जन्मशती विशेष: याद आते रहेंगे देव आनंद

देव आनंद ज़माने को कई फिल्मी अफसाने दिखा कर गुजरे। उनका निजी जीवन भी किसी फिल्मी अफसाने से कम नहीं था। देव आनंद और सुरैया (15 जून 1929-31 जनवरी 2004) की मोहब्बत को हिंदुस्तान में ‘हिंदू-मुसलिम दीवार’ के कारण मंजिल नहीं मिल सकी। कहते हैं कि सुरैया की दादी को ये रिश्ता मंजूर नहीं था। देव आनंद और सुरैया ने सात फिल्मों में साथ काम किया। इनमें विद्या, जीत, शेर, अफसर, नीली, दो सितारे और सनम शामिल हैं। ये सभी बॉक्स ऑफिस पर हिट रहीं। वैसे, देव आनंद ने एक इंटरव्यू में कहा था कि कोई भी फिल्म फ्लॉप नहीं होती है, फिल्में बननी शुरू होकर पूरी हो जाएं तो हिट हो जाती हैं।

बहरहाल, बात बरस 1948 की है जब ‘विद्या’ फिल्म के एक गीत, ‘किनारे-किनारे चले जाएंगे’ की शूटिंग के दौरान सुरैया को देव आनंद से प्यार हो गया। उनकी नाव शूटिंग के दौरान पलट गई थी। देव आनंद ने पानी में कूदकर सुरैया को डूबने से बचाया। देव आनंद ने 1949 मे बनी फिल्म ‘जीत’ के सेट पर ही सुरैया से अपने मोहब्बत का इजहार तब के तीन हजार रुपये में खरीदी हीरे की अंगूठी भेंट कर की थी।

सुरैया अपने परिजनों के फरमान के कारण देव आनंद से अलग होने के बाद एक ग़मगीन शाम ने मुंबई में अरब सागर के किनारे बैठ-बैठे हीरे की उस अंगूठी को समुद्र के पानी में बहा दिया। सुरैया ने अपने परिजनों के तमाम जोर के बावजूद ताउम्र विवाह नहीं किया। देव आनंद और सुरैया की आखिरी फिल्म, 1951 में बनी “दो सितारे” थी।

अपनी आत्मकथा, ‘रोमांसिंग विद लाइफ’ में देव आनंद ने लिखा, “सुरैया के साथ अगर जिंदगी होती तो वो कुछ और होती”। लखनऊ के फिल्मकार, राकेश मंजुल के सम्पादन में निकली पत्रिका, कथाचित्र के जनवरी-मार्च 2003 के विशेष खंड में अग्रणी पत्रकार रामशरण जोशी और अन्य के आलेख के अलावा देव आनंद से फिल्म पत्रकार अजय ब्रह्मात्मज की भेंटवार्ता के अंश भी शामिल है। भेंटवार्ता के कुछ अंश:

सवाल: देव साहिब, आपने जब फिल्म कैरियर आरम्भ किया तो कहीं ये बात दिमाग में आई थी कि आप एक लम्बी पारी खेलेंगे ?

जवाब: नहीं, कभी सोचा नहीं मैंने। मैं ज्यादा सोचता नहीं हूं। मैं तो तीस रूपये लेकर मुंबई आया था। भूखा-नंगा था, लेकिन पढ़ाई जबरदस्त थी। ग्रेट कॉलेज से आया था। किसी से डर नहीं था। आशावादी था, जहां भी गया कॉन्फिडेंस से गया। हवाई जहाज से, ट्रेन से और पैदल भी चला हूं जब पैसे नहीं हुआ करते थे। दोस्तों से मिलकर काम करते और खाते थे। दो-ढाई बरस का संघर्ष था।

ब्रेक मिला तो फिर अपने आपको ट्रेंड करता गया। फिल्मों से सम्बंधित मेरी जितनी पढ़ाई-लिखाई है वह फिल्म इंडस्ट्री की ही है। बीए ऑनर्स लाहौर से किया। मगर बाद की सारी पढ़ाई जिन्दगी ने दी। मेरी जिन्दगी यहीं बनी-संवरी। आपको ठोकरें लगती हैं, आप सीखते हैं, आपको सफलता मिलती है आप अपने को एनलाइटेंन महसूस करते हो, दुनिया घुमते हो, यहां जाते हो, वहां जाते हो। आपकी शिक्षा बढ़ती है, बढ़ती जाती है। यही मेरा काम है, सीखता हूं और आगे बढ़ता रहता हूं।

