ऑपेनहाइमर: एटम बम और मौजूदा दौर में विज्ञान की भूमिका

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78 साल पहले आज ही के दिन 6 अगस्त 1945 को अमेरिका ने दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जापान के शहर हिरोशिमा पर एटम बम गिराया था। इस विनाशकारी बम के कारण हिरोशिमा शहर के लगभग सवा लाख लोग मारे गये। यह विनाश इतना भयावह था कि लोग भाप बनकर उड़ गये थे। सारी इमारतें नष्ट हो गयी थीं और अगर बची भी तो कंकाल की तरह। हजारों-हजार लोग धीरे-धीरे मौत के आगोश में जाते चले गये। तीन दिन बाद 9 अगस्त को अमरीका ने एक और बम नागासाकी शहर पर गिराया जिसमें लगभग 80 हजार लोग मारे गये थे।

अमेरिका ने इन दोनों शहरों की खबरों पर, वहां के हालात पर किसी भी तरह की सूचना, फोटो, वीडियो पर प्रतिबंध लगा रखा था। कई सालों बाद जब सूचनाएं और तस्वीरें बाहर आने लगीं तो अनुमान लगाया गया कि साढ़े तीन लाख लोग इन दोनों शहरों में मारे गये थे और हजारों-हजार लोग रेडियोधर्मिता के कारण न केवल जीवन भर के लिए लाइलाज बीमारियों से ग्रस्त हो गये बल्कि उनकी आने वाली पीढ़ियां भी रोगी हो गयीं। मानव इतिहास के उस काले अध्याय को एक बार फिर याद दिलाया है अमेरिकी फ़िल्म ‘ऑपेनहाइमर’ ने।

‘ऑपेनहाइमर’ अभी हाल ही में प्रदर्शित अंग्रेजी फ़िल्म है जिसके निर्देशक क्रिस्टोफर नोलन है। नोलन इससे पहले भी कई फ़िल्में बना चुके हैं और इंगलैंड और अमरीका के बहुत ही प्रसिद्ध फ़िल्मकार हैं जो आमतौर पर थ्रिलर फ़िल्में बनाते हैं। यह भी थ्रिलर फ़िल्म है लेकिन वैसी थ्रिलर नहीं जैसी आमतौर पर हॉलीवुड में बनती है। बहुत ही कसी हुई पटकथा जो फ़िल्म को एक ऐसी बहस में बदल देती है जिसमें कही गयी बातें आज के संदर्भ में कम प्रासंगिक नहीं है। इस फ़िल्म में न तो युद्ध के दृश्य हैं और न डाले गये एटम बम के विनाश को दिखाया गया है। उसके बावजूद फ़िल्म विनाशकारी हथियारों बनाने और उसके परिणामों का कुछ हद तक संकेत करने में कामयाब रहती है।

नोलन की यह फ़िल्म भारत में काफी लोकप्रिय हो रही है। यह एक बायोपिक है ओर जुलियस रॉबर्ट ऑपेनहाइमर नामक अमरीकी भौतिक वैज्ञानिक के जीवन पर आधारित है जिन्हें एटम बम का जनक भी कहा जाता है। यह फ़िल्म काइ बर्ड और मार्टिन जे. शेरविन द्वारा लिखित पुस्तक ‘अमेरिकन प्रोमेथियस : ट्राइम्फ एंड ट्रेजेडी ऑफ जे. रॉबर्ट ऑपेनहाइमर’ पर आधारित है। जैसा कि पुस्तक के शीर्षक से स्पष्ट है कि ऑपेनहाइमर को ही अमेरिकन प्रोमेथियस कहा गया है। प्रोमेथियस एक मिथकीय चरित्र है जिसने देवताओं से आग चुराकर पृथ्वीलोक के वासियों को दे दी थी। प्रोमेथियस को उसके इस अपराध के लिए सजा भी दी गयी थी।

