जन्मदिवस पर विशेष: स्वतंत्रता आंदोलन के नायक विद्यार्थी ने लिखी थी पत्रकारिता की भी नई इबारत

हिंदी पत्रकारिता में गणेश शंकर विद्यार्थी की हैसियत शिखर पुरुष के तौर पर है, तो वहीं देश के स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी पहचान महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी की है। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से प्रेरित विद्यार्थी, ‘जंग-ए-आज़ादी’ के एक निष्ठावान सिपाही थे। किशोरावस्था में ही गणेश शंकर विद्यार्थी को पत्रकारिता में दिलचस्पी हो गई थी।

अपने दौर के चर्चित अख़बारों ‘भारत मित्र’ और ‘बंगवासी’ का वे गंभीरतापूर्वक अध्ययन करते थे। जिसका असर यह हुआ कि उनमें पढ़ने-लिखने का शौक़ भी बढ़ता चला गया। पढ़ने के प्रति उनकी ये दीवानगी ही थी कि थोड़े से ही वक़्त में उन्होंने दुनिया भर के बड़े-बड़े विचारक-लेखकों मसलन वाल्टेयर, थोरो, इमर्सन, जान स्टुअर्ट मिल, शेख़ सादी वगैरह की प्रमुख कृतियों को पढ़ लिया था।

पढ़ते-पढ़ते उनके अंदर लेखन का अंकुर जागा और साल 1911 में महज़ सोलह साल की छोटी सी उम्र में उनका पहला लेख, ‘आत्मोत्सर्ग’ उस दौर के चर्चित समाचार-पत्र ‘सरस्वती’ में प्रकाशित हुआ। उस समय ‘सरस्वती’ का संपादन आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के ज़िम्मे था। गणेश शंकर विद्यार्थी, द्विवेदी जी के व्यक्तित्व एवं विचारों से बेहद प्रभावित थे और उन्हीं का असर था कि वे भी पत्रकारिता के क्षेत्र में आ गए।

महावीर प्रसाद द्विवेदी के सान्निध्य में उन्होंने बहुत कुछ सीखा। समाचार-पत्र ‘सरस्वती’ के अलावा उनकी रचनाएं ‘कर्मयोगी’, ‘स्वराज्य’, ‘हितवार्ता’ आदि में भी छपती रहीं। विद्यार्थी का लेखन सरोकारों का लेखन था और सरोकार था अपने समाज एवं देश के प्रति।

महामना पंडित मदन मोहन मालवीय के समाचार-पत्र ‘अभ्युदय’ से भी गणेश शंकर विद्यार्थी का नाता रहा। उन्होंने इस समाचार-पत्र में कुछ दिनों तक सहायक सम्पादक की ज़िम्मेदारी संभाली। कुछ दिनों उन्होंने ‘प्रभा’ का सम्पादन किया। 9 नवम्बर, 1913 को गणेश शंकर विद्यार्थी ने कानपुर से ख़ुद का समाचार-पत्र ‘प्रताप’ शुरू किया। इस समाचार पत्र के पहले ही अंक के अपनी संपादकीय में उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि, “यह पत्र राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन, सामाजिक-आर्थिक क्रांति, जातीय गौरव, साहित्यिक-सांस्कृतिक विरासत के लिए संघर्ष करेगा।”

विद्यार्थी ने अपने इस संकल्प को ‘प्रताप’ में लिखे अग्रलेखों में लगातार अभिव्यक्त किया। जिसकी वजह से अंग्रेज़ हुकूमत ने उन्हें कई मर्तबा जेल भेजा और उनके समाचार-पत्र पर जुर्माना लगाया। लेकिन गणेश शंकर विद्यार्थी इन कार्रवाइयों से जरा सा भी नहीं घबराए। अंग्रेज़ सरकार से उनकी लड़ाई अनवरत चलती रही। ‘प्रताप’ के माध्यम से उन्होंने देश के किसानों, मिल मज़दूरों और दबे-कुचले लोगों के दुखों को उजागर किया। आगे चलकर ‘प्रताप’ देश की आज़ादी की लड़ाई का मुख-पत्र साबित हुआ।

यह समाचार-पत्र क्रान्तिकारी विचारों व देश के स्वतंत्रता वीरों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन गया। भगत सिंह की कई क्रांतिकारी रचनाएं ‘प्रताप’ में ही प्रकाशित हुईं। एक और बड़े क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा भी ‘प्रताप’ में ही छपी थी। आलम यह था कि एक वक़्त बालकृष्ण शर्मा नवीन, सोहन लाल द्विवेदी, गया प्रसाद शुक्ल ‘सनेही’, प्रताप नारायण मिश्र जैसे तमाम देशभक्त लेखक, कवि ‘प्रताप’ से ही जुड़े थे।

अपने क्रांतिकारी तेवरों की वजह से ‘प्रताप’ को अंग्रेज़ी हुकूमत का पहला ग़ुस्सा 22 अगस्त, 1918 को झेलना पड़ा। नानक सिंह की ‘सौदा-ए-वतन’ नामक कविता से अंग्रेज़ सरकार इतनी नाराज हो गई कि उसने गणेश शंकर विद्यार्थी पर राजद्रोह का इल्ज़ाम लगाते हुए, पहली बार ‘प्रताप’ पर पाबंदी लगा दी। इस दमन से गणेश शंकर विद्यार्थी और भी ज़्यादा मजबूत होकर निकले।

विद्यार्थी ने सरकार की दमनपूर्ण नीति की ऐसी ज़ोरदार मुख़ालफ़त की कि देशवासी ‘प्रताप’ की मदद के लिए उनके कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हो गए। देशवासियों के सहयोग से एक बार जब आर्थिक संकट हल हुआ, तो ‘प्रताप’ का प्रकाशन साप्ताहिक से दैनिक हो गया। 23 नवम्बर, 1920 से ‘प्रताप’ दैनिक समाचार पत्र के तौर पर निकलने लगा। अंग्रेज़ हुकूमत और उसकी नीतियों के लगातार विरोध में लिखने से ‘प्रताप’ की पहचान सरकार विरोधी बन गई।

तत्कालीन मजिस्ट्रेट मि. स्ट्राइफ़ ने अपने हुक्मनामे में ‘प्रताप’ को ‘बदनाम पत्र’ की संज्ञा देते हुए, इस समाचार-पत्र की जमानत राशि ज़ब्त कर ली। अपनी पत्रकारिता के दौरान गणेश शंकर विद्यार्थी कई बार अंग्रेज़ी हुकूमत के निशाने पर आए और उन्हें जेल जाना पड़ा। लेकिन अंग्रेज़ सरकार की सज़ा भी विद्यार्थी के हौसलों को पस्त नहीं कर पाई। जेल से वापस आकर वे फिर उसी जज़्बे से अपने काम में लग जाते थे।

प्रेमचंद की तरह गणेश शंकर विद्यार्थी भी पहले उर्दू में लिखते थे, लेकिन बाद में वे हिंदी में लिखने लगे। पत्रकारिता उनके लिए एक मिशन थी। समाचार-पत्रों में अपने अग्र लेखों, सम्पादकीय और निबंधों से उन्होंने देश में नवजागरण लाने का काम किया। वे सिर्फ़ अपने ही नाम से नहीं लिखते थे, बल्कि उन्होंने कई छद्म और कल्पित नामों से भी लिखा। मसलन श्रीकांत, हरि, दिवाकर, कलाधर, लंबोधर, गजेन्द्र बैठाठाला ग्रेजुएट आदि।

गणेश शंकर विद्यार्थी धर्म के आडंबर, धार्मिक कर्मकांडों और साम्प्रदायिकता के घोर विरोधी थे। अपनी पत्रकारिता से एक तरफ़ वे देशवासियों को देश के हक़ में खड़ा होने के लिए तैयार कर रहे थे, तो दूसरी ओर उनमें आपसी भाईचारा और साम्प्रदायिक सौहार्द बढ़ाने के लिए भी काम कर रहे थे। अंग्रेज़ों की ‘बांटो और राज करो’ की नीति को वे अच्छी तरह से समझते थे। लिहाज़ा अपनी क़लम के माध्यम से उन्होंने देश के दो बड़े समुदाय हिंदू और मुस्लिम को जोड़ने का महत्वपूर्ण काम किया।

27 अक्टूबर, 1924 को समाचार-पत्र ‘प्रताप’ में ‘धर्म की आड़’ शीर्षक से प्रकाशित लेख में इन दोनों समुदायों को आगाह करते हुए वे लिखते हैं,‘‘इस समय देश में धर्म की धूम है। उत्पात किए जाते हैं, तो धर्म और ईमान के नाम पर।’’

गणेश शंकर विद्यार्थी की समझाइश के बाद भी अंग्रेज़ हुकूमत देशवासियों को आपस में लड़वाने में कामयाब हो रही थी। छोटी-छोटी सी बात में देश में साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठते। जब भी कहीं कोई साम्प्रदायिक संघर्ष या दंगा होता, विद्यार्थी अपने लेखन से समाज में जागरूकता फैलाने का काम करते। अपनी तीख़ी टिप्पणियों से वे किसी को भी नहीं बख़्शते थे। फिर वे साम्प्रदायिक हिंदू हों या फिर मुसलमान।

