जनसंख्या नियंत्रण के बेसुरे राग की हकीकत

किसी देश की बड़ी आबादी बेशक उसके लिए ताकत या वरदान मानी जाती है, लेकिन उस आबादी का अगर सदुपयोग न हो तो वह अभिशाप साबित होती है। इस समय तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या सिर्फ भारत के लिए ही नहीं बल्कि दुनिया के कई देशों के लिए चिंता का सबब बनी हुई है। क्योंकि जिस गति से जनसंख्या बढ़ रही है, उसके लिए जीवन की बुनियादी सुविधाएं और संसाधन जुटाना तथा उसके लिए रोजगार के अवसर पैदा करना सरकारों के लिए चुनौती साबित हो रहा है। भारत के संदर्भ में तो अलग-अलग माध्यमों से अक्सर इस आशय की रिपोर्ट आती रहती है, जिनमें बताया जाता है कि आबादी के मामले में भारत जल्द ही चीन को पीछे छोड़ कर दुनिया का सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश बन जाएगा। यह बात कुछ हद तक सही भी है, क्योंकि चीन की जनसंख्या भारत के मुकाबले काफी धीमी गति से बढ़ रही है, बावजूद इसके कि वहां 2016 में वन चाइल्ड पॉलिसी को बदलते हुए टू चाइल्ड पॉलिसी कर दिया गया और इसी साल वहां इसे थ्री चाइल्ड पॉलिसी कर दिया गया है।

भारत में बढ़ती जनसंख्या बेशक देश के वरदान साबित हो सकती थी, अगर सरकार इस बढ़ी हुई जनसंख्या के लिए भोजन, पेयजल, आवास, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाएं जुटाने तथा उस आबादी का देश के विकास में समुचित उपयोग करने में सक्षम होती। लेकिन हमारे यहां तो हालात इसके एकदम उलट बने हुए हैं। इसीलिए पिछले कुछ समय से देश में जनसंख्या नियंत्रण का मुद्दा अलग-अलग स्तर पर चर्चा का विषय बना हुआ है और इस संबंध में कानून बनाने की मांग भी हो रही है। हालांकि इस बारे में सुप्रीम कोर्ट में दाखिल एक जनहित याचिका पर अपना पक्ष रखते हुए पिछले दिनों केंद्र सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि वह देश के लोगों को परिवार नियोजन के तहत दो बच्चों की संख्या सीमित रखने के लिए मजबूर करने के पक्ष में नहीं है, क्योंकि इससे जनसंख्या के संदर्भ में विकृति उत्पन्न हो जाएगी।

केंद्र सरकार के इस स्पष्ट रूख के बावजूद केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी शासित उत्तर प्रदेश की सरकार जनसंख्या नियंत्रण संबंधी कुछ उपाय अपने सूबे में लागू करने जा रही है। गुजरात, असम, महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्य प्रदेश आदि राज्यों की सरकारें भी ऐसे कुछ उपाय पहले ही लागू कर चुकी हैं, जिनके तहत दो से ज्यादा बच्चे पैदा करने वाले लोगों को सरकारी सुविधाओं और सरकारी नौकरियों से वंचित करने तथा पंचायत से लेकर नगर पालिका, नगर निगम तक के चुनाव लड़ने पर रोक लगाने का प्रावधान किया गया है। इसी सिलसिले में भाजपा के तीन राज्यसभा सदस्यों सुब्रमण्यम स्वामी, हरनाथ सिंह यादव और अनिल अग्रवाल ने संसद के मानसून सत्र में निजी विधेयक भी पेश करने का एलान किया है। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि भारत में जनसंख्या नियंत्रण का मुद्दा सामाजिक है या राजनीतिक?

