(हिंदी फ़िल्मों के प्रख्यात गीतकार शैलेंद्र का जन्म 30 अगस्त, 1923 को हुआ था और यह वर्ष उनका शतब्दी वर्ष है। हिंदी सिनेमा में प्रगतिशील और लोक चेतना की जैसी उत्कृष्ट अभिव्यक्ति उनके गीतों में हुई है, वैसी किसी अन्य गीतकार में नहीं। वे दलित परिवार में पैदा हुए थे और उनके काव्य का अध्ययन करने पर इस बात को आसानी से समझा जा सकता है कि उनमें दलित, लोक और प्रगतिशीलता के तत्व समान रूप से मिल जाते हैं। यह लेख इस शतब्दी वर्ष में उनकी स्मृत्ति को समर्पित है।)
शंकर शैलेंद्र (1923-1966) जिन्हें आमतौर पर फ़िल्मी गीतकार के रूप में जाना जाता है, फ़िल्मों में आने से पहले लगभग एक दशक तक कम्युनिस्ट आंदोलन और साहित्य के प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े हुए थे। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जेल भी गये। बाद में रेलवे में नौकरी करते हुए वे मज़दूर आंदोलन में भी सक्रिय रहे और प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा से भी जुड़े रहे। जैसा कि सभी जानते हैं कि उन्हें फ़िल्म में लाने का श्रेय राजकपूर (1924-1988) को है, जिन्होंने पहली बार ‘बरसात’ (1949) फ़िल्म में उनसे दो गीत लिखवाये थे।
फ़िल्मों में गीत लिखते हुए भी उन्होंने प्रगतिशील आंदोलन से अपना नाता नहीं तोड़ा था। उनकी प्रगतिशील दौर की लिखी गैर फ़िल्मी कविताओं और गीतों का पहला संग्रह 1955 में ‘न्यौता और चुनौती’ के नाम से प्रकाशित हुआ था। उनके जीते जी उनका कोई और संग्रह प्रकाशित नहीं हो सका। उनकी मृत्यु के लगभग पांच दशक के बाद उनकी कविताओं और गीतों का एक और संग्रह ‘अंदर की आग’ (2015) के नाम से प्रकाशित हुआ, जिसमें उनके पुराने लोकप्रिय गैर फ़िल्मी जनवादी गीत भी संकलित हैं।
‘न्यौता और चुनौती’ पुस्तक उन्होंने मराठी के जनकवि और दलित साहित्यकार अन्नाभाऊ साठे (1920-1969) को समर्पित की थी। अन्नाभाऊ का कार्यक्षेत्र भी मुंबई था। उन्होंने शैलेंद्र की तरह मज़दूर के रूप में अपना जीवन शुरू किया था। मज़दूर आंदोलनों ने उन्हें पढ़ने और लिखने की प्रेरणा दी। वे शैलेंद्र की तरह इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े थे और कम्युनिस्ट कार्यकर्ता भी थे। शैलेंद्र की तरह वे भी इप्टा के कार्यक्रमों में और मज़दूर आंदोलनों में गीत गाते थे। साठे के लिखे गीत आज भी गाये जाते हैं। उनके लिखे कई उपन्यासों पर मराठी में कई फ़िल्में भी बनी हैं।
शैलेंद्र की तरह अन्नाभाऊ साठे की मृत्यु भी अल्पायु में हो गयी थी। यह बहुत कम लोग जानते हैं कि शैलेंद्र का जन्म भी दलित परिवार में हुआ था। उनके पिता ज़रूर फौज में थे, लेकिन उनके दादा ने अपने जीवन का निर्वाह एक मज़दूर के रूप में ही किया था। शैलेंद्र ने भी रेलवे में एक वेल्डर के रूप में काम किया और बाद में फोरमेन के रूप में। हालांकि शैलेंद्र सुशिक्षित व्यक्ति थे और कई भाषाओं के जानकार भी थे। अन्नाभाऊ साठे और शैलेंद्र के जीवन में काफी समानता रही है। यह संयोग नहीं है कि शैलेंद्र ने अपना पहला और अकेला काव्य संग्रह ‘न्यौता और चुनौती’ अन्नाभाऊ साठे को समर्पित किया था। अभी तीन साल पहले ही उनका शताब्दी वर्ष भी गुजरा है।
दलित चेतना और शैलेंद्र
प्रगतिशील आंदोलन और फ़िल्मों दोनों में शैलेंद्र ने जो भी लिखा उसे प्रगतिशील विचारधारा के परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयास तो हुआ है, लेकिन दलित पृष्ठभूमि ने भी उनकी चेतना को प्रभावित किया है, इसे जांचने-परखने की कोशिश प्राय: नहीं हुई है। दरअसल जब उन्होंने लिखना शुरू किया तब देश में प्रगतिशील आंदोलन तो मजबूत था, लेकिन दलित आंदोलन का उभार अभी बहुत दूर की बात थी।
यह ज़रूर है कि एक महान विचारक के तौर पर बाबा साहब अंबेडकर को राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठा प्राप्त हो चुकी थी और उसी प्रतिष्ठा के कारण उन्हें संविधान सभा की उस समिति का अध्यक्ष बनाया गया जिसको संविधान का प्रारूप तैयार करना था। स्वतंत्र भारत के लिए बनने वाले संविधान को धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और सामाजिक न्याय की आधारशिला पर खड़ा करने में सबसे अहम भूमिका अंबेडकर की ही थी।
शैलेंद्र का संबंध जिस प्रगतिशील आंदोलन से था, वह उसी विचारधारा से प्रेरित था, जो किसी न किसी रूप में संविधान निर्माण के पीछे भी सक्रिय थी। संविधान में उल्लिखित मूल अधिकारों के अंतर्गत समानता के अधिकार का निहितार्थ यह है कि छुआछूत और धर्म, नस्ल, जाति, जेंडर और जन्म के स्थान के आधार पर हर तरह के भेदभाव को समाप्त करना है। समानता के अधिकार में कानून के समक्ष सबकी समानता, धर्म, नस्ल, जाति, लिंग और जन्म के स्थान के आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव का निषेध और रोज़गार के अवसर में समानता, छुआछूत की समाप्ति और उपाधियों की समाप्ति शामिल हैं।
