तुम्हारा नव वर्ष, मेरा नव वर्ष और सबका नव वर्ष?

हर साल के दस्तूर के मुताबिक इस साल भी नए साल के मौके पर खुले दिल दिमाग के लोग आपस में एक दूसरे मुबारकबाद दे रहे थे। एक दूसरे के लिए ख़ुशी सेहत और कामयाबी के लिए दुआएं दे रहे थे। तो कुछ ‘अच्छे दिन’ के और एक धर्म संस्कृति के खास समर्थक व संरक्षक पूरा जोर लगाकर सिद्ध कर रहे हैं कि आज अच्छे दिनों की मंगल कामनाएं करना नहीं चाहिए, यह किसी भी तरह भारतीय नहीं है। यह विदेशी है, पाश्चात्य है, धर्म और संस्कृति के विरुद्ध है इससे समाज भ्रष्ट हो रहा है। और न जाने क्या क्या तर्क दे रहे हैं।

पिछले साल इन्हीं दिनों वैष्णव देवी मंदिर में नव वर्ष की रात में हुई भगदड़ से धर्म संस्कृति के रक्षकों को एक बहाना मिल गया था, और वो यह इस बात का प्रचार करने में लग गए थे कि देखो इस विदेशी परम्परा प्रचलन के कारण ही यह घटना घटी है। बहुत अच्छा हुआ कि इस बार ऐसी कोई बुरी ख़बर नहीं आई, लेकिन स्यापा बदस्तूर जारी है। इस बीच राष्ट्रकवि दिनकर के नाम पर एक झूठी कविता ज़रूर शेयर की जा रही है, जिसमें इस नए साल को नकारने की बात है। इस बीच ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो 1 जनवरी को नए साल का विरोध करने वाली धर्म संस्कृति को भी विदेशी मानते और प्रचार करते हैं।

दूसरी तरफ पक्के ईमान वाले पूरी ईमानदारी के साथ पिछले सालों की तरह हलफिया बयान दे रहे हैं कि 1 जनवरी को नया साल मनाना नाजायज़ और ईमान की कमज़ोरी है। और उनके मज़हब में इसकी कोई गुंजाइश नहीं है। यह बात और है उनके मज़हब में हर माह निकलने वाले ने चांद पर रहमत और सलामती की दुआएं मांगने की रवायत है।

इन परस्पर विरोधी विचारधाराओं के बीच यह बात छिप जाती है या भुला दी जाती है कि भारत जैसे बहुसंस्कृति वाले देश में पूर्व से लेकर और उत्तर से दक्षिण तक रहने वाले विभिन्न धर्मों, क्षेत्रों में रहने वाले लोग किस तरह और कौन सा नया साल मनाते हैं। अगर विश्लेषण किया जाए तो पता लगेगा कि हर क्षेत्र या संस्कृति में मनाए जाने वाले त्योहारों में कोई एक त्योहार या साल का कोई एक दिन भारत में सर्वमान्य नहीं है। नए साल मनाने का भी यही हाल है। हर क्षेत्र और संस्कृति के अलग अलग नए साल हैं, और किसी को किसी पर जबरदस्ती करने का या अपने आप को ऊंचा रखने के लिए दूसरे को नीचा दिखाने का ठेका नहीं मिल गया है।

धर्म संस्कृति के संरक्षकों से यह पूछा जना चाहिए कि चैत्र प्रतिपदा में तुम्हारा हिन्दू नववर्ष पूरे भारत का नववर्ष कैसे हो सकता है? चैत्र की प्रतिपदा को नववर्ष नहीं मानने वाले कैसे देश विरोधी हो सकते हैं? क्योंकि चैत्र ही नहीं बैसाख, कार्तिक और पौष के अलावा करीब करीब हर माह में अलग अलग क्षेत्रों में नववर्ष मनाने वाले भी इस देश के नागरिक हैं।

यह बहुधर्मी, बहुभाषी और बहुसंस्कृति वाला देश है यहां अपने विश्वास संस्कृति और रीति-रिवाजों को दूसरे पर लादना या जबरदस्ती मनवाने का मतलब आपस में जोड़ना नहीं दरार डालने वाला काम है। देश में पूर्व से लेकर पश्चिम तक और उत्तर से लेकर दक्षिण तक विभिन्न सांस्कृतिक रीति-रिवाजों को मानने वाले, भाषा है और बोली में बोलने वाले रहते हैं।

अनेक राज्य ऐसे भी हैं जिनके अलग अलग सांस्कृतिक क्षेत्रों में अलग अलग रीति-रिवाज और मान्यताएं हैं उसी के अनुरूप नव वर्ष के उत्सव/त्योहार भी हैं। उनके नववर्ष मनाने के तरीके और विश्वास भी अलग अलग हैं, और सभी को अपने अपने विश्वासों और रीति-रिवाजों से अपना-अपना नव वर्ष मनाने का हक़ है किसी को किसी पर अपना विश्वास लादने और अपने ही विश्वास को जबरदस्ती राष्ट्रीय मानने का कोई हक़ नहीं है।

क्योंकि चैत्र की प्रतिपदा को नववर्ष मनाने का जो तरीका उत्तर भारत के हिन्दू धर्म के लोगों का है वह दूसरे क्षेत्र में नहीं है। कुछ लोग चैत्र प्रतिपदा को ही हिन्दू नववर्ष कहकर दुराग्रह कर रहे हैं जबकि कभी कभी पंचांग/गणना में अन्तर के चैत्र की यह एक तिथि भी सभी स्थानों पर स्वीकार्य नहीं होती है। फिर आजकल चैत्र की प्रतिपदा को नववर्ष मनाने के साथ साथ नवमी पर रामनवमी को नववर्ष से भी अधिक भव्य मनाने का ट्रेंड चल गया है। जो इस दौर में बहुत आग्रही बना दिया गया है। इसको किस रूप में देखा जाए ?

फिर देश में और सभी हिन्दू या अन्य मत के लोग चैत्र से अलग अन्य माह में भी अपना नव‌ वर्ष मनाते हैं या वर्ष का आरंभ मानते हैं। पूरे देश में अलग अलग क्षेत्रों में रहने‌वाला मारवाड़ी समाज और वाणक कर्म करने वाला हिन्दू वैश्य दीवाली को नया साल मनाता है और अपने खाते बही बदलता है, हिन्दू कायस्थ भी दीवाली को नया वर्ष मनाते हैं।

देश के अलग अलग हिस्सों में नया साल/नव वर्ष अलग-अलग महीनों और तारीखों में स्थानीय सांस्कृतिक परम्परा, विश्वास, भौगोलिक परिस्थितियों और मौसमों तिथियों को मनाया जाता है। इस तरह नया साल जनवरी फरवरी मार्च अप्रैल मई जुलाई, अगस्त, सितम्बर से अक्टूबर नवम्बर दिसम्बर तक मनाया जाता है। पंजाब की बात करें तो वहां लोक परम्परा और फसल के कारण नया साल बैशाखी नाम से 13 अप्रैल को मनाया जाती है। जबकि सिख नानकशाही कैलंडर के अनुसार14 मार्च होला मोहल्ला पर नया साल होता है।

बंगाली कैलेंडर के अनुसार नववर्ष बैशाख का पहला दिन Pôhela Boishakh पोइला बोइशाख है (14/15 अप्रैल)। उस दिन बंगाली लोग अपने घरों को साफ करते हैं, स्नान कर नए कपड़े पहनकर पूजा पाठ करते हैं। इस दिन व्यापारी भी नया लेखा-बही की शुरुआत करते हैं। यह नया साल बंगाल के अलावा मणिपुर और त्रिपुरा में मनाया जाता है। बांग्ल देश में तो आधिकारिक रूप से नववर्ष के रूप में मनाया जाता है।

ओडिशा में उड़िया पंजी पंचांग के अनुसार 13 अप्रैल को उड़िया नववर्ष के प्रारंभ का पर्व ‘महा विशुभ संक्रांति के रूप में मनाया जाता है। पुत्ताण्डु जिसे पुथुरूषम या तमिल नववर्ष भी कहा जाता है, तमिल कैलेंडर पर वर्ष का पहला दिन है। तमिल तारीख को तमिल महीने चिधिराई के पहले दिन के रूप में, लन्नीसरोल हिंदू कैलेंडर के सौर चक्र के अनुसार मान्य किया गया है। इसलिए यह हर साल ग्रेगोरियन कैलेंडर के 14 अप्रैल या उसके आस पास ही मनाया जाता हैं।

यह भी विविधता की बात है कि तमिलनाडु में पोंगल 14/15 जनवरी के प्रसिद्ध त्योहार को भी नए साल के रूप में आधिकारिक तौर पर भी मनाया जाता है। तमिल में पोंगल का अर्थ है उफान। इसका दूसरा अर्थ नया साल भी है। ये त्योहार भी फसल और किसानों का त्योहार होता है. पोंगल का त्योहार 4 दिन का होता है।

विशु केरल का प्रसिद्ध उत्सव है। यह केरलवासियों के लिए नववर्ष का दिन है। यह 15 अप्रैल के आसपास मलयालम महीने ‘मेदम’ की पहली तिथि को मनाया जाता है। केरल में विशु उत्सव के दिन धान की बुआई का काम शुरू होता है। इस दिन को यहाँ “मलयाली न्यू ईयर विशु” के नाम से पुकारा जाता है।

सिंधी समुदाय का चेती चंद, चैत्र की द्वितीया को होता है। जो चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के एक दिन बाद है, अब ऐसा तो नहीं हो सकता कि आप यह चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को नववर्ष की शुभकामनाएं दें और यह कहें कि इसे अगले दिन चेटीचंद के लिए चला लें।

हां! महाराष्ट्रीयन और कोंकण वासियों का नववर्ष गुड़ी पड़वा संवत्सर के साथ चलता है। और चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को मनाया जाता है। फिर भी आप उसे चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के रूप में नववर्ष नहीं कह सकते आपको गुड़ी पड़वा की ही बधाई देनी पड़ेगी। इसी तरह दक्षिण के राज्यों में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को आप वहां की संस्कृति के अनुरूप मानेंगे जैसे उगादी को अलग अलग नामों से जाना जाता है।

गोवा और केरल में संवत्सर पड़वा या संवत्सर पड़वो के रूप में मनाया जाता है। कर्नाटक के कोंकणी लोग इसे युगादी कहते हैं। तेलंगाना और आंध्रप्रदेश में उगादी। महाराष्ट्र में गुड़ी-पड़वा, राजस्थान में थापना और मणिपुर में साजिबु नोंगमा पांबा या मेइतेई चेइराओबा कहा जाता है। कभी कभी पंचांग और गणना के अन्तर से भी दिन अलग हो जाता है।

सबसे दिलचस्प मामला गुजरात का है। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही नव वर्ष मानने और उसके मनवाने के दुराग्रही 1 जनवरी को अपना नववर्ष नहीं मानते, उनको यह जानकर दुख होगा कि गुजरात में कहीं भी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को नव वर्ष नहीं मनाया जाता। गुजराती में नव वर्ष हर साल हिंदू कैलेंडर के कार्तिक महीने की शुरुआत में मनाया जाता है। यह दीवाली के अगले दिन पड़ता है। गुजराती नव वर्ष को बेस्टु वारस के नाम से भी जाना जाता है। गुजराती नव वर्ष के दिन लोग देवी-देवताओं की पूजा करने के लिए मंदिर जाते हैं। दोस्तों और रिश्तेदारों से मिलकर लोग नए साल की शुभकामनाएं देते हैं।

इस दिन व्यापारी उद्यमी अपनी पुरानी खाता बही बंद करके नए खोलते हैं। चोपड़ा के नाम से जाने वाली इन खाता बही की पूजा की जाती है और कुछ शुभ प्रतीकों के साथ चिह्नित किया जाता है, जिसके बाद लाभदायक वित्तीय वर्ष की प्रार्थना होती है।

