फिल्म समीक्षा: हौसले और संघर्ष की कथा- ट्वेल्फ्थ फेल

कुछ परिचितों, मित्रों से एक हिंदी फिल्‍म ‘ट्वेल्फ्थ फेल’ की तारीफ सुनी तो सोचा चलो टीवी पर देख ही लिया जाए। यह अमेजन प्राईम आदि पर उपलब्ध है लेकिन हमने इसे यूट्यूब के माध्यम से देखा। यू ट्यूब पर इसके दो वर्जन देखने को मिले। पहला वर्जन सामान्य था। अनजान निर्माता और कलाकार थे तो दूसरी फिल्म विधु विनोद चोपड़ा द्वारा प्रोफेशनल तौर पर बनाई गई थी। इन दोनों की कहानी लगभग समान थी।

मध्य प्रदेश के मुरैना जिले के एक गांव का युवा जिसके पिता कृषि विभाग एक्सटेंशन में फील्ड ऑफिसर हैं वह अपनी ईमानदारी की सनक के कारण अधिकारियों से झगड़ कर सस्पेंड हो चुके हैं और परिवार का ठीक से भरण-पोषण करने में असमर्थ हैं। नायक किसी तरह नकल करके ग्यारहवीं पास कर लेता है मगर बारहवीं की परीक्षा में नकल न होने देने पर फेल हो जाता है। अभाव थे, जीवनयापन का संघर्ष था। कोई दिशा नहीं थी। वह एक एसडीएम के रुतबे से प्रभावित होता है जिसने नकल रोकी थी और एसडीएम बनने का सपना पाल लेता है।

आगे पढ़ने के लिए वह ग्वालियर चला जाता है| वहां तरह-तरह के छोटे-मोटे काम करता है जिन्हें अभिजात समाज में अच्‍छा नहीं समझा जाता। लेकिन पढ़ता है और कंपटीशन की तैयारी करता है। फिर उसे एक और युवा मिलता है जो संपन्न है। उसके साथ यूपीएससी की तैयारी करने वह दिल्ली आ जाता है। दिल्‍ली में भी उसका संघर्ष चलता है। यहां प्रेम प्रसंग भी है। तीन बार असफल होने के बाद चौथी बार वह सफल हो जाता है। आईपीएस बन जाता है।

एक सरल सहज कहानी है जो तमाम तरह के अभावों के बावजूद एक युवक मेहनत और दृढ़ इच्‍छाशक्‍ति के कारण अपनी मंजिल पा लेता है। इस नायक का नाम मनोज कुमार शर्मा है जो अब महाराष्ट्र कैडर का आईपीएस अधिकारी है। कहानी प्रेरक है। संदेश मिलता है कि हौसला नहीं छोड़ना चाहिए फिर चाहे जो परेशानियां आएं। मेहनत से ही मंजिल मिलती है। असफल होने के बाद निराश न होकर पुनः प्रयत्न करने में जुट जाना चाहिए। बहुत अच्छा संदेश है। हर व्यक्ति को अभावों और कठिनाइयों से मुठभेड़ कर उनसे मुक्ति पाकर बेहतर जीवन जीने का अधिकार है। इसमें कोई बुराई नहीं है।

यह एक सच्ची कहानी है। यह नायक के मित्र जो अपने साथ उसे दिल्‍ली ले जाता है उसने लिखी है। लेखक का नाम अनुराग पाठक है। कहानी मैने नहीं पढ़ी इसलिए उसका साहित्यिक मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। कहा जा रहा है कि यह बेस्ट सेलर किताब है। इसका विमोचन महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस ने किया था।

हुआ यह कि फिल्म का अंत किसी कारण देखना रह गया था जिस समय इंटरव्यू चल रहा था तो सोचा पांच मिनट के उस दृश्य को भी देख लिया जाये। कल इस फिल्म को फिर से यू ट्यूब पर ढूंढने की कोशिश की। फिल्‍म तो नहीं मिली पर लल्लनटॉप पोर्टल पर असल नायक-नायिका का इंटरव्यू दिखने लगा। इंटरव्यू लल्लनटॉप के चीफ एडिटर सौरभ द्विवेदी द्वारा लिया जा रहा था और बहुत मजे से लिया जा रहा था। समझ में आ रहा था कि यह शायद फिल्म प्रमोशन का हिस्सा है। असल नायक-नायिका से उनकी जबानी उनकी कहानी सुनना रुचिकर था।