मूल अधिकारों का उद्देश्य समाज में व्याप्त हर तरह की असमानता को समाप्त करना है। संविधान की इन मूलभूत विशेषताओं को शैलेंद्र ने प्रगतिशील आंदोलन के कारण पहले से ही आत्मसात कर लिया था। यही नहीं जिस समाजवाद शब्द को 1976 में संविधान में संशोधन द्वारा स्वीकार किया गया था, संविधान लागू होने के पहले से ही उनकी उसमें गहरी आस्था थी। वे दरअसल मार्क्सवादी लेखक थे और मार्क्सवाद में उनकी आस्था जीवनपर्यंत बनी रही।
शैलेंद्र ने सीधे तौर पर दलित जीवन के यथार्थ को व्यक्त करने वाले गीत नहीं लिखे, लेकिन जो लिखा, उसमें कहीं न कहीं दलित चेतना की प्रतिध्वनि सुनी जा सकती है। ‘उजाला’ (1959) फ़िल्म का गीत ‘जाये अब कहां हम’ में जिन अनाथ बच्चों की वेदना को वाणी दी गयी है, उसमें दलित की सामाजिक प्रताड़ना का दंश भी व्यक्त होता हुआ देखा जा सकता है :
हम घर-घर जाते हैं, ये दिल दिखलाते हैं
पर ये दुनिया वाले, हमको ठुकराते हैं
रास्ते मिट गये, मंज़िलें खो गयीं
अब किसी को किसी पर भरोसा नहीं।
या इस गीत का एक और अंतरा देखा जा सकता है:
नफ़रत है निगाहों में
दहशत है निगाहों में
ये कैसा जहर फैला दुनिया की हवाओं में
प्यार की बस्तियां खाक़ होने लगीं
अब किसी को किसी पर भरोसा नहीं।
फ़िल्म ‘जिस देश में गंगा बहती है’ (1960) का गीत ‘मेरा नाम राजू घराना अनाम’ कुछ हद तक आत्मकथात्मक भी है। अपने को अनाम घराने का कहने के पीछे कहीं दलित होने का दंश भी है, लेकिन शिकायत के रूप में वे इस बात को नहीं कहते। बताया जाता है कि जब राजकपूर ने पहली बार गीत सुना था, तो शैलेंद्र को सुझाव दिया कि अनाम शब्द हटा दे, कुछ और रख ले, लेकिन शैलेंद्र ने शब्द बदलने से इन्कार कर दिया था। एक कवि के रूप में अपनी भूमिका और जीवन के लक्ष्य को लेकर भी वे बहुत स्पष्ट थे :
काम नये नित गीत बनाना, गीत बनाके जहां को सुनाना
कोई न मिले तो अकेले में गाना
कवि राज कहे, ना ये ताज रहे, ना ये राज रहे, ना ये राज घराना
प्रीत और प्रीत का गीत रहे, कभी लूट सके ना कोई ये खजाना।
प्रगतिशीलता, लोकतंत्र और सामाजिक न्याय
शैलेंद्र ने अपने गीतों में राज (सत्ता) और ताज का मज़ाक उड़ाया है। इसके पीछे यदि एक ओर लोकतंत्र के प्रति गहरी आस्था है, तो दूसरी ओर वर्ग और वर्ण के आधार पर विभाजित दुनिया का अस्वीकार भी है। उनके लिए सबसे बड़ी चीज है प्रीत। प्रेम के संसार में न कोई बड़ा होता है, न कोई छोटा होता है। न कोई राजा होता है, न कोई रंक। ‘श्री 420’ (1955) का गीत ‘मेरा जूता है जापानी’ में भी वे इस बात को बहुत प्रतिबद्धता के साथ कहते हैं :
होंगे राजे राजकुंवर हम, बिगड़े दिल शहजादे- 2
हम सिंहासन पर जा बैठें, जब जब करें इरादे- 2
‘बूट पालिश’ (1954) में भी जिस सुनहरे भविष्य का चित्र वे पेश करते हैं उसकी विशेषता यह है कि वहां सब कोई राजा होगा, न भूख होगी, न दुख होगा :
आने वाली दुनिया में सबके सर पे ताज होगा
न भूखों की भीड़ होगी, न दुखों का राज होगा।
‘अब दिल्ली दूर नहीं’ (1957) फ़िल्म के गाने ‘ये चमन हमारा अपना है’ में एक बार फिर वे इस बात को दोहराते हैं, इस विश्वास के साथ कि अब देश आज़ाद हो गया है और अब सब के सर पर ताज है क्योंकि लोकतंत्र में सबको अपना शासक चुनने का अधिकार है:
इस देश में अपना राज है
मत कहो कि सर पे टोपी है
कहो सर पे हमारे ताज है।
‘श्री 420’ के गीत ‘मेरा जूता है जापानी’ में नायक को जो पहचान दी गयी है, वह यदि एक ओर नेहरूकालीन मिश्रित अर्थव्यवस्था वाली राजनीति के चरित्र को दर्शाता है, तो दूसरी ओर, उस साझा संस्कृति को भी संकेतित करता है जो भारत की सांस्कृतिक परंपरा की विशिष्ट पहचान है। लेकिन यह उस अंतरराष्ट्रीयता की भावना से उपजी पंक्तियां भी हैं, जिसकी शिक्षा उन्हें प्रगतिशील आंदोलन से प्राप्त हुई थी :
मेरा जूता है जापानी, ये पतलून है इंगलिस्तानी
सर पे लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल हे हिंदुस्तानी।
हिंदुस्तानी होने की यह गर्व भावना उनके कई गीतों में व्यक्त हुई है। ‘जिस देश में गंगा बहती है’ के शीर्षक गीत में भी ‘हम उस देश के वासी हैं जिस देश में गंगा बहती है’ कहकर इस गर्व भावना को ही वे व्यक्त कर रहे होते हैं। लेकिन यह गर्व भावना अंधराष्ट्रवाद से प्रेरित नहीं है। ‘श्री 420’ गीत में जब वे जापानी जूते, इंगलिस्तानी पतलून और रूसी लाल टोपी का उल्लेख करते हैं, तो वे संकीर्ण राष्ट्रवाद की काट कर रहे होते हैं। यहां तक कि ‘संगम’ (1964) के एक प्रेम गीत ‘ओ मेरे सनम, ओ मेरे सनम’ में जहां नायिका अपनी व्यथा को व्यक्त कर रही होती है, वहां वह नायक को इस बात की याद दिलाती है कि ये धरती इंसानों की है और हम इंसान के अलावा कुछ भी नहीं है :
ये धरती है इनसानों की
कुछ और नहीं इनसान है हम।
और हम इंसान है इसलिए हम से भूल भी होगी और गलतियां भी होंगी। मनुष्य का सिर्फ़ मनुष्य होना ही उनके लिए पर्याप्त है। इसके अलावा किसी और पहचान का कोई अर्थ नहीं है।