देश में बढ़ती जनसंख्या का मुद्दा कुछ समय पहले तब प्रमुख रूप से चर्चा में आया, जब दो साल पहले स्वतंत्रता दिवस के मौके पर लाल किले से देश को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जनसंख्या विस्फोट पर चिंता जताई थी। उन्होंने कहा था कि हमारे देश में जो बेतहाशा जनसंख्या विस्फोट हो रहा है, वह हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए कई तरह के संकट पैदा करेगा। यह संभवत: पहला मौका था जब देश के किसी प्रधानमंत्री ने लाल किले से अपने भाषण में बढ़ती जनसंख्या की समस्या पर चिंता जताई थी। उनकी इस चिंता का देश में व्यापक तौर पर स्वागत हुआ था लेकिन सवाल यह भी था कि क्या प्रधानमंत्री मोदी खुद अपनी इस चिंता को लेकर वाकई गंभीर हैं?
यह सवाल इसलिए उठा था, क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी ने अपने पिछले कार्यकाल में एक बार भी कभी बढ़ती जनसंख्या से जुड़ी चुनौतियों या चिंताओं का जिक्र नहीं किया था। बल्कि इसके ठीक उलट उन्होंने देश में और देश के बाहर भी कई बार डेमोग्राफ्रिक डिविडेंट यानी देश की विशाल युवा आबादी के फायदे गिनाए थे। सवाल यही था कि आखिर अब अचानक ऐसा क्या हो गया कि बढ़ती जनसंख्या राष्ट्रीय चिंता का विषय बन गई? यह सवाल अब भी बना हुआ है।

दरअसल मोदी सरकार को अपने पिछले कार्यकाल में तेज गति से आर्थिक विकास की उम्मीद थी। उसे लग रहा था आर्थिक विकास दर तेज होने से रोजगार के नए अवसर पैदा होंगे और बड़ी संख्या में युवा कामगारों की जरुरत होगी। लेकिन रोजगार के अपेक्षित अवसर न तो मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल में पैदा हुए और इस कार्यकाल में तो पैदा होने के कोई आसार दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहे। यही नहीं, देश की अर्थव्यवस्था मंदी और कोरोना महामारी की गिरफ्त में होने के चलते अब तो रोजगार शुदा लोग भी बेरोजगार हो रहे हैं। बेरोजगार नौजवानों की फौज सरकार को बोझ की तरह महसूस हो रही है। जिस विशाल जनसंख्या को प्रधानमंत्री कल तक डेमोग्राफिक डिविडेंट बता रहे थे, अब उसी जनसंख्या को उनकी सरकार के आर्थिक सलाहकार और नीति नियामक डेमोग्राफिक डिजास्टर बता रहे हैं। खुद प्रधानमंत्री देश में बढ़ती बेरोजगारी की स्थिति को स्वीकार नहीं कर रहे हैं, बल्कि अर्थव्यवस्था की बदहाली और बढ़ती बेरोजगारी पर चिंता जताने वालों को वे दलाल तक करार दे चुके हैं।

वैसे जनसंख्या विस्फोट की स्थिति को लेकर प्रधानमंत्री या अन्य किसी का भी चिंता जताना इसलिए बेमानी है, क्योंकि जनसंख्या वृद्धि के आंकड़े चीख-चीख कर बता रहे हैं कि हमारा देश जल्द ही जनसंख्या स्थिरता के करीब पहुंचने वाला है। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस) 2015-16 के मुताबिक देश का मौजूदा टोटल फर्टिलिटी रेट 2.3 से नीचे है। यानी देश के दंपति औसतन करीब 2.3 बच्चों को जन्म देते हैं। यह दर भी तेजी से कम हो रही है। जनसंख्या को स्थिर करने के लिए यह दर 2.1 होनी चाहिए और यह स्थिति कुछ ही वर्षों में खुद ब खुद आने वाली है। एनएफएचएस के मुताबिक देश में हिंदुओं का फर्टिलिटी रेट जो 2004-05 में 2.8 था वह अब 2.1 हो गया है। इसी तरह मुस्लिमों का फर्टिलिटी रेट 3.4 से गिरकर 2.6 हो गया है। 1.2 बच्चे प्रति दंपति के हिसाब से सबसे कम फर्टिलिटी रेट जैन समुदाय में है। वहां बच्चों और महिलाओं की शिक्षा सबसे ज्यादा है। इसके बाद सिख समुदाय में फर्टिलिटी रेट 1.6, बौद्ध समुदाय में 1.7 और ईसाई समुदाय में 2 है। भारत का औसत कुल फर्टिलिटी रेट 2.2 है, जो कि अभी भी हम दो हमारे दो के आंकड़े से ज्यादा है। लेकिन फिर भी अगर देखा जाए तो दो धार्मिक समुदायों (हिंदू और मुस्लिम) को छोड़कर बाकी समुदायों में बच्चों की संख्या तेजी से कम हो रही है।

भारत दुनिया में पहला देश है, जिसने सबसे पहले अपनी आजादी के चंद वर्षों बाद 1950-52 में ही परिवार नियोजन को लेकर राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम शुरु कर दिया था। हालांकि गरीबी और अशिक्षा के चलते शुरुआती दशकों में इसके क्रियान्वयन में जरूर कुछ दिक्कतें पेश आती रहीं और 1975-77 में आपातकाल के दौरान मूर्खतापूर्ण जोर-जबरदस्ती से लागू करने के चलते यह कार्यक्रम बदनाम भी हुआ लेकिन पिछले दो दशकों के दौरान लोगों में इस कार्यक्रम को लेकर जागरुकता बढ़ी है, जिससे स्थिति में काफी सुधार हुआ है।

लेकिन जनसंख्या को लेकर हमारे यहां कट्टरपंथी हिंदू संगठनों और साधु-साध्वियों के वेशधारी राजनीतिक ठगों की ओर से एक निहायत बेतुका प्रचार अभियान सुनियोजित तरीके से पिछले कई वर्षों से चलाया जा रहा है, जो कि हमारे जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रम के खिलाफ है। मनगढ़ंत आंकड़ों के जरिए वह प्रचार यह है कि जल्दी ही एक दिन ऐसा आएगा जब भारत में मुसलमान और ईसाई समुदाय अपनी आबादी को निर्बाध रूप से बढ़ाते हुए बहुसंख्यक हो जाएंगे और हिंदू अल्पमत में रह जाएंगे। अत: उस ‘भयानक’ दिन को आने से रोकने के लिए हिंदू को भी अधिक से अधिक बच्चे पैदा करने चाहिए। मजेदार बात यह है कि हिंदुओं से ज्यादा बच्चे पैदा करने की अपील करने वाले यही लोग जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाने की मांग करने में भी आगे रहते हैं। ऐसे ही लोग इस समय जनसंख्या नियंत्रण के लिए उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा लागू किए गए उपायों का भी तालियां पीट कर स्वागत कर रहे हैं।

एक दिलचस्प और उल्लेखनीय बात यह भी है कि मुसलमानों की कथित रूप से बढ़ती आबादी को लेकर चिंतित होने वाले ये ही हिंदू कट्टरपंथी इजराइल के यहूदियों का इस बात के लिए गुणगान करते नहीं थकते हैं कि संख्या में महज चंद लाख होते हुए भी उन्होंने अपने पुरुषार्थ के बल पर करोड़ों मुसलमानों पर न सिर्फ धाक जमा रखी है बल्कि कई लड़ाइयों में उन्हें करारी शिकस्त भी दी है और उनकी जमीन छीनकर अपने राज्य का विस्तार किया है। यहूदियों के इन आशिकों और हिंदू कट्टरता के प्रचारकों से पूछा जा सकता है कि अगर मुसलमान संख्या बल में यहूदियों से कई गुना भारी होते हुए भी उनसे शिकस्त खा जाते हैं तो फिर हिंदुओं को ही भारतीय मुसलमानों की भावी और काल्पनिक बहुसंख्या की चिंता में दुबला होने की क्या जरूरत है? या फिर वे क्या यह जताना चाहते हैं कि यहूदी हिंदुओं से ज्यादा काबिल हैं?

मुसलमानों और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों की कथित रूप से बढ़ती आबादी पर चिंतित होने वाले यह भूल जाते हैं कि आबादी बढ़ने या ज्यादा बच्चे पैदा होने का कारण कोई धर्म या विदेशी धन नहीं होता। इसका कारण होता है गरीबी और अशिक्षा। किसी भी अच्छे खाते-पीते और पढ़े-लिखे मुसलमान (अपवादों को छोडकर) के यहां ज्यादा बच्चे नहीं होते। बच्चे पैदा करने की मशीन तो गरीब और अशिक्षित हिंदू या मुसलमान ही होता है। कहने का मतलब यह कि जो समुदाय जितना ज्यादा गरीब और अशिक्षित होगा, उसकी आबादी भी उतनी ही ज्यादा होगी।

अफसोस की बात यह है कि समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र के आबादी संबंधी इन सामान्य नियमों को नफरत के सौदागर समझना चाहें तो भी नहीं समझ सकते, क्योंकि उनके इरादे तो कुछ और ही हैं। लेकिन जनसंख्या वृद्धि से संबंधित आंकड़ों और तथ्यों की रोशनी में यही कहा जा सकता है कि जनसंख्या विस्फोट पर सरकार के नीति नियामकों का और सत्तारूढ़ दल के सहयोगी संगठनों का चिंता जताना सिर्फ अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर सरकार की नाकामी से ध्यान हटाने का उपक्रम ही है, इससे ज्यादा कुछ नहीं।
(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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