साक्षात्कार के दौरान दो-तीन बातें जो नायक द्वारा कही गईं उनपर ध्यान अटका। ये निज जीवन में संतुष्टि, प्रसन्नता और सफलता से संबंधित बातें थीं जो किसी भी व्यक्ति के जीवन के उद्देश्य को पूरा करती हैं। जो असल नायक की आकांक्षा थी वह पूरी भी हुई। उसके  शब्दों में उद्देश्यपूर्ति के लिये निरंतर श्रम करना और प्रेम व सम्मान का अर्जन करना। यह ईमानदारी से किया जाना चाहिए। कोई शॉर्टकट स्थायी तौर पर लाभदायक नहीं होता। यह भी कहा गया कि परिश्रम अपने लिए न सोचकर दूसरों के उपकार के लिए और देशहित में हो तो दृष्टि साफ हो जाती है। उन्हाेंने जो भी किया वह दूसरों के लिए किया। उनकी इन बातों पर ध्यान दें तो हम समझ सकते हैं कि वे निज प्रेम और सम्मान अर्जन में सफल रहे। संतुष्ट भी हैं। कहानी यहां समाप्त हो जाती है। कहानी और फिल्म का उद्देश्य पूरा हो जाता है।

लेकिन तीन बातें जो यहां कही गई हैं उनपर थोड़ा विचार करना आवश्यक है। वे हैं ईमानदारी, परोपकार और देशहित। क्या ईमानदारी अपने सेवाकाल में भी आवश्यक है? संभव है या नहीं? दूसरों पर उपकार का क्या कंसेप्ट है? तीसरा देशहित क्या है। आपने जो सफलता प्राप्त की उसके बाद आप एक तंत्र के अभिन्न अंग बन गये। जो तंत्र ईमानदारी पर आधारित नहीं है। सत्ता अपने हितों के अनुसार तंत्र को ढालती है। आप उसके औजार की तरह काम करते हैं। उससे सहयोग करते हैं। साम्य बिठाते हैं। गलत, सही सारे आदेशों का पालन करते हैं। उससे अलग आप कुछ नहीं करते।

अपना कैरियर सुरक्षित रखने में लगे रहते हैं। तब जन-परोपकार कैसे संभव है? जबकि पूरी व्यवस्था शोषण और भ्रष्ट आचरण पर आधारित है। तब क्या निर्बल, गरीब, दमित को न्याय दिला सकते हैं? क्या थानों की बिकवाली रोक पायेंगे? मुंबई में राजनीति प्रेरित सौ करोड़ प्रति दिन अर्जन की बात होती है। आप उसमें हस्तक्षेप करने का साहस रखते हैं? देशहित क्या सत्ताहित होता है या जनहित और समाज हित होता है? सत्ता और उसके सभी प्रशासनिक अंग सत्ताहित को ही जनहित मानकर चलते हैं। कोई भी प्रशासनिक सेवा हो वह बताई गई व्यवस्था बरकरार रखने के लिए होती है।

औपनिवेशिक दासता की मानसिकता का ही रूप हैं। कुल मिलाकर ये नौकरियां शुद्ध कैरियर हैं और निहायत व्यक्तिगत हित-साधन हैं। थोथे और सतही आदर्श एक ही झोंके में विलुप्त हो जाते हैं। यह एक छद्म है। वहां विरोध और विद्रोह की जगह नहीं होती। बस हुक्म-अदूली ही चाहिए होती है। इतनी मेहनत करने के बाद अगर यही करना पड़े तो स्वाभिमान कहां बचता है? नायक के पिता विद्रोही हैं। वे नौकरी में प्रताड़ित होते हैं। नायक उनकी बात गर्व से नहीं करता। वह उस एसडीएम को भी सम्मानपूर्वक याद नहीं करता जिसने बारहवीं की परीक्षा में नकल रोकी है। जाहिर है आपकी सीमाएं हैं। आप निजी मुक्ति पर मोहित हैं। अपना यश, प्रचार कर रहे हैं।

मुक्तिबोध कहते हैं –

जन संग ऊष्मा के बिना,

व्यक्तित्व के स्तर जुड़ नहीं सकते।

प्रयासी प्रेरणा के स्त्रोत,

सक्रिय वेदना की ज्योति,

सब साहाय्य उनसे लो।

तुम्हारी मुक्ति उनके प्रेम से होगी।

कि तद्गत लक्ष्य में से ही

हृदय के नेत्र जागेंगे,

वह जीवन-लक्ष्य उनके प्राप्त

करने की क्रिया में से

उभर-ऊपर

विकसते जाएंगे निज के

तुम्हारे गुण

अपनी मुक्ति के रास्ते अकेले में नहीं मिलते।

(शैलेन्द्र चौहान साहित्यकार एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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