रूस और जर्मनी के बीच अनाक्रमण संधि का सच

यूक्रेन-रूस संघर्ष के साथ ही दुनिया मानो एक बार फिर से प्रथम विश्व युद्ध के पहले की परिस्थितियों में लौट आई है प्रथम विश्व युद्ध में भी चिंगारी का काम एक छोटे से देश सर्बिया की वजह से हुआ, जब ऑस्ट्रिया-हंगरी के प्रिंस और उनकी पत्नी ने अपने अधीन राज्य का दौरा किया था, तब एक 18 साल के युवा के हाथों उनकी हत्या कर दी गई थी

लेकिन यह तो सिर्फ एक चिंगारी थी इसके पीछे की पूर्वपीठिका कई वर्षों से तैयार हो रही थी विश्व में औद्योगिक क्रांति के अलंबरदार ग्रेट ब्रिटेन ने दुनिया के अधिकांश भूभाग पर अपना साम्राज्य स्थापित किया हुआ था उसके बाद फ़्रांस, पुर्तगाली, डच, स्पेनिश और इटली के साम्राज्य ने अपनी जकड़ बनाये हुए थी जर्मनी इस दौड़ में पिछड़ गया था, लेकिन उसके पास पश्चिमी यूरोप का सबसे बड़ा भूभाग था 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जर्मनी में पूंजीवाद के विकास के साथ उसने भी जोर पकड़ा और तीव्र गति से अपना औद्योगिक विकास किया जर्मनी के एकीकरण के बाद उसकी भी साम्राज्यवाद की लिप्सा हिलोरे मारने लगी थी ग्रेट ब्रिटेन ने इस बीच अपने साम्राज्यवाद को महफूज रखने के लिए समुद्री नौसेना को मजबूत करने का अभियान लिया कहा जाता है कि नौसेना के लिए ब्रिटेन ने बजट आवंटन को थल और नभ सेना के खर्च के बराबर कर दिया था जर्मनी इसे देख रहा था, और उसने भी अपनी नौसेना को बड़े पैमाने पर सुसज्जित किया

बहरहाल हम सभी जानते हैं कि प्रथम विश्व युद्ध (1914-18) का नतीजा दुनिया में भयानक रक्तपात के साथ खत्म हुआ इसमें फ़्रांस, ब्रिटेन, रूस और अमेरिका मित्र देश थे और जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी और इटली का अपना समूह था इस युद्ध में जर्मनी और फ़्रांस को भारी नुकसान हुआ, और फ़्रांस को अपनी पिछली हार का बदला चुकाना था फ़्रांस में दोनों पक्षों के बीच वेर्साइल संधि हुई, जिसमें जर्मनी और उसकी जनता के ऊपर भारी जुर्माना और आहत करने वाली शर्तें थोपी गईं जर्मनी के शासकों और जनता के लिए उस समय अपमान का घूंट पीने के सिवाय कोई चारा नहीं था, क्योंकि शर्तें नहीं मानने पर मित्र देशों ने जर्मनी को पूर्ण रूप से पराभव की स्थिति में ले जाना था 

लेकिन प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ही रूस में जारशाही का अंत भी हो चुका था अक्टूबर की बोल्शेविक क्रांति ने दुनिया में पहले समाजवादी देश के सपने को साकार कर दिखाया था इसके जन्म के साथ ही इसके खात्मे के लिए साम्राज्यवादी देशों ने सामूहिक रूप से प्रतिक्रांति के लिए अपने संसाधन खोल दिए इसी का नतीजा था कि एक बेहद पिछड़े देश में मजदूर किसान के राज को अमल में लाने के साथ ही लेनिन और उनके सहयोगियों को घरेलू और बाहरी मोर्चे पर भारी कठिनाइयों का एक साथ सामना करना पड़ रहा था लेनिन को जल्द ही अपने कदम पीछे खींचने पड़े थे और तात्कालिक समाधान के तौर पर एनईपी (नव आर्थिक नीति) को लागू करना पड़ा, जिसमें सामूहिक खेती की जगह पर व्यक्तिगत खेती और उद्योग धंधों को मान्यता दी गई

