प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन और मुम्बई

बीसवीं सदी में हमारे देश में प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन का आग़ाज़ हुआ। इस आंदोलन ने  भारतीय साहित्य, कला, रंगमंच और सिनेमा पर निर्णायक असर डाला। जैसा कि हम सब जानते हैं प्रगतिशील लेखक संघ की नींव लंदन में पड़ी। वामपंथी ख़यालात से मुतास्सिर डॉ.ज्योति घोष, डॉ. मुल्कराज आनंद, प्रमोद सेनगुप्त, डॉ. मुहम्मद दीन ‘तासीर’ और सज्जाद ज़हीर ने लंदन में ही प्रगतिशील लेखक संघ के घोषणा-पत्र के मसौदे को अंतिम रूप दिया। संगठन का पहला सम्मेलन 9-10 अप्रैल, 1936 को अज़ीम अफ़साना निगार प्रेमचंद की सदारत में लखनऊ में संपन्न हुआ। जिसमें संगठन के पहले महासचिव की ज़िम्मेदारी सज्जाद ज़हीर साहब को सौंपी गई।

बहरहाल लंदन से शुरू हुआ तरक़्क़ीपसंद तहरीक का यह सुहाना सफ़र लखनऊ तक पहुंचा और उसके बाद, यह तहरीक मुल्क की सारी ज़बानों में फैल गई। लेकिन एक दौर था, जब प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन का मरकज़ मुंबई था। यहां से ही पूरे देश में यह आंदोलन संचालित हो रहा था। हिन्दी, उर्दू के आला अदीब-कलाकार यहां इकट्ठे थे और अपने अदबी, फ़न्नी कारनामों से समाज में एक बड़ा बदलाव ला रहे थे। ख़्वाजा अहमद अब्बास के विक्टोरिया गार्डन के छोटे से कमरे में संगठन की इब्तिदाई बैठकें हुईं। यही नहीं लेखक संघ के जलसे मुंबई के ‘बुक क्लब’ में भी होते थे। यह बुक क्लब फोर्ट में ‘न्यू बुक कंपनी’ की इमारत के ऊपरी हिस्से में था। जलसों में हिंदी, उर्दू, मराठी और गुजराती भाषा के लेखक शामिल रहते।

मुंबई में जब प्रगतिशील लेखक संघ की इकाई गठित हुई, तो इसमें गुजराती के लेखक बा कवीश, स्वप्न रथ और भोगीलाल गांधी, हिन्दी के साहित्यकार नरेन्द्र शर्मा, रमेश सिन्हा एवं उर्दू ज़बान के अदीब अली सरदार जाफ़री, ख़्वाजा अहमद अब्बास शामिल थे। बुजुर्ग साहित्यकार मामा वरेरकर ने इकाई की अध्यक्षता की। आगे चलकर साल 1943 में प्रगतिशील लेखक संघ की चौथी अखिल भारतीय कॉन्फ्रेंस मुंबई में हुई।

इस कॉन्फ्रेंस के अध्यक्षमंडल में जोश मलीहाबादी, राहुल सांस्कृत्यायन, श्रीपाद अमृत डांगे और सेन मजूमदार शामिल थे। कॉन्फ्रेंस सेंडहर्स्ट रोड के पास मारवाड़ी विद्यालय के हॉल में हुई। दूसरे विश्व युद्ध के बाद आंदोलन ने तेज़ रफ़्तार तरक़्क़ी की। बंबई में उस वक़्त एक अखिल भारतीय उर्दू कॉन्फ्रेंस भी हुई। जिसकी सदारत मौलवी अब्दुल हक़ ने की। कॉन्फ्रेंस में मुशायरा भी हुआ। जिसमें हसरत मोहानी, जिगर मुरादाबादी और जोश मलीहाबादी शरीक हुए।

प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव सज्जाद ज़हीर का क़याम मुंबई ही में था। उनके अलावा मुल्कराज आनंद, सिब्ते हसन, कृश्न चंदर, अली सरदार जाफ़री, कैफ़ी आज़मी, साहिर लुधियानवी, मीराजी, जोश मलीहाबादी, अख़्तर-उल-ईमान, कृश्न चंदर, इस्मत चुग़ताई, सुल्ताना जाफ़री, रज़िया सज्जाद ज़हीर, रिफ़अत सरोश, मजरूह सुल्तानपुरी, आदिल रशीद, मधुसूदन, ज़ोए अंसारी, विश्वामित्र ‘आदिल’ वगैरह ने भी अपना कार्यक्षेत्र मुंबई ही को बना रखा था।

तरक़्क़ीपसंदों के जलसे ‘देवधर स्कूल ऑफ़ म्यूजिक’ मुंबई और सज्जाद ज़हीर के घर ‘जीवनहाउस’ में आयोजित होते थे। इन जलसों में इप्टा के कलाकार प्रेम धवन, अमर शेख़, बलराज साहनी, दमयंती साहनी, प्रीति सरकार आदि भी शामिल होते। प्रगतिशील लेखक संघ का मुख-पत्र ‘नया अदब’ की शुरुआत लखनऊ से हुई। लेकिन कुछ अंकों के बाद यह मुंबई से ही प्रकाशित हुआ। ‘नया अदब’ के अलावा ‘क़ौमी जंग’ और ‘नया ज़माना’ भी सज्जाद ज़हीर के संपादन में मुंबई से निकलते थे। अली सरदार जाफ़री, सिब्ते हसन, कैफ़ी आज़मी और सय्यद मोहम्मद मेंहदी इन अख़बारों से जुड़े हुए थे।

साल 1943 में कम्युनिस्ट पार्टी का राष्ट्रीय सम्मेलन मुंबई में हुआ। यही वह साल था, जब चर्चगेट स्थित सुंदरबाई हॉल में 25 मई, 1943 को इप्टा का पहला राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित हुआ। इप्टा के पहले अध्यक्ष कामरेड एन.एम.जोशी चुने गए। जो तत्कालीन एटक के अध्यक्ष थे। वहीं मामा वरेरकर-उपाध्यक्ष, अनिल डि सिल्वा-महासचिव, ख़्वाजा अहमद अब्बास और जसवंत ठक्कर संयुक्त सचिव, तो के.टी.चांडी को कोषाध्यक्ष की ज़िम्मेदारी सौंपी गई। इप्टा की कार्यकारिणी में मुम्बई से ख़्वाजा अहमद अब्बास, अली सरदार जाफ़री, मनोरंजन भट्टाचार्य शामिल थे। जबकि महाराष्ट्र से मराठी भाषा के मशहूर लोक शाहीर अण्णा भाऊ साठे और डी.एन. गावंकर सम्मेलन में शरीक हुए थे।

‘मुम्बई जन नाट्य संघ’ ने सम्मेलन में डीएन गावनकर द्वारा निर्देशित ‘पवाड़ा’ और ‘तमाशा’ का प्रदर्शन किया। जिसमें उनके प्रमुख साथी थे अण्णा भाऊ साठे और अमर शेख़। राष्ट्रीय सम्मेलन के इस महत्वपूर्ण आयोजन के संगठनकर्ताओं में जसवंत ठक्कर, अली सरदार जाफ़री, ख़्वाजा अहमद अब्बास, अनिल डि सिल्वा, डीएन गावनकर और मामा वरेरकर केन्द्र में थे। सम्मेलन में लेखक और दानिश्वर डॉ. मुल्कराज आनंद, किसान सभा संघ के नेता सुमति सुहानी आम्बेडकर, कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव पीसी जोशी और इसके अलावा अनेक प्रसिद्ध लेखक और बुद्धिजीवी बड़ी तादाद में मौजूद थे। तमाम बहस-मुबाहिसों और विचार-विमर्श के बाद संगठन की स्थापना करने की सहमति हुई। जिसका गठन राष्ट्रीय स्तर पर किया गया और इस तरह भारतीय जन नाट्य संघ यानी इप्टा की स्थापना हुई।

