उस्ताद राशिद खान को मैंने सुनना सीखा

भारतीय संगीत में नाद की संकल्पना है। शब्द, स्वर, तान जैसी शब्दावलियों में नाद एक व्यापक अर्थ लिए हुए है। लेकिन, इसमें एक सन्निहित अर्थ है पुकार। बडे़ गुलाम अली खान, गिरिजा देवी की ठुमरी को जिसने भी सुना है, वह उस पुकार को जो जरूर सुना होगा, जिसमें सारा संसार अतीत और वर्तमान बनकर आपकी रगों में उतरता है। जब राशिद खान ने ठुमरी को एक लोकप्रिय अंदाज में गया तो आधुनिकता से लबरेज युवा वर्ग उनकी गायकी का दीवाना हो गया। ‘आवोगे जब तुम …’ इसी तरह की गायकी थी। परम्परा को दिल में बसाये हुए वह नये युवा वर्ग को अपनी गायकी के करीब ले आये।

मैंने राशिद खान को काफी देर से जाना और फिर सुनना शुरू किया। मेरे प्रिय राग बागेश्री, यमन-कल्याण और मालकौंस रहे हैं। इलाहाबाद में जब मैंने शास्त्रीय संगीत सीखना शुरू किया तब शुरुआती दौर में राग भोपाली, राग यमन कल्याण और बागेश्री ही थे जिनके स्वरों में डूबना अच्छा लगता था।

संभवतः 1993 की बात थी जब महाराष्ट्र से उभरते युवा गायक संजीव अभ्यंकर के गायन का कार्यक्रम आयोजित था। उस समय इलाहाबाद में संगीत, नाटक, साहित्य की काफी गहमागहमी थी। संजीव अभ्यंकर ने राग बागेश्री की एक लंबी प्रस्तुति दी। अद्भुत माहौल था। उनकी गायकी मेरे दिल में उतर गई थी। उनकी गायकी में जो नाद था, वह स्वर सुनने की मेरी क्षमता का हिस्सा बन गया था। 1995 में जब माचिस फिल्म आई, तब उनकी इसी पुकार और अलाप का प्रयोग इसमें किया गया था। बर्फ की ठंडी हवाओं के बीच याद और उम्मीद, संघर्ष और जीने की अदम्य इच्छा को रूप देता हुआ उनका स्वर इस फिल्म का अप्रतिम हिस्सा है।

शास्त्रीय संगीत सीखने के दौरान ही मेरा झुकाव राजनीति की ओर हुआ। नवउदारवाद, वैश्वीकरण और साम्राज्यवादी पूंजीवाद की नई खेप इस देश में आ रही थी। इसी के साथ सांप्रदायिकता हिंदुत्व के कंधे पर चढ़ते हुए राज्य का फासीवादी चरित्र का और भी पुख्ता करने की ओर बढ़ रही थी। मेरे संगीत के गुरु परम्परा के आग्रही थे, लेकिन उनका आग्रह इसकी लोकप्रियता को लेकर भी था। उनका जोर सबसे पहले परम्परागत संगीत ज्ञान पर पकड़ बना लेने पर था। मैं उनसे पूरी तरह से सहमत था।

उसी समय मैं पहली बार उनसे पंडित हरिप्रसाद चौरसिया के बारे में सुना कि वह फिल्मों में सक्रिय हैं और विदेश की यात्राएं कर रहे हैं। मैं शास्त्रीय संगीत के स्वरों पर रियाज कर रहा था जिसमें एक बैठकी में दो-दो घंटे निकल जाते और दूसरी ओर संगीत की इस दुनिया के बारे में उनसे नई-नई कहानियां सुन रहा था। मैं इस बात से अनभिज्ञ था कि मेरे समय में जो दुनिया बन रही है वह शास्त्रीय संगीत की दुनिया पर भी दबाव बना रही है। यह दबाव 1970-80 के दशक से काफी अलग था।

अंततः मैंने शास्त्रीय संगीत को अलविदा कहा और राजनीति की दुनिया में पूरी तरह से सक्रिय हो गया। इस रास्ते पर चलते हुए भी संगीत का साथ नहीं छूटा। मेरे जानने वालों में कुछ लोग थे, जो अंग्रेजी पॉप संगीत से वाकिफ थे, कई बार सुनने की कोशिश किया लेकिन यह मेरी समझ से बाहर था। इस दौरान शुभा मुद्गल ने शास्त्रीय संगीत को पॉप संगीत की बीट पर गायकी को नया रूप दिया। सारंगी वादक उस्ताद सुल्तान खान ने ठंडी रेत पर लहरें बनाती हुई आवाज के साथ अपनी गायकी से एक नई बयार ही चला दी।

शास्त्रीय संगीत की दुनिया में शास्त्रीयता और लोकप्रियता को लेकर बहस चल पड़ी। मेरा रुख शास्त्रीयता पर जोर देने का रहा और शुभा मुद्गल को सुनने का मौका मिला, लेकिन उन्हें सुनने नहीं गया। इस क्रम में, दिल्ली में दो बार उस्ताद राशिद खान को सुनने का मौका मिला, लेकिन नहीं सुना। ऐसा नहीं था, कि दोनों शास्त्रीय संगीत के साधक और गायक नहीं थे, निश्चित ही उनका गायन शानदार है। लेकिन, लोकप्रियता के मसले पर मेरे मन में एक पूर्वाग्रह आ गया था।

2002 में छपी ईना पुरी के तत्वावधान में पंडित शिव शर्मा के संस्मरणों के आधार पर लिखी गई ‘जर्नी विद हंड्रेड स्ट्रींग’ उनकी जीवनी छपकर आई। मुझे इस पुस्तक को पढ़ने का मौका 2007 में ही लग पाया। यह पुस्तक भारतीय शास्त्रीय संगीत के इतिहास को उसके वर्तमान के साथ जोड़ते हुए सामने लाता है। आत्मकथ्य के अंदाज में लिखी गई यह पुस्तक सिर्फ पंडित शिव शर्मा की जीवनी नहीं है। इसका एक छोर संगीत की महान हस्तियों से जाकर जुड़ता है तो दूसरा छोर उस्ताद राशिद खान और पंडित अजय चक्रवर्ती से मिल जाता है।

यह पुस्तक 1980 के दशक में विश्व संगीत के साथ उसके जुड़ने की कहानी और उस अंतर्गाथा को भी बताती है जिसमें बीटल्स हैं, और साथ ही भारतीय संगीत की वह बेचैनी भी जिसमें वह अपनी एकांतिकता तोड़ देना चाहता है। इस पुस्तक में पंडित शिव शर्मा भारतीय शास्त्रीय संगीत की शास्त्रीयता को बचाने की मुहिम के बारे में बताते हैं। उस मुहिम के पहले शिष्यों में उस्ताद राशिद खान थे।

जिस समय उस्ताद राशिद खान को जानना शुरू किया, उस समय तक मेरे पास रिकार्डिंग सुनने का कोई साधन नहीं था। राजनीतिक जीवन की उठापटक में मेरे साथ कुछ दोस्त इस बहस में भी लगे हुए थे कि हमारा संगीत किस तरह का होना चाहिए! क्रांतिकारी गीत की परम्परा निश्चित ही शब्दों पर जोर देती है। मैं अक्सर उनसे गदर के मंच पर आने और रेला रे, रेला रे, … के आह्वान भरी पुकार, स्वर, नाद के बारे में बात करता जिसको सुनते ही लोगों का दिल गदर के बैले प्रस्तुति के साथ जुड़ जाता था। इस संदर्भ में एक कम्युनिस्ट धारा के लोग उनकी पुकार को ‘अतीत की पुकार’ बताते हुए पिछड़ा संगीत बताया। लेकिन, लोगों का उस संगीत को सुनने के लिए खींचे चले आने में ऐसा कुछ था जो उसे भविष्य के जीवन से ले जाकर जोड़ देता था।

संभवतः 2017 की जाड़े की ही एक रात थी। इस समय तक मेरे पास ब्ल्यूटुथ का एक साउंड सिस्टम आ गया था। यूट्यूब पर शास्त्रीय गायकों के पुराने एलबम अपलोड होने लगे थे। मैं पंडित हरिप्रसाद चौरसिया का एलबम ‘मून मैजिक’ सुन रहा था। इस अलबम के खत्म होने के बाद उस्ताद राशिद खान का गाया हुआ ‘राग बागेश्री’ बजने लगा। यह उनकी एक पुराने समय की गायकी थी। इस गायकी का अलाप मुझे दिल्ली की उस सर्द रात से उठाकर इलाहाबाद के उस महफिल में पहुंचा दिया जहां संजीव अभ्यकंर अपनी प्रस्तुति दे रहे थे। इस बार का सुनना पंडित संजीव अभ्यंकर की खुली हुई आवाज के साथ बहते जाने वाला अनुभव नहीं था।

इस गायकी में गति, ठहराव और संयम में समाई हुई जिंदगी थी, जो सारे सुरों को छूते हुए भी मध्यम स्वरों पर आकर टिक जा रही थी। मैं उस्ताद राशिद खान की आवाज में, उसके नाद में डूब गया था। लगभग एक घंटे की यह गायकी मुझे उस्ताद राशिद खान के पास ले गई। कई बार उनमें शोभा गुर्टू की वह खनक सुनाई देती है, जिससे स्वरों से रंग बिखरते से लगते हैंः ‘रंग सारी गुलाबी ..’। कई बार गिरिजा देवी की आवाज उनके आवाज के साथ मिलते हुए प्यार भरे उलाहने और ठीसते दर्द को बयां कर जाता है। साथ उनकी आवाज में पंडित भीमसेन जोशी गमक भरी महक होती है जिसको सुनते हुए कोई भी वाह कह उठे।

वह महज 58 साल की उम्र में अलविदा कह गये। जिस दौर में उनकी आवाज खामोश हुई है, उस समय तक नये युवा गायक उभर कर आये हैं। इनकी गायकी में निश्चित ही रूमानियत है और पॉप कल्चर का काफी दबाव भी है। भारतीय शास्त्रीय संगीत में जिस दहलीज पर उस्ताद राशिद खान खड़े थे, समय उससे आगे चला गया है। राजनीतिक माहौल में धर्म उन्माद का रूप ले लिया है। संस्कृति की छत पर फासीवादी राष्ट्रवाद की चीखें उठ रही हैं। जिंदगी रोजगार की तलाश और दो जून की रोटी में पामाल हो रही है। मध्य और धनिक वर्ग लूट और मुनाफे की हवस में डूबा हुआ है। ऐसे में शास्त्रीय होना एक बेहद चुनौतीपूर्ण काम है। निश्चित ही, रास्ता निकलेगा। शुभा मुद्गल की गायकी ‘गर हो सके तो अब कोई शमां जलाइए..’ एक उम्मीद भरे रास्ते को दिखाता है।

(अंजनी कुमार स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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