दिल्ली विश्व पुस्तक मेला: क्या यह हिन्दी जाति की बौद्धिकता का अवसान है?

दिल्ली में दिनांक 10.2.24 से 18.2.24 तक हुए विश्व पुस्तक मेले का समापन हो गया है। कवि-लेखक और प्रकाशक आलोक श्रीवास्तव अपनी फेसबुक वॉल पर लिखते हैं-“20 साल पहले तक हिन्दी के लगभग डेढ़ हज़ार प्रकाशक पुस्तक मेले में स्टाल लेते थे, इस बार एनबीटी द्वारा ज़ारी आंकड़ों के अनुसार यह संख्या केवल 140 है। भागीदारों की संख्या पिछले 20 वर्षों में निरन्तर घटती रही है, बहुत संभव है अगले पांच साल बाद यह संख्या 20-30 पहुंच जाए और 10 वर्षों में यह 1, 2, 3 या 0 भी हो सकती है। पुस्तक मेले के बारे में बहुत सारे भावुकतापूर्ण और अतिशयोक्ति से भरे विवरण पढ़ने को मिलते हैं, पर आंकड़े और तथ्य ही इस स्थिति का वास्तविक रूप सामने रख सकेंगे। हिन्दी किताबों के संसार के बारे में नए-नए सैकड़ों लेखकों, उनकी पुस्तकों के सहज और निरन्तर प्रकाशन और कुछ पुस्तकों के सचमुच में अधिक बिक जाने तथा दर्जनों पुस्तकों के झूठ-मूठ के बेस्ट सेलर के दावों से वास्तविक स्थितियों का आंकलन असम्भव है।”

दिल्ली का पुस्तक मेला विश्व पुस्तक मेला माना जाता है, इसमें अनेक अन्य देशों के प्रकाशक भाग लेते हैं या फ़िर देश की अन्य भाषाओं के प्रकाशक भी भाग लेते हैं, लेकिन दिल्ली में होने वाला यह पुस्तक मेला मूलतः हिन्दी प्रदेशों का ही मेला है। आलोचक रामबिलास शर्मा हिन्दी प्रदेशों की राष्ट्रीयता की तलाश करते हुए इसे हिन्दी जाति का नाम देते हैं। क़रीब 60 करोड़ की आबादी वाला यह हिन्दी प्रदेश आज फासीवादी पिछड़ेपन का गढ़ बना हुआ है, जिसकी स्पष्ट अभिव्यक्ति इस पुस्तक मेले में देखने को मिलती हैं। यह वही प्रदेश है, जहां एक लेखक के पुस्तक की 100-200 प्रतियां बिकनी भी मुश्किल हो जाती हैं।

कवि-लेखक और संवाद प्रकाशन के मालिक आलोक श्रीवास्तव ने एक बार बातचीत में बताया था कि “मराठी,बंगला और मलयाली में जिन पुस्तकों का एक वर्ष में 3-4 संस्करण बिक जाता है,वहीं पुस्तकें जब हिन्दी में अनुवाद होकर आती हैं, तो उसकी 4-5 सौ प्रतियां भी बिकनी मुश्किल हो जाती हैं, इस कारण से उन्हें और हिन्दी के कई प्रकाशकों को बहुत नुकसान उठाना पड़ा।”

अभी हाल में कोलकाता में लगे पुस्तक मेले ने पुस्तक बिक्री के अब तक के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए तथा इस मामले में दिल्ली के पुस्तक मेले को बहुत पीछे छोड़ दिया। दिल्ली में प्रगति मैदान का स्वरूप बदल चुका है। विशाल हरे-भरे मैदानों के बीच बना प्रगति मैदान नष्ट कर दिया गया तथा उसकी जगह बड़ी-बड़ी इमारतों के जंगल ने ले लिया है, क्योंकि वर्तमान शासकों को नेहरूवादी शिल्प से ही नफ़रत है। यही कारण है कि पुराने राष्ट्रीय संग्रहालय तक की इमारत को नष्ट कर दिया गया, परन्तु वर्तमान प्रगति मैदान की भव्य इमारतें भी हिन्दी की दुर्दशा को छिपा नहीं सकतीं।

एक प्रकाशक ने बताया कि पुस्तकालयों के लिए पुस्तकों की खरीद-फ़रोख्त का फंड बिलकुल घटा दिया गया है। कई संस्थाओं ने तो पुस्तकें खरीदना भी बंद कर दिया है। पुस्तकों की खरीद अगर हो भी रही है, तो भाजपा से जुड़े एक प्रकाशक की। पहले पुस्तक मेले में दिल्ली के आस-पास के राज्यों हरियाणा, हिमाचल और पंजाब के भी पाठक आते थे, इसके अलावा इस राज्यों के स्कूलों में पुस्तकों को खरीदने का फंड भी था, इस कारण से पुस्तकालयों के लिए पुस्तकालयाध्यक्ष तथा अध्यापक पुस्तकें खरीदने आते थे, लेकिन अब पुस्तकों की खरीद के फंड में सभी जगहों पर भारी कटौती कर दी गई है, इस कारण से पुस्तकों की खरीद बिलकुल ठप हो गई है, जिसका ख़ामियाजा प्रकाशकों को उठाना पड़ रहा है।