सवाल : आज़ादी के बाद आये तीन स्टार उभरे। आप , दिलीप कुमार और राज कपूर। तीनों की अलग इमेज थी और तीनों कामयाब रहे।

जवाब : हां, दिलीप सिरियस और ट्रेजिक रोल अधिक करते थे। उनकी उदास और दुखी मिजाज की कुछ फिल्में चल गयीं तो वह उसके बाहर ही नहीं निकल सके। राज कपूर ने चार्ली चैप्लिन का अंदाज पकड़ा था। मसखरा और अपने दुःख को छिपाकर हंसता। दर्शकों ने उनके इस रूप को पसंद किया। राज कपूर अपनी इस इमेज के प्रति सचेत रहते थे। बाद में उनकी फिल्मों में बदलाव आया। वह शायद कमर्शियल दबाब रहा होगा और मैं।

सवाल : हर फिक्र को धुंए में उडाता चला गया वाली इमेज बनी आपकी, है ना ? अपनी धुन में मस्त। शायद इसी कारण आप अलग-अलग तरह की फिल्में बना सके।

जवाब: मैं जब फिल्में बनाता हूं तो अपने आप से बातें करता हूं। अपने विश्वास की फिल्में बनाता हूं। अगर चल गयी तो वाह-वाह, अगर नहीं चली तो हार्ट अटैक तो नहीं आयेगा। आंखें बंद कर अपने आप से पूछता हूं और फिल्म शुरू करता हूं। कभी आपने नहीं देखा होगा कि शराब के नशे में चूर हो गया या डिप्रेशन में चला गया। अरे हम तो लुट गए, मिट गया का शोर मचाते भी नहीं सुना होगा। चली तो ठीक है, नहीं चली तो भी ठीक है।

सच कहूं तो कोई भी पिक्चर फ्लॉप नहीं है। पिक्चर बन कर रीलिज हो जाए पिक्चर हिट है। आप उस पर बातें करते हो। एक अच्छी फिल्म फ्लॉप होती है तो भी उस पर बातें होती हैं। बेडरूम में, घरों में, पत्र-पत्रिकाओं में उसपर बातें होती हैं। कोई फ्लॉप नहीं है। हमने एक विचार दिया दुनिया को। जरुरी नहीं कि वह तुरंत समझ में आये। इसी रवैये के कारण देव आनंद, देव आनंद है। वह अपनी धुन में लगा रहता है। क्या ख्याल है?

सवाल : आपके समय की फिल्मों का प्रेम और आज की फिल्मों के प्रेम में क्या फर्क है? कितना विकास या विस्तार हुआ है?

जवाब : प्रेम तो वही है। प्रेम के लिए जरुरी लड़का-लड़की वही है। कई बार प्रेम का आयाम बदल जाता है। कभी प्रेम स्वार्थ रहित होता है। कई बार प्रेम स्वार्थी होता है। प्रेम में वासना होती है, कभी निष्काम भी होता है प्रेम। प्रेम की बात अच्छी हो तो प्रेम पर बनी फिल्में हमेशा हिट होती हैं। प्रेम कहानी कभी फ्लॉप नहीं होती। फ्लॉप है तो कहानी में गड़बड़ होगी।

जीवन

देव साहब का जन्म 26 सितंबर 1923 को गुरदासपुर में हुआ था, जो अब मौजूदा पाकिस्तान के नारोवाल जिला में है। उनका पूरा मूल नाम धरमदेव पिशोरीमल आनंद था। उनका निधन दिल का दौरा पड़ने से 3 दिसम्बर 2011 को लंदन में हुआ। उनके पिता किशोरीमल आनंद पेशे से वकील थे। उन्होंने लाहौर के गवर्नमेंट कॉलेज से अंग्रेजी साहित्य में स्नातक की शिक्षा हासिल की थी। उनके दोनों भाई, चेतन आनंद और विजय आनंद भी हिन्दुस्तानी फिल्मों के निर्देशक रहे।

उनकी बहन, शील कांता कपूर फ़िल्म निर्देशक शेखर कपूर की मां है। देव आनंद को भारतीय सिनेमा में उनके योगदान के लिए भारत सरकार ने 2001 में पद्म भूषण अलंकरण और 2002 में दादासाहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया। गाइड फिल्म के लिए उन्हें 1967 में और काला पानी फिल्म के लिए 1959 में फ़िल्मफ़ेयर का सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार मिला था।

