एमएस सथ्यू की फिल्म ‘गर्म हवा’ छह दशक बाद भी क्यों बनी हुई है प्रासंगिक?

हिंदी सिनेमा में बहुत कम ऐसे निर्देशक रहे हैं, जिन्होंने अपनी सिर्फ़ एक फ़िल्म से फ़िल्मी दुनिया में ऐसी गहरी छाप छोड़ी कि आज भी उसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलती। निर्देशक मैसूर श्रीनिवास सथ्यू यानी एमएस सथ्यू ऐसा ही एक नाम और साल 1973 में आई उनकी ‘गर्म हवा’, ऐसी ही एक कभी न भुलाए जाने वाली फ़िल्म है। एमएस सथ्यू की इकलौती यही फ़िल्म, उनको भारतीय सिनेमा में बड़े फ़िल्मकारों की क़तार में खड़ा करती है। ‘गर्म हवा’ को रिलीज हुए, छह दशक हो गए, मगर यह फ़िल्म आज भी अपने विषय और संवादों की वजह से हमारे मन को उद्वेलित, आंदोलित करती है।

मुल्क के अंदर आज़ादी के शुरुआती सालों में हिंदोस्तानी मुसलमानों की जो मनःस्थिति थी, वह इस फ़िल्म में बख़ूबी उभरकर सामने आई है। फ़िल्म न सिर्फ़ मुसलमानों के मन के अंदर झांकती है, बल्कि बंटवारे से हिंदोस्तानी समाज के बुनियादी ढांचे में जो बदलाव आए, उसकी भी सम्यक पड़ताल करती है। निर्देशक एमएस सथ्यू ने बड़े ही हुनर-मंदी और बारीक नज़र से उस दौर के पूरे परिवेश को फ़िल्माया है।

रंगमंच और सिनेमा में एनिमेशन आर्टिस्ट, असिस्टेंट डायरेक्टर, निर्देशन (फ़िल्म और नाटक), मेकअप आर्टिस्ट, आर्ट डायरेक्टर, प्ले डिजाइनर, लाइट डिजाइनर, लिरिक्स एक्सपर्ट, इप्टा के प्रमुख संरक्षक, स्क्रिप्ट राइटर, निर्माता जैसी अनेक भूमिकाएं एक साथ निभाने वाले एमएस सथ्यू की पैदाइश देश के दक्षिणी प्रदेश कर्नाटक के मैसूर की है। एक कट्टरपंथी ब्राह्मण परिवार में 6 जुलाई, 1930 को जन्मे एमएस सथ्यू को उनके परिवार वाले वैज्ञानिक बनाना चाहते थे, लेकिन सथ्यू ने अपने पिता की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ बीए की पढ़ाई पूरी की और उसके बाद बाद सिनेमा और थिएटर में अपने भविष्य की तलाश में मुंबई रवाना हो गए।

मुंबई रवाना होने से पहले उन्होंने तीन साल कथकली डांस सीखा। कुछ जगहों पर इसे परफॉर्म भी किया। मशहूर नृत्य निर्देशक उदय शंकर की फ़िल्म ’कल्पना’ में काम किया। जो देश की पहली बैले फ़िल्म थी, लेकिन उन्हें आत्म-संतुष्टि नहीं मिली। यही वजह थी कि वे सपनों की नगरी मुंबई पहुंचे। काम की तलाश में छह महीने तक इधर-उधर भटकते रहे। फिर उनकी मुलाकात ख़्वाजा अहमद अब्बास और हबीब तनवीर से हुई। भारतीय जन नाट्य संघ यानी ‘इप्टा’ उस वक़्त मुल्क में उरूज पर था, सथ्यू भी इससे जुड़ गए।