जुलियस रॉबर्ट ऑपेनहाइमर (1904-1967) अमरीकी भौतिक वैज्ञानिक थे जो द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान उस मैनहेटन प्रोजेक्ट से जुड़े थे जिसे एटम बम बनाने का काम सौंपा गया था। इस परियोजना के साथ वे 1942 में जुड़े थे और 1943 में वे न्यू मेक्सिको में लॉस एल्मस प्रयोगशाला के निदेशक नियुक्त किये गये। मैनहेटन परियोजना बहुत विशाल परियोजना थी जिससे सवा लाख लोग प्रत्यक्ष रूप से जुड़े हुए थे। इस परियोजना पर औद्योगिक स्तर पर कार्य हो रहा था। यह माना जाता है कि ऑपेनहाइमर की वजह से ही यह परियोजना कामयाब हुई और अमरीका 1945 में एटम बम का सफल परीक्षण कर सका।

यहां यह निष्कर्ष निकालना सही नहीं होगा कि ऑपेनहाइमर ने ही एटम बम का आविष्कार किया था। दरअसल वे सवा लाख लोगों की इस विशाल टीम का नेतृत्व कर रहे थे जिस टीम में विज्ञान और प्रौद्योगिकी से संबंधित विभिन्न क्षेत्रों के वैज्ञानिक और तकनीकी विशेषज्ञ जुड़े हुए थे। इतने विराट पैमाने पर किये जाने वाले कार्य का नेतृत्व कोई आसान काम नहीं था जबकि यह एक अत्यंत गुप्त परियोजना थी और बहुत तरह के खतरे उससे जुड़े हुए थे। इस परियोजना पर उस जमाने में दो अरब डॉलर व्यय हुआ था।

जब ऑपेनहाइमर की टीम एटम बम बनाने में सफल रही और उसका कामयाब परीक्षण भी हो गया, तो तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रूमेन के आदेश पर जापान के दो शहरों हीरोशिमा और नागासाकी पर  क्रमश: 6 अगस्त और 9 अगस्त 1945 को एटम बम गिराया गया। संभवत: अमेरिकी राष्ट्र्पति यह चाहते थे कि जापान पर बम डालकर वह दुनिया को यह संदेश दे सकेंगे कि अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी शक्ति है और उसका कोई मुकाबला नहीं कर सकता।

सोवियत संघ जिसकी नाजीवाद को परास्त करने में बहुत बड़ी भूमिका थी लेकिन युद्ध के बाद वह एक बहुत बड़ी ताकत के रूप में उभरकर अमरीकी वर्चस्व को चुनौती दे सकता था इसलिए अमरीका जापान के दो शहरों पर एटम बम गिराकर सोवियत संघ को यह चेतावनी देना चाहता था कि भविष्य में सोवियत संघ अमेरिका से टकराने की जुर्रत न करे। यह और बात है कि चार साल बाद ही सोवियत संघ भी एटम बम का परीक्षण करने में कामयाब रहा और इसके साथ ही दुनिया में विनाशकारी हथियारों की एक ऐसी दौड़ शुरू हो गयी जो आज भी जारी है और अब लगभग 20 से अधिक देशों के पास इतने आणविक हथियार हैं कि दुनिया को कई-कई बार नष्ट किया जा सकता है।

‘ऑपेनहाइमर’ फ़िल्म की कहानी दो स्तरों पर चलती है। दरअसल ऑपेनहाइमर जिसने मैनहेटन परियोजना का सफलतापूर्वक नेतृत्व करते हुए एटम बम का सफल परीक्षण किया था और जिसके कारण उसकी ख्याति और प्रतिष्ठा शीर्ष पर पहुंच चुकी थी, लेकिन विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद उसकी वह प्रतिष्ठा अपने ही देश में कायम नहीं रह सकी। यही नहीं उस पर तरह-तरह के आरोप लगाये जाने लगे और अंतत: 1954 में सेक्युरिटी क्लीयरेंस को लेकर जो सुनवाई हुई और जिसके कारण ऑपेनहाइमर को सिक्युरेटी क्लीयरेंस नहीं मिल सकी, वही इस फ़िल्म का केंद्रीय कथानक है।