लेकिन क्या युद्ध में हार-जीत के साथ ही सारे फैसले तय हो जाते हैं? प्रथम विश्व युद्ध से पराजित और बुरी तरह से आहत जर्मनी में जर्मन राष्ट्रवाद की भावनाएं फिर से सर उठा रही थीं अमेरिका अपनी आर्थिक स्थिति को लगातार मजबूत करता जा रहा था दुनियाभर में साम्राज्यवाद के अधीन रह रहे तीसरी दुनिया के देशों में आजादी की चाहत बढ़ती जा रही थी सभी साम्राज्यवादी देश इस बात से भलीभांति परिचित थे कि यह शांति जल्द ही भंग होने वाली है लेकिन उनके लिए अब दुनिया के आपसी बन्दरबांट से भी बड़ा खतरा पूर्वी एशिया में सोवियत रूस के रूप में था यानि, खुद आपस में निपटने के साथ-साथ ही अब उनके लिए सोवियत रूस नामक भूत से निपटना सबसे पहली जरूरत थी, क्योंकि यह पश्चिमी यूरोप सहित समूचे विश्व के वंचित वर्गों के लिए एक आदर्श बनता जा रहा था, और अपने विस्तार की तो छोड़िये खुद के अस्तित्व के ऊपर संकट बनता जा रहा था

अनाक्रमण संधि पर हस्ताक्षर करते रूस के तत्कालीन विदेश मंत्री माल्तोव। साथ में पीछे खड़े हैं ब्रिटेन के विदेशमंत्री रिब्बनट्रॉप और स्टालिन।

लेनिन ने अपनी पुस्तक “साम्राज्यवाद: पूंजीवाद का सर्वोच्च स्वरूप” में इसे पूंजीवाद का ही आधुनिकतम स्वरुप के रूप में निरुपित किया है इन सभी स्थितियों को देखते हुए और अमेरिका के सबसे प्रभावशाली पूंजीवादी देश के रूप में विकसित हो जाने के बाद दुनिया को पुराने ढर्रे पर चला पाना उत्तरोत्तर संभव नहीं रह गया था

जर्मनी में हिटलर के नाजीवादी शासन ने 32 में शासन में आने के साथ ही जर्मनी के जख्मों को फिर से ताजा करने, जर्मनी के विस्तार और नस्लीय आधार पर जर्मन राष्ट्रवाद का नारा बुलंद करते हुए तेजी से वरसाइल संधि को कूड़े में फेंकते हुए खुद को सुसज्जित करना शुरू किया यहूदियों के नरसंहार के बारे में कौन नहीं जानता यहूदी और कम्युनिस्ट नाजीवाद के सबसे बड़े दुश्मन थे बोल्शेविक क्रांति में भी उसका मानना था कि यह सब यहूदियों की करतूत है और सोवियत रूस में शीर्ष पर यहूदियों का कब्जा है

लेनिन की मृत्यु के बाद स्टालिन ने नई आर्थिक नीति को कुछ साल चलाया लेकिन 1928 में सोवियत रूस में नियोजित विकास की पहल शुरू हुई इस बार राज्य नियंत्रित आर्थिक विकास की रुपरेखा बनाई गई थी इसके पीछे भी कहा जाता है कि सोवियत रूस के शीर्षस्थ नेताओं का आकलन था कि आगामी वर्षों में एक बार फिर से बड़े युद्ध का खतरा है दुनिया में जब तक विभिन्न देशों में सर्वहारा क्रांति नहीं होती, तब तक एकमात्र समाजवादी देश को बरकरार रखने के लिए सोवियत रूस को बड़ी तेजी से खुद को औद्योगिक देशों की अग्रिम कतार में लाना होगा

इसके लिए कृषि के सामूहिकीकरण से लेकर आबादी के बड़े हिस्से को औद्योगिक उत्पादन के क्षेत्र में स्थानापन्न करना होगा यह वह समय था जब पूंजीवादी देश अब तक के सबसे बड़े आर्थिक संकट (ग्रेट डिप्रेशन) की चपेट में आने वाले थे समूचे विश्व में भयानक आर्थिक मंदी का दौर था, उत्पादन निगेटिव में था और बड़ी संख्या में बेरोजगारी और कंगाली फ़ैल रही थी लेकिन उसी दौर में रूस में प्रथम पंच वर्षीय योजना को लागू किया गया 1928 से 1938 के बीच में सोवियत रूस में जो कायापलट हुआ है, वह अपने आप में दुनिया में अजूबा है एक पिछड़ा देश अचानक से औद्योगिक दृष्टि से दुनिया के अग्रणी देशों की पांत में शामिल हो गया था कृषि में सामूहिकीकरण के साथ ही वहां पर भी आधुनिक मशीनों और औजारों का सहारा लिया जाने लगा था

