स्पेशल रिपोर्ट: “यूथ को रोजगार चाहिये, सरकार धर्म दे रही है”

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एक बाइक सवार आदमी को दो लेबर चाहिये। रूम शिफ्टिंग के लिये। सारे लेबर उसे घेरकर खड़े हो जाते हैं। बेरोज़गारी की व्यवस्था में फिर शुरू होता है बार्गेनिंग का खेल। और एक स्थिति ऐसी आती है जब सारे लेबर आपस में ही लड़ने-झगड़ने और मार पीट पर उतर आते हैं। ये हालत कहीं और की नहीं साहिबाबाद विधानसभा के शनि बाज़ार स्थित लेबर चौक की है।

स्थानीय लोगों को काम नहीं देतीं कंपनियां

मजदूर इस समय हर तरह से मारा जा रहा है। पेट की आग है कि बुझने का नाम ही नहीं लेती और समय के साथ वह और बढ़ती ही जा रही है। और उसका फायदा उठाने के लिए हर कोई तैयार है। ऊपर से अगर कंपनियों द्वारा स्थानीय लोगों को मजदूरी पर न रखने का फरमान जारी हो जाए तो उससे पैदा होने वाली मुश्किलों का अंदाजा लगाना किसी के लिए मुश्किल नहीं है। मजदूर एक्टिविस्ट सुभाष शर्मा इसको और खोल कर रखते हैं, “दो महीने पहले चीन की हायर कंपनी ने दादरी में हब बनाया। मंत्री ने उद्घाटन करते समय कहा कि लोकल लोगों को काम मिलेगा। बाद में पता चला कि इतना ऑटोमैटिक है कंपनी कि बहुत कम लोगों की ज़रूरत है उसे। फिर कंपनी ने यह नीति बनाई कि 200 किमी के दायरे के अंदर के लोगों को कंपनी में नहीं लिया जायेगा। उसको लेकर विरोध हुआ। स्थानीय लोग धरने पर बैठे। काफी दिन चला। नोक-झोंक के बाद प्रशासन ने आश्वासन दिया। लेकिन कुछ नहीं हुआ”।  

यह किसी एक कंपनी का मामला नहीं है। मारुती कंपनी में घटी घटना के बाद उसने हरियाणा के लोगों को काम पर रखना बंद कर दिया। सारी कंपनियां अब यही नीति अपना रही हैं। कंपनी कारखाना खोल लेती हैं और स्थानीय लोगों को काम नहीं देती। बाहरी लोगों को काम देती हैं। इसको लेकर विरोध और नाराजगी है लोगों में।

सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था बड़ा मुद्दा

मुरादनगर निवासी अशोक कौशिक स्थानीय पत्रकार व हिंद आत्मा दैनिक अख़ाबर के संपादक हैं। वो बताते हैं कि “ग़ाज़ियाबाद जिले में दो सरकारी अस्पताल हैं, संयुक्त अस्पताल व जिला अस्पताल। ग़ाज़ियाबाद से विधायक अतुल गर्ग सूबे के स्वास्थ्य राज्य मंत्री होते हुये भी कुछ नहीं कर पाये। यहां अस्पतालों की स्थिति वही है जो 20 साल पहले थी। कोरोना काल में सरकारी अस्पतालों में बेड नहीं था। अच्छा ट्रीटमेंट नहीं था। लोगों को प्राइवेट अस्पतालों में जाना पड़ा। जिसको जान बचानी थी वो लोग गये। अपना सब बेंच कर लोग गये। कोरोनाकाल में प्राइवेट अस्पतालों ने जमकर चांदी काटी। इंजेक्शन और ऑक्सीजन के कालाबाजारी का रिकार्ड टूट गया”। वह कालाबाज़ारी और सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था को इस चुनाव में बड़ा मुद्दा मानते हैं।

अशोक कौशिक।

भूमि अधिग्रहण का विरोध और मुआवजे की मांग

पेशे से व्यापारी संजय कहते हैं कि मीडिया में जेवर विधानसभा में एयरपोर्ट की उपलब्धि का शोर है। लेकिन इसके लिये अधिग्रहीत की गई ज़मीनों के मुआवजे के लिये किसानों का आंदोलन और विरोध सिरे से ग़ायब है। किसानों ने नोएडा विकास प्राधिकरण के दफ़्तर के सामने धरना दिया था। मुआवज़ा बढ़ाने की मांग को लेकर लंबा विरोध चला। उनके समर्थन में राकेश टिकैट भी आये थे।  

