मृणाल सेन के जन्म शताब्दी वर्ष पर विशेष: ‘यथास्थितिवाद’ से मुक्ति की तलाश में

जनप्रतिबद्ध फिल्मकार मृणाल सेन का जन्म शताब्दी वर्ष है। 1972 में मृणाल दा की बहु चर्चित फिल्म कलकत्ता 71 आई थी। उन्होंने फंतासी शैली के माध्यम से तत्कालीन सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक यथार्थ को दर्शाया था। 1972 में ही मैंने इस फिल्म को कलकत्ता के मेट्रो थिएटर में देखा था। इसे देखने के पश्चात कॉमरेड झरना दीदी के माध्यम से मृणाल दा से संपर्क किया। उन्होंने बहुत ही सहज भाव से अपने घर इंटरव्यू के लिए समय दे दिया।

एक घंटे तक आत्मीय माहौल में फिल्म के कथानक और उनके विचारों पर चर्चा हुई। लगा ही नहीं कि मैं विश्वविख्यात प्रतिबद्ध फिल्म निर्देशक के साथ बैठा हुआ हूं। यह वह समय था जब केंद्र और प्रदेश में कांग्रेस सरकारें थीं। देश की प्रधानमंत्री थीं इंदिरा गांधी और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री थे सिद्धार्थ शंकर रे। नक्सलबाड़ी आंदोलन अपने चरम पर था। शायद  इसके शिखर  नेता चारु मज़ूमदार गिरफ्तार हो चुके थे।

तब का यथार्थ वर्तमान दौर में और भी क्रूर, विकृत और डरावना हो गया है। ऐसे दौर में बहु आयामी फिल्म सृजक और अन्य बुद्धिजीवियों की क्या भूमिका होनी चाहिए, मृणाल दा के विचारों से कुछ रोशनी मिल सकती है।

इस इंटरव्यू को साप्ताहिक हिंदुस्तान के तत्कालीन संपादक मनोहर श्याम जोशी ने अपनी पत्रिका में तत्काल प्रकाशित किया था। पचास वर्ष पहले का यह इंटरव्यू इस दौर में अधिक प्रासंगिक है। ऐसा मेरा विश्वास है।

प्रस्तुत हैं मृणाल दा के विचार…

प्रतिबद्ध फिल्म निर्माता और निर्देशक मृणाल सेन का यह स्पष्ट मत है कि भारतीय फ़िल्में अपने आकार एवं विषयवस्तु की दृष्टि से मूलतः ‘यथास्थिवादी’ होती हैं। मृणाल दा के मत से यह बुनियादी सवाल खड़ा होता है कि ‘क्या हमारे निर्माता और निर्देशक फिल्म विधा का समुचित उपयोग नहीं कर रहे हैं या उसकी व्यापक प्रभावशाली शक्ति से वंचित हैं?’

मृणाल दा का मत है, “निसंदेह हम में से अधिकांश निर्माता एवं निर्देशक कभी भी यह जानने या समझने की चेष्टा नहीं करते कि आधुनिक युग में फिल्म विधा में कितनी व्यापक क्षमता निहित है। और उसका समाज पर क्या प्रभाव पड़ सकता है? फलस्वरूप भारतीय फिल्मों में आज भी सार्थकता और जन उपयोगिता का नितांत अभाव है।”

जब मृणाल दा ने अपने वैचारिक धरातल को ‘कलकत्ता-71’ में सार्थकता में परिवर्तित किया तो फिल्म समीक्षकों में कोहराम मच गया। यहां तक कि बांग्ला के एक प्रसिद्ध दैनिक समाचार पत्र के समीक्षक ने लिख डाला- ’कलकत्ता-71 फिल्म न होकर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का राजनीतिक वक्तव्य बन गयी है।

इसमें कोई शक़ नहीं है कि कलकत्ता-71 में महानगर की 90 प्रतिशत जनता द्वारा भोगी जा रही हरारत (वैसे पूरा देश इस हरारत का शिकार है।) को ईमानदारी और साहस के साथ दिखाया गया है। इंटरव्यू में मृणाल दा अपना पक्ष वैचारिक तार्किकता के साथ रखते हैं। वे भारतीय समाज की  मानसिक दासता व विवशता पर प्रकाश डालते हैं।

वे अपनी फिल्म में इसी दासता, विवशता और व्यवस्थागत यथास्थिवाद के विरुद्ध तेज़ हो रहे प्रतिवाद और विद्रोह तक पहुंचते हैं। शायद इसीलिए ठहराववादी समीक्षकों ने कलकत्ता-71 को ‘राजनीतिक वक्तव्य‘ की संज्ञा दे डाली, जबकि महानगर के दर्शक इसे ‘युग सत्य’ के रूप में देख रहे हैं।

