बांद्रा में जुटे मज़दूर।

प्रवासी-दिहाड़ी मज़दूरों के लिए गैस चैंबर बन गया है पूरा देश

पूरा देश गैस चैंबर में तब्दील हो गया है। कम से कम प्रवासी मज़दूरों और दिहाड़ी कामगारों के लिए तो यही स्थिति है। सुबह काम मिलने पर शाम को चूल्हे जलने वाले हिस्से को 40 दिनों तक बग़ैर किसी काम के अगर रखा गया है तो उनके खाने की क्या व्यवस्था होगी? क्या पीएम मोदी ने एक बार भी उस पर विचार किया। कल के 25 मिनट के भाषण में उन्होंने इस हिस्से को अपना विस्तारित परिवार बताया लेकिन सवाल बनता है कि क्या परिवार की तरह उनकी परवरिश का बंदोबस्त किया गया?

15 फ़ीसदी संगठित हिस्से को छोड़ दिया जाए तो बाक़ी पूरा देश इन्हीं स्थितियों में जीवनयापन करने को मजबूर है। लेकिन वह सरकार के किसी एजेंडे में नहीं है। जबकि इसी दिल्ली में जब उसके सब्र का बांध टूटा था तो उसका क्या हस्र हुआ उसको पूरा देश देखा। और एक बार फिर से जब लॉक डाउन बढ़ाने का फ़ैसला लिया जा रहा था तो मोदी जी को क्या उसके बारे में यह नहीं सोचना चाहिए था कि आखिर उन दिहाड़ी और प्रवासी मज़दूरों का क्या होगा? 

लेकिन नहीं, वह एजेंडे में ही नहीं है। उसका नतीजा मुंबई के बांद्रा में दिखा। सारी बाधाएँ तोड़कर प्रवासी मज़दूरों का रेला सड़कों पर बह निकला। वैसे बताया जा रहा है कि ऐसा एबीपी मांझा चैनल की उस ख़बर के चलते हुआ जिसमें उसने रेलवे के हवाले से कुछ गाड़ियों के चलाए जाने की सूचना दी थी। और उसी का नतीजा था कि पहले से ही पेट की आग और अनिश्चितता से जूझ रहे मज़दूर अपने घरों की ओर लौटने की उम्मीद में बांद्रा पहुँच गए।

सोशल-फिजिकल डिस्टेंसिंग के मानक तो टूटे ही ऊपर से पीठ पर पुलिस की लाठियाँ भी खानी पड़ीं। लेकिन भक्तों और उनके चैनलों को क्या वे तो कहीं भी मुसलमान एंगल ढूँढ लेते हैं। यहाँ भी बांद्रा मस्जिद के नज़दीक इकट्ठा होने की बात कहकर पूरे मामले को मुस्लिम समुदाय से जोड़ दिया गया। इस काम को किसी ऐरे-गैरे चैनल और पत्रकार ने नहीं बल्कि देश में पद्म भूषण से सम्मानित रजत शर्मा जैसे लोगों ने किया। 

यह संकट कितना गहराता जा रहा है इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कल सूरत में मज़दूर दोबारा अपने घरों को जाने की माँग को लेकर सड़कों पर उतर आए। इस समय प्रवासी मज़दूरों की रिहाइश वाले तक़रीबन हर शहर की यही तस्वीर है।

कई बार जब ख़ुद का दिमाग़ काम नहीं करता है तो लोग दूसरों की सलाह ले लिया करते हैं। प्रधानमंत्री जी विपक्ष की नेता और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने बाक़ायदा पत्र लिखकर इस सिलसिले में कुछ सुझाव दिए हैं जिनमें अनाज को 5 किलो से बढ़ाकर 10 किलो करने, मियाद को तीन महीने से बढ़ाकर छह महीने करने और इन सामानों के वितरण से पहले न तो राशन कार्ड देखने और न ही आधार कार्ड की ज़रूरत को आधार बनाने का सुझाव दिया है। सरकार अगर इसी पर अमल कर लेती तो आज तस्वीर बिल्कुल दूसरी होती। देश में अनाज के भंडार भरे पड़े हैं। आख़िर किस दिन के लिए इन्हें जमा किया गया है? अगर ये वक़्त पर अपने नागरिकों के पेटों में लगी आग नहीं बुझा सकेंगे।