इस दौरान कुछ ज्यादतियां भी अवश्य हुईं, जिसे निश्चित रूप से यदि असाधारण परिस्थिति नहीं होती तो उससे बचा जा सकता था निश्चित रूप से किसी भी बदलाव को सफलतापूर्वक संपन्न करने के लिए उसमें शामिल होने वाले लोगों को भागीदार बनाकर करना अधिक समीचीन होता है लेकिन यह भी सही है कि जमींदारों से उनके द्वारा कब्जाई जमीन और पूंजीपति से उसके द्वारा लूट कर अर्जित की गई पूंजी को यदि सरकार राष्ट्रीय संपत्ति घोषित करेगी तो ऐसा करने पर वे कोई विरोध भी न करें यह संभव नहीं है कई बार उसे जबरन भी अधिग्रहण करना पड़ सकता है लेकिन इसे लागू करने के लिए बेहद सतर्कता और मनमाने पूर्ण ढंग से हर्गिज नहीं किया जा सकता है स्टालिन के ऊपर पर्जिंग और गुलाग व्यवस्था में लाखों रूसियों को बंदी बनाने के आरोप हैं, जिनके बारे में निश्चित रूप से कुछ सच्चाई है लेकिन उससे कई सौ गुना साम्राज्यवादी दुष्प्रचार है वह कुछ ऐसा है कि भारत में रहने वाले 100 करोड़ से भी अधिक बेहद गरीब और वंचित समुदाय को भी लग सकता है कि कम्युनिस्ट शासन आने पर उनका सब कुछ लुट जायेगा

बहरहाल, यहाँ पर हम बात कर रहे हैं सोवियत रूस और जर्मनी के संधिपत्र पर समझौते को लेकर इस मुद्दे को पश्चिमी जगत ने इतना स्पिन दिया है कि अब तक जो लोग यह मानते थे कि नाजी जर्मनी को जिस लाल सेना ने पूरी तरह से धराशाई कर दिया था, असल में उसने ही जर्मनी को दूसरे विश्व युद्ध के लिए उकसाया इतिहास को आजकल कई बार मिटाया जा रहा है, फिर से लिखा जा रहा है यह सारी दुनिया में हो रहा है, भारत में आप इसे होते साफ़-साफ देख रहे हैं  यह सही है कि 1939 में जर्मनी और सोवियत रूस में संधि हुई थी लेकिन यह संधि क्यों और किन वजहों से की गई, इसकी या तो व्याख्या में बेईमानी की जाती है या इसके सभी पहलुओं को नहीं पेश किया जाता है

हम इसी मुद्दे पर उपलब्ध जानकारियों को आपके साथ साझा करने का प्रयास करते हैं ब्रिटिश मार्क्सवादी बिल ब्लांड, जिन्होंने ब्रिटेन और न्यूजीलैंड की कम्युनिस्ट पार्टियों में रहकर अग्रणी भूमिका निभाई है ने इस बारे में फरवरी 1990 में एक लेख लिखा था, जिसमें उन्होंने सुबूतों के साथ इस बात को स्थापित किया है कि सोवियत रूस ने जर्मनी के साथ अनाक्रमण समझौता करने से पहले ब्रिटेन और फ़्रांस के साथ कई दौर की बातचीत की और उन्हें त्रिपक्षीय समझौते के लिए रजामंद करने की कोशिश की लेकिन ब्रिटेन और फ़्रांस की ओर से इस बारे में लगातार टालमटोल की नीति अपनाई गई, जिसके पीछे उनकी मंशा यह भी थी कि हिटलर का रुख पश्चिमी यूरोप के बजाय सोवियत रूस की ओर किया जाये इससे एक पंथ और दो काज सध जायेंगे

हिटलर की आत्मकथा मे कैम्पफ में हिटलर के शब्दों में “पश्चिमी और दक्षिणी यूरोप की जगह पूर्वी यूरोप की भूमि आकार ले रही है

इस समझौते से पूर्व मार्च 1939 में सीपीएसयू की 18 वीं कांग्रेस में स्टालिन ने कहा, “ इंगलैंड, फ़्रांस और अमेरिका की ओर से आक्रमणकारी को एक के बाद एक छूट दी जा रही है”

इस प्रकार हम दे रहे हैं कि गैर-आक्रमणकारी देशों की कीमत पर खुले तौर पर दुनिया का बंटवारा हो रहा है, इसका कोई प्रतिरोध नहीं किया जा रहा है, यहाँ तक कि इस सबमें एक आपसी समझदारी भी दिखती है

आखिरकार यह कैसे संभव है कि गैर-आक्रमणकारी देश इतनी आसानी से बिना कोई प्रतिरोध किये ही आक्रमणकारियों को उपकृत करने के लिए अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र को त्याग रहे हैं?

क्या इसके पीछे की वजह गैर-आक्रमणकारियों की कमजोर स्थिति है? हर्गिज नहीं गैर-आक्रमणकारी देशों, और लोकतांत्रिक देशों की यदि आर्थिक और सैन्य शक्ति का संयुक्त रूप से मूल्यांकन करें तो वे हर हाल में फासिस्ट शक्तियों से मजबूत स्थिति में हैं

इसकी मुख्य वजह यह है कि अनाक्रमणकारी देशों में ब्रिटेन और फ़्रांस ने आक्रमणकारी के खिलाफ सामूहिक सुरक्षा, सामूहिक प्रतिरोध की नीति को ख़ारिज कर दिया है,  और गैर-हस्तक्षेप की नीति को अपना रखा है…

यह गैर-हस्तक्षेप की नीति जर्मनी को सोवियत रूस के साथ उलझने में कोई बाधा नहीं बनने देने की ओर इशारा करती है

इसी बीच सोवियत संघ के साथ किसी भी प्रकार की बातचीत के बिना ही इंग्लैंड ने पोलैंड के साथ समझौते पर दस्तखत कर दिए, और किसी भी प्रकार के आक्रमण पर अपनी तरफ से साथ खड़े होने की गारंटी दे दी

हाउस ऑफ़ कॉमन्स में लिबरल पार्टी के नेता डेविड लायड जार्ज का वक्तव्य काबिलेगौर है: “मुझे यह बात समझ में नहीं आ रही है कि रूस को विश्वास में लिए बिना ही इस समझौते पर मुहर क्यों लगा दी गई? यदि पोलैंड नहीं चाहता है कि रूस इस सबके बीच में आये, यदि पोलैंड इस शर्त को स्वीकार नहीं करता है तो इसके लिए जिम्मेदारी उसकी होगी

इंग्लैंड-फ़्रांस की गारंटी ने जनता के दबाव को ध्यान में रखते हुए आक्रमणकारी को पुचकारने की अपनी नीति में बदलाव करते हुए सामूहिक सुरक्षा के प्रयास के लिए बाध्य किया 15 अप्रैल 1939 को ब्रिटिश सरकार ने सोवियत संघ के साथ संपर्क साधा और कहा कि उसे अपनी सीमा से सटे देशों की सुरक्षा के लिए सैन्य सहयोग की सार्वजनिक घोषणा करनी चाहिए

17 अप्रैल को सोवियत संघ ने अपने जवाब में इस प्रकार के किसी भी एकतरफा घोषणा से इंकार किया और बताया कि वह अन्य शक्तियों की तुलना में एकतरफा घोषणा कर असमानता की स्थिति के लिए तैयार नहीं है रूस ने प्रस्तावित किया:

सबसे पहले रूस, ब्रिटेन और फ़्रांस के बीच में आक्रमण के खिलाफ एक त्रिपक्षीय समझौता हो

दूसरा, इस गारंटी को बाल्टिक देशों (इस्टोनिया, फ़िनलैंड, लातिविया और लुथियानिया) के लिए विस्तारित किया जाये, क्योंकि इन देशों को गारंटी न देने का अर्थ है जर्मनी के लिए अपने पूर्वी यूरोप के और विस्तार को खुला न्यौता देना

तीसरा, यह संधि अस्पष्ट नहीं होनी चाहिए, बल्कि हस्ताक्षर करने वाले देशों के लिए इसमें स्पष्ट रूप से सैन्य सहायता किस रूप में दी जायेगी, स्पष्ट होना चाहिए

इस पर फ़्रांस और इंग्लैंड की सरकार की ओर से कहा गया कि फ़िनलैंड, एस्टोनिया और लातिविया की गारंटी नहीं दी जा सकती

यहाँ पर यह समझना बेहद महत्वपूर्ण है कि यूरोप के सभी प्रमुख राष्ट्र इस बात से पूरी तरह से वाकिफ थे कि युद्ध अपरिहार्य है ऐसे में जर्मनी, इंग्लैंड और सोवियत रूस की ओर से लगातार पुनर्संयोजन और अपनेआप को आवश्यक हथियारों और सैन्यीकरण से लामबंद करने की तैयारी हो रही थी

सोवियत संघ के विदेशी मामलों के प्रमुख मेक्सिम लितविनोव का उल्लेख यहाँ पर बेहद अहम है 1876 में यहूदी परिवार में जन्में लितविनोव की विदेशी मामलों में भूमिका (1930-39) तक बेहद महत्वपूर्ण रही वे विश्व निरस्त्रीकरण व सामूहिक सुरक्षा के सबसे बड़े पैरोकार बनकर उभरे थे द्वितीय विश्व युद्ध से पहले नाज़ी जर्मनी के खिलाफ पश्चिमी शक्तियों, विशेषकर इंग्लैंड और फ़्रांस के साथ सोविएत संघ का एक सामूहिक सुरक्षा समझौता हो जाए, के लिए उनकी ओर से अथक प्रयास किये गये उस दौरान ऐसा देखा गया कि स्टालिन की ओर से लितविनोव को विदेशी मामलों को देखने की पूर्ण स्वायत्तता मिली हुई थी, और स्टालिन का पूरा ध्यान सोवियत संघ के आंतरिक मसलों और औद्योगीकरण पर केंद्रित था

लीग ऑफ़ नेशन में सोवियत प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करने वाले लितविनोव ने राष्ट्र संघ के सामने सोवियत संघ की ओर से विश्व निरस्त्रीकरण की जोरदार पेशकश की थी और बड़े पैमाने पर विश्व में निरस्त्रीकरण के प्रस्ताव को रखा था सोवियत संघ की ओर से यह प्रयास विश्व निरस्त्रीकरण सम्मेलन (1927-30), जेनेवा में हुए विदेशी मामलों के प्रमुखों के सम्मेलन (1932), लंदन के विश्व आर्थिक सम्मेलन (1933) सहित सोवियत संघ एवं संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ राजनयिक संबंधों में सुधार में लितविनोव के नेतृत्व में (1934) जारी रहे

जब नाज़ी जर्मनी की ताकत एक आसन्न खतरा बनकर उभरने लगी थी, तो लितविनोव के द्वारा 1934 से लेकर 1938 के बीच में लीग ऑफ़ नेशन के सामने बारम्बार जर्मनी के खिलाफ सामूहिक प्रतिरोध की योजनाओं को तैयार किये जाने की अपील की गई जाहिर सी बात है सोवियत रूस की ओर से किये जा रहे इस पेशकश के पीछे एक ऐसा मजबूत ब्लॉक बनाने की थी जो आसानी से जर्मनी के आक्रमण को कुचलने में कामयाब हो सकता था, और इसके लिए ब्रिटेन, फ़्रांस और सोवियत संघ का मजबूत गठजोड़ आवश्यक था इसके लिए 2 मई 1935 में फ़्रांस के साथ और 16 मई 1935 में चेकोस्लोवाकिया के साथ जर्मन विरोधी संधि भी की गई लेकिन इतिहास के इस दौर की विवेचना करने पर हम पाते हैं कि फ़्रांस की ओर से हीला हवाली की गई और ब्रिटेन का मन्तव्य कभी भी इस दौरान स्पष्ट नहीं हो पाया

इससे पहले ब्रिटेन के प्रधानमंत्री चैम्बरलेन की म्यूनिख वार्ता और हिटलर के साथ 30 सितंबर 1938 को चेकोस्लोवाकिया के जर्मन मूल वाले इलाके को जर्मनी को हस्तगत करने को लेकर संधि पर हस्ताक्षर की घटना सबसे अहम है इसे चैम्बरलेन के द्वारा ऐतिहासिक बताया गया और विश्व युद्ध के खतरे को टालने वाला कदम बताया गया इस वार्ता में इससे प्रभावित चेकोस्लोवाकिया और सोवियत रूस की कोई हिस्सेदारी नहीं रही, और इस प्रकार ब्रिटेन, फ़्रांस और इटली ने अपनी ओर से जर्मनी के साथ मिलकर चेकोस्लोवाकिया के भाग्य का फैसला कर लिया इसे साफ तौर पर हिटलर को खुश करने वाली नीति समझा गया

इसके अलावा भी ऐसी बहुत सी घटनाएं हैं, जिन्हें ब्रिटेन और फ़्रांस जैसी प्रमुख साम्राज्यवादी शक्तियों के द्वारा हिटलर को खुश किये जाने के तौर पर देखा जा सकता है 20 अप्रैल 1939 को हिटलर का 50 वां जन्मदिन था इससे एक महीने पहले ही जर्मन सेना चेक गणराज्य को अपने कब्जे में लेने के लिए कूच कर चुकी थी, और ब्रिटिश प्रधानमंत्री नेविले चैम्बरलेन के साथ म्यूनिख समझौता रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया था इसके बावजूद ब्रिटेन की सरकार हिटलर को प्रसन्न रखने के लिए कोई कोर-कसर बाकी नहीं रख रही थी

ब्रिटिश मंत्रिमंडल ने फैसला लिया कि हिटलर के जन्मदिन के अवसर पर किंग जार्ज VI को उन्हें व्यक्तिगत तौर पर जन्मदिन की बधाई वाला टेलीग्राम भेजा जाना चाहिए द टाइम्स और डेली एक्सप्रेस के अनुसार इस भव्य समारोह में ब्रिटेन के राजदूत, जिन्हें प्राग पर हमले के बाद वापस बुला लिया गया था, को फिर से भेजा गया था, बल्कि उनके अलावा ब्रिटिश जनरल जे ऍफ़ सी फुलर भी खाकी टोपी के साथ उपस्थित थे इसके अलावा भी ऐसे कई दृष्टांत हैं, जिनसे सोवियत रूस के पास यह सोचने की कोई वजह नहीं थी कि असल में हिटलर का सबसे बड़ा हमला यदि किसी पर होना है तो वह फ़्रांस या ब्रिटेन नहीं बल्कि सोवियत रूस होने वाला है ऐसे एक नहीं अनेकों उदाहरण भरे पड़े हैं, जिनका अंत यूरोप में घोषित युद्ध के बाद जाकर खत्म हुआ

ये वे कुछ ऐसे कठिन हालात और प्रश्न थे जिनसे जूझने के लिए सोवियत रूस के पास कोई विकल्प नहीं था इस बीच सोवियत रूस में विदेशी मामलों के प्रमुख लिवित्नोव के स्थान पर व्यच्स्लेव मोलोतोव को नियुक्त कर दिया गया था ब्रिटेन-फ़्रांस-रूस के सुरक्षा समझौते पर फ़्रांस और ब्रिटेन के जवाब को मोलोतोव ने यह कहकर ख़ारिज कर दिया कि इस ड्राफ्ट में हमले की स्थिति में तत्काल मदद की जगह पर लीग ऑफ़ नेशन से सलाह मशविरे की बात कही गई है, जिसका कोई अर्थ नहीं है सोवियत संघ की ओर से 2 जून को इसके जवाबी ड्राफ्ट को भेजा गया, जिस पर ब्रिटेन और फ़्रांस ने फ़िनलैंड, एस्टोनिया और लातिविया की गारंटी से इंकार कर दिया था

सोवियत सरकार की ओर से इसके बाद भी प्रयास जारी रहे, और आखिरकार मोलोतोव ने 17 जुलाई को अपने बयान में कहा कि सैन्य संधि के बगैर राजनैतिक संधि का कोई अर्थ नहीं रह जाता है

आखिरकार 23 जुलाई को ब्रिटेन, फ़्रांस सैन्य संधि के लिए राजी हुए, और इसके लिए ब्रिटिश प्रतिनिधिमंडल की अगुआई के लिए एडमिरल रेगीनाल्ड प्लंकेट को भेजा गया, जिनके पास असल में संधि पर हस्ताक्षर करने का अधिकार नहीं था ऊपर से तुर्रा यह कि इस दल को हवाई जहाज के बजाय समुद्री रास्ते से लेनिनग्राद भेजा गया, जो आखिरकार ट्रेन पकड़कर 11 अगस्त को मास्को पहुंचा दस्तावेजों से पता चलता है कि इस प्रतिनिधिमंडल को धीमी गति से वार्ता चलाने के निर्देश दिए गए थे