हिंदी-उर्दू ज़बानों पर उनका अधिकार नहीं था, लिहाज़ा उन्होंने पर्दे के पीछे काम करने का रास्ता चुना। इप्टा के उस सुनहरे दौर में उन्होंने उसके लिए कई अच्छे नाटकों का निर्देशन किया। जिनमें ‘आख़िरी शमा’, ‘रोशोमन’, ‘बकरी’, ‘मोटेराम का सत्याग्रह’ और ‘सफ़ेद कुंडली’ वगैरह के नाम शामिल हैं। ‘इप्टा’ से एमएस सथ्यू को ना सिर्फ़ एक वैचारिक चेतना मिली, बल्कि आगे चलकर उनकी जो अखिल भारतीय पहचान बनी, उसमें भी इप्टा का अहम योगदान है।

इप्टा के अलावा एमएस सथ्यू ने ‘हिंदुस्तानी थिएटर’, नाट्य निर्देशक हबीब तनवीर के ‘ओखला रंगमंच’, ‘कन्नड़ भारती’ और दिल्ली के अन्य समूहों की प्रस्तुतियों के लिए थिएटर में सेट डिजाइन करने समेत एक डिजाइनर और निर्देशक के तौर पर भी काम किया। हिंदी, उर्दू और कन्नड़ में 15 से अधिक वृत्तचित्र और 8 फ़ीचर फ़िल्मों के अलावा उन्होंने कई विज्ञापन फ़िल्में भी कीं। लेकिन उन्हें पहचान ‘गर्म हवा’ से ही मिली। ‘गर्म हवा’ ने बॉक्स ऑफ़िस पर तो कोई कमाल नहीं दिखाया, लेकिन क्रिटिक द्वारा यह फ़िल्म ख़ूब पसंद की गई। साल 1974 में फ्रांस के मशहूर ‘कांस फ़िल्म फेस्टिवल’ में गोल्डन पॉम के लिए इसका नॉमिनेशन हुआ। भारत की ओर से यह फ़िल्म ‘ऑस्कर’ के लिए भी नामित हुई।

राष्ट्रीय एकता-अखंडता के लिए इसे सर्वोत्तम फ़ीचर फ़िल्म का ‘नरगिस दत्त राष्ट्रीय पुरस्कार’ मिला। यही नहीं फ़िल्म को तीन ‘फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड्स’ भी मिले। जिसमें बेस्ट डायलॉग कैफ़ी आज़मी, बेस्ट स्क्रीनप्ले अवार्ड शमा ज़ैदी व कैफ़ी आज़मी और बेस्ट स्टोरी अवार्ड इस्मत चुग़ताई की झोली में गए। इसी फ़िल्म के बाद एमएस सथ्यू को साल 1975 में भारत सरकार ने ‘पद्मश्री’ सम्मान से भी सम्मानित किया। 2005 में ‘इंडिया टाइम्स मूवीज’ ने जब बॉलीवुड की सर्वकालिक बेहतरीन 25 फ़िल्में चुनी, तो उसमें उन्होंने ‘गर्म हवा’ को भी रखा। एक अकेली फ़िल्म से इतना सब कुछ हासिल हो जाना, कोई छोटी बात नहीं। वह भी जब यह निर्देशक की पहली ही फ़िल्म हो।

‘गर्म हवा’ में ऐसा क्या है?, जो इसे सर्वकालिक महान फ़िल्मों की श्रेणी में रखा जाता है। ख़ुद एमएस सथ्यू की नज़र में ‘‘फ़िल्म की सादगी और पटकथा ही उसकी ख़ासियत है।’’ जिन लोगों ने यह फ़िल्म देखी है, वे जानते हैं कि उनकी यह बात सौ फ़ीसद सही भी है। साल 1947 में हमें आज़ादी देश के बंटवारे के रूप में मिली। देश हिंदुस्तान और पाकिस्तान दो हिस्सों में बंट गया। बड़े पैमाने पर लोगों का एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में पलायन हुआ। हिंदोस्तानी मुसलमानों के सामने बंटवारे के बाद, जो सबसे बड़ा संकट पेश आया, वह उनकी पहचान को लेकर था। आज़ाद हिंदोस्तान में उनकी पहचान क्या होगी? गोया कि यह वही सवाल था, जो आज़ादी से पहले भी उनके दिमाग को मथ रहा था।