देव आनंद कामकाज की तलाश में मुंबई पहुंचे थे। उन्होंने ‘मिलट्री सेंसर ऑफिस ‘ में डेढ़ सौ रुपये महीना की पगार पर काम करना शुरू किया। तभी उन्हें प्रभात टाकीज़ की फ़िल्म ‘ हम एक हैं ‘ में अभिनय का मौका मिला, जिसकी पुणे में शूटिंग के दौरान उनकी गुरु दत्त से गहरी मित्रता हो गयी। उनको बॉम्बे टाकीज़ की 1948 में बनी हिट ‘ज़िद्दी’ फ़िल्म में कामिनी कौशल के साथ मुख्य किरदार के अभिनय का मौका मिला। उन्होंने 1949 अपनी फ़िल्म प्रोडक्शन कम्पनी, नवकेतन बनाई और गुरुदत्त के निर्देशन में ‘ बाज़ी ‘ फ़िल्म का निर्माण शुरू किया। 1951 में रिलीज हुई यह फिल्म जबरदस्त हिट हुई।

हमने मुंबई में अग्रणी फिल्म पत्रकार अजय ब्रमहात्मज के अस्वस्थ रहने पर उनके घर कुछ दिनों टिके रहने के दौरान उन 50 भारतीय फिल्मों पर दीपा गहलौत की लिखी एक क्लासिक किताब, “टेक 2: 50 फिल्म्स दैट दिसर्व अ न्यू ऑडियन्स “पढ़ी थी जिसमें लिखा है कि 1952 में बनी “जाल” एकमात्र फिल्म है जिसमें रोमांटिक भूमिकाओं के लिए विख्यात देव आनंद ने गुरुदत्त के कहने पर निगेटिव रोल निभाया था।

यही नहीं हमेशा खलनायक के किरदार में रहे केएन सिंह ने इस एकमात्र फिल्म में अच्छे आदमी की भूमिका निभाई थी। गुरुदत्त ने ही इस फिल्म का निर्देशन किया और उसमें अभिनय भी किया था।

इसके बाद देव आनंद ने ‘टैक्सी ड्राईवर’ फिल्म में काम किया और इस हिट फ़िल्म की नायिका कल्पना कार्तिक से विवाह भी किया। दोनों के 1956 में पैदा हुए बेटे सुनील आनंद ने भी कुछेक फिल्मों में काम किया। दोनों ने 1984 की फिल्म ‘आनन्द और आनन्द’ में एकसाथ काम भी किया। देव आनंद ने फिल्मों में उनके लगभग समकालीन दिलीप कुमार के साथ 1955 में  ‘इंसानियत ‘ फिल्म में अभिनय किया। देव आनंद को उनकी जिस फिल्म ‘ गाइड ‘ को सबसे ज्यादा सफलता मिली उसके निर्माण की कहानी भी बड़ी रोचक है।

यह उनकी पहली रंगीन फ़िल्म थी जो 1865 में रिलीज हुई थी। प्रसिद्ध लेखक आरके नारायण के उपन्यास पर आधारित इस फिल्म का निर्देशन उनके छोटे भाई विजय आनंद ने किया था। देव साहब ने यह उपन्यास अपनी एक यात्रा के दौरान खरीदा था। पूरा पढ़ते ही उन्हें इस पर फिल्म बनाने का आयडिया आया। कहा जाता है विजय आनंद उर्फ गोलडी ने इस शर्त पर गाइड का निर्देशन किया कि उन्हें इसे बनाने में पूरी छूट हो। जब देव साहब इसके लिए राजी हो गए तो विजय आनंद ने उसकी स्क्रिप्ट बदल कर उसे दुखांत से सुखांत कर दिया। फिल्म में नाईका के अभिनय के लिए वहीदा रहमान को रखा गया।

देव आनंद ने विजय आनंद के निर्देशन में ‘ज्वेल थीफ’ फिल्म का निर्माण किया जिसमें वैजयंती माला और समकालीन अभिनेत्री काजोल की मां तनूजा ने अभिनय किया। ज्वेल थीफ का 1996 में रिटर्न ऑफ ज्वैलथीफ नाम से सिकवेल भी बना। उनकी 1970 में बनी फिल्म ‘जॉनी मेरा नाम’  जबरदस्त हिट फिल्म थी। देव आनंद ने कुछ फिल्मों का खुद निर्देशन भी किया जिनमें 1970 में  ‘प्रेम पुजारी’ और 1972 में ‘हरे राम हरे कृष्णा’ शामिल है।