शैलेंद्र ने ऐसे बहुत से गीत और कविताएं लिखीं जिनमें यदि एक और मज़दूरों और किसानों के जीवन की वेदना और संघर्ष को वाणी दी है, तो दूसरी तरफ, पूंजीवादी राजसत्ता के जुल्मो-सितम और उसे उखाड़ फेंकने के लिए होने वाले सामूहिक संघर्षों के गीत भी उन्होंने गाये हैं। युद्धोन्मादी फ़ासीवाद और साम्राज्यवाद की तीखी आलोचना भी उनके गीतों का प्रमुख विषय रहा है, तो दूसरी ओर, सोवियत संघ और समाजवादी चीन पर होने वाले हमलों का विरोध भी उन्होंने अपने गीतों का विषय बनाया है। जाहिर है कि जनवादी क्रांति में यकीन करने वाले, मज़दूर आंदोलन से जुड़े एक कवि के लिए फ़िल्म में लिखना कोई वरणीय विकल्प नहीं था।
इसलिए जब इप्टा के एक कार्यक्रम में राजकपूर ने शैलेंद्र के मुख से ‘जलता है पंजाब’ गीत सुना तब उनमें उन्हें अपनी फ़िल्मों के लिए एक ऐसा गीतकार नज़र आया होगा, जो उनकी प्रगतिशील कथ्य वाली फ़िल्मों को मुक़म्मल शब्द दे सकता था। लेकिन यहां यह याद रखना ज़रूरी है कि उस दौर में बनने वाली अधिकतर फ़िल्में मनोरंजन प्रधान और बाज़ारू किस्म की होती थीं। स्वयं इप्टा जिसने 1946 में बंगाल के दुर्भिक्ष पर आधारित ‘धरती के लाल’ फ़िल्म बनायी थी, वह भी एक फ़िल्म बनाकर निर्माण से हाथ खींच चुका था।
बंबई उस समय मज़दूर आंदोलन का केंद्र था और हिंदी-उर्दू के बहुत से लेखक कम्युनिस्ट पार्टी के साथ जुड़कर वहां मज़दूरों के बीच काम कर रहे थे। शैलेंद्र पेशे से मज़दूर भी थे, कम्युनिस्ट कार्यकर्ता भी थे और प्रगतिशील कवि और गीतकार भी थे। लेकिन यह वह दौर भी है, जब प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन पर संकीर्णतावादी सोच भी हावी हो रहा था।
‘धरती के लाल’ के बाद इप्टा ने फ़िल्म निर्माण से अपने हाथ खींच लिये थे। फ़िल्म जैसे लोकप्रिय माध्यम को जनता तक अपनी आवाज़ पहुंचाने के लिए इस्तेमाल करने की बजाय उससे दूर हटने की कोशिश करना एक आत्मघाती कदम ही था। शैलेंद्र के इन्कार में कहीं न कहीं प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन की इस संकीर्णतावादी सोच का असर भी था।
लेकिन उसी दौर में प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े बहुत से लेखक और कलाकार फ़िल्मों की अहमियत को समझकर उस ओर कदम बढ़ा चुके थे। ख्वाजा अहमद अब्बास, बलराज साहनी, चेतन आनंद, कैफ़ी आज़मी, प्रेम धवन, शंभु मित्र, सलिल चौधरी, साहिर लुधियानवी, मजरूह सुलतानपुरी और दूसरे कई लेखक और कलाकार प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन की ही देन थे।
इनके अलावा बिमल राय, महबूब, राज कपूर, अमिय चक्रवर्ती, वी. शांताराम, ऋषिकेश मुखर्जी जैसे उस दौर के बड़े फ़िल्मकार भी इस सांस्कृतिक आंदोलन के प्रति न केवल सहानुभूति रखते थे बल्कि उससे प्रेरणा भी ग्रहण करते थे। यह महज़ संयोग नहीं था कि राजकपूर इप्टा द्वारा आयोजित एक कवि सम्मेलन में श्रोता की हैसियत से शामिल हुए थे जहां उन्हें शैलेंद्र को पहली बार सुनने का अवसर मिला था।
शैलेंद्र से अपनी पहली फ़िल्म ‘आग’ (1948) के गीत लिखने के लिए आमंत्रित करना और उनका इन्कार करना और फिर कुछ दिनों बाद उन्हीं राजकपूर के लिए गीत लिखने के लिए तैयार हो जाना, यह महज़ दो व्यक्तियों के बीच घटी निजी घटन नहीं है। शैलेंद्र ने इप्टा द्वारा आयोजित कवि सम्मेलन में जो गीत सुनाया था, वह विभाजन के बारे में था, खासतौर पर पंजाब के बारे में जो विभाजन के कारण भड़की सांप्रदायिकता की आग में जल रहा था।
शैलेंद्र मूल रूप से बिहार के थे, लेकिन उनका जन्म अविभाजित पंजाब में हुआ था। अपनी जन्मभूमि के प्रति उनमें वैसा ही लगाव रहा होगा जो किसी न किसी रूप में पंजाब से या देश के उन दूसरे हिस्सों से था जो विभाजन के कारण अब देश से अलग हो गये थे। राजकपूर का जन्म पेशावर में हुआ था और विभाजन की वेदना वे भी अंदर से महसूस करते रहे होंगे।
शैलेंद्र ने ‘जलता पंजाब’ गीत पढ़ा नहीं था बल्कि उस गीत में निहित भावनाओं के अनुरूप आवाज़ में गाकर सुनाया था। इस गीत में गहरी पीड़ा भी झलकती है और तीखा आक्रोश भी। यहां पंजाब महज़ ज़मीन का टुकड़ा नहीं है, आज़ादी के आंदोलन के लिए बलिदान करने वाले शहीदों की महान विरासत का नाम है, उसकी पहचान है :
जलता है जलता है पंजाब हमारा प्यारा
जलता है जलता है भगतसिंह की आंखों का तारा
किसने हमारे जलियांवाले बाग में आग लगाई
किसने हमारे देश में फूट की ये ज्वाला धधकाई
किसने माता की अस्मत को बुरी तरह से ताका
धर्म और मज़हब से अपनी बदनीयत को ढांका
कौन सुखाने चला है पांचों नदियों की जलधारा
जलता है जलता है पंजाब हमारा प्यारा।
गीत में शैलेंद्र सांप्रदायिक विभाजन के पीछे साम्राज्यवाद की तरफ भी इशारा करते हैं जिसने धर्म और मज़हब के ठेकेदारों का इस्तेमाल कर सांप्रदायिकता का विष फैलाया था। इस गीत के कथ्य में ऐतिहासिक तथ्यों के साथ वैचारिक स्पष्टता तो झलकती ही है, साथ ही अभिव्यक्ति की जो सहजता और सरलता है, वह भी आकृष्ट करती है। और इन सबको जिन भावात्मक आवेग में बांधा गया है, वह राजकपूर को ही नहीं किसी को भी प्रभावित किये बिना नहीं रह सकता। उस दौर में शैलेंद्र से ‘जलता है पंजाब’ गीत सुनाने की मांग प्राय: हर कार्यक्रम में की जाती थी।
राजकपूर ने इस एक गीत से पहचान लिया था कि शैलेंद्र की लेखनी में वह क्षमता है, जो उन्हें अपनी फ़िल्मों के गीतकार में चाहिए थी। शैलेंद्र हिंदी के कवि और गीतकार थे लेकिन उर्दू पर भी उनकी अच्छी पकड़ थी। फ़िल्मों में लिखने से पहले ही वह एक ऐसी भाषा का इस्तेमाल कर रहे थे, जिसे हिंदुस्तानी के रूप में जाना जाता है। हिंदी फ़िल्मों के लिए यही भाषा आदर्श भाषा थी। बाद में फ़िल्मों में उन्होंने लोकभाषा को भी इस हिंदुस्तानी के साथ इस तरह घुलामिला लिया था कि उनकी भाषा का सौंदर्य अलग से निखर कर आने लगा था। हिंदुस्तानी और लोकभाषा का ऐसा मिश्रण बहुत कम गीतकारों में व्यक्त हुआ है।
जिस समय राजकपूर ने शैलेंद्र को अपनी फ़िल्म के लिए लिखने के लिए आमंत्रित किया था, उस समय तक राजकपूर के निर्देशन में कोई फ़िल्म नहीं आयी थी। अभिनेता के रूप में उन्होंने कुछ फ़िल्मों में काम किया था। ‘आग’ उनकी पहली फ़िल्म थी, जिसका निर्माण और निर्देशन उन्होंने किया था। तब तक उनकी पहचान मुख्य रूप से पृथ्वीराज कपूर के बेटे के रूप में ही थी, जो सिनेमा और थियेटर की बहुत बड़ी हस्ती थे।
पृथ्वीराज कपूर ने 1944 में पृथ्वी थियेटर की स्थापना की थी और उसके माध्यम से देश भर में नाटक खेलते थे। पृथ्वी थियेटर द्वारा खेले गये अधिकतर नाटक प्रगतिशील आंदोलन की परंपरा में थे। इसलिए जब शैलेंद्र राजकपूर के पास दोबारा गये, तब बहुत मुमकिन है कि उनके दिमाग़ में ये सब तथ्य भी रहे हों। निश्चय ही राजकपूर के पास जाना किसी भी अर्थ में कोई ऐसा कदम नहीं था जिसके लिए उन्हें शर्मिंदा होने की ज़रूरत हो।
फ़िल्म के लिए लेखन का वैशिष्ट्य
फ़िल्मों के लिए लिखना और स्वतंत्र लेखन करना निश्चय ही दो अलग तरह के रचनात्मक कार्य हैं। फ़िल्म के लिए जो गीत लिखे जाते हैं, वे फ़िल्म की कहानी और फ़िल्म में जहां गीत का इस्तेमाल होता है, उस सिचुएशन को ध्यान में रखकर लिखा जाता है। लेकिन इसके साथ ही यह अनकही शर्त है कि फ़िल्म से अलग जब गीत को सुना जाये, तो उसके भावार्थ को समझने के लिए फ़िल्म की कहानी और सिचुएशन को याद करने की ज़रूरत न हो। वह फ़िल्म से अलग अपनी स्वतंत्र ईयता कायम कर ले। इसके लिए गीतकार गीत लिखते हुए संदर्भ का ध्यान रखते हुए भी उसे अप्रत्यक्ष और सांकेतिक रूप से अपनी बात कहने का प्रयास करते हैं। वैसे तो प्राय: सभी गीतकार इसका प्रयास करते हैं लेकिन इस विशिष्टता को शैलेंद्र अपने गीतों में सहज ही ले आते हैं।
इसके साथ ही जैसा कि हिंदी फ़िल्मों में परंपरा बन चुकी है, गीत से पहले उनकी धुन तैयार कर ली जाती है और धुन को ध्यान में रखकर लिखा जाता है। ये दोनों बातें गीतकार की स्वतंत्रता को बाधित करती हैं। लेकिन इन अवरोधों को कुछ हद तक दूर किया जा सकता है यदि फ़िल्मकार और गीतकार के बीच वैचारिक रूप से एकता हो, गीतकार को संगीत की समझ हो और संगीतकार को काव्य की समझ हो। इस दूसरी बात को स्वयं शैलेंद्र ने भी स्वीकार किया है।
शैलेंद्र लिखते हैं, ‘गीत पहले लिखा जाए और फिर धुन बनायी जाए या धुन पर गीत लिखा जाए, इस सवाल पर काफी कुछ कहा गया है। बहुत से लोगों का मत है कि धुन पर लिखा गया गीत बढ़िया नहीं हो सकता, मैं ऐसा नहीं मानता। मेरा ख्याल है कि यदि गीतकार को संगीत की थोड़ी-बहुत समझ है तो वह धुन पर अच्छा गीत लिखेगा- नये-नये छंद उसे मिलेंगे और दूसरी ओर, यदि संगीतकार को काव्य की थोड़ी-बहुत समझ है तो वह लिखे हुए गीत पर बढ़िया धुन बनायेगा, शब्दों और भावनाओं को फूल की तरह खिलाता हुआ’।
कई बार ऐसा होता है कि फ़िल्म की कहानी गीतकार के विचारों और भावनाओं के काफी नजदीक होती है, तो उसे फ़िल्म के लिए गीत लिखने में गीतकार अपने को ज्यादा सहज महसूस करता है और अगर ऐसा नहीं होता, लेकिन जिस सिचुएशन के लिए गीत लिखना होता है, उस सिचुएशन में गीतकार को लगता है कि यहां वह अपनी बात कह सकता है, तो वह उस अवसर का रचनात्मक उपयोग कर सकता है।
शैलेंद्र (और साहिर लुधियानवी भी) ऐसे किसी अवसर को कभी नहीं छोड़ते और उसका पूरा लाभ उठाते हैं। मसलन, ‘दो बीघा ज़मीन’ (1953) फ़िल्म का नायक शंभु महतो (बलराज साहनी) कलकत्ता की जिस मज़दूर बस्ती में रहता है, एक दिन वहां मज़दूर बैठ के भजन गा रहे होते हैं। शैलेंद्र द्वारा लिखे उस भजन की टेक है, ‘अजब तोरी दुनिया हो मोरे रामा’। लेकिन पूरा गीत ईश्वर की प्रार्थना के स्वर में शिकायत की गयी है और इसके माध्यम से वर्ग विभाजित सामाजिक संरचना पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी भी की गयी है :
अजब तोरी दुनिया हो मोरे रामा- 2