फ़िल्म एक स्तर पर सिक्युरिटी क्लीयरेंस की सुनवाई के मामले को विस्तार से पेश करती है। यह सुनवाई शुरू से आरंभ होकर फ़िल्म के अंत तक चलती है और इस पूरे मुकदमे को फ़िल्मकार ने ब्लेक एंड व्हाइट में पेश किया है। ठीक इसके समानांतर ऑपेनहाइमर के निजी जीवन की कहानी सामने आती है। मुख्य रूप से मैनहेटन परियोजना का नेतृत्व करते हुए उसके सामने किस तरह की चुनौतियां आती हैं, किस तरह की नैतिक दुविधा और द्वंद्व पैदा होते हैं और यह जानते हुए भी कि एटम बम का निर्माण पूरी दुनिया के लिए बहुत ही खतरनाक साबित हो सकता है, वह इस परियोजना के साथ जुड़ा रहता है।

ऑपेनहाइमर की निजी ज़िंदगी की किताब के जो पन्ने फ़िल्म में दर्शकों के सामने आते हैं, उन्हें फ़िल्मकार ने कलर में पेश किया है। इस निजी ज़िंदगी में उसका अपना परिवार, भाई, पत्नी और बच्चे, तो दूसरी ओर उसकी प्रेमिका, उसके राजनीतिक विश्वास और दूसरे विश्वयुद्ध को लेकर उसका अपना आकलन हमारे सामने आते हैं। ऑपेनहाइमर का पूरा जीवन बहुत ही जटिल रूप में सामने आता है। दरअसल, उसका अतीत ही उसकी भावी परेशानियों का कारण बनता है।

फ़िल्म में ऑपेनहाइमर (सिलियन मर्फी) की कहानी वहां से शुरू होती है जब वह शोधकार्य कर रहा होता है। उसने भौतिक विज्ञान में पीएचडी की उपाधि जर्मनी से प्राप्त की थी और उसके बाद यह सोचकर कि क्वांटम भौतिक विज्ञान में अनुसंधान करने के लिए अमरीका बेहतर स्थान है इसलिए वह अमेरिका लौट आता है। यूनिवर्सिटी ऑफ केलिफोर्निया और केलिफोर्निया इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में वह अध्यापक के रूप में नियुक्त होता है। उसी दौरान दूसरा विश्वयुद्ध शुरू हो जाता है। 1942 में अमेरिकी सेना के अधिकारी जनरल लेस्ली ग्रोव्ज (मैट डेमन) ऑपेनहाइमर को मैनहेटन परियोजना से जोड़ लेते हैं। इस परियोजना का उद्देश्य एटम बम का विकास करना होता है।

ऑपेनहाइमर को इस परियोजना से इसलिए जोड़ा जाता है कि वह उन्हें विश्वास दिलाता है कि उसकी कम्युनिस्टों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं है। ऑपेनहाइमर का यह कहना गलत नहीं था लेकिन जैसा कि फ़िल्म बताती है कि किसी समय उसकी कम्युनिस्टों से सहानुभूति थी और अब भी कुछ हद तक वामपंथी झुकाव उसमें था। उसका भाई फ्रेंक (डाइलन अर्नाल्ड) कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य था और उसकी प्रेमिका जीन टेटलॉक (फ्लोरेंस पग़) भी अमेरिकन कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य थी। यही नहीं उसकी पत्नी कैथरीन उर्फ किट्टी (एमिली ब्लंट) किसी समय कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य रह चुकी थी। दरअसल, 1930-40 के दौरान अमेरिका में मजदूर आंदोलनों और बुद्धिजीवियों के बीच कम्युनिस्ट पार्टी का काफी प्रभाव था, विशेष रूप से भौतिक वैज्ञानिकों के बीच वामपंथ का असर था। यही असर ऑपेनहाइमर के परिवार और मित्रों के बीच भी नज़र आता था।