इसी विवादपूर्ण वातावरण में मृणाल दा से उनके निवास पर मेरी मुलाक़ात होती है। ‘भुवन शोम’ के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित निर्देशक मृणाल सेन फ़िल्मी सितारों या सरकारी अधिकारी-वर्ग के बजाय युवा वर्ग से घिरे हुए थे। इस वर्ग में शामिल थे उग्रवादी युवा से लेकर कांग्रेसी युवा तक। पास ही में फर्श पर बैठी हुई थीं भुवन शोम की युवा कलाकार सुहासिनी मुले। युवा कांग्रेसी दर्शकों की प्रतिक्रिया थी- ”जो बात हम, हमारी पार्टी और सरकार से नहीं कह सकते, वह कलकत्ता-71 के माध्यम से कही गयी है।”

पहली मुलाक़ात थी। मुलाक़ात का सिलसिला कलकत्ता-71 से आरम्भ हुआ और फिल्म विधा तक पहुंच गया। यहां पाठकों के लिए फिल्म की संक्षिप्त कहानी देना अनुपयुक्त नहीं रहेगा। फिल्म चार कथाओं पर आधारित है। पहली कथा में फिल्म इंटरव्यू (1971 में मृणाल सेन ने ’इंटरव्यू’ नाम से फिल्म बनाई थी।) का कुछ हिस्सा और न्यायालय की व्यवस्था पर व्यंग्य।

दूसरी कथा में बांगला देश के शरणार्थी (1971 में भारत-पाक युद्ध हुआ और पाकिस्तान से विभाजित हो कर तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान का स्वतंत्र बांग्ला देश में पुनर्जन्म हुआ। संयोग से इस लेखक ने बांग्ला देश मुक्ति संघर्ष की रिपोर्टिंग की थी और जनवरी 1972 में आज़ाद ढाका से लौटा था। संघर्ष के दौरान करीब एक करोड़ बंगाली पूर्वी बंगाल से विस्थापित हो कर भारतीय सीमा के क्षेत्रों में पहुंचे थे।), धनपतियों की पाखंडपूर्ण सहानुभूति, होटल के रासरंग के बीच गरीबों के लिए आंसू बहाना।

तीसरी कथा में गरीबी से मुक्ति के लिए ग्रामीण बंगाली महिला द्वारा अपने युवा पुत्र से चावल की तस्करी कराना और बाद में उसका पकड़े जाना। अंतिम कथा का संबंध व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह और उसे दबाने के लिए सरकार की दमनात्मक कार्रवाइयों से है। यह कहानी दमनात्मक कार्रवाई से गुजरते हुई पुलिस की गोली से एक युवक नक्सली की मृत्यु से समाप्त हो जाती है।

प्रत्येक कथा की समाप्ति पर अनेक राजनीतिक और सामाजिक सवाल उठाये गए हैं। यहां तक कि चुनाव व्यवस्था और उनके चुनाव चिन्हों को पर्दे पर दिखा कर प्रश्न खड़े किये गए हैं। निःसंदेह कलकत्ता-71 राजनीतिक पृष्ठभूमि से अछूती नहीं रही है। “परन्तु राजनीतिक पृष्ठभूमि का आधार जीवन की यथार्थता हो तो उस से कहां तक बचा जा सकता है?”। मृणाल दा का प्रश्न था।

आधुनिक युग में जीवन के किसी पक्ष को राजनीति से बचाया जा सकता है, तो यह दावा अव्यवहारिक और अस्वाभाविक लगता है। जब फिल्म की बात चलती है तो यह मानना कि प्रथम बार मृणाल सेन ने ही फिल्म और राजनीति में समीपता बनाये रखी है, ग़लत है। मृणाल सेन स्वयं इस बात को स्वीकारते हैं कि भारत के लिए उनका यह प्रयास आंशिक रूप से नया हो सकता है,विश्व के लिए नया नहीं है।

पिछले दशकों में इटली, फ्रांस, और लैटिन अमेरिकी देशों की फिल्मों में राजनीतिक विचारधारा प्रधानता प्राप्त करती जा रही है। इटली और फ्रांस के सिनेमा जगत में ‘यथार्थवाद’ की जो लहर चल रही है, वह एक तरह से राजनीति से प्रेरित है। यहां तक कि फिल्मों के माध्यम से सौंदर्य बोध को सुरक्षित रखते हुए मार्क्सवाद का प्रचार किया गया है। फ़िल्मी विधा का इस्तेमाल राजनीति और सामाजिक चेतना के प्रसार के लिए किया गया है।

परन्तु, भारतीय सन्दर्भ की बात चली तो मृणाल दा कहने लगे, “भारतीय फिल्म उद्योग आज़ भी अपनी भाषा व क्षमता को नहीं पहचान सका है। फिल्म विधा आज़ एक शक्तिशाली माध्यम है। परन्तु, दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि हम इससे अपरिचित हैं।”

प्रश्न: वज़ह?

उत्तर: अज्ञानता, मानसिक दासता और संवेदनहीनता। इसका परिणाम यह निकलता है कि हम ईमानदारी के साथ स्वयं को सम्प्रेषित करने में असफल रहते हैं।

प्रश्न:  आप यह किस आधार पर कहते हैं कि भारतीय फिल्मों में सम्प्रेषण क्षमता नहीं है?

उत्तर: फिल्म विधा में सम्प्रेषण क्षमता है। परन्तु, मेरा तात्पर्य उस वर्ग से है जो इस सम्प्रेक्षण क्षमता की गतिशीलता को समाप्त कर रहा है। संक्षेप में कहा जाए तो इस गतिशीलता का उपयोग उच्च वर्गीय आर्थिक हितों की पूर्ति के लिए हो रहा है। यही कारण है कि हमारी फ़िल्में विषयवस्तु व आकार की दृष्टि से यथास्थितिवादी होती हैं। अधिकांश फ़िल्में आदि युग की प्रतीक लगती हैं। वे मिथ्या, छद्म भावनाओं और भावकुताओं पर आधारित होती हैं, जिनका यथार्थ से कोई रिश्ता नहीं होता है।

प्रश्न: इसका यह अर्थ लिया जाए कि भारतीय फ़िल्में ढर्रावादी हैं और नई लहर से वंचित हैं।

उत्तर: कुल मिला कर मैं ऐसा नहीं कह सकता। पिछले कुछ समय से भारतीय फिल्म जगत में ‘नई लहर‘ उठी है। ऐसा लगता है कि इस नई लहर ने यथास्थितिवादियों को झकझोरा है। एक चुनौती दी है।

प्रश्न: क्या गैर यथास्थिवादी होना ही पर्याप्त रहेगा?

उत्तर: बिल्कुल नहीं। गैर-यथास्थितिवादियों में जब तक वैचारिक आधार नहीं होता, तब तक आशाजनक परिणाम नहीं निकलेंगे। अतः ‘नई लहर’ को अपना अस्तित्व दीर्घजीवी बनाना है तो कथावस्तु, आकार और तकनीक के क्षेत्र में ठोस वैचारिक आधार तैयार करने होंगे।

प्रश्न: वैचारिक आधार से तात्पर्य?

उत्तर: इसे स्पष्ट करने के लिए मुझे इटली और फ्रांस के सिनेमाओं का उदहारण देना होगा। दूसरे विश्व युद्ध के पश्चात यूरोपीय और लैटिन देशों में नई राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक  परिस्थितियां सामने आईं हैं। इसी पृष्ठभूमि में नई फिल्म विधा का प्रयोग आरम्भ हुआ। स्वाभाविक था कि फिल्म विधा पर नई परिस्थितियों का प्रभाव पड़े। इस प्रभाव में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक चेतना शामिल है।

इस दृष्टि से जब हम बंबई, मद्रास और कलकत्ता के स्टुडिओं की बात करते हैं तो एक ‘वैक्यूम’ दिखाई देता है। ‘नई लहर’ के संबंध में भी आंशिक रूप से यही बात कही जा सकती है। ‘नई लहर‘ के प्रतिनिधियों को चाहिए कि वे फिल्म विधा को शक्तिशाली और प्रभावयुक्त बनाने के लिए भारत के साथ साथ एशिया और अफ्रीका के देशों में आ रही नई चेतना से समीप का संबंध रखें। यदि चेतना युक्त हो कर फिल्म बनाई जाएगी तो निश्चित ही वो अर्थपूर्ण होगी।

प्रश्न: अक़्सर यह कहा जाता है कि किसी विशेष विचारधारा से बंध जाने या सामाजिक प्रतिबद्धता से जुड़ जाने पर फिल्म में कलातत्व व सौंदर्य तत्व समाप्त हो जाते हैं। वह एक पोस्टर रह जाती है।

उत्तर: मैं ऐसा नहीं मानता। ‘इंटरव्यू’। ‘भुवन शोम’ और ‘कलकत्ता-71’ में मैंने इन सभी बातों का ध्यान रखा है।

(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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