भारतीय साहित्य के निर्माता शैलेन्द्र: जीते जी जलने वाले, अंदर भी आग जला

साल 2023 कवि-गीतकार शैलेन्द्र की जन्मशती है। ‘तू ज़िंदा है, तो ज़िंदगी की जीत में यक़ीन कर’, ‘हर ज़ोर ज़ुल्म की टक्कर में’, ‘क्रांति के लिए उठे क़दम’ जैसे इंक़लाबी गीतों की वजह से उनकी पहचान जनकवि की है। उन्होंने अपने गीतों से जनमानस के दिलों में प्रतिरोध और सियासी एवं समाजी बदलाब के बीज बोए। उन्हें संघर्ष के लिए उकसाया। आज भी उनके ये गीत आम आदमी के जीवन समर में प्रेरक का काम करते हैं।

साहित्यिक दुनिया और हिन्दी साहित्य के शीर्ष आलोचक बरसों तक उन्हें इसलिए मान्यता देने से बचते रहे कि वे फ़िल्मी गीतकार हैं। मानो फ़िल्मों में गीत लिखना, कोई ग़ुनाह हो। इस उपेक्षा के बावजूद शैलेन्द्र यदि ज़िंदा हैं, तो उसमें उनके क्रांतिकारी जनगीत और मधुर एवं मानीखे़ज़ फ़िल्मी गीतों का बड़ा योगदान है। उनके ये गीत हिंद उपमहाद्वीप के अलावा रूस, चीन और अरब देशों में भी बेहद लोकप्रिय हैं।

देर से ही सही, साहित्य अकादेमी ने उनके ऊपर एक छोटी सी पुस्तिका प्रकाशित की है। ‘भारतीय साहित्य के निर्माता’ सीरीज़ के अंतर्गत यह एक मोनोग्राफ़ है। जिसे शैलेन्द्र के गीतों के शैदाई इन्द्रजीत सिंह ने बड़े मनोयोग से लिखा है। शैलेन्द्र के गीतों के जानिब इन्द्रजीत सिंह की दीवानगी जग ज़ाहिर है। उन्होंने न सिर्फ़ शैलेन्द्र के व्यक्तित्व और कृतित्व पर तीन महत्वपूर्ण किताबों ‘जनकवि शैलेन्द्र’, ‘धरती कहे पुकार के’ और ‘तू प्यार का सागर है’ का संपादन किया है, बल्कि उनकी याद में ‘शैलेन्द्र सम्मान’ भी शुरू किया है। जो हर साल एक फ़िल्मी गीतकार को दिया जाता है।

‘भारतीय साहित्य के निर्माता शैलेन्द्र’ को लेखक ने चार भागों ‘शैलेन्द्र : जीवन-यात्रा’, ‘जनकवि शैलेन्द्र’, ‘गीतों के जादूगर : शैलेन्द्र’ और ‘सिनेमा के आकाश में साहित्य का चांद-तीसरी कसम’ में बांटा है। शीर्षक के मुताबिक मुख़्तसर में लेखक ने अपनी ओर से बहुत कुछ कहने की कोशिश की है। सहज-सरल भाषा में लिखी गई यह किताब, प्रबुद्ध पाठकों के साथ-साथ आम पाठकों को भी बहुत पसंद आएगी। किताब के मार्फ़त वे शैलेन्द्र की ज़िंदगी और शख़्सियत से तो अच्छी तरह वाक़िफ़ होंगे ही, उनकी कविताओं एवं गीतों की ख़ूबियां भी उन्हें मालूम चलेंगी।

लेखक ने एक समालोचक की तरह शैलेन्द्र के मशहूर गीतों का अच्छा विश्लेषण किया है। सभी जानते हैं कि शैलेन्द्र वामपंथी विचारधारा से जुड़े हुए थे। ‘भारतीय जन नाट्य संघ’ यानी इप्टा से उनके जनवादी गीतों की शुरुआत हुई। इप्टा में ही रहकर, उनके कई जनवादी गीत मसलन ‘झूठे सपनों के छल से निकल’, ‘खेतों में खलिहानों में’, ‘लीडर जी परनाम तुम्हें हम मज़दूरों का’, ‘भगत सिंह इस बार न लेना काया’, ‘जलता है पंजाब हमारा प्यारा’ सामने आए। इन गीतों ने उन्हें मज़दूरों, कामगारों और किसानों का चहेता गीतकार बना दिया। इन्हीं गीतों के ज़रिए वे फ़िल्मी दुनिया तक पहुंचे। यहां भी शैलेन्द्र कामयाब रहे।