ऑपेनहाइमर एक जर्मन यहूदी थे और 1888 में इनके माता-पिता जर्मनी से अमेरिका आकर बस गये थे। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जर्मनी में हिटलर के शासन के दौरान यहूदियों के विरुद्ध जो अत्याचार हो रहा था, उससे ऑपेनहाइमर का विचलित होना स्वाभाविक था। ऑपेनहाइमर का मैनहेटन परियोजना के साथ जुड़ने के पीछे एक बड़ा कारण यह भी था कि इस बात की आशंका थी कि हिटलर एटम बम बनाने में सफल हो गया तो पूरी दुनिया को अपने नियंत्रण में लेने से नहीं रोका जा सकेगा।

एक और वैज्ञानिक लियो जिलार्ड का भी मानना था कि अमेरिका को जल्द से जल्द एटम बम बनाना चाहिए। हिटलर के प्रति आइंस्टीन भी संशकित थे। जर्मनी में एटम बम बनाने के कार्यक्रम का नेतृत्व वेरनर हिजेनबर्ग कर रहा था जिससे ऑपेनहाइमर स्विजरलैंड में मिल चुका था। वह हिजेनबर्ग की क्षमता से वाकिफ था इसलिए वह मैनहेटन परियोजना को कामयाब बनाने में जुट गया। उसने वैज्ञानिकों की एक ऐसी टीम तैयार की जो अपने-अपने क्षेत्र में बहुत ही कामयाब थे।

हालांकि इस दौरान ऑपेनहाइमर की एल्बर्ट आइंस्टीन (टॉम कोंटी) से भी बातचीत होती थी जो इस डर की तरफ ध्यान दिलाते थे कि यदि एक बार बम बन गया तो उसकी प्रतिक्रिया में और देश भी एटम बम बनायेंगे और एक ऐसी श्रृंखला शुरू हो जायेगी जिसे रोकना लगभग असंभव होगा और ऐसा हुआ तो एटम बमों के इस्तेमाल की श्रृंखला का अंत दुनिया के विनाश में ही निकलेगा। आइंस्टीन ने तत्कालीन राष्ट्रपति रुजवेल्ट को पत्र लिखकर यह अनुरोध किया था कि एटम बम का इस्तेमाल किसी भी हालत में न किया जाये।

आइंस्टीन का यह पत्र रुजवेल्ट को देखने का मौका ही नहीं मिला। ऑपेनहाइमर को भी इस बात का डर सताता था लेकिन वे इस बात से भी भयभीत थे कि अगर हिटलर बम बनाने में कामयाब हुआ तो दुनिया को विनाश से बचाया नहीं जा सकेगा। यही वह नैतिक दुविधा थी जिसने ऑपेनहाइमर को लगातार प्रेरित किया कि वह मैनहेटन परियोजना का नेतृत्व करता रहे और हिटलर के बम बनाने से पहले अमरीका बम बना ले और इस तरह ही दुनिया को हिटलर द्वारा शासित होने से बचाया जा सकता है।

हिटलर की सेना जो सोवियत संघ के काफी अंदर तक घुस आयी थी, उसे सोवियत सेनाओं ने पीछे खदेड़ना शुरू कर दिया और खदेड़ते-खदेड़ते सोवियत सेना जर्मनी के काफी अंदर तक पहुंच गयी। यह साफ हो गया था कि जर्मनी जल्दी ही आत्मसमर्पण कर देगा। आखिरकार जर्मन सेना ने 7 मई 1945 को मित्र देशों के आगे आत्मसमर्पण कर दिया। तब मैनहेटन परियोजना से जुड़े बहुत से वैज्ञानिकों ने यह सवाल उठाना शुरू किया कि अब एटम बम की क्या जरूरत है।