आखिरकार सोवियत रूस ने जर्मनी के साथ अनाक्रमण संधि का फैसला लिया इस दौरान मोलोतोव, जर्मनी विदेश मामलों के प्रमुख रिब्बनट्रॉप के बीच में कई दौर के पत्राचार हुए जर्मन-सोवियत रूस के बीच अनाक्रमण संधि के मसौदे को तैयार किया गया और आखिरकार हिटलर ने 20 अगस्त को स्टालिन को व्यक्तिगत रूप से पत्र लिखकर मसौदे पर अपनी सहमति व्यक्त करते हुए 27 अगस्त तक रिब्बनट्रॉप के मास्को में पहुँचने की सूचना दी इस अनाक्रमण संधि से सोवियत संघ ने अपने लिए कुछ समय के लिए जरुरी तैयारी का समय ले लिया था लेकिन इस समझौते की यह कहकर भारी आलोचना की जाती है कि इसके साथ-साथ जर्मनी और सोवियत रूस के बीच में एक गुप्त समझौता हुआ था, जिसमें यूरोप में उनके अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र का भी बंटवारा किया गया था

 इसमें यह सहमति बनी थी कि यदि जर्मनी ने पोलैंड पर आक्रमण किया तो वह कर्जन लाइन का अतिक्रमण नहीं करेगा (प्रथम विश्व युद्ध के बाद ब्रिटिश विदेश मंत्री लार्ड कर्जन के द्वारा तय की गई सीमा) जो कि पॉलिश बहुल आबादी को यूक्रेनी और बेलारूसी समुदाय से विभाजित करता है ज्ञातव्य हो कि पोलैंड का यह पूर्वी भूभाग 1917 की क्रांति के दौरान रूस से छिन गया था

11 अगस्त 1939 को स्विस राजनयिक और इतिहासकार और लीग ऑफ़ नेशन के कमिश्नर, कार्ल जैकब बुखार्ड के समक्ष हिटलर ने सोवियत संघ के खिलाफ आक्रमण के इरादे यह कहकर उजागर किये थे, “मेरा हर कदम रूस के खिलाफ है अगर पश्चिम इतना ही मूर्ख है तो मुझे रूसियों के साथ समझौते में जाने के लिए मजबूर होना पड़ेगा पहले पश्चिम को हराना होगा और उसके बाद अपनी सारी शक्ति को सोवियत रूस के खिलाफ लगाना होगा मुझे हर हाल में यूक्रेन चाहिए, ताकि वे हमें भूखा न मार सकें, जैसा कि प्रथम विश्व युद्ध के दौरान हुआ था

द्वितीय विश्व युद्ध को खत्म हुए आज 77 वर्ष से अधिक का समय बीत चुका है इन बीतें सात दशकों में संयुक्त राज्य अमेरिका का बोलबाला पूरी तरह से छाया रहा है सोवियत संघ भी एक प्रमुख महाशक्ति बना रहा, और उसके पतन को भी अब 30 वर्ष हो चुके हैं आज दुनिया के अधिकांश गुलाम देश राजनैतिक रूप से आजाद हैं, लेकिन साम्राज्यवाद के नए नए रूपों के जरिये उनके शोषण के नए नए तरीकों को ईजाद कर लिया गया है इस बीच एशिया में चीन के बड़े आर्थिक शक्ति के रूप में उभरने और रूस पर पश्चिमी यूरोप के अधिकाधिक निर्भरता से भयभीत संयुक्त राज्य अमेरिका के द्वारा शीत युद्ध के दौरान बनाये गए नाटो गुट को रूस की सीमा तक जबरन पहुंचाने के विरोध में ठीक वैसी ही स्थिति बन गई है, जैसा कि हम प्रथम विश्व युद्ध की पूर्वपीठिका में पाते हैं कल यदि दुनिया का अस्तित्व रहा, तो भावी पीढ़ी के लिए यह प्रश्न सकते में डालने वाला रहेगा कि इतनी छोटी वजहों से पूरी दुनिया को खत्म करने वाले विश्व युद्ध आखिर क्यों हुए?

शायद वे समझ पाएं कि इनकी वजह ऑस्ट्रिया-हंगरी के प्रिंस की हत्या या यूक्रेन के नाटो में शामिल होने न होने का मसला नहीं बल्कि पूंजी के सरमायेदारों की भूख और आपसी खींचतान इसकी जिम्मेदार है, इसके संपूर्ण खात्मे और वैश्विक सर्वहारा के मातहत ही विश्व में स्थायी शांति, सुख, समृद्धि और जलवायु परिवर्तन से कारगर ढंग से निपटा जा सकता है 

(रविंद्र सिंह पटवाल लेखक और टिप्पणीकार हैं।)

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