पिछले गुजराती नववर्षो में 2021 में 5 नवम्बर को और 2022 में 26 अक्टूबर को पीएम मोदी ने गुजरातियों को बधाई दी थी। मोदी जी ने गुजराती भाषा में एक ट्वीट करके कहा था, “सभी गुजरातियों को नया साल मुबारक…!! मैं कामना करता हूं कि आज से शुरू हो रहे नया साल आपके जीवन में सुख-समृद्धि लेकर आए और आपको स्वस्थ रखे। साथ ही प्रगति के नए कदम की ओर ले जाए।”

अब यह लोग क्या कहेंगे, हिम्मत है तो कहें कि यह हमारा नववर्ष नहीं क्योंकि तुम तो चैत्र की शुक्ल प्रतिपदा को ही असली नववर्ष मानते हो। और हां यह उत्सव भी पूरे गुजरात में मान्य नहीं है। गुजरात के कच्छ वालों का नया साल कुछ और है। गुजरात के कच्छ क्षेत्र में अषाढ़ी बीज नाम से मनाया जाने वाला हिंदू नव वर्ष है। अंग्रेजी कैलेंडर से यह जून से जुलाई में और हिंदू पंचांग के अनुसार, आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष के दूसरे दिन कच्छी नव वर्ष के रूप में मनाया जाता है।

कश्मीरी पण्डित चैत्र शुक्ल को इस रूप में नव वर्ष नहीं मनाते वह इसे नवरेह के रूप में मनाते हैं। जो इस साल 22 मार्च को पड़ेगा। कश्मीरी मुस्लिम भी इस साल 20 मार्च को नवरोज के रूप में नया साल मनाएंगे इस त्योहार की परम्परा 5 हजार साल पुरानी है और इसका सम्बन्ध ईरान से है।

नागालैण्ड में भी दो अलग अलग आदिवासी समुदाय अलग अलग महीनों अपने रीति-रिवाजों के साथ अपना नया साल मनाते हैं। 15 जनवरी को नागालैण्ड में के लाहे, लेशी और नानयुम के इलाके के नागा आदिवासी समूह अपना नया साल मनाते हैं, यह उत्सव 14-15 को होता है। जबकि 25 फरवरी को सेक्रेट्री/फाऊसान्यी नववर्ष मनाया जाता है जो अंगामी नागाओं द्वारा मनाया जा है।

मणिपुर में नव वर्ष को साजिबू नोंगमा पनबास कहा जाता है। साजिबू साल का पहला महीना जो आमतौर पर मैतेई चंद्र कैलेंडर के अनुसार अप्रैल के महीने में आता है, नोंगमा- एक महीने की पहली तारीख, पांबा- से होना। इसका अर्थ हुआ साल के पहले महीने का पहला दिन। यह आमतौर 13 अप्रैल को पड़ता है।

उड़ीसा में पना संक्रांति/यहां बिशु संक्रांति के रूप में नया साल 14 अप्रैल को मनाया जाता है। जोकि बंगाल के पहला बैशाख की तरह से ही है। सिक्किम में लॉसोन्ग के नाम से नया साल है, जिसे वहां के अधिकांश भूटिया जनजाति के लोग बड़ी धूमधाम से मनाते हैं। यह उत्सव हर साल दिसंबर के महीने में मनाया जाता है। जो कि ज्यादातर 27 दिसंबर में होता है। देश के करीब 11 करोड़ आदिवासियों के अलग अलग कबीले अलग-अलग समय में अपना नया साल मनाते है। कहीं चैत्र की तृतीया से मनाते हैं तो कहीं अषाढ़ में मनाते हैं।

यह बड़ा दिलचस्प है और आश्चर्यजनक है कि भारत सरकार ने शक संवत को राष्ट्रीय कैलेंडर के रूप में स्वीकार किया है। शक संवत के बारे में माना जाता है कि इसे शक सम्राट कनिष्क ने 78 ई. में शुरू किया था। स्वतंत्रता के बाद भारत सरकार ने इसी शक संवत में मामूली फेरबदल करते हुए इसे राष्ट्रीय संवत के रूप में घोषित कर दिया। राष्ट्रीय संवत का नव वर्ष 22 मार्च से शुरू होता है जबकि लीप ईयर में यह 21 मार्च होता है। यह संवत सूर्य के मेष राशि में प्रवेश से शुरू होता है। देश का वित्तीय वर्ष 1 अप्रैल से आरंभ होता है जबकि प्रशासनिक कार्यों में ग्रेगोरियन कैलेंडर के नव वर्ष 1 जनवरी को महत्व की दिया गया है।

धार्मिक दृष्टि से देखें तो भारत में हिन्दुओं के अलावा सिख, बौद्ध जैन, और पारसी भी अलग अलग माह में अपना नववर्ष मनाते हैं। 1 जनवरी को ईसाईयों का नया साल मान भी लिया जाए तो बाकी धर्म वाले अपनी परम्परा से अलग अलग महीनों में‌ नया साल मनाते हैं। जैन लोग अक्टूबर/नवम्बर में दीपावली के अगले दिन नव वर्ष मनाते हैं, तो पारसी नववर्ष 19 अगस्त को पड़ता है। बौद्ध धर्म के अनुयाई, बुद्ध पूर्णिमा या 17 अप्रैल को नववर्ष मनाते हैं। सिख मज़हब में नानकशाही कैलेंडर के अनुसार 14 मार्च को नया साल पड़ता है। उसी के अनुरूप नए साल के आयोजन होते हैं।

हालांकि मुसलमानों के साथ कोई मसला नहीं है, इस्लाम में चांद कैलेंडर के अनुसार त्योहार मनाए जाते हैं। इस्लाम में हर माह नए चांद को देखकर दुआ करना और सलामती की दुआएं करने की रवायत मिलती है। इस्लामी कलैंडर के अनुसार पहला महीना मुहर्रम का होता है, मुहर्रम में चूंकि करबला का दर्दनाक वाक्या हुआ था, इसलिए मुसलमानों का बड़ा वर्ग नए साल में खुशी नहीं मनाता। हालांकि मुसलमानों में एक तबका ऐसा भी है जो मुहर्रम में हुए करबला के वाक्ये को ज़्यादा तवज्जो नहीं देता, और मुहर्रम के महत्व की लम्बी चौड़ी दलीलें देता है लेकिन फिर भी किसी फिरके ने नया साल मनाने की कोई रवायत नहीं बताई है।

ऐसे में मुसलमान जिस इलाके में जो रिवायत चलती है उसके हिसाब से नए साल की खुशियों में‌ शामिल होते हैं। इसकी सबसे बड़ी मिसाल तुर्की है, जो आधा यूरोप में है और आधा एशिया में है। वहां रोमन कैलेण्डर के मुताबिक नया साल मनाया जाता है। अब तो मध्यपूर्व के करीब करीब सभी मुल्कों में किसी न किसी रूप में नया साल मनाया जा रहा है। कई देशों में नए साल पर सरकारी छुट्टी होती है।

अब चूंकि भारत में ग्रेगोरियन कैलेंडर को संवैधानिक और सरकारी मान्यता प्राप्त है तो साल के पहले दिन 1 जनवरी को नववर्ष मनाया जाना कोई देश विरोधी काम नहीं माना जा सकता। इसमें कोई हर्ज नहीं आप अपने धर्म संस्कृति के हिसाब से अपना अपना नया वर्ष मनाएं लेकिन देश के अधिकारिक कैलैंडर के अनुसार अगर कोई नया साल 1 जनवरी को मनाया है तो किसी को विरोध करने का कोई हक़ नहीं है।

(सोशल एक्टिविस्ट इस्लाम हुसैन उत्तराखंड के काठगोदाम में रहते हैं।)

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