दरअसल जर्मन सेना के आत्मसमर्पण के समय तक एटम बम का परीक्षण नहीं हुआ था और उस चरण में एटम बम का निर्माण रोका जा सकता था। एटम बम का परीक्षण 16 जुलाई 1945 को किया गया था, उस समय तक पूर्वी एशिया के कई क्षेत्रों में युद्ध जारी था और जापान ने आत्मसमर्पण करने से इन्कार कर दिया था।

ऑपेनहाइमर का मानना था कि अगर एटम बम बनाने का काम जारी रहता है तो जापान को भी आत्मसमर्पण के लिए मजबूर किया जा सकता है। हिटलर की सेना के आत्मसमर्पण  के बाद भी ऑपेनहाइमर न केवल बम बनाने की योजना का नेतृत्व करता रहा बल्कि उस बैठक में भी शामिल हुआ जिसमें जापान के दो शहरों पर बम गिराने का फैसला लिया गया था। लेकिन सच्चाई यह भी थी कि जापान के विरुद्ध सोवियत संघ ने भी युद्ध की घोषणा कर दी थी और इस बात की संभावना थी कि कुछ ही दिनों में जापान भी आत्मसमर्पण कर देगा। लेकिन ऐसा होने से पहले ही अमरीका ने हिरोशिमा और नागासाकी पर एटम बम गिरा दिये।

हिरोशिमा और नागासाकी पर बम गिराये जाने ने ऑपेनहाइमर को नैतिक दुविधा में डाल दिया। इसके बाद हुई एक सभा में ऑपेनहाइमर का नायक की तरह स्वागत किया गया। लकड़ी के फर्श पर मौजूद लोगों ने तेजी से पैर पटक-पटक कर उसका स्वागत किया था। उसने उस सभा में कहा कि हमने जापान पर बम गिरा दिया है और अगर जर्मनी ने भी आत्मसमर्पण नहीं किया होता तो हम जर्मनी पर भी बम गिराते। उसकी इस बात पर लोग और जोर से पैर पटक कर उसकी बात का समर्थन करने लगे।

लेकिन जब उसकी मुलाक़ात राष्ट्र्पति के साथ हुई तो उसने यह भी कहा कि उसे लगता है कि उसके हाथ खून से रंगे हुए हैं। राष्ट्रपति ने जेब से सफेद रुमाल निकालकर उसकी तरफ बढ़ाया और इस तरह उसका मज़ाक उड़ाया। यही नहीं राष्ट्र्पति ने यह भी कहा कि तुम कैसे जिम्मेदार हो बम गिराने के आदेश तो मैंने दिये हैं। ऑपेनहाइमर ने इस बात की आशंका भी व्यक्त की कि सोवियत संघ भी एटम बम बना सकता है। इस आशंका को ट्रूमेन मजाक में उड़ा देता है। उसने एडवर्ड टेलर के हाइड्रोजन बम बनाने के प्रस्ताव का भी विरोध किया जबकि राष्ट्र्पति उसे स्वीकृति दे देते हैं। लेकिन इन घटनाओं से यह स्पष्ट हो गया कि ऑपेनहाइमर के रुख को प्रशासन में पसंद नहीं किया जा रहा है।

हाइड्रोजन बम बनाने के ऑपेनहाइमर के विरोध ने परमाणु ऊर्जा आयोग के चैयरमेन लेविस स्ट्रॉस (रॉबर्ट डाउनी जूनियर) को नाराज कर दिया और उन्होंने ऑपेनहाइमर के इस प्रस्ताव का सार्वजनिक रूप से विरोध किया कि सोवियत संघ के साथ हथियारों को लेकर बातचीत की जानी चाहिए। ऑपेनहाइमर के राजनीतिक प्रभाव को समाप्त करने के लिए सुनवाई के दौरान मैनहेटन में उसके सहयोगी रहे एडवर्ड टेलर (बेनी सफडाइ) और दूसरे कई वैज्ञानिकों ने ऑपेनहाइमर के विरुद्ध गवाही दी।