भारत के बंटवारे के बाद जिन मुसलमानों ने पाकिस्तान की बजाए हिंदोस्तान को अपना मुल्क चुना और यहीं रहने का फ़ैसला किया, उन्हें ही इसकी सबसे ज़्यादा क़ीमत चुकानी पड़ी। देखते ही देखते वे अपने मुल्क में पराए हो गए। मानो बंटवारे के कसूरवार, सिर्फ़ वे ही हों। आज़ादी को मिले सात दशक से ज़्यादा गुज़र गए, मगर हिंदोस्तानी मुसलमान आज भी कमोबेश उन्हीं सवालों से दो-चार है। पहचान का संकट और पराएपन का दंश आज भी उनके पूरे अस्तित्व को झिंझोड़ कर रख देता है। यही वजह है कि ‘गर्म हवा’ आज भी अपनी प्रासंगिकता बनाए हुए है। फ़िल्म जब रिलीज़ हुई, तब तो इसकी प्रासंगिकता थी ही, मौजूदा हालात में इसकी और भी ज़्यादा प्रासंगिकता बढ़ गई है।

फ़िल्म का शीर्षक ‘गर्म हवा’ एक रूपक है, साम्प्रदायिकता का रूपक! यह साम्प्रदायिकता की गर्म हवा आज भी हमारे मुल्क पर फन फैलाए बैठी है। यह गर्म हवा जहां-जहां चलती है, वहां-वहां हरे-भरे पेड़ों को झुलसा कर रख देती है। फ़िल्म के एक सीन में सलीम मिर्ज़ा और तांगेवाले के बीच का अर्थवान संवाद है,‘‘कैसे हरे भरे दरख़्त कट जा रहे हैं, इस गर्म हवा में।’’

‘‘जो उखड़ा नहीं, वह सूख जाएगा।’’ एक तरफ ये गर्म हवा फ़िज़ां को ज़हरीला बनाए हुए है, तो दूसरी ओर सलीम मिर्जा जैसे लोग भी हैं, जो भले ही खड़े-खड़े सूख जाएं, मगर उखड़ने को तैयार नहीं। कट जाएंगे, मगर झुकने को तैयार नहीं। फ़िल्म ‘गर्म हवा’ की शुरुआत रेलवे स्टेशन से होती है, जहां फ़िल्म का हीरो सलीम मिर्ज़ा अपनी बड़ी आपा को छोड़ने आया है। एक-एक कर उसके सभी रिश्तेदार, हमेशा के लिए पाकिस्तान जा रहे हैं।

सलीम मिर्ज़ा के रिश्तेदारों को लगता है कि बंटवारे के बाद अब उनके हित हिंदुस्तान में महफ़ूज़ नहीं। बेहतर मुस्तक़बिल की आस में वे अपनी सरज़मीं से दूर जा रहे हैं। पर सलीम मिर्ज़ा इन सब बातों से जरा सा भी इत्तिफ़ाक़ नहीं रखते। वे अपनी जन्मभूमि और कर्मभूमि को ही अपना मुल्क मानते हैं। बदलते हालातों में भी उनका यक़ीन जरा सा भी नहीं डगमगाता। अपने इस यक़ीन पर वे ज़िंदा हैं,‘‘गांधीजी की क़ुर्बानी रायगां (निष्फल) नहीं जाएगी, चार दिन के अंदर सब ठीक हो जाएगा।’’

बहरहाल, पहले सलीम मिर्ज़ा की बड़ी बहन, फिर भाई और उसके बाद उनका जिगर का टुकड़ा बड़ा बेटा भी हिंदुस्तान छोड़, पाकिस्तान चला जाता है। पर वे तब भी हिम्मत नहीं हारते। हर हाल में वे ख़ुश हैं। जबकि एक-एक कर, दुःखों का पहाड़ उन पर टूटता जा रहा है। अपने उनसे जुदा हुए तो हुए, साम्प्रदायिक दंगों की आग में उनके जूते का कारख़ाना जलकर तबाह हो जाता है। पुरखों की हवेली पर कस्टोडियन का कब्जा हो जाता है। और तो और ख़ुफिया महकमा उन पर पाकिस्तानी जासूस होने का इल्ज़ाम भी लगा देता है, जिसमें वे बाद में बा-‘इज़्ज़त बरी होते हैं। इतना सब कुछ हो जाने के बाद भी सलीम मिर्ज़ा को आस है कि एक दिन सब कुछ ठीक-ठाक हो जाएगा। ज़िंदगानी के संघर्ष में वे उस वक़्त पूरी तरह टूट जाते हैं, जब उनकी जान से प्यारी बेटी आमना ख़ुदकुशी कर लेती है।