पहले यमुना एक्सप्रेस वे और फिर जेवर में एयरपोर्ट के लिये काफी मात्रा में भूमि का अधिग्रहण किया गया। जिन किसानों की ज़मीनें अधिग्रहीत की गई हैं वो अधिक मुआवजे की मांग को लेकर काफी समय से आंदोलनरत हैं। और इसे लेकर सरकार के प्रति उनमें नाराज़गी है।

संजय का कहना है कि किसान आंदोलन का प्रभाव दोनों जिलों की किसान बाहुल्य विधान सभाओं पर पड़ेगा। किसान आंदोलन के दौरान भाकियू नेता राकेश टिकैत पर हमले करवाने में लोनी से भाजपा विधायक नंद किशोर गुर्जर और साहिबाबाद विधानसभा के विधायक सुनील शर्मा का नाम आया था। कहा जाता है कि दोनों भाजपा विधायक अपने गुंडों को लेकर किसान आंदोलन के विरोध में ग़ाज़ीपुर बॉर्डर पहुंचे थे। उस घटना को लेकर किसानों में भाजपा और इन दोनों विधायकों के ख़िलाफ़ नाराज़गी है।

रोज़गार चाहिये

रायबरेली छोड़कर काम की तलाश में 2017 में नोएडा आये पवन बताते हैं कि कोरोना काल में उनका कॉल सेंटर का काम छूट गया। साल भर बेरोज़गार रहने के बाद पिछले 5 महीने से वह होमियोपैथी दवा बनाने वाली कंपनी में काम कर रहे हैं। उनके भाई नोएडा गारमेंट्स लाइन में काम करते हैं। उनकी माता साथ में हैं। गांव में खेत-बाड़ी नहीं है। पवन इंजीनियर बनना चाहते थे। दाखिला भी लिया था लेकिन एक सेमेस्टर के बाद आर्थिक अभाव के चलते पढ़ाई छोड़नी पड़ी। लेकिन ऐसा नहीं कि उनका पढ़ने का सपना टूट गया हो। अभी वो काम के साथ-साथ इग्नू से बीएससी कर रहे हैं।

पवन।

पवन कहते हैं कि यूथ को रोजगार चाहिये। सरकार धर्म दे रही है। लेकिन युवा अब रोज़गार के मुद्दे पर वोट देगा। लेबर चौक में खड़े होकर खुद को बिकने के लिए छोड़ देते हैं। पुजारियों के लिये बजट में प्रावधान है। लेकिन मनरेगा मजदूरों के लिये सरकार ने कुछ नहीं किया।

हाउस टैक्स और पानी भी मुद्दा

कोरोना की तबाही याद कर लोग अभी भी सिहर जाते हैं। दिल्ली समेत एनसीआर के इलाके तो जैसे श्मशान बन गए थे। ग़ाज़ियाबाद विधानसभा निवासी संजीव माथुर बताते हैं कि उनकी जान पहचान में कम से कम 10 लोगों की कोरोना से मौत हुई है। मरने वालों में अधिकांश लोग अपने घरों के कमाऊ सदस्य थे। अगर उन्हें समय पर इलाज मिल जाता तो वह बच जाते। सरकार ने कोरोना से मरने वालों को मुआवज़ा देने की बात की थी। पर किसी को मुआवज़ा भी नहीं दिया। इससे कोरोना पीड़ितों में सरकार के प्रति रोष है।

उन्होंने कहा कि ग़ाज़ियाबाद में कोई सरकारी अस्पताल नहीं है। कोरोना के वक्त़ लोगों को बहुत तकलीफ़ उठानी पड़ी। दिल्ली ने यूपी के लोगों को लेने से मना कर दिया तब लोगों की परेशानी और बढ़ गई थी। उनका कहना था कि यहां हाउस टैक्स और पानी एक बड़ा मुद्दा है। लोगों की कमाई खत्म हो गई। लेकिन उन पर हाउस टैक्स का बोझ है। बिजली बिल का बोझ है। पानी की समस्या है। नये क़ानूनों के तहत लोग अब बोरिंग नहीं करवा सकते हैं। इससे भी लोग नाराज़ हैं। ग़ाज़ियाबाद से अधिकांश लोग नौकरी करने दिल्ली गुड़गांव जाते हैं। लेकिन कोरोना के बाद काम छूट गया है। स्थानीय स्तर पर भी बेरोज़गारी है।

