एंतोनियो ग्राम्शी: बुद्धिजीवी पर विचार

2014 के बाद से, खासकर 2016 में देशद्रोह का अड्डा बताकर जेएनयू पर राज्य, मीडिया तथा संघ परिवार के संयुक्त हमले और प्रतिरोध में जेएनयू आंदोलन के बाद से सोशल मीडिया पर असहमति या प्रतिरोध के तार्किक जनपक्षीय अभिव्यक्ति के लिए भक्त समुदाय तथाकथित बुद्धिजीवी का आक्षेप आम हो गया है। इस संदर्भ में, इस विषय पर छोटे कद के 20वीं सदी के महानतम बुद्धिजीवी (Short statured tallest intellectual of 20th century) एंतोनियो ग्राम्शी के विचार विचारणीय हैं।

1926 तक इटली में मुसोलिनी के नेतृत्व में फासीवादी शासन के 4 साल हो गए थे, इसका चरित्र इटली के कम्युनिस्ट सर्किल और कॉमिंटर्न में अभी भी विवाद का विषय बना हुआ था। बहस इस बात को लेकर थी कि यह एक राष्ट्र-विशिष्ट परिघटना है या अंतर्राष्ट्रीय प्रवृत्ति? इस पर चर्चा की गुंजाइश अभी यहां नहीं है, 1924 लेनिन की मृत्यु के बाद सीपीएसयू और कॉमिंटर्न में स्टालिन लॉबी का वर्चस्व स्थापित हो चुका था। 1924 को कॉमिंटर्न के पहले चरण का समापन काल भी माना जाता है। इस पर भी चर्चा की गुंजाइश यहां नहीं है।

इसी कठिन समय में (1924-26) ग्रांम्शी इटली की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव थे। यह अंतर्राष्ट्रीयता के एक युग के अंत की शुरुआत थी, कॉमिंटर्न की नीतियां और राजनीति रूसी पार्टी के अंदरूनी संघर्ष का हिस्सा बन गयी और 1927 तक सीपीएसयू का अंतःकलह कॉमिंटर्न की राजनीति का निर्णायक कारक बन गयी। इस दौर की कॉमिंटर्न की राजनीति पर चर्चा की यहां गुंजाइश नहीं है।

अक्टूबर 1926 में मुसोलिनी पर 15 साल के एक लड़के ने तथाकथित जानलेवा हमला किया, जिसे बहाना बनाकर दमनचक्र तेज कर दिया गया। 1926 में जब इटली में जनपक्षीय ताकतों पर फासीवाद दमन तेज हुआ तथा कम्युनिस्टों की धरपकड़ तेज हुई तो ग्राम्शी कॉमिंटर्न नेताओं से बातचीत के लिए मॉस्को में थे। ग्राम्शी चाहते तो गिरफ्तारी से बचने के लिए इटली लौटना टाल सकते थे और लेनिन की तरह, विदेश में रहते हुए फासीवादी शासन के विरोध और भविष्य की क्रांति की रणनीति पर काम कर सकते थे। लेकिन क्या होता तो क्या होता, व्यर्थ की बात है।

जैसा कि जेल से लिखे एक आत्मकथात्मक नोट से स्पष्ट है “नियम है कि कप्तान डूबते जहाज को छोड़ने वाला अंतिम व्यक्ति होना चाहिए..”। जैसा कि अब इतिहास है, ग्राम्शी वापस आए और गिरफ्तार कर लिए गए। अदालत में फासीवादी सरकारी वकील ने अपील किया था। “इस दिमाग को अगले 20 साल तक काम करने से रोक देना चाहिए…”। वे उस दिमाग को काम करने से नहीं रोक सके लेकिन जेल की यातनाओं और स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी ने जीवन छोटा जरूर कर दिया। ग्राम्शी के जेल के 33 नोटबुकों के नोटों के संकलन कालजयी कृतियां बन गयी हैं। 21 अप्रैल 1937 को उनकी कारावास अवधि पूरी हुई लेकिन खऱाब स्वास्थ्य के कारण जेल की क्लीनिक नहीं छोड़ सके और 27 अप्रैल 1937 को दुनिया छोड़ चले।

बुद्धिजीवियों की समाज में भूमिका तथा सांस्कृतिक वर्चस्व का सिद्धांत, मार्क्सवाद में ग्राम्शी के मौलिक योगदानों में प्रमुख हैं। इस संक्षिप्त प्रस्तुति में बुद्धिजीवियों पर ग्राम्शी के विचार की संक्षिप्त समीक्षा की कोशिश की गयी है। मार्क्स और एंगेल्स ने जर्मन में लिखा है कि शासक वर्ग के विचार शासक विचार भी होते हैं। आर्थिक उत्पादन के संसाधनों पर जिस वर्ग का अधिकार होता है, बौद्धिक उत्पादन के संसाधनों पर भी उसी का अधिकार होता है। पूंजीवाद महज माल का नहीं विचारों का भी उत्पादन करता है। शासक वर्ग के विचार ही युग चेतना का निर्माण करते हैं जिसमें बुद्धिजीवियों की भूमिका अहम होती है।

ग्राम्शी का मानना है कि वर्ग-निरपेक्ष बुद्धिजीवी की अवधारणा एक मिथक है। सभी व्यक्तियों में चूंकि चिंतन क्षमता होती है इसलिए सभी में बुद्धीजीवी होने की संभावना होती है लेकिन अपने सामाजिक उत्तरदायित्व में वे बुद्धिजीवी नहीं होते। अपने सामाजिक क्रिया-कलापों के अनुसार बुद्धिजीवियों की दो कोटियां हैं। पहली कोटि शिक्षक, वैज्ञानिक, साहित्यकार, पत्रकार आदि जैसे पारंपरिक, “पेशेवर” बुद्धिजीवियों की है जो कहने को वर्गीय प्रतिबद्धताओं से मुक्त हैं लेकिन उनकी हैसियत वस्तुततः अतीत के और मौजूदी वर्ग संबंधों की ही उत्पत्ति है जो अपने विभिन्न वर्गीय प्रतिबद्धताओं को निष्पक्षता के आवरण में ढके रहते हैं। दूसरी कोटि सैविक बुद्धिजीवियों की है जो एक मूलभूत सामाजिक वर्ग के चिंतक और संगठनकर्ता होते हैं। इन जैविक बुद्धिजीवियों की पहचान इनकी नौकरी या आजीविका के पेशे से नहीं बल्कि अपने उस वर्ग के हित में चिंतन की दिशा से होती है जिससे इनके जैविक संबंध हैं।

यह परिभाषा ग्राम्शी के सिद्धांतिकी के सभी आयामों पर प्रकाश डालती है जैसे, “सभी व्यक्ति दार्शनिक हैं” जो खास संस्कृति दार्शनिक विचारधारा के प्रसार से सांस्कृतिक वर्चस्व का निर्माण करते हैं। यह बौद्धिक कामों की तैयारी में शिक्षा के वर्गचरित्र पर भी प्रकाश डालता है और शिक्षा के माध्यम से बुद्धिजीवियों के निर्माण पर भी। ग्राम्शी लिखते हैं, “आर्थिक उत्पादन में अपनी भूमिका के अनुसार निर्मित हर सामाजिक समूह अपने साथ अपने जैविक बुद्धिजीवियों का एक या एकाधिक समूह निर्मित करता है जो इसे समरसता और आर्थिक तथा सामाजिक-राजनैतिक क्षेत्रों में इसके अपने कार्यभार की चेतना प्रदान करते हैं। पूंजीवादी उद्यमी अपने साथ औद्योगिक अभियंता, राजनैतिक अर्थशास्त्र के विशेषज्ञ, सांस्कृतिक संगठनकर्ता, तथा नई वैधानिक व्यवस्था आदि के विशेषज्ञों की टीम तैयार करता है। उसमे (उद्यमी में) लोगों को संगठित करने की क्षमता होनी चाहिए तथा उसमें अपने व्यापार में निवेशकों और अपने उत्पादों के ग्राहकों के विश्वास जीतने की भी क्षमता होनी चाहिए”।

सामंतों में सैन्य क्षमता के कुछ तकनीकी ज्ञान थे जैसे ही यह बौद्धिक क्षमता क्षीण हुई सामंतवाद खतरे में पड़ गया। किसानों का सामाजिक वर्ग सब वर्गों को जैविक बुद्धिजीवी प्रदान करता है, लेकिन अपने लिए नहीं। सर्वहारा वर्ग के जैविक बुद्धिजीवी सर्वहारा के संगठित संघर्षों में वर्गचेतना के संचार से निकलते हैं। सामाजिक चेतना के जनवादीकरण की भूमिका निभाने वाले जनपक्षीय चेतना के क्रांतिकारी बुदिधिजीवी भी सर्वहारा के जैविक बुद्धिजीवी भी बन सकते हैं।

(ईश मिश्र दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक रहे हैं।)

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