बेटी आमना की खुदकुशी के बाद, वे फ़ैसला कर लेते हैं कि अब हिंदुस्तान नहीं रुकेंगे। अपने परिवार को लेकर पाकिस्तान चले जाएंगे। अब आख़िर, यहां बचा ही क्या है! पर फ़िल्म यहां ख़त्म नहीं होती, बल्कि यहां से वह फिर एक नई करवट लेती है। फ़िल्म के आख़िरी सीन में सलीम मिर्ज़ा अपना मुल्क छोड़कर, उसी तांगे से स्टेशन जा रहे हैं, जिस तांगे से उन्होंने अपनों को पाकिस्तान के लिए स्टेशन छोड़ा था। तांगा रास्ते में अचानक एक जुलूस देखकर ठिठक जाता है। जुलूस मज़दूर, कामग़ारों और बेरोजगार नौजवानों का है, जो ‘‘काम पाना हमारा मूल अधिकार!’’ की तख़्तियों को लिए नारेबाजी करता हुआ आगे जा रहा है।

सिंकदर अपने अब्बा से आंखों ही आंखों में कुछ पूछता है। सलीम मिर्ज़ा, जो अब तक सिंकदर की तरक़्क़ी पसंद बातों को हवा में उड़ा दिया करते थे, कहते हैं ‘‘जाओ बेटा, अब मैं तुम्हें नहीं रोकूंगा। इंसान कब तक अकेला जी सकता है?’’ सिकंदर, जुलूस की भीड़ में शामिल हो जाता है। सलीम मिर्ज़ा इस जुलूस को देखते-देखते यकायक ख़ुद भी खड़े हो जाते हैं और अपनी बेगम से कहते हैं,‘‘मैं भी अकेली ज़िंदगी की घुटन से तंग आ चुका हूं। तांगा वापिस ले लो।’’ यह कहकर वे भी उस भीड़ में शामिल हो जाते हैं, जो अपने हक़ों के लिए संघर्ष कर रही है। बेहतर भविष्य का सपना और उसके लिए एकजुट संघर्ष का पैग़ाम देकर, यह फ़िल्म अपने अंजाम तक पहुंचती है।

एक लिहाज़ से देखें तो यह फ़िल्म का सकारात्मक अंत है। जो एक विचारवान निर्देशक के ही बूते की बात है। और यह सब इसलिए मुमक़िन हुआ कि इस फ़िल्म से जो टीम जुड़ी हुई थी, उनमें से ज़्यादातर लोग तरक़्क़ी पसंद और वामपंथी आंदोलन से निकले थे। फ़िल्म उर्दू की मशहूर लेखिका इस्मत चुग़ताई की कहानी पर आधारित है। इस कहानी को और विस्तार दिया, शायर कैफ़ी आज़मी ने। रंगमंच की एक और मशहूर हस्ती शमा ज़ैदी ने कैफ़ी के साथ मिलकर इस फ़िल्म की पटकथा लिखी। संवाद जो इस फ़िल्म की पूरी जान हैं, उन्हें भी कैफ़ी ने ही लिखा और उन्हें एक नई अर्थवत्ता प्रदान की। ‘गर्म हवा’ के संवाद इतने चुटीले हैं कि फ़िल्म में कई जगह यह संवाद ही, अभिनय से बड़ा काम कर जाते हैं। मसलन ‘‘अपने यहां एक चीज़ मज़हब से भी बड़ी है, और वह है रिश्वत।’’