कदम कदम देखी भूल भुलैया- 2
गजब तोरी दुनिया हो मोरे रामा।
कोई कहे जग झूठा सपना पानी की बुलबुलिया
हो पानी की बुलबुलिया
हर किताब में अलग अलग है इस दुनिया का हुलिया
हो इस दुनिया की हुलिया
सच मानो या इसको झूठी मानो-2
बेढ़ब तोरी दुनिया हो मोरे रामा
परबत काटे, सागर पाटे, महल बनाये हमने
हो महल बनाये हमने
पत्थर पे बगिया लहराई, फूल खिलाए हमने
हो फूल खिलाए हमने
हो के हमारी, हुई न हमारी
अलग तोरी दुनिया हो मोरे रामा
दया धरम सब कुछ बिकता है, लोग लगाएं बोली
हो लोग लगाएं बोली
मुश्किल है हम जैसों की खाली है जिनकी झोली
हो खाली है जिनकी झोली
जब तेरे बंदों की जान बिके ना
है तब तोरी दुनिया हो मोरे रामा
अजब तोरी दुनिया हो मोरे रामा
भजन के फोरमेट में लिखे इस गीत में मज़दूर के जीवन यथार्थ की विडंबनात्मक तस्वीर पेश की गयी है। बहुत ही सहज और सरल भाषा में लिखे इस गीत में प्रस्तुत विचार सरल नहीं है। दुनिया की एक बहुत स्पष्ट समझ इसमें व्यक्त हुई है जिसे मज़दूर के नजरिए से देखा गया है। लेकिन शैलेंद्र भी प्रेमचंद की तरह बहुत गहरी बात को भी मेहनतकशों की अपनी भाषा में पेश करने की क्षमता रखते हैं।
जैसे प्रेमचंद (1880-1936) की कहानी ‘पूस की रात’ के किसान हल्कू के मुख से निकला यह वाक्य कि ‘मजूरी हम करें और मजे दूसरे लूटें’ में वर्ग विभाजित समाज की पूरी समझ व्यक्त हुई है। इस गीत में शैलेंद्र भी ठीक यही करते हैं। इस गीत के तीनों अंतरे मेहनतकश वर्ग के जीवन की समझ के तीन स्तरों को हमारे सामने रखते हैं। पहला अंतरा जो काफी हद तक दार्शनिक किस्म का है, कार्ल मार्क्स की उस प्रसिद्ध उक्ति की ही अभिव्यक्ति है कि दार्शनिकों ने दुनिया की तरह-तरह से व्याख्या की है, जबकि ज़रूरत इसे बदलने की है :
कोई कहे जग झूठा सपना पानी की बुलबुलिया
हो पानी की बुलबुलिया
हर किताब में अलग अलग है इस दुनिया का हुलिया
हो इस दुनिया की हुलिया
सच मानो या इसको झूठी मानो-2
बेढ़ब तोरी दुनिया हो मोरे रामा
दूसरे अंतरे में वे इस बात को अपनी भाषा में कहते हैं कि मेहनतकशों के श्रम से ही इस दुनिया का निर्माण हुआ है, लेकिन इसके बावजूद इस दुनिया पर मेहनतकशों का अधिकार नहीं है :
परबत काटे, सागर पाटे, महल बनाये हमने
हो महल बनाये हमने
पत्थर पे बगिया लहराई, फूल खिलाए हमने
हो फूल खिलाए हमने
हो के हमारी, हुई न हमारी
अलग तोरी दुनिया हो मोरे रामा
तीसरे और अंतिम अंतरे में शैलेंद्र कहते हैं कि दया-धर्म की जो बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं, दरअसल वे सब इस दुनिया में बेची और खरीदी जाती हैं। लेकिन हम मेहनतकशों की जिनकी झोली खाली है, उनके हिस्से में दया-धर्म भी नहीं आता, यहां तो हमारी जान भी बिकाऊ है। ऐसी दुनिया हमारी तो नहीं हो सकती। तेरी दुनिया हमारी तभी हो सकती है जब तेरे बंदों की जान बिकना बंद हो जाये :
दया धरम सब कुछ बिकता है, लोग लगाएं बोली
हो लोग लगाएं बोली
मुश्किल है हम जैसों की खाली है जिनकी झोली
हो खाली है जिनकी झोली
जब तेरे बंदों की जान बिके ना
है तब तोरी दुनिया हो मोरे रामा
शैलेंद्र इस बात में यकीन नहीं करते कि साधारण जनता की समझ भी साधारण होती है। वे लिखते हैं, ‘जनता को मूर्ख या सस्ती रुचि का समझने वाले कलाकार या तो जनता को नहीं समझते या अच्छा और खूबसूरत पैदा करने की क्षमता उनमें नहीं है। हां वह अच्छा मेरी नजरों में बेकार है, जिसे केवल गिने-चुने लोग ही समझ सकते हैं’। यहां यह बात रेखांकित करने की है कि अगर कोई साधारण गीतकार होता तो, वह इस सिचुएशन पर एक भजन ही लिखता जिसमें भगवान से दया और मोक्ष की मांग की जा रही होती या उनकी लीलाओं का गुणगान किया जा रहा होता।
एक नयी दुनिया का स्वप्न
‘बूट पालिश’ फ़िल्म में भी शैलेंद्र बच्चों के सामूहिक गान के माध्यम से वे सब बातें कह जाते हैं, जो बच्चों को मेहनत के प्रति आस्थावान बनाती हो, भविष्य के प्रति आशावान और एक ऐसी दुनिया का स्वप्न देखने के लिए प्रेरित करती हो जिसमें कोई किसी का राजा नहीं होगा, भूख नहीं होगी और न दुख होगा :
नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है?
मुट्ठी में है तकदीर हमारी- 2
हमने किस्मत को बस में किया है।
भोली-भाली मतवाली आंखों में क्या है?
आंखों में झूमे उम्मीदों की दिवाली-2
आने वाली दुनिया का सपना सजा है।
भीख में जो मोती मिलेगा, लोगे या न लोगे?
ज़िंदगी के आंसुओं का बोलो क्या करोगे?
भीख में जो मोती मिले तो भी हम न लेंगे।
ज़िंदगी के आंसुओं की माला पहनेंगे।
मुश्किलों से लड़ते-फिरते जीने में मज़ा है।
नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है?
हमसे न छुपाओ बच्चों हमें तो बताओ।
आने वाली दुनिया कैसी होगी समझाओ।
आने वाली दुनिया में सबके सर पे ताज होगा।
ना भूखों की भीड़ होगी, ना दुखों का राज होगा।
बदलेगा ज़माना ये सितारों पे लिखा है।
नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है?