कुछ वर्ष पहले तक बहुत कम लागत पर छोटे प्रकाशकों तथा पत्र-पत्रिकाओं के लिए स्टैंड की व्यवस्था थी, लेकिन अब यह समाप्त कर दी गई है। सबसे छोटे स्टाल का किराया भी 15 से 20 हज़ार हो गया है, इस कारण से छोटे प्रकाशक मेले से दूर हो गए हैं, क्योंकि उनका कहना है कि “अब लागत निकालना ही मुश्किल हो गया है। हिन्दी प्रकाशन जगत का भी कॉरपोरेटीकरण हो गया है। छोटे प्रकाशन बंद हो रहे हैं या फ़िर उन्हें बड़े प्रकाशक खरीद ले रहे हैं। ज्ञानपीठ जैसा बड़ा प्रकाशन तक समाप्त हो गया है।”

यद्यपि हिन्दी के एक बड़े प्रकाशन के मालिक कहते हैं कि “कागज़ के दाम 40% तक बढ़ गए हैं,उस पर से जीएसटी। हिन्दी में पाठकों की संख्या तेज़ी से घट रही है। आज वही प्रकाशक टिका रह सकता है, जिसे सचमुच पुस्तकों से लगाव है।” वे आगे कहते हैं कि “करोड़ों रुपए खर्च करके भी हिन्दी का कोई भी प्रकाशक किर्लोस्कर या बजाज जितना बड़ा भी पूंजीपति नहीं बन सका।”

भाजपा शासन में साहित्यिक पुस्तकों की जगह धार्मिक पुस्तकें; विशेष रूप से साधु-संतों की पुस्तकों के भव्य स्टालों की मेले में धूम है। जनचेतना पुस्तक प्रतिष्ठान के एक प्रतिनिधि ने बताया कि “एक ओर उन्हें साहित्यकारों जैसे प्रेमचंद, निराला और गोर्की आदि के पोस्टर बेचने पर रोक लगाई जा रही है, दूसरी ओर धार्मिक संगठनों को मेले में योग आदि करने की छूट दे दी गई है।”

मेले में अनेक जगह सेल्फी प्वाइंट बनाए गए हैं, जहां प्रधानमंत्री के कट-आउट के साथ आप अपनी सेल्फी ले सकते हैं, वास्तव में देश में हर चीज़ की तरह यह पुस्तक मेला भी भाजपा के प्रचार तंत्र का एक माध्यम हो गया है।

इन सबके बावज़ूद मेले में अनेक छोटे-छोटे प्रकाशकों ने सीमित संसाधनों के बावज़ूद बहुत ही अच्छी और महत्वपूर्ण पुस्तकों का प्रकाशन किया,इसमें गुलमोहर किताब, जनचेतना, फिलहाल, गार्गी प्रकाशन, संवाद प्रकाशन, कामगार प्रकाशन तथा न्यूवर्ड पब्लिकेशन प्रमुख हैं।

गार्गी प्रकाशन के अतुल कुमार बताते हैं कि “वे लोग पुस्तक मेले में पुस्तक प्रकाशित करने के लिए अपने सामाजिक सम्पर्कों से धन जुटाते हैं। वे इस पुस्तक मेले में विश्व साहित्य के बहुत से अनमोल ग्रंथ बहुत सस्ते मूल्यों पर लाए हैं।”

पिछले वर्ष की तरह इस वर्ष भी पुस्तक मेले में युवा चित्रकार, एक्टिविस्ट और संस्कृतिकर्मी मोनिका के हाथ से बनाए गए बुकमार्क; जिसमें हिन्दी, अंग्रेजी और पंजाबी में साहित्यकारों के उद्धरण, कविताएँ हस्तलिखित चित्रित हैं, इसकी धूम रही, इसे बड़े पैमाने पर लोगों ने खरीदा और सराहा भी।

तमाम निराशाओं के बावज़ूद ये चीज़ें विश्वास दिलाती हैं कि हिन्दी प्रदेशों में पुस्तक संस्कृति एक बार पुनः उठ खड़ी होगी और फासीवाद से लड़ने का हथियार भी बनेगी।

(स्वदेश कुमार सिन्हा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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