‘‘नई-नई आज़ादी मिली है, सब इसका अपने ढंग से मतलब निकाल रहे हैं।’’

फ़िल्म के मुख्य किरदार सलीम मिर्ज़ा का रोल निभाया है बलराज साहनी ने। उनके बिना इस फ़िल्म का तसव्वुर भी नहीं किया जा सकता था। बलराज साहनी की यह आख़िरी फ़िल्म थी। फ़िल्म में निर्देशक एमएस सथ्यू ने कैफ़ी आज़मी की नज़्म का बहुत बढ़िया इस्तेमाल किया है। कैफ़ी की यह बेहतरीन नज़्मों में से एक है। नज़्म साम्प्रदायिकता पर है और फ़िल्म में बिल्कुल सटीक बैठती है। नज़्म दो हिस्सों में है। पहला हिस्सा फ़िल्म की शुरुआत में शीर्षक के दौरान पार्श्व में गूंजता है,‘‘तक़्सीम हुआ मुल्क, तो दिल हुआ टुकड़े-टुकड़े/हर सीने में तूफ़ां यहां भी था, वहां भी/हर घर में चिता जलती थी, लहराते थे शोले/ हर घर में शमशान वहां भी था, यहां भी/ गीता की न कोई सुनता, न क़ुरान की/ हैरान इंसान यहां भी था और वहां भी।’’

नज़्म का बाकी हिस्सा फ़िल्म के अंत में आता है,‘‘जो दूर से करते हैं नज़ारा/ उनके लिए तूफ़ान वहां भी है, यहां भी/ धारे में जो मिल जाओगे, बन जाओगे धारा/ यह वक़्त का ऐलान यहां भी है, वहां भी।’’ बंटवारे की त्रासदी और उसके बाद एक सकारात्मक संदेश, गोयाकि फ़िल्म का पूरा परिदृश्य नज़्म में उभरकर सामने आ जाता है।

हिंदी सिनेमा इतिहास में ‘गर्म हवा’ ऐसी पहली फ़िल्म है, जो बंटवारे के बाद के भारतीय समाज की सूक्ष्मता से पड़ताल करती है। फ़िल्म का विषय जितना नाज़ुक है, निर्देशक एमएस सथ्यू और पटकथा लेखक कैफ़ी आजमी ने उतना ही उसे हुनर-मंदी से संभाला है। जरा सा भी लाउड हुए बिना, उन्होंने साम्प्रदायिकता की नब्ज़ पर अपनी उंगली रखी है। ‘गर्म हवा’ में ऐसे कई सीन हैं, जो विवादित हो सकते थे, लेकिन एमएस सथ्यू की निर्देशकीय सूझ-बूझ का ही नतीजा है कि यह सीन जरा सा भी लाउड नहीं लगते।

बड़े ही संवेदनशीलता और सावधानी से उन्होंने इन दृश्यों को फ़िल्माया है। फ़िल्म का कथानक और इससे भी बढ़कर सकारात्मक अंत, फ़िल्म को एक नई अर्थवत्ता प्रदान करता है। विभाजन से पैदा हुए सवाल और इन सबके बीच सांस लेता मुस्लिम समाज। विस्थापन का दर्द और कराहती मानवता। उस हंगामाखेज दौर का मानो एक जीवंत दस्तावेज है, ‘गर्म हवा’।

भारतीय सिनेमा का जब-जब इतिहास लिखा जाएगा, उसमें फ़िल्म ‘गर्म हवा’ का नाम ज़रूर शामिल होगा। एमएस सथ्यू इस साल अपना 93वां जन्मदिन मना रहे हैं। वे आज भी रंगमंच और इप्टा में पहले की तरह नई पीढ़ी की रहनुमाई कर रहे हैं। इतनी उम्र के बाद भी न तो उनके जज़्बे में कोई कमी आई है और न ही कमिटमेंट में। सथ्यू साहब को जन्मदिन की बहुत-बहुत मुबारकबाद!

(ज़ाहिद ख़ान स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

5 1 vote
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments