‘जवान’ कहता है एटली की फिल्म ‘जवान’ को अगले साल चुनाव के समय जरुर देखा जाना चाहिए। हालांकि अभी तक इस फिल्म की जितनी मीडिया में चर्चा हुई है वह इसकी कमर्शियल सफलता को लेकर हुई है। भारत की सर्वाधिक कमाई करने वाली फिल्मों में यह पांचवे नंबर तक पहुंच चुकी है। 285 करोड़ रुपये में बनी इस फिल्म ने अब तक लगभग 1100 करोड़ रूपये की कमाई कर ली है। हर रोज चर्चा भी इसी बात की रही है कि किस दिन कितने पैसे कमाए।
लेकिन इसमें सबसे जरूरी बात जो छूट गई वह यह है कि सरकार के पास पिछले दस साल थे सब कुछ करने के, लेकिन नहीं किया। पूरी फिल्म शुरुआत से लेकर आखिरी तक वर्तमान सत्ता व सत्ताधारी पार्टी की धज्जियां उड़ाती नजर आती है और साथ ही साउथ फिल्मों की तरह भरपूर एक्शन, रोमांस, ड्रामा आम दर्शकों को भी बांधे रखता है। दरअसल यह साउथ की फिल्मों और वहां के समाज की चेतना भी है कि उनकी हर फिल्म में कहीं किसान की समस्या, तो कहीं विस्थापन की समस्या तो कहीं कॉर्पोरेट द्वारा जमीन अधिग्रहण की समस्या स्थान पाती रही हैं।
‘जवान’ ने वह तमाम मुद्दे उठाए हैं जो पिछले दस सालों में उभर कर आए हैं। पहली कहानी में ‘जवान’ कर्ज में डूबे किसानों की आत्महत्या, कर्ज लेकर मौज मनाते, टैक्स माफ करवाते, एनएपीए का खेल खेलते पूंजीपतियों को दर्शाया गया है। बहुत सरल उदाहरण देते हुए ‘जवान’ कृषि मंत्री से सवाल पूछता है–मर्सिडिज पर अधिक टैक्स है या ट्रैक्टर पर। मंत्री का जवाब होता है मर्सिडिज पर, लेकिन पीछे खड़ा उसका सचिव सकपका जाता है, ‘जवान’ मंत्री को बताता है कि आपकी सरकार में ट्रैक्टर पर टैक्स ज्यादा है। यह कहानी पिछले दस सालों में बाहर भाग गए पूंजीपतियों को दिखाती है।
दूसरी कहानी एक महिला डॉक्टर के इर्द-गिर्द घूमती है, बीमार बच्चों को ऑक्सीजन न मिलने से दर्जनों बच्चे मर जाते हैं, अस्पताल में व्यवस्था नहीं होती, वह व्यवस्था करने की कोशिश करती है, मिन्नत कर दुकानदारों से ऑक्सीजन लेंडर मांगती है लेकिन तब तक बच्चे मर जाते है। उल्टा केस महिला डॉक्टर पर आता है और उसके जेल हो जाती है। यह कहानी डॉक्टर कफील खान की कहानी से मिलती है।
कहानी में सेना के अंदर हथियार व अन्य रक्षा सौदों में होने वाले भ्रष्टाचार को भी दिखाया है और एक पूंजीपति द्वारा विदेशी पूंजी के साथ मिलकर पूरी की पूरी सरकार ही अपनी बनाने की साजिश रचते हुए भी दिखाया गया है। फिल्म का खलनायक काली जो बड़ा पूंजीपति भी है–रूस जाकर गैंगेस्टरों, स्मगलरों, पूंजीपतियों से मीटिंग करता है कि हमें बार- बार राजनेताओं की मिन्नत करनी पड़ती है कानून ढीले करवाने के लिए, क्यों न हम ही सरकार बना लें, कौन-कौन निवेश करेगा। एक पैसे लगाने के लिए तैयार होता है और देश में खुद की सरकार बनाने की कवायद शुरू होती है।
फिल्म का नायक अपना खुद का गैंग बना कर, किडनेपिंग कर समस्याएं उठाता है और उनको हल करवाता है। वह एक पूंजीपति की बेटी अगवा कर, 40 हजार करोड़ की फिरौती लेकर किसानों के कर्ज माफ कर देता है, स्वास्थ्य मंत्री को किडनेप कर अस्पतालों की व्यवस्था सुधार देता है, पूंजीपति द्वारा सरकार बनाने के लिए लगाए जा रहे पैसों को चुरा कर उनकी साजिश रोक देता है। इसमें साथ देती हैं वह महिलाएं जो पीड़ित थी।
दरअसल ‘जवान’ का नायक खुद भी पीड़ित है, आजाद (शाहरुख खान) विक्रम राठौड़ (सैनिक अधिकारी, शाहरुख खान) का बेटा है जो सेना में भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाता है, उसको ठेकेदार पूंजीपति (काली) मार कर देश की सीमा से बाहर फेंक देता है। पुलिस उनके घर छापा मार कर दीपिका पादुकोण को आजाद की मां को पकड़ लेती है और कहती है कि तेरा पति देशद्रोही था। आरोप लगता है कि वह विदेश में सूचनाएं भेजता था। दीपिका पादुकोण को भी उसके साथ अभियुक्त बना कर फांसी दे दी जाती है। आजाद महिला जेल में पलता बढ़ता है। बाद में उसी जेल में जेलर बनता है और अपनी तरह पीड़ित महिला कैदियों से गैंग बना कर व्यवस्था सुधारने की कोशिश करता है।
फिल्म के आखिर में दर्शकों को संबोधित करता है– हम ऐसा काम क्यों कर रहे हैं। वह उंगली दिखाता है। कि आप लोग अगर इसका इस्तेमाल सही करें तो हमें यह करने की जरूरत नहीं है। वह इशारा करता है कि जब मच्छर की क्वाईल खरीदने के लिए इतने सवाल करते हैं तो वोट मांगने आने वालों से सवाल क्यों नहीं जो अगले पांच साल के लिए आपका भविष्य तय करते हैं। यह वोटर और उम्मीदवार के बीच के रिश्ते को सवालों पर ला खड़ा करता है। यह संदेश देता है कि वोट मांगने आने वाले से सवाल करें कि अगले पांच साल वह मेरे लिये क्या करेगा।
(विकास सलायन स्वतंत्र पत्रकार हैं।)