाने और पटरी से उतार देने का काम भी बहुसंख्यकवाद का दबाव आसानी से कर लेता है। समझदार लोग मुंह ताकते या ‘अपनी जगह’ पर टापते-हिनहिनाते रह जाते हैं। समझदारों की खामोशी के साथ हिंसा और नफरत की दहाड़ का संबंध कितना साफ-साफ सामने आ जाता है!

सतर्क रहने का यह समय है। सतर्क रहने का अर्थ यदि सामने उपस्थित परिस्थिति के अनुसार अपने आचरण को बेहतर तरीके से निर्धारित करना है तो सतर्क रहना मनुष्य की ही नहीं, जीव-मात्र की मूल प्रवृत्ति है। प्राण-रक्षा जीव-मात्र की मौलिक इच्छा है। प्राण-रक्षा के लिए सतर्क रहना जरूरी होता है। तेज आंधी उठने पर वृक्ष के झुक जाने का संबंध वृक्ष के मौलिक सतर्क आचरण से जरूर होता होगा। मौलिक इच्छाओं, प्रवृत्तियों आदि का संबंध चेतन से अधिक अचेतन से होता है। इस अर्थ में मौलिक सतर्कता का संबंध अचेतन से होता है। सतर्क रहने के लिए विभिन्न तरह से तर्क करने या भिड़ाने की क्षमता सिर्फ मनुष्य में होती है। तर्क-वितर्क करने की क्षमता ने ही मनुष्य के ‘मनुष्य’ बनने की क्षमता का आधार दिया। यह बहुत आसान काम नहीं रहा है। क्योंकि तर्क-हीनता अंधत्व है लेकिन तर्क अप्रतिष्ठित रहती है और धर्म दक्षता के हाथों का लीला कमल!

गालिब ने यों ही नहीं कहा, ‘बस-कि दुश्वार है हर काम का आसां होना, आदमी को भी मुयस्सर नहीं इंसां होना।’ जीवन का अनुभव बताता है कि घने अंधेरे में यात्रियों की आंख पैर बन जाती है, घने अंधकार के यात्री आंख के बल पर यात्रा को जारी रखते हैं! जाहिर है कि तर्क-हीनता आदमी से इंसान बनने की यात्रा-पथ की सब से बड़ी बाधा होती है। तर्क में आदमी की शक्ति होती है, लेकिन शक्ति का अपना तर्क होता है।

शक्तिशालियों को शक्ति उन की ‘रूढ़ क्षमता’ से हासिल होती है। ‘रूढ़ क्षमता’ योग्यता में नहीं पद में निहित होती है। ‘रूढ़ क्षमता’ से संपन्न व्यक्ति यानी पदाधिकारी तर्क की कम ही सुनता है। कहना जरूरी है कि पदाधिकारी अपने पदाधिकार के मिथ्या तत्व की बनी तर्कपूर्णता की आक्रमकता से तर्क-आधारित वास्तविक समाधान का रास्ता रोक देता है। अंततः होता वही है जो ‘रूढ़ क्षमता’ से संपन्न व्यक्ति तय करता है, सारा-का-सारा तर्क-वितर्क ज्यों-का-त्यों धरा-का-धरा रह जाता है। कहने का आशय यह कि आदमी के इंसान बनने का रास्ता तर्क से तय होता है, लेकिन ‘रूढ़ क्षमता’ की तर्कपूर्ण आक्रमकता में अंतर्निहित तर्कहीनता आदमी को अंततः तर्कहीनता के दलदल में डाल देती है।