ऑपेनहाइमर की पूर्व प्रेमिका जीन टेटलॉक जो अमरीकी कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य थी और जिसने आत्महत्या कर ली थी, ऑपेनहाइमर का भाई फ्रेंक भी कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य था और ऑपेनहाइमर की पत्नी कैथरीन भी 1936 तक कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य थी और स्वयं ऑपेनहाइमर ने स्पेन के गृहयुद्ध के दौरान वहां के तानाशाह के विरुद्ध लड़ने वाले कम्युनिस्टों को मदद भेजी थी। इन सब बातों का सुनवाई के दौरान लेविस स्ट्रॉस ने ऑपेनहाइमर के राजनीतिक प्रभाव को ध्वस्त करने के लिए इस्तेमाल किया।

दरअसल यह पूरी सुनवाई ही एक साजिश के तहत हो रही थी। इस सुनवाई में हालांकि ऑपेनहाइमर का समर्थन भी उसकी टीम के कई सदस्यों ने किया था। लेकिन लेविस स्ट्रॉस अपनी साजिश में कामयाब रहा। यह फ़िल्म दरअसल इसी सुनवाई को विस्तार से प्रस्तुत करती है और साथ ही साथ ऑपेनहाइमर के निजी जीवन को पेश कर उसकी नैतिक दुविधा को भी प्रभावशाली ढंग से रेखांकित करती है। जब ट्रूमेन के आदेश से जापान के दो शहरों पर बम गिराया जाता है, उसका असर ऑपेनहाइमर पर बहुत गहरा पड़ता है। उसे वह आशंका सच होती लगती है कि उसी के कारण विनाशकारी हथियारों की जो श्रृंखला शुरू हुई है उसके लिए वही जिम्मेदार है।

फ़िल्म के एक दृश्य में जब ऑपेनहाइमर अपनी प्रेमिका जीन टेटलॉक के साथ अंतरंग क्षणों में होता है तब वह उसके कहने पर गीता का एक श्लोक पढ़कर सुनाता है, ‘कालेस्मि लोकक्षकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह’ जिसका अर्थ होता है, मैं संसार का विनाश करने वाला हूं। लोकों का क्षय करने के लिए प्रवृत्त हुआ हूं’। गीता के 11वें अध्याय के इस 32वें श्लोक को बाद में एक प्रेस कान्फ्रेंस में भी सुनाता है। लेकिन ठीक-ठीक उसका तात्पर्य क्या है। क्या वह अपने को संसार का विनाश करने वाला मानता है या उस एटम बम को जो संसार का विनाश करने का कारण बन सकता है। मैं लोकों का क्षय करने के लिए प्रवृत्त हुआ हूं इसका अर्थ ही है कि जिस विनाश की श्रृंखला की बात आइंस्टीन कहता है, वह भी उसे गीता के इस श्लोक में व्यक्त होती दिखती है।

दरअसल ऑपेनहाइमर पर गीता का अगर असर रहा है तो उसका जो मूल संदेश है, हो सकता है कि वह उससे भी प्रभावित हो जिसमें कृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ यानी मनुष्य का कर्त्तव्य कर्म करना है उसे फल की चिंता नहीं करनी चाहिए। मुमकिन है कि ऑपेनहाइमर इस परियोजना से जुड़ने को गीता के इस उपदेश से ही उचित ठहराता रहा हो। जो भी हो यह उसकी नैतिक दुविधा को तो दिखाता ही है। सूचना और प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर का इस दृश्य पर एतराज करना काफी बचकाना है।  