काम छूटने का गुस्सा

पेशे से मजदूर विनोद राजभर का कहना है कि नोएडा व साहिबाबाद में 40 प्रतिशत स्थानीय लोग हैं। 60 प्रतिशत लोग बाहर के हैं जो काम की तलाश में आये हैं। जितने लोग गांव गये थे। उतने वापस आये नहीं। कम लोगों से ज़्यादा उत्पादन कराया जा रहा है। प्रेशर है। सरकार ने खुली छूट दे दी है। वहीं गार्मेंट सेक्टर का हाल खस्ता है। मांग कम होने पर बैठा दिया गया है। गार्मेंट कारखानों में बड़ी तादाद में महिलायें काम करती थीं। लॉकडाउन के बाद या तो वो गांव चली गईं या उनकी जगहों पर उनके पति काम करने लगे। तो मजदूर वर्ग में बहुत भय है। कहीं फिर से लॉकडाउन न हो जाये। कहीं काम न छूट जाये। इसको लेकर सरकार के खिलाफ़ जबर्दस्त गुस्सा है।

खोड़ा कॉलोनी में रहकर नोएडा की एक एक्सपोर्ट गारमेंट फैक्ट्री में काम करने वाले बिजेंदर मजदूरों के जीवन की पीड़ा सुनाते हैं। कोरोना के बाद प्रवासी मजदूरों के लिये स्थितियां बद से बदतर हो गयी हैं। और लोगों का जीना मुश्किल होता जा रहा है। कारखाने ठीक से चल नहीं रहे हैं। कई महीने के किराये इकट्ठे हो जाते हैं। वो आंबेडकर नगर जिले के अमोला बुजुर्ग गांव से काम की तलाश में 10 साल पहले आये थे। कहते हैं, “मैं फैक्ट्री में एंब्रायडरी का काम करता था। यहां से माल बनकर बाहर जाता था”।

एक्सपोर्ट क्षेत्र का खस्ताहालत देख बिजेंदर ने सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी के लिये एक जगह बात किया है लेकिन वहां से भी कोई सुकूनदायक जवाब नहीं मिला है। कहते हैं बीवी घरेलू महिला है। उसको तो कुछ कह नहीं सकते। महंगाई अपने चरम पर है। महंगाई का आलम ये है कि कमाने वाले तक परेशान हैं तो बिना कमाने वाले कैसे गुज़र कर रहे होंगे।

बिजेंदर के बेटे की पढ़ाई चौपट हो गई है। बताते हैं कि पहली बार लॉकडाउन लगा तब से बीवी-बच्चे गांव में ही हैं। बेटे का जब खोड़ा के ही साईराम स्कूल में एडमिशन कराया था, तब वो पांच साल का था। अभी सात साल का है। समझ में नहीं आ रहा क्या करूँ। ढाई साल से डिस्टर्बेंस ही तो चल रहा है। जब तक क्लास नहीं चलेगा ऐसे एडमिशन करवाकर क्या करें। फीस भरने की औकात नहीं है। गांव में जो स्टैंडर्ड स्कूल हैं उन्हीं में ऑनलाइन क्लास चल रहा है। वहां फीस बहुत ज़्यादा है। वो हमारी कूवत नहीं हैं। लोकल स्कूलों का कारोबार ठप्प पड़ा है। वैसे भी नेटवर्क गांव में आता नहीं है। तो ऑनलाइन क्लास होगा भी तो कैसे होगा।

बिजेंदर कहते हैं सरकार ने श्रम क़ानूनों को एक सिरे से खत्म कर दिया और श्रम संहिता लाकर हम मजदूरों को कंपनी मालिकों का ग़ुलाम बना दिया है। मजदूरों की तो कहीं कोई सुनवाई ही नहीं है।

खोड़ा में रह कर पढ़ाई करने वाली मोनिका कहती हैं कि दलित छात्रों के लिये यूनिवर्सिटी कॉलेज पहुंचना ही बड़ी बात है। लेकिन इस सरकार ने छात्रों को चुन-चुनकर निशाना बनाया है। हमें विश्वविद्यालयों में लगातार अपने अधिकारों के लिये संघर्ष करना पड़ रहा है। कहीं लाइब्रेरी बंद कर दे रहे हैं तो कहीं कोरोना के नाम पर होस्टल और यूनिवर्सिटी में तालाबंदी करवा दिये हैं। हमें अब लाइब्रेरी और होस्टल के लिये संघर्ष करना पड़ रहा है। इतना ही नहीं दलित आदिवासियों के लिये आवाज़ उठाने वाले लेखकों महाश्वेती देवी, कांचा अइलैय्या शेफर्ड को ही सिलेबस से हटा दिया जा रहा है।