फिलहाल तो यह कि भारत के माननीय मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक साथ गणेश पूजा करते हुए देखे गये हैं। यह पूजा भारत के माननीय मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ के आवास पर आयोजित थी। भारत के प्रधानमंत्री भारत के माननीय मुख्य न्यायाधीश के आवास पर पहुंचे थे। जाहिर है कि प्रधानमंत्री माननीय मुख्य न्यायाधीश के यहां सादर, सविनय आमंत्रित थे या फिर किसी ईश्वरीय प्रेरणा से प्रकट हुए होंगे। मीडिया में सह-पूजन की दृश्यावली तैर रही है। यह कयासबाजी और नजबाजी (nudge) का जमाना है। इस पवित्र दृश्यावली पर भी तरह-तरह की कयासबाजी और नजबाजी हो रही है। कयासबाजी में आशंका यह है कि कहीं-न-कहीं कोई-न-कोई संकेत छिपा है, न्याय-पालिका और कार्य-पालिका के बीच समन्वय, समझौता, संवाद, समाधान का किसी अन्य अन्य प्रसंग का। सवाल पूजा को लेकर नहीं है। सवाल पूजा के माहौल और ईश्वर के साक्ष्य में संपन्न ‘शुद्ध संयुक्त संकल्प’ के सूत्रपात के शुभारंभ में छिपे सन्निपात को लेकर जरूर है।

मामला भारत के माननीय मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और भारत के प्रधानमंत्री की संयुक्त गरिमा से जुड़ा हुआ है। एक भारत की न्याय-पालिका के शिखर हैं और एक कार्य-पालिका के शिखर हैं। सरकार की तरफ से पैदा किये गये किसी आफत से राहत के लिए आम नागरिक न्याय-पालिका के पास पहुंचता है। आम नागरिक को न्याय-पालिका पर भरोसा है। आफत और राहत के साथ-साथ होने की इस तरह की पवित्र दृश्यावली से आम आदमी का भरोसा लाचारी में बदलने लगता है। भरोसा कम हो जाये तो छाया में भूत दिखता है। लॉर्ड हेवर्ट ने तो 1924 में जो कहा उस का आशय यह था कि ‘न्याय होना ही नहीं चाहिए, होते हुए दिखना भी चाहिए, सौ साल बाद 2024 में संस्कृति-संस्थापकों ने जो विश्वाधारम-गगन-सदृश्यम दृश्यावली सामने रखी है उस का संदेश है, ‘पूजा करना ही नहीं चाहिए, करते हुए दिखना भी चाहिए।’

‎‎‘शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत’ के अनुसार शक्ति के शीर्ष लोगों की अ-भिन्नता में भिन्नता की पर्याप्त गुंजाइश रहनी चाहिए। ‘शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत’ की जरूरत ‎‘शक्ति-संपन्नों के पृथक्करण’ से ही पूरी हो सकती है। एकता की जरूरत शक्ति के लिए होती है। शोषण से बचाव की शक्ति हासिल करने के लिए आम नागरिकों के बीच एकता की जरूरत होती है। शक्तिशाली लोगों में शोषण की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। तमाम संदेह और आशंका को झूठ साबित करते हुए, विघ्नहर्ता के सान्निध्य में शक्तियों का समन्वय भारत के लोगों के जीवन में के विघ्न को भी दूर करेगा ऐसी उम्मीद क्या कुछ अधिक और अतिरिक्त की अपेक्षा है? क्या पता! वक्त ही बता सकता है।

शक्तिशाली लोगों में ‘एकता’ हो जाने से आम नागरिकों की स्थिति का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। माननीय तो खुद ‘अधीश’ हैं! कोई कहे तो क्या कहे! बहुत मनोहारी है आफत और राहत के हिलमिल रहने की याद दिलानेवाला यह नदी-नाव संयोग। ‘न्याय योद्धा’ राहुल गांधी की न्याय परीक्षा के कई कठिन प्रश्न अभी लिफाफों में बंद हैं। अभी कई लिफाफों के खुलने का इंतजार करना ही मुनासिब है। अभी नदी-नाव संयोग का भी अर्थ खुलना बाकी है! ‘अच्छे दिन’ का इंतजार भी तो बाकी ही है! जी, अभी तो इंतजार-दर-इंतजार!

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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