ज़ीनत अमान ने इस फिल्म में उनकी बहन का किरदार निभाया था, जो अपने माता पिता के बीच तनाव से आजिज होकर नशेड़ियों और हिप्पियों ग्रुप में शामिल होकर नेपाल भाग जाती है। उपन्यास पर आधारित अपनी गाइड फिल्म की अपार सफलता से उत्साहित होकर देव साहब ने ए.जे क्रोनिन के उपन्यास द सिटाडेल पर 1971 में ‘ तेरे मेरे सपने ‘ फिल्म बनाइ जिसके निर्देशक विजय आनंद थे। इसकी नाईका मुमताज़ थी।

मीडिया और राजनीति

यह जानकर कि हम मीडिया से हैं, देव साहब ने मुझसे कहा था कि वह अखबारों की खबरों से अपनी फिल्मों की कहानियों को चुनते हैं। उन्होंने भारत में हिप्पी कल्चर में वृद्धि की बेशुमार खबरों को पढ़ने के बाद हरे राम हरे कृष्णा और फिर ग्रेट ब्रिटेन में रहने वाले भारतीयों की दशा दिशा की खबरों को ध्यान में रख कर 1978 में परदेश फिल्म बनाई। उन्होंने परदेश फिल्म में नाईका के किरदार के लिए टीना मुनीम को चुना, जिनका विवाह उद्योगपति अनिल अम्बाली से हुआ है। टीना मुनीम और जीनत अमान को भी फिल्मों में ब्रेक देव साहब ने ही दिया था।

ऐसा नहीं कि देव आनंद को सियासत से दिलचस्पी नहीं थी। उनकी 1972 में बनी फिल्म ‘यह गुलिस्तां हमारा’ को इंदिरा गांधी सरकार के इशारे पर बैन कर दिया गया था। उन्होंने इंदिरा गांधी के अधिनायकवादी राजनीति का विरोध करने के लिए नेशनल पार्टी ऑफ़ इंडिया नाम से एक राजनितिक पार्टी भी बनाई थी। पर यह पार्टी ज्यादा नहीं चली। संयोग की बात है 2005 में रिलीज उनकी आखरी फिल्म, ‘मिस्टर प्राइम मिनिस्टर’ कुछ हद तक राजनीतिक ही थी।

गीत-संगीत

देव आनंद की फिल्मों का संगीत आज भी लोगों के बीच कर्णप्रिय है जिसके लिए उन्होंने सचिन देव बर्मन और उनके बेटे राहुल देव बर्मन, शंकर-जयकिशन, कल्याण जी-आनंद जी की जोड़ी और ओपी नैयर को पसंद किया। उन्होंने अपनी फिल्मों में गीत लिखने गोपाल दास नीरज, आनंद बख्शी, हसरत जयपुरी और मज़रूह सुल्तानपुरी को ही नहीं शैलेन्द्र को भी अपनाया था। मुकेश, महेंद्र कपूर, मोहम्मद रफ़ी, महेंद्र कपूर और किशोर कुमार उनके पसंदीदा पार्श्वगायक थे।

आत्मकथा

अंग्रेजी में लिखी उनकी आत्मकथा ‘रोमांसिंग विद लाइफ’ उनके जन्मदिन के उपलक्ष्य में मुंबई में 12 अक्टूबर 2007 को रिलीज की गई थी। तब भारत के प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह पुस्तक विमोचन समारोह में खास तौर पर तशरीफ़ लाए थे। उनके साथ कांग्रेस नेता सोनिया गांधी भी थी। देव साहब ने अपनी आत्मकथा में अपने दोनों भाइयों चेतन आनंद और विजय आनंद, संगीतकारों सचिन दा, राहुल देव बर्मन उर्फ पंचम, अपने समकालीन अभिनेताओं दिलीप कुमार, राजकपूर, अपनी नाइकाओं गीता बाली, मधुबाला , मीना कुमारी, नूतन, वैजयंतीमाला, मुमताज, हेमा मालिनी वहीदा रहमान, जीनत अमान और टीना मुनीम तक का विस्तार से जिक्र किया है।

पत्रकार होने की हैसियत से उनकी आत्मकथा के विमोचन समारोह में हम भी समाचार संकलन के लिए गए थे। उस मौके पर हमारी देव साहब से जो संक्षिप्त बातचीत हुई थी, उसके कुछ अंश इस संस्मरण में उकेरे गए है। बहरहाल, सदाबहार फिल्म अभिनेता देव आनंद की जन्म शताब्दी के दिन आज उन्हें याद करना रोमांस नहीं तो ऊससे कम भी नहीं है।

(मुंबई में बरसों रहे चंद्र प्रकाश झा लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और इन दिनों दिल्ली में हैं।)

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments