Satyajit ray

स्मृति शेष: सत्यजीत राय- वह जीनियस फ़िल्मकार जिसने पहली फिल्म से इतिहास रचा

सत्यजित राय देश के ऐसे फ़िल्मकार हैं, जिनकी पहली ही फ़िल्म से उन्हें एक दुनियावी शिनाख़्त और बेशुमार शोहरत मिली। दुनिया भर में धूम मचाने वाली वह फ़िल्म थी, ‘पथेर पांचाली’। साल 1956 में ‘कांस फ़िल्म फेस्टिवल’ में इसे ‘बेस्ट ह्यूमन डॉक्यूमेंट’ का अवार्ड मिला। यह सिलसिला रुका नहीं, राय की ‘अपु ट्राइलॉजी’ यानी ‘पथेर पांचाली’, ‘अपराजितो’ और ‘अपूर संसार’ दुनिया की सर्वकालिक महान फ़िल्मों में गिनी जाती हैं। इन फ़िल्मों ने पश्चिमी फ़िल्म समारोहों में दर्जनों बड़े अवार्ड अपने नाम किए।

अपने चार दशक से भी लंबे फ़िल्म कैरियर में सत्यजित राय ने तीन दर्जन फ़िल्में बनाईं, जिनमें वृत्तचित्र और लघु फ़िल्में भी शामिल हैं। सत्यजित राय और उनकी फ़िल्मों की लोकप्रियता की यदि वजह जानें, तो उनके सिनेमा की स्थानीयता में भी वैश्विकता के दीदार होते थे। अपनी फ़िल्मों में वे कम शब्दों में बात करते हैं। अलबत्ता दृश्यों और बिम्बों में बड़ी-बड़ी बातें कह जाते हैं। एक कविता सा रचाव है, इन फ़िल्मों में। दर्शक इन फ़िल्मों को देखकर कभी कुछ सोचते हैं, तो कभी मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। यह फ़िल्में उन पर एक जादू सा करती हैं।

सत्यजित राय की प्रतिभा का उनके समकालीन फ़िल्मकार भी लोहा मानते थे। जापानी फिल्मकार अकीरा कुरोसावा तो जैसे राय की फ़िल्मों पर पूरी तरह से फ़िदा थे। राय की फ़िल्मों के बारे में उनकी राय थी, ‘‘मानव प्रजाति के लिए एक शांत लेकिन बहुत गहरा प्रेम, समझ और अवलोकन उनकी फ़िल्मों की चारित्रिक विशेषता रही है। जिसने मुझे बहुत अधिक प्रभावित किया है। मुझे लगता है कि वो मूवी इंडस्ट्री के विराट व्यक्तित्व हैं। उनकी फ़िल्में न देखे बिना होना वैसा ही है, जैसे बिना चांद और सूरज को देखे इस दुनिया में जीना है।’’

सत्यजित राय के नाम कई रिकॉर्ड हैं। वे अकेले भारतीय हैं, जिन्हें ‘ऑस्कर लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड’ दिया गया था। इसमें सबसे ज़्यादा तअज्जुब की बात यह है कि उनकी कोई फ़िल्म ऑस्कर के लिए नॉमिनेट नहीं हुई थी। सत्यजित राय ने अपने करियर की शुरुआत एक विज्ञापन एजेंसी में ग्राफिक डिजाइनर, विजुलाइजर के तौर पर की। अपनी इस नौकरी के सिलसिले में उन्हें एक बार इंग्लैंड जाने का मौका मिला। जहां उन्होंने दुनिया की बेहतरीन फ़िल्में देखीं। अमर्त्य सेन ने अपनी मक़बूल किताब ‘द आर्ग्यूमेंटेटिव इंडियन’ में लिखा है,‘‘ख़ास तौर पर इटली के मशहूर निर्देशक विटोरिया डीसिका की फ़िल्म ‘बाइसिकिल थीव्स’ का उन पर सबसे ज़्यादा असर हुआ।’’ न्यू-रियलिस्टिक सिनेमा की यह शुरुआत थी, जिससे सत्यजित राय काफ़ी मुतअस्सिर हुए। जिसकी बानगी कमोबेश उनकी सभी फ़िल्मों में दिखाई देती है। यथार्थवादी सिनेमा से उन्होंने कभी नाता नहीं तोड़ा।

‘पथेर पांचाली’ को 11 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार और भारत में कुल 32 सम्मान मिले। बावजूद इसके सत्यजित राय ‘पथेर पांचाली’ को अपनी बेस्ट फ़िल्म नहीं मानते थे। क्योंकि उनकी निगाह में ‘पथेर पांचाली’ में काफ़ी कमियां हैं। जबकि उनके मुताबिक ‘‘एक सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म पूरी तरह परफ़ेक्ट होनी चाहिए-हर दृष्टि से, हर एंगल से और ‘पथेर पांचाली’ में वह परफेक्शन नहीं है।’’(सत्यजित राय से संजीव चट्टोपाध्याय का संवाद, पत्रिका-‘समकालीन सृजन’, अंक-17) राय की नज़र में ‘चारुलता’ उनकी बेस्ट फ़िल्म थी।

इस फ़िल्म की कामयाबी के बाद सत्यजित राय ने विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय के दो उपन्यासों ‘पथेर पांचाली’ और ‘अपराजितो’ पर ही अपु ट्राइलॉजी बनाई। कोलकाता त्रयी के तहत भी उन्होंने ‘प्रतिद्वंद्वी’, ‘सीमाबद्ध’ और ‘जनअरण्य’ जैसी कलात्मक और विचारसंपन्न फ़िल्में बनाईं। जिसमें कलकत्ता महानगर का तत्कालीन सामाजिक और राजनैतिक परिवेश पूरी शिद्दत के साथ आया है। वहीं रबीन्द्रनाथ टैगोर की तीन कहानियों-‘पोस्ट मास्टर’, ‘समाप्ति’ एवं ‘मनिहारा’ पर उन्होंने तीन छोटी-छोटी फ़िल्में बनाईं। फ़िल्म ‘घरे-बाइरे’ भी टैगोर के उपन्यास पर आधारित है।

सत्यजित राय ने अपनी फ़िल्मों के लिए ज़्यादातर कथानक बांग्ला साहित्य से लिये। उनकी शुरुआती फ़िल्मों में बांग्ला संस्कृति और वहां का रहन-सहन, हाशिये से नीचे के समाज के सुख-दुःख एवं उनकी चिंताएं प्रमुखता से आई हैं। अपनी फ़िल्मों में वे उम्मीद का दामन कभी नहीं छोड़ते। उदार जीवन मूल्यों को बचा लेने की जिद उनमें दिखाई देती है। सत्यजित राय में एक गहरा इतिहासबोध था। फ़िल्मों में वे प्रमाणिक सामाजिक चित्रण करते थे। आगे चलकर उनकी फ़िल्मों में आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक समस्याएं केन्द्र में रहीं। बेरोजगारी और उससे पैदा हुआ असंतोष, गरीबी, नक्सल समस्या, इमरजेंसी आदि तमाम संवेदनशील मुद्दों पर सत्यजित राय ने ‘प्रतिद्वंद्वी’, ‘जनअरण्य’, ‘सीमाबद्ध’, ‘गणशत्रु’ जैसी फ़िल्में बनाईं।

‘देवी’, ‘महापुरुष’ और ‘सद्गति’ फ़िल्मों में वे अंध आस्था, अंधविश्वास, धार्मिक कुरीतियों और जाति व्यवस्था के खि़लाफ़ तल्ख़ टिप्पणियां करते हैं। सत्यजित राय अपनी इन तमाम फ़िल्मों में क्रोध को विडम्बना में बदल देते थे। फ़िल्म में व्याप्त यह आंतरिक गुस्सा प्रतिरोध में बदल जाता है। उनकी फ़िल्में लाउड नहीं हैं, लेकिन उनमें एक प्रतिरोध है।

फ़िल्म ‘आगंतुक’ में सत्यजित राय बदलते मानवीय संबंधों की मर्मस्पर्शी कहानी कहते हैं। बंगाल के 1943 के भयावह अकाल पर सत्यजित राय ने ‘अशनीशंकेत’, तो फ़िल्म ‘तीन कन्या’, ‘देवी’, ‘घरे-बाइरे’, ‘चारुलता’, ‘कापुरुष’ और ‘महानगर’ में वे महिलाओं के सवालों को बड़े ही संवेदनशीलता से उठाते हैं।

‘जलसाघर’,सत्यजित राय की एक क्लासिक फ़िल्म है। इस फ़िल्म में उन्होंने सामंती अभिजात वर्ग के पराभाव और उनकी मनोदशा को बड़े ही बारीकी से दर्शाया है। यही नहीं सरमायेदारी की आहट भी फ़िल्म में दिखाई देती है। बाद में कमोबेश इसी थीम पर सत्यजित राय ने ‘शतरंज के खिलाड़ी’ बनाई। सामंतवाद का पतन और साम्राज्यवाद का उत्थान इस फ़िल्म का केन्द्रीय विचार है। राय की फ़िल्मों की एक बड़ी ख़ासियत डिटेलिंग है। उनकी डिटेलिंग इतनी ज़बरदस्त होती है कि दर्शक और फ़िल्म समीक्षक दोनों ही सत्यजित राय की निर्देशकीय क्षमता के कायल हो जाते हैं। सूक्ष्म, अति सूक्ष्म ब्यौरों को भी वे बड़ी ही संज़ीदगी से अपनी फ़िल्मों में दर्ज़ करते थे। विवरणों के माध्यम से वे पात्रों के आपसी संबंधों और भावनात्मक पहलुओं को उजागर करते थे।

सत्यजित राय एक हरफ़नमौला कलाकार थे। जिन्हें फ़िल्म के हर डिपार्टमेंट में महारत हासिल थी। डायरेक्शन के साथ-साथ फ़िल्म की पटकथा, संपादन और फ़िल्म के पोस्टरों से लेकर एक्टरों की ड्रेस तक की डिजाइन वे खु़द करते थे। यहां तक के अपने करियर की आख़िरी फ़िल्मों में उन्होंने ही संगीत दिया था। सत्यजित राय की शख़्सियत बड़ी दिलफ़रेब थी। उनकी लंबाई तक़रीबन 6 फुट 5 इंच थी। पाइप पीने का निराला अंदाज़ और धीर-गंभीर मिज़ाज। पहली ही मुलाकात में लोग उनसे मुतअस्सिर हो जाते थे। हर काम को वे सलीके से करते। परफेक्शन उनकी आदत में शुमार था। सत्यजित राय ने सेल्युलाइड पर अपनी फ़िल्मों से कई बार करिश्मा किया।

अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था ‘‘एक फ़िल्मकार के तौर पर मेरा मुख्य काम ऐसी कहानी की तलाश करना है, जिसमें मानव-व्यवहार और उसके बीच के रिश्तों के सच्ची पड़ताल हो। यह पड़ताल बनी-बनाई ढ़र्रे वाली न हो, न ही नकली स्टीरियोटाइप! बल्कि उस पड़ताल में मानवीय संवेदना हों, जो तकनीकी संसाधनों के साथ उस कहानी को चाक्षुष यानी देखने लायक बनाती हो।’’ (द न्यू सिनेमा एंड आई, सिनेमा विजंस, जुलाई 1980) सत्यजित राय ने हमेशा कलात्मक और यथार्थवादी शैली की ही फ़िल्में बनाईं। उनके लिए फ़िल्में मनोरंजन या कमाई का ज़रिया भर नहीं थीं। फ़िल्में उनकी जिंदगी का एक मिशन थीं। जिनसे वे अपने समाज से जुड़ना चाहते थे। सत्यजित राय ने बांग्ला सिनेमा को रोमांस, मेलोड्रामा और पारिवारिक फ़िल्मों से इतर एक उत्कृष्ट सृजनशील कला के स्तर पर प्रतिष्ठित किया। भारतीय सिनेमा को विश्वस्तरीय पहचान दिलाई।

फ़िल्मों में बेशुमार कामयाबी के बाद भी सत्यजित राय हमेशा अपनी जड़ों से जुड़े रहे। उन्हें न तो बॉलीवुड ने लुभाया और न ही उनकी चाहत कभी हॉलीवुड जाने की हुई। जबकि सत्यजित राय को हॉलीवुड की कई फ़िल्मों के ऑफ़र मिले थे। वे कलकत्ता में ही खुश थे। उन्हें वहीं दिली सुकून मिलता था। फ़िल्मी दुनिया में सत्यजित राय के अविस्मरणीय योगदान के लिए उन्हें अनेक सम्मान और पुरस्कारों से नवाज़ा गया। भारत सरकार ने उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया। ऑस्कर अवार्ड, दुनिया के हर फ़िल्मकार का सपना होता है। सत्यजित राय तक ये एमिनेंट अवार्ड खुद चलकर पहुंचा। जिस साल उन्हें यह अवार्ड देने का ऐलान हुआ, वे उस वक़्त बेहद बीमार थे। लिहाजा एकेडमी अवार्ड्स के मेंबर कलकत्ता आए, उन्हें ‘ऑस्कर लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड’ से सम्मानित किया और एक वीडियो मैसेज लेकर वापिस गए। इस वीडियो मैसेज को ऑस्कर सेरेमनी में चलाया गया, जिसे पूरी दुनिया ने देखा। सत्यजित राय की इस स्पीच के बाद हॉलीवुड की नामी-गिरामी हस्तियां उनके सम्मान में खड़ी हो गईं और उन्होंने देर तक तालियां बजाकर, राय का अभिवादन किया। दुनिया की नज़र में सत्यजित राय के काम का यह ज़ोरदार मर्तबा और स्वीकार्यता थी। सिनेमा के वे वाक़ई ग्रेट मास्टर थे।

(ज़ाहिद ख़ान रंगकर्मी और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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