इस गीत में भी शैलेंद्र बहुत सहज भाषा में बहुत सी बातें कह जाते हैं। गीत में वे न केवल सकारात्मक बातें कहते हैं बल्कि नकारात्मक सोच पर भी प्रश्नचिह्न लगाते हैं जो इंसान को भाग्यवादी और निराशावादी बनाती है। सवाल और जवाब की शैली में लिखे इस गीत में भी शैलेंद्र अपने विचारों को सशक्त रूप में व्यक्त करने में सक्षम होते हैं। उनका प्रख्यात गीत ‘तू ज़िंदा है तो ज़िंदगी की जीत में यकीन कर’ का उदाहरण लिया जा सकता है जो लगभग सात दशकों से जन आंदोलनों के सर्वाधिक लोकप्रिय गीतों में परिगणित होता रहा है और हजारों बार गाया गया है और आज भी गाया जाता है :
तू ज़िंदा है तो ज़िंदगी की जीत में यकीन कर
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर
ये ग़म के और चार दिन, सितम के और चार दिन
ये दिन भी जायेंगे गुजर, गुजर गये हजार दिन
कभी तो होगी इस चमन में बहार की नज़र
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर।
शैलेंद्र ने इस तरह के भावों को अपने कई अन्य फ़िल्मी गीतों में प्रस्तुत किया है। गरीबी, भूख, संघर्ष और भविष्य का ऐसा सामूहिक सपना जो दुनिया में हर तरह की गैरबराबरी और शोषण की समाप्ति की इच्छा से उपजा हो।
स्त्री-वेदना और लोक-चेतना को स्वर
शैलेंद्र ने सिर्फ़ किसान, मज़दूर और बेरोज़गार युवाओं के जीवन की तकलीफों और संघर्षो को प्रस्तुत नहीं किया है, उन्होंने स्त्री जीवन की पीड़ा को, उसके अकेलेपन को और उन जंजीरों को जिसमें वह सदियों से कैद है, को भी वाणी दी है। ‘बंदिनी’ (1963) फ़िल्म का ‘अबके बरस भेज भैया को बाबुल’ गीत में स्त्री की पीड़ा को जिस गहराई से महसूस कर लिखा है और उसे जो शब्द दिये हैं, जिन बिंबों में उसे बांधा है, वह अतुलनीय है। पूरा गीत एक ग्रामीण स्त्री की स्मृतियों से निर्मित किया गया है। अंबुआ तले, सावन के झूले, रिमझिम फुहारे और सावन की ठंडी बहारों की यादें जो बिंब निर्मित करती हैं, वे केवल चाक्षुष बिंब नहीं हैं बल्कि इनसे बिछोह की पीड़ा भी हर बिंब, हर शब्द में व्यक्त हुई है, उसकी गहन अनुभूति भी इन शब्दों में समाहित हैं।
लेकिन इस अनुभूति की पराकाष्ठा तब व्यक्त होती है जब शैलेंद्र अगले अंतरे में बचपन के खिलौनों और गुड़िया के माध्यम से स्त्री के अतीत और वर्तमान को एक दूसरे के सामने ला खड़ा करते हैं। जहां एक ओर बचपन की सुखद स्मृतियां हैं और दूसरी ओर, वर्तमान का वेदना से भरा अकेलापन है, जहां न कोई चिट्ठी-पत्री है, न कोई नैहर से आने वाला है। लोकगीत की शैली में लिखा यह गीत एक स्त्री का अपने पिता को भेजा गया संदेश है। इस उम्मीद के साथ कि पिता शायद इस बार सावन में भैया को भेजकर उसे बुलाले, लेकिन इस उम्मीद पर इतनी गहरी निराशा छाई है, जो पूरे गीत को गहरी पीड़ा से भर देता है :
अबके बरस भेज भैया को बाबुल सावन में लीजो बुलाय रे
लौटेंगी जब मेरे बचपन की सखियां देजो संदेशा भिजवाय के।
अब के बरस भेज भैया को बाबुल…
अंबुवा तले फिर से झूले पड़ेंगे, रिमझिम पड़ेंगी फुहारें
लौटेंगी फिर तेरे आंगन में बाबुल, सावन की ठंडी बहारें
छलके नयन मोरा, कसके रे जियरा, बचपन की जब याद आय रे।
अबके बरस भेज भैया को बाबुल…
बैरन जवानी ने छीने खिलौने और मेरी गुड़िया चुराई
बाबुल की मैं तेरी नाज़ों की पाली फिर क्यों मैं हुई पराई
बीते रे जग कोई चिट्ठियां न पाती, न कोई नैहर से आय रे।
अबके बरस भेज भैया को बाबुल…
इस गीत को जिस सिचुएशन में फ़िल्माया गया है, वह औरतों की जेल है। नायिका भी वहां कैद है, लेकिन गीत नायिका पर नहीं फ़िल्माया गया है बल्कि किसी अन्य कैदी स्त्री पर फ़िल्माया गया है जो अन्य कैदी स्त्रियों की तरह चक्की पीस रही है। चक्की चलाते हुए वह गा भी रही है। अकेले। लेकिन वह उसके अकेले की वेदना नहीं है, जैसे वहां कैद सभी स्त्रियों की सामूहिक वेदना ही उसके माध्यम से व्यक्त हो रही है। नायिका भी उसमें शामिल है, जिसके जीवन के दुखद प्रसंगों से हम सब परिचित हैं। यह गीत गायिका की पीड़ा को भी व्यक्त कर रहा है। शैलेंद्र ने गीत में जिन लोक अनुभवों से शब्दों को उठाया है, वह लोक चेतना में उनकी गहरी पैठ को दरशाता है।
हिंदी सिनेमा में लोक जीवन की, लोक संस्कृति की जितनी गहरी समझ और उस पर अधिकार शैलेंद्र को है, वैसी समझ और वैसा अधिकार शायद ही किसी और गीतकार के पास रही है। इस गीत को जिस दृश्य के बीच फ़िल्माया गया है, वह प्रतीकात्मक भी है। जेल में बंद चक्की पीसती स्त्री का बिंब जैसे संपूर्ण भारतीय नारी जाति के पूरे जीवन यथार्थ की अभिव्यक्ति है। इसी फ़िल्म के एक और गीत ‘ओ पंछी प्यारे’ जिसे भी जेल में फ़िल्माया गया है, वहां शैलेंद्र ने स्त्री जीवन की तुलना पिंजरे में कैद पक्षी से की है :
मैं तो पंछी पिंजरे की मैना, पंख मेरे बेकार
बीच हमारे सात रे सागर, कैसे चलूं उस पार
कुछ ऐसा ही भाव फ़िल्म ‘हमराही’ (1963) के गीत ‘मन रे तू ही बता क्या गाऊं?’ में भी व्यक्त हुआ है, जहां स्त्री जीवन की तुलना पिंजरे में बंद पंछी से की गयी है, जिसे इस कैद में रहकर अपने मालिक का जी भी बहलाना है और चेहरे पर जबरन मुस्कान बिखेरे रखना है और अपने आंसुओं को अंदर ही अंदर पी भी जाना है :
जिसने बरबस बांध लिया है, इस पिंजरे में कैद किया है
कब तक मैं उस पत्थर दिल का, जी बहलाती जाऊं
नींद में जब ये जग सोता है, मैं रोती हूं, दिल रोता है
मुख पे झूठी मुस्कानों के, कब तक रंग चढाऊं।
फ़िल्म ‘अनुराधा’ में अपने पति की उपेक्षा से विचलित स्त्री की पीड़ा को भी वे लोक से प्रेरित प्रकृति बिंबों के माध्ययम से पेश करते हैं:
कैसे दिन बीते, कैसे बीती रतिया, पिया जाने ना-2
नेहा लगा के मैं पछताई-2
सारी सारी रैना निंदिया न आई
जान के देखो मेरे जी की बतिया, पिया जाने ना
रुत मतवाली आके चली जाये-2
मन में ही मेरे मन की रही जाये
खिलने को तरसे नन्ही नन्ही कलिया पिया जाने ना
कजरा ना सोहे, गजरा ना सोहे-2
बरखा न भाये, बदरा ना सोहे-2
क्या कहूं जो पूछे मोसे मोरी सखियां, पिया जाने ना
कैसे दिन बीते, कैसे बीती रतिया पिया जाने ना
प्रेम, प्रकृति और सौंदर्य
शैलेंद्र प्रेम को व्यक्त करने के लिए विशेष रूप से स्त्री के प्रेम को व्यक्त करने के लिए प्रकृति बिंबों का उपयोग करते हैं। इन बिंबों में बरसात, बादल, बहार, फूल, आग, रात, चांदनी, अंधकार, पक्षियों का कलरव और भी न जाने कितने प्रकृति रूप उनके गीतों में बहुत ही सहज रूप में आ जाते हैं :
रस की फुहार लाई, अंखियों में प्यार लाई
तुमको पुकारे मेरे मन का पपिहरा
मीठी-मीठी अगनि में जले मोरा जियरा
ऐसी रिमझिम में ओ साजन प्यासे प्यासे मेरे नैन
सांवली सलोनी घटा, जब जब छाई
अंखियों में रैना गई, निंदिया न आई
(फ़िल्म ‘परख’ का गीत : 1960)
ये रात भीगी-भीगी, ये मस्त फ़िजाएं
उठा धीरे-धीरे वो चांद प्यारा प्यारा
क्यों आग सी लगा के गुमसुम है चांदनी
सोने भी नहीं देता मौसम का ये इशारा
इठलाती हवा, नीलम सा गगन
कलियों पे ये बेहोशी की नमी
ऐसे में भी क्यूं बेचैन है दिल
जीवन में न जाने क्या है कमी
जो दिन के उजाले में ना मिला
दिल ढूंढे ऐसे सपनों को
इस रात की जगमग में डूबी
मैं ढूंढ रही हूं अपने को
(‘चोरी-चोरी’ फ़िल्म का गीत : 1956)
ठंडी ठंडी सावन की फुहार
पिया आज खिड़की खुली मत छोड़ो
आवे झोंके से पगली बयार
पपिहे ने मन की अग्नि बुझा ली
प्यासा रहा आज मेरा प्यार
(‘जागते रहो’ फ़िल्म का गीत : 1956)
प्रकृति बिंबों के उपयोग के कारण प्यार की अभिव्यक्ति में शालीनता, संयम और भावनात्मक गहनता का एहसास होता है, उनसे शैलेंद्र के गीतों में रचनात्मक सौंदर्य का निखार आ जाता है। प्रेम की अभिव्यक्ति में शैलेंद्र कहीं भी हल्कापन और छिछोरापन नहीं आने देते। इन कविताओं में विलास और उल्लास प्राय: नहीं दिखते। खास बात यह है कि मिलन का गीत हो या विरह का, एक विशेष तरह की तड़प, उदासी और बेचैनी उनके प्रेम गीतों में दिखायी देती है। शैलेंद्र के गीत इस बात के गवाह है कि एक बड़ा कवि कहानी, सिचुएशन और धुन के बंधनों के बावजूद अपनी बात अपने ढंग से कहने में सक्षम हो सकता है।
सहजता और सरलता के गहन और जटिल कवि
शैलेंद्र के गीत स्वच्छ निर्मल बहते झरने की तरह हैं। यदि वे भावनात्मक रूप से श्रोता को अपने आत्मीय पाश में बांध लेते हैं, तो वैचारिक रूप से भी उनमें परिपक्वता और गहनता दिखायी देती हैं। उनके गीत कभी भी प्रगतिशील और मानवतावादी दृष्टि का दामन नहीं छोड़ते। जटिल से जटिल भावों और विचारों को बिना हल्कापन लाये वे इतने सहज और सरल भाषा में पेश कर देते हैं कि आश्चर्य होता है।
‘गाइड’ (1965) फ़िल्म में नायिका रोजी (वहीदा रहमान) अपने पति मार्को (किशोर साहू) की कैद में रहते हुए जीने की इच्छा तक खो चुकी है, जब उस कैद से आज़ाद होकर अपने सपनों को साकार करने की राह पर चल पड़ती है, तो उस समय की मन:स्थिति को शैलेंद्र इतने सहज ढंग से व्यक्त करते हैं कि उसे आत्मसात करने में दर्शकों को मुश्किल नहीं होती।
कांटो से खींचकर ये आंचल, तोड़ के बंधन बांधे पायल
कोई न रोको दिल की उड़ान को दिल वो चला
हा हा हा हा हा
आज फिर जीने की तमन्ना है, आज फिर मरने का इरादा है।
यह पूरा गीत नायिका के अतीत के अंधेरे के डर से मुक्ति और वर्तमान के उल्लास का ऐसा मिलाजुला भाव पैदा करता है कि नायिका की जटिल मन:स्थिति बहुत ही सहज ढंग से सामने आ जाती है।
कल के अंधेरों से निकल के, देखा है आंखे मलते मलते
फूल ही फूल है ज़िंदगी बहार है
आज फिर जीने की तमन्ना है, आज फिर मरने का इरादा है।