शैलेन्द्र ने फ़िल्मी दुनिया में जब आग़ाज़ किया, तो उस वक़्त शकील बदायूनी, मजरूह सुल्तानपुरी, साहिर लुधियानवी, हसरत जयपुरी और कैफ़ी आज़मी जैसे अज़ीम नग़मा निगारों का राज था, इन सब के बीच अपनी पहचान बनाना कोई आसान काम नहीं था। लेकिन शैलेन्द्र ने ये चुनौती स्वीकार की और एक सफल गीतकार बनके दिखलाया। ‘आवारा’, ‘अनाड़ी’, ‘चोरी चोरी’, ‘श्री 420’, ‘मधुमति’, ‘तीसरी कसम’, ‘जागते रहो’, ‘संगम’, ‘सीमा’, ‘बंदिनी’, ‘गाइड’, ‘जिस देश में गंगा बहती है’, ‘पतिता’ आदि फ़िल्मों में लिखे उनके गीत आज भी लोग गुनगुनाते हैं। इन गीतों की चमक कभी ख़त्म नहीं होगी।

फ़िल्मी दुनिया में शैलेन्द्र की कामयाबी की वजह जाने, तो उनकी सरल-सहज भाषा थी, जो आसानी से आम अवाम के दिलों में उतर जाती थी। इन गीतों में मनोरंजन के साथ-साथ वे एक उत्कृष्ट विचार भी दे जाते थे। यही वजह है कि उनके कई गीत मसलन ‘आवारा हूं..गर्दिश में हूं आसमान का तारा हूं’, ‘मेरा जूता है जापानी’, ‘दिल का हाल सुने दिलवाला’, ‘किसी की मुस्कराहटों पे हो निसार’, ‘होठों पे सच्चाई रहती है’, ‘सजन रे झूठ मत बोलो’, ‘आज फिर जीने की तमन्ना है’, ‘तू प्यार का सागर है’, ‘वहां कौन है तेरा मुसाफ़िर’, ‘मत रो माता लाल बहुत हैं तेरे’ कालजयी गीतों की श्रेणी में आते हैं।

इन गीतों को सुनकर कभी मन बाग़-बाग़ तो कभी द्रवित हो जाता है। ‘भारतीय साहित्य के निर्माता शैलेन्द्र’ मोनोग्राफ़ लिखने के लिए लेखक इन्द्रजीत सिंह ने काफ़ी शोध किया है। और उनका ये शोध, बुकलेट में दिखाई देता है। ख़ास तौर से फ़िल्म ‘तीसरी कसम’ और साहित्यकार फणीश्वनाथ रेणु से जुड़े प्रसंगों को पाठकों के सामने लाने के लिए उन्होंने काफ़ी मेहनत की है। यही वजह है कि शैलेन्द्र का यह विनिबंध बेहतरीन बन पड़ा है। बावजूद इसके कुछ कमियां इसमें खलती हैं।

प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा से शैलेन्द्र का वास्ता बरसों तक रहा। वामपंथी विचारधारा की बदौलत ही वे फ़िल्मी दुनिया में ऊंचे मुकाम पर पहुंचे। यदि बुकलेट का एक अध्याय सिर्फ़ इन संगठनों से उनकी वाबस्तगी पर होता, तो यह मुकम्मल हो जाती। कुछ पेज बचाने के फेर में बुकलेट के अंदर गीतों को जिस तरह गद्यनुमा बनाकर पेश किया गया है, वह भी काफ़ी चुभता है। जिसके चलते पढ़ने और गीत से जुड़ने का सारा मज़ा किरकिरा हो जाता है। साहित्य अकादेमी जैसे बड़े सरकारी संस्थानों से इस तरह की ख़ामियों की उम्मीद नहीं की जाती। अच्छा हो, यदि इसे अगले संस्करण में दुरुस्त कर लिया जाए।

जनकवि शैलेन्द्र उम्मीदों के गीतकार थे और एकता, भाईचारा, संघर्ष उनका नारा था। अपने एक लंबे गीत में वे मज़दूरों और कामगारों से संघर्ष का आह्वान करते हुए, अंदर की आग जलाने को कहते हैं, ‘‘झूठे सपनों के छल से निकल, चलती सड़कों पर आ/अपनों से न रह यों दूर-दूर, आ क़दम से क़दम मिला/.. तू और मैं हम जैसे अनगिन एक बार अगर मिल जाएं/तोपों के मुंह फिर जाएं/जुल्म के सिंहासन हिल जाएं/ओ जीते जी जलने वाले, अंदर भी आग जला।’’

ये गीत और शैलेन्द्र के ऐसे कई क्रांतिकारी एवं जनवादी गीत आज भी बहुत प्रासंगिक हैं। वक़्त की पुकार हैं। बस, ज़रूरत उन गीतों से प्रेरणा लेने की है।

(ज़ाहिद ख़ान स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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