साहिबाबाद के रहने वाले अवधेश मिश्रा आक्रोश सरकार पर कुछ यूं फूटता है, “सबसे ज्यादा मुश्किल बच्चों की पढ़ाई को लेकर हुई। दो साल कोई पढ़ाई नहीं हुई। लेकिन स्कूलों ने पूरी फीस वसूली। एक मुश्त फीस जमा करने के लिये कर्ज़ लेना पड़ा। पत्नी के गहने गिरवी रखने पड़े। टूर एंड ट्रेवेल्स का पूरा कारोबार चौपट हो गया। सरकार ने एक पैसे की मदद नहीं की। मजबूरी में सेल्समैन का काम करना पड़ रहा है”। किसे वोट कर रहे हैं। इस सवाल के जवाब में वो कहते हैं 2014, 2017 और 19 की गलती अब नहीं करुंगा।  

लोनी निवासी अलका देवी सिलाई का काम करती हैं। उनका घर सड़क से 6-7 फीट नीचे है। उन्होंने बताया कि लोनी में पानी की निकासी नहीं है। लगातार नींव और दीवारों के पास पानी लगा रहता है जिससे घर में सीलन बनी रहती है। इसके चलते घर की दीवारों और नींव में लगातार पानी लगा रहता है। सीलन के चलते अलका का घर गिर गया और उसके मलबे के नीचे उनके पति दब गए। अलका बताती हैं कि उनके पति की जान तो बच गई लेकिन अब वो कोई काम करने लायक नहीं रह गए हैं। तब से अलका सिलाई का काम करके घर का खर्चा चलाती हैं। बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं, लेकिन सरकारी स्कूल भी बहुत दूर है।

उन्हीं के पास रहने वाली धना देवी मजदूरी का काम करती हैं। वो बताती हैं कि लोनी की हालत पिछले 25 साल से ऐसे ही है। यहां पिछले 25 साल में कुछ नहीं बदला सिवाय महँगाई और बिल्डर माफियाओं के आने के। 15 लाख की आबादी वाली लोनी में सिर्फ एक डिस्पेंसरी है। और वो भी इतनी दूर है कि आने-जाने में ही 70-80 रुपए खर्च हो जाते हैं।

सोहबत अली जूस का ठेला लगाते हैं। वो बताते हैं कि हमारे इलाके में हमेशा गंदा और बदबूदार पानी भरा रहता है इससे कई तरह की बीमारियां फैलती हैं। पर सरकार इस पर ध्यान ही नहीं देती। उनका एक ही बेटा है वह भी गूंगा-बहरा है। उसका सर्टिफिकेट भी बनवाया है। पर सरकार की ओर से उसे कुछ नहीं मिला। उसका एडमिशन भी कहीं किसी सरकारी स्कूल में नहीं हो पाया है। प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने की हमारी औकात नहीं है।

औरतें पीने के पानी के मसले पर कहती हैं कि यहां पीने का पानी बहुत प्रदूषित है। सप्लाई का पानी आता है पर देर रात में। यहां टंकी का पानी नहीं आता। गंदे पानी के पास गड़े हैंडपंप में जो पानी आता है वह कपड़े धुलने के लायक भी नहीं होता है।

जीना हो गया मुश्किल

पसौंदा गाजियाबाद के उस्मान और फरीद दूर-दराज के गांवों-कस्बों में फेरी लगाकार इलेक्ट्रानिक सामान और कपड़े बेचने का काम किया करते थे। वो कहते हैं कि जब से बच्चा चोर और गौ-तस्कर कहकर मुसलमानों की हत्या होने लगी, उसके बाद से घर वालों ने ये काम करने ही नहीं दिया। एक डर के चलते वो तब से घर में बैठे हैं।

इमरान और नावेद चिकेन की दुकान लगाते हैं। वो बताते हैं कि पिछले चार-पांच सालों में दुकानदारी बहुत बुरी तरह प्रभावित हुई है। व्यापारी लोग परेशान हैं। मैंने पूछा क्या सब शाकाहारी हो गए हैं। तो वो बताते हैं कि नहीं लोगों के पास पैसे ही नहीं हैं, सब परेशान हैं। ये नोटबंदी और बेरोजगारी की देन है। नावेद कहते हैं हमें तो कभी किसी ने नहीं परेशान किया, पर इसी कारोबार में लगे तमाम लोग बताते हैं कि उन्हें परेशान किया गया और संरक्षण देने के बदले कई हिंदुत्ववादी संगठनों द्वारा उनसे उगाही तक की गई।

(जनचौक के विशेष संवाददाता सुशील मानव की रिपोर्ट।)

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