ऑपेनहाइमर पर बनी यह फ़िल्म इस बात को समझने में मदद करती है कि किस तरह शक्तिशाली साम्राज्यवादी देश दुनिया पर अपने वर्चस्व को कायम रखने के लिए विनाशकारी हथियारों की ऐसी होड़ शुरू करने से भी नहीं कतराते जिसके परिणाम पूरी मानवता के लिए भयानक हो सकते हैं। अमरीका के एटम बम बनाने के केवल चार सालों बाद ही सोवियत संघ ने भी एटम बम का सफल परीक्षण कर लिया था और अब चीन, फ्रांस, इंगलैंड, भारत, पाकिस्तान सहित कई देशों ने नाभिकीय हथियारों का जखीरा खड़ा कर लिया है।

दुनिया में आज कई देशों के बीच इस तरह के तनाव हैं जो कभी भी विस्फोटक हो सकते हैं। रूस और युक्रेन के बीच का युद्ध, उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया के बीच का तनाव, भारत और चीन और भारत और पाकिस्तान के बीच का तनाव और इसराइल और अरब देशों के बीच का तनाव कभी भी दुनिया भर के लिए विनाशकारी हो सकता है। अमरीका और रूस के पास पांच-पांच हजार से ज्यादा नाभिकीय हथियार हैं। चीन के पास भी चार सौ से ज्यादा हथियार हैं और भारत और पाकिस्तान के पास भी क्रमश: 164 और 170 नाभिकीय हथियार हैं। इन वैश्विक तनावों का खतरनाक पहलू यह है कि आज दुनिया में दक्षिणपंथी और युद्धोन्मादी पार्टियों का शासन बहुत से देशों में हैं।

दरअसल समय आ गया है कि विज्ञान के मानवता के हित में काम करने को एक बार फिर आंदोलन बनाये जाने की जरूरत है जैसा कि शीतयुद्ध के दौरान शांति आंदोलन ने मांग उठायी थी। परमाणु हथियारों पर प्रतिबंध लगाने और उन्हें खत्म करने के लिए आइंस्टीन और बंट्रेड रसेल ने शांति का घोषणापत्र जारी किया था। उसी तरह के घोषणापत्र की जरूरत है। दरअसल आज खतरा सिर्फ नाभिकीय हथियारों का ही नहीं है। दुनिया भर में फार्मा उद्योग अपने लाभ के लिए जिस तरह के प्रयोग को प्रोत्साहित कर रही हैं वह कम खतरनाक नहीं है।

अमेरिका सहित बहुत से देशों के लिए हथियारों का व्यापार एक बड़ा उद्योग बना हुआ है और हथियार बेचने के लिए वे विभिन्न देशों के बीच तनावों को हवा देते रहते हैं। यह वैज्ञानिक समुदाय को सोचने की जरूरत है कि उनके ज्ञान और अनुसंधान का लाभ ऐसी सरकारें और उद्योग तो नहीं उठा रहे हैं जो मुनाफे के लिए पूरी मानवता को भी खतरे में डाल सकते हैं। यहां यह याद रखने की जरूरत है कि कोविड की महामारी भी एक प्रयोगशाला से फैले विषाणु के कारण हुई थी और जिससे दुनिया भर में लगभग सत्तर लाख लोग मारे गये थे। भारत और पाकिस्तान के पास इतने नाभिकीय हथियार हैं कि वे एक दूसरे को ही नहीं पूरी दुनिया का नाश कर सकते हैं। ‘ऑपेनहाइमर’ फ़िल्म एक बार फिर मानवता के सामने मौजूद विनाश के खतरे की तरफ ध्यान देने के लिए प्रेरित करती है।

(जवरीमल्ल पारख सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं।)

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विजयलक्षमी
विजयलक्षमी
Guest
1 year ago

फ़िल्म समीक्षा बहुत ही सुनियोजित और स्पष्ट है।
इसे अवश्य पढ़ा जाना चाहिये। भारत में उपज रहीं
परिस्थितियाँ मानवीय हित में विस्फोटकों से कम नहीं ।

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