सम्मेलन में यह तय हुआ कि देश के विभिन्न राज्यों में जो भी इकाईयां स्वतंत्र रूप से सांस्कृतिक कार्यक्रम कर रही हैं, उनका इप्टा में विलय कर दिया जाए। शाम को गिरनी कामगार मैदान में एक सामूहिक रैली निकाली गई। जिसमें मुम्बई और आसपास के इलाकों से हज़ारों की तादाद में कामगार तबक़ा और दीगर तबक़े के लोग शामिल हुए। सम्मेलन में ‘दादा’ नाटक का मंचन किया गया। जिसमें कपड़ा मिलों में काम करने वाले कामगारों की यथार्थवादी ज़िंदगी दिखाई गई थी। नाटक का निर्देशन डीएन गांवनकर ने किया था।

मुंबई में इप्टा के गठन से पहले भी यहां रंगकर्म होता रहा था। ‘महाराष्ट्रीय पेशेवर स्टेज’ ने ब्रिटिश विरोधी आंदोलन और स्वदेशी साहित्य के विकास में बढ़-चढ़कर भाग लिया था। ‘महाराष्ट्रीय पेशेवर स्टेज’ के केन्द्र में मामा वरेरकर, सरमल खान और आचार्य अत्रे प्रमुख थे। जो इसे आंदोलन के पुरोधा थे। आगे चलकर दूसरी आलमी जंग के पस-ए-मंज़र में अली सरदार जाफ़री ने ‘यह किसका ख़ून है’ ड्रामा लिखा। जिसका पहला मंचन 1 मई 1942 को मुंबई में हुआ। इसके साथ ही ‘पीपुल्स थियेटर एसोशिएसन’ की स्थापना हुई। अपने पहले ही मंचन में ड्रामा लोगों को ख़ूब पसंद आया। ड्रामे की मक़बूलियत का ही सबब था कि मुंबई में लगातार इस ड्रामे के सात शो हुए। यही नहीं उस ज़माने में ‘यह किसका ख़ून है’ का मंचन दिल्ली में भी हुआ। मुंबई के मारवाड़ी विद्यालय हॉल, ‘देवधर स्कूल ऑफ़ म्यूजिक’ और ‘दामोदर हॉल’ परेल में इप्टा की बैठकें और नाटकों की रिहर्सल होती थीं। ख़्वाजा अहमद अब्बास के मशहूर ड्रामे ‘ज़ुबैदा’, जिसका डायरेक्शन अदाकार बलराज साहनी ने किया था, उस वक़्त इसका प्रदर्शन ‘कावसजी जहांगीर हॉल’ में हुआ था।

इप्टा हो या फिर प्रगतिशील लेखक संघ उस समय दोनों का मक़सद मुल्क की आज़ादी, हिंदू-मुस्लिम एकता क़ायम करना और साम्राज्यवाद-फ़ासीवाद का विरोध था। इप्टा के गठन के साथ ही इसका तेज़ी से विस्तार हुआ। इसका मुख्य कार्यालय मुंबई में ही था। बलराज साहनी, बिमल रॉय, शैलेन्द्र, पृथ्वीराज कपूर, सलिल चौधरी, हेमंत कुमार, उदय शंकर, चेतन आनंद, प्रेम धवन, नरेन्द्र शर्मा, एमएस सथ्यू, शमा ज़ैदी, ज़ौहरा सहगल, ए.के. हंगल जैसे फ़िल्मी दुनिया के बड़े—बड़े कलाकार, फ़िल्मकार, गीतकार और संगीतकार भी इप्टा से जुड़े थे।

पंडित रविशंकर उसी दौर में इप्टा में आये। उन्होंने इक़बाल के गीत ‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा’ को सुरो में पिरोया। यह वह दौर था, जब देश के विभिन्न क्षेत्र के अनेक कलाकार संगीत का प्रशिक्षण या फ़िल्मों में काम करने के मक़सद से मुंबई ही पहुंचते थे। इन सब बातों का ख़याल रखकर, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने मुंबई में एक कम्यून खोला। जहाँ नियमित तौर पर कार्यशालाएं आयोजित की जाती थीं। इन कार्यशालाओं में भाग लेने वाले सभी कलाकार, कम्युनिस्ट या मार्क्सवादी नहीं थे, लेकिन वे सारे ही साम्राज्यवाद और फासीवाद विरोधी नज़रिया ज़रूर रखते थे। मुल्क की आज़ादी और साम्यवादी भारत इनका ख़्वाब था। इन कलाकारों की अथक कोशिशों और आपसी समन्वय से इप्टा उस वक़्त नए-नए उत्कृष्ट प्रोडक्शंस लेकर आया और कामयाबी की बुलंदियों को छुआ।

साल 1944 में 29 और 30 जनवरी को मुंबई के परेल मैदान में विश्व प्रसिद्ध नर्तक उदयशंकर ने नृत्य नाटक (बैले) ‘रामलीला’ का सफल मंचन किया।। साल 1945 में इप्टा के केन्द्रीय दल यानी सेंट्रल स्क्वॉड ने बंगाल के अकाल पीड़ितों के लिए चंदा इकट्ठा करने के वास्ते ‘इंडिया इमॉर्टल’ और ‘स्पिरिट ऑफ़ इंडिया’ जैसे कार्यक्रमों के कई शो मुंबई में किए। इन शो के बाद इप्टा के कलाकार जिसमें पृथ्वीराज कपूर भी शामिल थे, जनता के बीच झोली फैलाकर चंदा इकट्ठा करते थे। इप्टा के कलाकारों ने उस वक़्त एक फ़िल्म ‘धरती के लाल’ बनाई। जिसकी पटकथा विजन भट्टाचार्य के ‘नबान्न’ और कृश्न चंदर की कहानी ‘अन्नदाता’ दोनों को मिलाकर तैयार की गई थी।

इस फ़िल्म की सबसे बड़ी ख़ासियत ये थी कि पंडित रवि शंकर ने फ़िल्मों में अपना पहला संगीत निर्देशन दिया था। यही नहीं ख़्वाजा अहमद अब्बास और शम्भू मित्रा का भी पहला फ़िल्म निर्देशन था। वहीं बलराज साहनी और तृप्ति मित्रा ने इस फ़िल्म से अपनी अदाकारी का आग़ाज़ किया था। इप्टा का तीसरा राष्ट्रीय सम्मलेन भी मुंबई में हुआ था। अनिल डी सिल्वा के बाद ख़़्वाजा अहमद अब्बास संगठन के दूसरे राष्ट्रीय महासचिव चुने गए।

मुल्क की आज़ादी के बाद भी मुंबई  प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन के केन्द्र में रहा। साल 1953 में इप्टा का सातवां राष्ट्रीय सम्मेलन यहां संपन्न हुआ। लेकिन दौर बदला, सियासत बदली। और ज़माने के इस बदलाव के बाद, उत्तरोत्तर मुंबई में प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा की गतिविधियां कम होती चली गईं। नई पीढ़ी इन संगठनों से उस तरह से नहीं जुड़ी, जिस तरह पुरानी पीढ़ी का कमिटमेंट था। मौजूदा दौर की यदि बात करें, तो मुंबई में प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन उतना मज़बूत नहीं, जितना कि आज़ादी से पहले था। एक पूरी पीढ़ी के चले जाने के बाद, यहां अब खालीपन है। जिसे जल्द से जल्द भरा जाना चाहिए। क्योंकि प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन की ज़रूरत आज, पहले से कहीं और ज़्यादा है।  

(ज़ाहिद ख़ान रंगकर्मी और टिप्पणीकार हैं।)

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