एक और जीने की तमन्ना है, तो दूसरी ओर एक बार फिर किसी से प्यार करने की इच्छा (आज फिर मरने का इरादा है)। ‘तोड़ के बंधन बांधे पायल’ में कंट्रास के द्वारा सौंदर्य पैदा किया गया है। नायिका नर्तकी है और नृत्य उसके जीवन का लक्ष्य भी है और सपना भी। लेकिन पति ने उसे उसके इस सपने से वंचित कर रखा था, जिससे वह अब मुक्त है। बंधन और मुक्ति का जो एहसास है, वह इन चार शब्दों में ही व्यक्त हो गया है।
इसी तरह ‘कल के अंधेरों से निकल के’ एक बार फिर दुनिया को आंखे मलते-मलते देखना बिल्कुल वैसा ही है जैसे किसी गहरी नींद से आंख खुलने पर आंखें मलते-मलते हम अपने चारों ओर के उजाले को देखते हैं और आह्लादित होते हैं। शैलेंद्र की विशेषता है कि वे बिंबों के माध्यम से भावों को ही नहीं विचारों को भी व्यक्त करने की क्षमता रखते हैं।
शैलेंद्र का भाषा पर जबर्दस्त अधिकार है। संगीत की गहरी समझ के कारण उनके लिए धुन के अनुरूप गीत लिखना कभी मुश्किल नहीं रहा है। धुन का अनुकरण करते हुए भाषा पर अपने नियंत्रण को कभी ढीला नहीं होने देते और न ही अपनी बात में किसी तरह की उलझन पैदा होने देते हैं। शायद यही वजह है कि जिन संगीतकारों के साथ उन्होंने काम किया है, उन्होंने उनसे फ़िल्म के शीर्षक गीत लिखवाये हैं। वे पचीस से अधिक फ़िल्मों के शीर्षक गीत लिख चुके हैं और ऐसा कोई भी गीत जबरन थोपा हुआ नहीं प्रतीत होता।
उन्हें फ़िल्म में गीत लिखने का बहुत लंबा समय नहीं मिला। लगभग 19 साल में उन्होंने 177 फ़िल्मों के लगभग 800 गीत लिखे। इनमें छ: फ़िल्में भोजपुरी भाषा की हैं, जिनके गीत भी उतनी ही लोकप्रिय हुए हैं, जितने हिंदी के। सबसे ज्यादा 91 फ़िल्मों के गीत शंकर जयकिशन के साथ लिखे हैं। वैसे सलिल चौधरी, सचिनदेव बर्मन, रोशन के भी वे प्रिय गीतकार रहे हैं। बिमल राय की फ़िल्म ‘परख’ के लिए उन्होंने संवाद भी लिखे हैं और छ: फ़िल्मों में छोटी-छोटी भूमिकाएं भी निभायी हैं।
तीसरी कसम उर्फ़ मारे गये गुलफाम
हिंदी के प्रख्यात कहानीकार फणीश्वर नाथ रेणु की सर्वाधिक लोकप्रिय कहानी ‘तीसरी कसम उर्फ मारे गये गुलफ़ाम’ पर उन्होंने ‘तीसरी कसम’ (1966) नाम से फ़िल्म का निर्माण किया था। यह फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर बूरी तरह से नाकामयाब रही और शैलेंद्र को भारी नुकसान झेलना पड़ा। इस फ़िल्म की असफलता का सदमा इतना गहरा था कि अंतत: उसने उनकी जान ही ले ली। हालांकि फ़िल्म को बाद में श्रेष्ठ फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुआ। यही नहीं 1970 के दशक में जिस समानांतर सिनेमा आंदोलन की शुरुआत हुई थी, उसकी पहली फ़िल्म ‘तीसरी कसम’ को ही माना जाता है।
हालांकि फ़िल्म के निर्देशक बासु भट्टाचार्य थे, लेकिन फ़िल्म को लोकप्रिय बनाने के लिए कहानी में बदलाव करने के जो अनेकानेक सुझाव उन्हें दिये गये थे, हर तरह के दबावों के बावजूद उन्होंने उन्हें ठुकरा दिया था। कहानी के अंत में नायक हीरामन और नायिका हीराबाई का मिलन नहीं होता। शैलेंद्र पर दबाव डाला गया कि फ़िल्म के अंत में उन्हें मिला दिया जाय, लेकिन वे किसी भी कीमत पर इसके लिए तैयार नहीं हुए। फ़िल्म के लिए उन्होंने हर क्षेत्र में बेहतरीन कलाकारों का सहयोग लिया था। मसलन, सिनेमेटोग्राफर के रूप में सत्यजित राय के साथ काम करने वाले सुब्रत मित्र का चयन किया जो अंतरराष्ट्रीय ख्याति के छायाकार थे।
‘तीसरी कसम’ एक मामूली गाड़ीवान और नौटंकी में काम करने वाली एक मामूली नर्तकी की कहानी है। एक अर्थ में दोनों को समाज के दलित और परित्यक्त वर्ग का हिस्सा माना जा सकता है, जिस वर्ग से शैलेंद्र खुद भी आये थे। फ़िल्म के लिए ‘तीसरी कसम’ का चुनाव संयोग नहीं है। नायक और नायिका के जीवन के दुख, संघर्ष और समाज के बलशाली वर्ग द्वारा उनके उत्पीड़न को रेणु ने जिस गहरी संवेदना के साथ कहानी में उकेरा है, उसे फ़िल्म में उतनी ही गहरी संवेदना के साथ प्रस्तुत किया गया है और वह इसीलिए मुमकिन हो सका क्योंकि शैलेंद्र ने किसी भी स्तर पर किसी भी तरह का समझौता करने से इन्कार कर दिया था।
यह फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर भले की नाकामयाब रही हो, लेकिन किसी साहित्यिक कृति पर बनने वाली हिंदी की इसे सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म कहा जा सकता है और इसका पूरा श्रैय शैलेंद्र को जाता है। यह फ़िल्म इस बात का भी उदाहरण है कि हिंदी फ़िल्मों के सफलतम गीतकार होते हुए भी उन्होंने अपनी रचनात्मकता के साथ कभी समझौता नहीं किया। एक व्यावसायिक माध्यम को अपनाते हुए भी उन्होंने अपनी बात अपनी शर्तों पर ही कही है। यह कोई मामूली बात नहीं है।
(जवरीमल्ल पारख सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं।)
शैलेंद्र पर बहुत ही शानदार एवम सारगर्भित आलेख के लिए बधाई सर।
गीतकार शैलेन्द्र के विभिन्न पहलुओं को उजागर करता बेहतरीन आलेख ।