अली सरदार जाफ़री: परवरिश-ए-लौह-ओ-क़लम होती रहेगी

तरक़्क़ीपसंद तहरीक और अदब पर ऐतराज़ात पहले भी होते थे, आज भी होते हैं और आइंदा भी होते रहेंगे। लेकिन इस ज़माने में ऐतराज़ात का अंदाज़ बदल गया है। क्या वो फ़न के नाम पर किए जाते हैं? और क्या हंगामी मौज़ूआत (विषय) के नाम पर?, लेकिन बार-बार जो ऐतराज़ दोहराया जा रहा है, वो ये है कि तरक़्क़ीपसंद अदीबों और शायरों के मौज़ूआत पहले से तय-शुदा (निर्धारित) हैं। और तय-शुदा मौज़ूआत पर अच्छा अदब तख़्लीक़ नहीं किया जा सकता। ये ऐतराज़ इसलिए बेमानी है कि इसमें तारीख़ी बसीरत (ऐतिहासिक समझ) की कमी है।

वाक़िआ ये है कि अदब के मौज़ूआत सारी दुनिया में, और हर ज़माने में और हर ज़ुबान में पहले से तय-शुदा हैं। और वो हैं, नौ बुनियादी इंसानी जज़्बात (1. मुहब्बत, 2. तंज़-ओ-मिज़ाह, 3. रहम, 4. शुजात, 5. ग़ैज़-ओ-ग़ज़ब, 6. नफ़रत हिक़ारत, 7. हैरानगी, 8. जज़्बा-ए-अमन-ओ-सुकून।) हिंदुस्तानी जमालियाती निज़ाम (सौंदर्यशास्त्र) में इनको रस कहा जाता है।

वक़्त और मक़ाम (स्थान) की तब्दीली के साथ ये जज़्बात नये-नये वाक़िआत से उभरते हैं। और तख़्लीक़ का वो वाक़िए नहीं, बल्कि जज़्बा है। मसलन रोमियो और जूलियट, लैला मजनू, शीरी फरहाद, हीर रांझा सब इश्क़िया कहानी हैं। सब में विसाल-ओ-फ़िराक़ (मिलन और वियोग) के मौज़ूआत हैं। सिर्फ़ वाक़िआत और मक़ामात बदले हुए हैं।

उर्दू और फ़ारसी में एक हज़ार बरस तक तय-शुदा मज़ामीन पर शायरी हुई है। जिनका सर-चश्मा (स्त्रोत) तसव्वुफ़ (अध्यात्म) है। दूसरी ज़बानों में ये सर-चश्मा भक्ति है। कृष्ण और राधा के गिर्द हज़ारों नज़्मों की तख़्लीक़ हुई है। हज़ारों तस्वीरें बनी हैं, हज़ारों रक़्स (नृत्य) हुए हैं, हज़ारों मुजस्समे (मूर्तियां) तराशे गए हैं।

फ़ारसी और उर्दू शायरी की क्लासिकी रवायत में सिर्फ़ मज़ामीन ही तय-शुदा नहीं थे, बल्कि तश्बीहें (उपमाएं) भी तय-शुदा थीं। और इस्तिआरे (रूपक) भी तय-शुदा थे। क़द-ए-सरोद शमसाद, आंख नर्गिस, बाल सुंबुल (एक सुगंधित घास), मज़ामीन, तस्वीह, इस्तिआरे ही नहीं, बल्कि शे’र की बहरें भी तय-शुदा थीं। और मिस्रा-ए-तरह (किसी दिए गए दोहे की वह पंक्ति जिसके छंद पर अन्य कवियों को कविता लिखनी पड़ती है) की शक्ल में रदीफ़ और काफ़िया भी तय-शुदा। रक़ीब का सियाह-रू (दुश्मन का काला मुंह) और कमीना होना तय-शुदा। महबूब का ज़ालिम और बेवफ़ा होना भी तय-शुदा। और आशिक़ का मज़लूम और महज़ूर (प्रतिबंधित) होना भी तय-शुदा। दीवाने का दीवानापन भी तय-शुदा। ज़ंजीर और ज़िंदान (जेल) भी तय-शुदा।

ये चीज़ इस हद तक पहुंच गई थी कि अगर कोई शायर इस दायरे से बाहर जाने की हिम्मत करता, तो उससे सनद (सबूत) मांगी जाती थी। इसी तरह मर्सिये के मज़ामीन तय-शुदा और वाक़िआत की तरतीब (क्रम) तय-शुदा। इसलिए तो अनीस ने कहा था कि

‘‘इक फूल का मज़मूँ हो तो सौ रंग से बाँधूँ।’’

इसी तरह ये बात ऐतराज़ के अंदाज़ में कही जाती है कि कोई तंज़ीम या जमाअत एक मौजू़अ दे देती और उसके हुक्म के तहत तरक़्क़ीपसंद अदीब तख़्लीक़ करने पर मजबूर होता है। मसलन ‘अमन’ का मौज़ूअ, ‘फ़िरक़ावाराना फ़सादात का मौज़ूअ, क़हत-ए-बंगाल का मौज़ूअ, जद्दोजहद का मौज़ूअ, आज़ादी का मौज़ूअ वगैरह-वगैरह। ये ऐतराज़ भी खोखला है। दुनिया-ए-फ़न के बहुत से शाहकार जे़र-ए-हुक्म (आदेश के तहत) तख़्लीक किए गए हैं। चार सबसे बड़ी मिसालें-

एक, अहराम-ए-मिस्र (मिस्र के पिरामिड)। जो फ़िरौनों के हुक्म से तामीर किए गए। दूसरे, माइकल एंजेलो की पेंटिंग। जो पापा-ए-रोम के हुक्म से तख़्लीक़ की गईं, और अब रोम के बड़े गिरजे़ की ज़ीनत हैं। तीसरे, फ़िरदौसी का ‘शाहनामा’। जो महमूद ग़ज़नवी की फ़रमाइश का नतीजा था। चौथे, ताजमहल। जो शाहजहां का शाही ख़्वाब था। और मज़दूरों और मेमारों (आर्किटेक्ट्स) के हाथों पूरा हुआ। हक़ीक़त ये है कि हर अदबी या फ़न्नी तख़्लीक़ का मौज़ूअ पहले से तय-शुदा होता है। इस सिलसिले में फै़ज़ ने बहुत उम्दा बात कही है।

‘‘रहा सवाल हमारे मुख़ालिफ़ीन का, तो मुख़ालफ़त की बात दूसरी है। इसलिए कि उन्हें हमारी ज़ात से मुख़ालफ़त या मुख़ासमत (द्वेष) तो है नहीं, उनकी मुख़ालफ़त तो हमारे सियासी नज़रियात से है। अगर हम जेलख़ानें भी न गए होते और कुछ भी न किया होता, तो भी उन्हें हमारी मुख़ालफ़त का कोई न कोई बहाना मिल ही जाता। इस पर ज़्यादा तवज्जोह करने की ज़रूरत नहीं है।’’

आख़िरी ऐतराज, क़ौल-ए-फै़सल (अंतिम निर्णय) की तरह किया जाता है। और वो ये कि तरक़्क़ीपसंद अदब हंगामी है। हमें अपने इस ज़ुर्म का एतिराफ़ (स्वीकृति) है। हंगामी अदब के दो मआनी (अर्थ) हैं। एक वो अदब जो किसी एक मख़्सूस लम्हे की तख़्लीक़ हो और किसी फ़ौरी वाक़िए (अत्यावश्यक घटना) से मुतास्सिर हो के वुजूद में आया हो।

उर्दू में बेशुमार ग़ज़लों के अलावा ग़ालिब के क़साइद जिनके बाज़ हिस्से आला-तरीन शायरी के नमूने हैं, बादशाहों और हाक़िमों की मद्ह-सराही (प्रशंसा करना) के लिए तख़्लीक़ किए गए। और सौ फ़ीसद हंगामी थे। और इसके बाद जंग-ए-बल्कान और जंग-ए-तराबलस पर शिबली नोमानी और इक़बाल की नज़्में।

हुकूमत पर ज़वाल आया, तो फिर नाम-ओ-निशॉं कब तक

चराग़-ए-कुश्ता-ए-महफिल से उठेगा धुआं कब तक

ये माना तुमको शमशीरों की तेज़ी आज़मानी है

हमारी गर्दनों पे होगा, इसका इम्तिहॉं कब तक।

                                                 (शिबली)

हुज़ूर दहर में आसूदगी नहीं मिलती

तलाश जिसकी है वो ज़िंदगी नहीं मिलती

हज़ारों लाला-ओ-गुल है रियाज़-ए-हस्ती में

वफ़ा की जिसमें हो बू, वो कली नहीं मिलती

मगर मैं नज़्र को एक आबगीना लाया हूं

जो चीज़ इस में है, जन्नत में भी नहीं मिलती

झलकती है तेरी उम्मत की आबरू इस में

तराबलस के शहीदों का है लहू इसमें।

                                          (इक़बाल)

फातिमा! तू आबरू-ए-उम्मत-ए-मरहूम है

ज़र्रा ज़र्रा तेरी मुश्त-ए-खाक का मासूम है।

                                           (इक़बाल)

इक़बाल की नज़्म ‘जवाब-ए-शिकवा’ में तुर्की की उस्मानी सल्तनत के तअल्लुक़ से ऐसे अशआर भी हैं, जो बिल्कुल ही हंगामी हैं।

है जो हंगामा बपा यूरिश-ए-बुलग़ारी का

ग़ाफ़िलों के लिए पैग़ाम है बेदारी का।

और ‘तुलु-ए-इस्लाम’ में,

अगर उस्मानियों पर कोह-ए-ग़म टूटा तो क्या ग़म है

कि ख़ून-ए-सद-हज़ार-अंजुम से होती है सहर पैदा।

यही गुनाह तरक़्क़ीपसंद शुअरा और अदीबों से भी सरज़द (घटित) हुआ है कि उन्होंने इंसानी वक़ार और अज़्मत (गरिमा और महानता) की जद्दोजहद में बहुत से हंगामी मौज़ूआत पर अपने क़लम को जुम्बिश (हलचल) दी है। और आज भी वो जुंबिश जारी है और आइंदा भी जारी रहेगी। दूसरी क़िस्म उस हंगामी अदब की है, जो किसी अहम तारीख़ी लम्हे की तख़्लीक़ है। और उस लम्हे के साथ जेब-ए-ताक़-ए-निस्याँ (जेब की वह ताक़,जिसमें रखकर हर चीज़ भुला दी जाती है) हो गया।

इस पर शर्मिंदा होने की ज़रूरत नहीं है। बड़े से बड़े अदीब और शायर की तख़्लीक़ात का बहुत सा हिस्सा जेब-ए-ताक़-ए-निस्याँ हो जाता है। फिर मुहक़क़िक (अनुसंधानकर्ता) उसकी तलाश करते हैं। ये अदब उस शायर और अदीब के लिए बहुत अहम है। जिसने अपने क़लम को इंसानी ज़मीर के तहफ़्फ़ुज़ (सुरक्षा) के लिए वक़्फ़ (दान) कर दिया है। जिसने अपने क़लम को फ़रोख़्त (बेचा) नहीं किया है। उस पर ग़ालिब का ये शे’र सादिक़ (चरितार्थ) आता है,

लिखते रहे जुनूँ की हिकायात-ए-ख़ूँ-चकाँ

हर-चंद इस में हाथ हमारे क़लम हुए।

तरक़्क़ीपसंद तहरीक का वो अदब जो वक़्ती ज़रूरत के तहत लिखा गया था, तारीख़ का हिस्सा है। और वो अदब ज़िंदा है और ज़िंदा रहेगा। तारीख़-ए-अदब का अज़ीम कारनामा है और कोई इस्तिदलाल (तर्क) उसको मिटा नहीं सकता। मुस्तक़बिल की राहों में ये अदब मशअल-ए-राह (रास्ते की मशाल) होगा। लोग साथ आते रहेंगे और कारवां बनता रहेगा। और ‘परवरिश-ए-लौह-ओ-क़लम होती रहेगी।’

(अली सरदार जाफ़री की किताब ‘तरक़्क़ी पसंद तहरीक निस्फ़ सदी’ का एक चुना हुआ हिस्सा। उर्दू से हिन्दी लिप्यंतरण : ज़ाहिद ख़ान और इशरत ग्वालियरी)

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