लेकिन देश की सत्ता के केंद्र में बैठे शख़्स को इन सब चीजों का कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है। जिसने इस देश में गैस चैंबर बनाने का सपना देख रखा हो। उसके लिए तो यह सब कुछ उसके सपनों के ज़मीन पर उतरने सरीखा है। किसी की ज़ेहन में यह ख़्याल आ ही सकता है कि क्या इससे उसकी कुर्सी के जाने का ख़तरा नहीं है? बिल्कुल। लेकिन मोदी जी को एजेंडा बदलने की अपनी क़ाबिलियत पर पूरा भरोसा है। उन्हें इसकी तरकीब आती है कि चुनाव के समय भूख और कोरोना को ज़मींदोज़ कर उनकी कब्र पर कैसे हिंदू-मुस्लिम एजेंडा खड़ा किया जा सकता है। इसीलिए वह पूरी तरह से निश्चिंत हैं।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जब पूरी दुनिया इस धर्मविहीन, रंगविहीन, गंधविहीन, क्षेत्र विहीन तथा जाति और नस्ल विहीन विषाणु से लड़ रही है तो भारत में संघ और बीजेपी समर्थकों ने उसे एक धार्मिक पहचान देने के लिए एड़ी-चोटी की ताक़त झोंक दी। नतीजा यह है कि किसी भी शख़्स की बीमारी जानने से पहले लोग उसका धर्म जानना चाहते हैं। और इस तरह से नाकामी के बोझ को अपने कंधे से उतार कर उसे एक विशेष समुदाय के सिर पर डाल देने की पूरी कोशिश की गयी। सरकार उसके लोग अगर इसमें सफल रहे तो विश्व गुरू और नाकाम रहे तो सारा गुड़गोबर करने का ठीकरा अल्पसंख्यकों के मत्थे।

मौजूदा परिस्थिति देखकर बंगाल के अकाल की याद आ जाती है। जिसके बारे में कहा जाता है कि वह किसी प्राकृतिक आपदा का नतीजा नहीं था। बल्कि अंग्रेजों ने उसे अनाज का संकट पैदा करके कृत्रिम रूप से पैदा किया था। क्योंकि भंडारे में अनाज होने के बावजूद उसकी सप्लाई नहीं की गयी थी। अनायास नहीं बीजेपी और संघ को गोरों से प्यार है। कुछ गुण और धर्म मिलते रहें होंगे तभी तो ऐसा कुछ हो सका।

दिलचस्प बात यह है कि उच्च वर्गों या फिर बहु संख्यक समुदाय से जुड़े धर्म पीठों या फिर विशेषाधिकार प्राप्त क्षेत्रों से जुड़े लोगों को हर तरह का विशेषाधिकार हासिल है। हरिद्वार में फँसे 1800 गुजरातियों को बसों का विशेष प्रबंधन कर इस तरह से उनके घरों को पहुँचाया गया कि किसी को कानों-कान ख़बर नहीं हुई और अब इसी तरह का मामला सहारनपुर स्थित राधास्वामी सत्संग का आया है यहाँ के 800 श्रद्धालुओं को उनके घरों तक छोड़ने की व्यवस्था की गयी है। बाक़ी के लिए वह दिहाड़ी मज़दूर हों या कि दूसरा कोई फँसा समुदाय सबको गैस चैंबर में मरने के लिए छोड़ दिया जाएगा और अगर उनकी तरफ़ से कुछ बवाल किया गया तो उन्हें मुसलमान घोषित ठिकाने लगा दिया जाएगा। 

और अब तो गुजरात मॉडल ने इस दिशा में एक और नई ऊँचाई हासिल कर ली है। बताया जा रहा है कि वहाँ के अस्पतालों के वार्डों को भी अब हिदू-मुस्लिम में बाँट दिया गया है। उन्हीं के हिसाब से उनकी भर्तियां ली जा रही हैं। वह दिन दूर नहीं जब दूसरी जगहों पर भी इसका इस्तेमाल होना न शुरू हो जाए।

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