गणेश शंकर विद्यार्थी शुरुआत से ही राजनीति में धर्म के मेल के ख़िलाफ़ थे। एक नहीं, बल्कि कई मौक़ों पर उन्होंने इसे लेकर अपनी नाराज़गी ज़ाहिर की। आज़ादी के आंदोलन के समय ही गणेश शंकर विद्यार्थी ने अंधराष्ट्रवाद के ख़तरों के बारे में देशवासियों को आगाह कर दिया था। 21 जून, 1915 को ‘प्रताप’ में प्रकाशित अपने लेख में वे कहते हैं, “देश में कहीं कहीं राष्ट्रीयता के भाव को समझने में गहरी भूल की जा रही है। हर रोज़ इसके प्रमाण हमें मिलते रहते हैं। यदि हम इसके भाव को अच्छे तरीक़े से समझ चुके होते, तो इससे जुड़ी बेतुकी बातें सुनने में न आतीं।”

विद्यार्थी, हिंदू राष्ट्र के नाम पर धार्मिक कट्टरता और संकीर्णता के सख़्त ख़िलाफ़ थे और समय-समय पर इसे लेकर लोगों को सावधान भी करते रहते थे। ‘राष्ट्रीयता’ शीर्षक से लिखे अपने इसी लेख में वे आगे कहते हैं, “हमें जानबूझकर मूर्ख नहीं बनना चाहिए और ग़लत रास्ते नहीं अपनाने चाहिए। हिंदू राष्ट्र-हिंदू राष्ट्र चिल्लाने वाले भारी भूल कर रहे हैं। इन लोगों ने अभी तक राष्ट्र शब्द का अर्थ ही नहीं समझा है।”

गणेशशंकर विद्यार्थी ने धर्म और राजनीति के घृणित गठबंधन को शुरू में ही पहचान लिया था। ‘प्रताप’ के माध्यम से वे लगातार इन प्रवृतियों के ख़िलाफ़ हमलावर थे। 30 मई, 1926 को ‘जिहाद की जरूरत’ शीर्षक लेख में धर्म के पाखंड पर वे तीखा हमला करते हुए लिखते हैं-

“आज हमें जिहाद करना है, इस धर्म के ढोंग के ख़िलाफ़, इस धार्मिक तुनकमिज़ाजी के ख़िलाफ़। जातिगत झगड़े बढ़ रहे हैं। ख़ून की प्यास लग रही है। एक-दूसरे को फूटी आंख भी हम देखना नहीं चाहते। अविश्वास, भयातुरता और धर्माडंबर के कीचड़ में फंसे हुए इस नाटकीय जीत को यह समझ रहे हैं कि हमारे सिर-फुटौव्वल की लिप्सा से धर्म की रक्षा हो रही है। हमें आज शंख उठाना है, उस धर्म के विरुद्ध जो तर्क, बुद्धि और अनुभव की कसौटी पर ठीक नहीं उतर सकता।”

पूरे देश में एक बार फिर जब आज धर्मांधता और अंधराष्ट्रवाद फ़न उठाए खड़ा है, तो गणेश शंकर विद्यार्थी जैसी तर्कशील लेखनी की कमी शिद्दत से महसूस होती है।

पत्रकारिता के साथ-साथ गणेश शंकर विद्यार्थी ने स्वतंत्रता आंदोलन में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। साल 1917-18 में हुए होम रूल आन्दोलन में उन्होंने अग्रणी भूमिका निभाई और कानपुर में कपड़ा मिल मज़दूरों की पहली हड़ताल का नेतृत्व किया। साल 1920 में रायबरेली के किसानों के हितों की लड़ाई लड़ने के इल्ज़ाम में उन्हें दो साल कठोर कारावास की सज़ा हुई।

साल 1929 में विद्यार्थी को उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष चुना गया और उन्हें राज्य में सत्याग्रह आन्दोलन के नेतृत्व की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी। सत्याग्रह के दौरान साल 1930 में उन्हें एक बार फिर गिरफ़्तार कर जेल भेज दिया गया। जिसके बाद उनकी रिहाई गांधी-इरविन पैक्ट के बाद 9 मार्च, 1931 को हुई।

गणेश शंकर विद्यार्थी पूरी ज़िंदगी स्वराज के लिए जिये और साम्प्रदायिकता से संघर्ष करते हुए उन्होंने अपनी जान दी। कानपुर में भीषण साम्प्रदायिक दंगों की आग से बेग़ुनाह लोगों को बचाते हुए, 25 मार्च, 1931 को उन्होंने अपनी जान क़ुर्बान कर दी। साम्प्रदायिक सौहार्द और देश में भाईचारे की ख़ातिर वे शहीद हो गए।

गणेश शंकर विद्यार्थी भले ही हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनका संपूर्ण जीवन और विचार आज भी हमें एक नई राह दिखलाते हैं। जो लोग सत्ता, पद और पैसों की चकाचौंध में पत्रकारिता का मूल धर्म और असल कर्तव्य भूल गए हैं, उन्हें गणेश शंकर विद्यार्थी और उनका साहित्य ज़रूर पढ़ना चाहिए।

(ज़ाहिद ख़ान स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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