वीरेनियत-5: ‘प्रेम करना ज़्यादा मनुष्य होना था’

नई दिल्ली। दिनांक 14 अक्तूबर 2023 की 6.30 बजे गुलाबी संध्या में इंडिया हैबिटेड सेन्टर के गुलमोहर हॉल में जनसंस्कृति मंच की दिल्ली इकाई की ओर से समकालीन हिन्दी-कविता की क्रान्तिकारी धारा के महत्त्वपूर्ण कवि वीरेन डंगवाल की स्मृति में जनसंस्कृति मंच की ओर से “वीरेनियत- 5” का आयोजन किया गया। वीरेन डंगवाल के निधन के बाद उनकी याद में हर साल आयोजित होनेवाली काव्य-गोष्ठी की यह पांचवीं कड़ी थी। कोरोना-महामारी के बाद इस आयोजन पर विराम लग गया था। कोरोना की प्रलयंकारिणी लहर-चक्र समाप्त होने के बाद यह प्रथम गोष्ठी थी।

कुमार अम्बुज, अजन्ता देव, विनय सौरभ, विहाग वैभव, रूपम मिश्र, उस्मान खान और नेहा नरूका इस गोष्ठी के आकर्षण थे। सातों कवियों की कविताएं अनुभूति, संवेदना और शिल्प के इन्द्रधनुषी सौन्दर्य और वैविध्य के कारण कविता प्रेमियों का मन जीतने में कामयाब रहीं। हमेशा की तरह इस बार भी वीरेनियत में श्रोताओं की भारी भीड़ उमड़ी। ढाई घंटे से अधिक समय तक चली इस गोष्ठी में बहुत सारे काव्य रसिक फर्श पर बैठकर या खड़े रहकर भी कविताएं सुनते रहे। पूरी गोष्ठी के दौरान किसी का मोबाइल बजा, न कोई बीच से उठ कर गया।

हमेशा की तरह इस बार भी महसूस किया गया कि कविता पढ़ने और सुनने का जैसा ध्यानपूर्ण और उदात्त वातावरण वीरेनियत में संभव होता है वैसा कहीं और नहीं।

वीरेन की रिकॉर्ड की गई कविताओं के पाठ से इस गोष्ठी का समारम्भ हुआ। इस सन्दर्भ में द्रष्टव्य है उनकी ‘शमशेर’ शीर्षक कविता की यह पंक्ति, “रात आईना है मेरा/ जिसके सख्त ठंढेपन में भी छुपी है सुबह/ चमकीली, साफ…”

गोष्ठी के दौरान सातवीं की छात्रा रौशनी और जाने माने नाट्य अभिनेता लोकेश जैन ने वीरेन दा की कविताओं की आवृत्ति की। रोशनी ने ‘इतने भले नहीं बन जाना साथी’ का पाठ किया, जबकि लोकेश ने ‘राम सिंह’ का।

उस्मान ख़ान की ‘क्या है रंज’ शीर्षक कविता से इस गोष्ठी की शुरूआत हुई। फिर उन्होंने तीन और छोटी-छोटी कविताओं का पाठ किया (‘बात की बात’, ‘तुक बे तुक’, और ‘वतन बे वतन’)। इनमें ‘बात की बात’ कविता विशेष रूप से ध्यातव्य है। आत्मालोचना करना, अपने ऊपर हंसना कितना कठिन है, यह कहना अनावश्यक है। इस सन्दर्भ में ‘बात की बात’ कविता की ये पंक्तियां द्रष्टव्य हैं, “मैं कबूल करता हूं/ मैंने शुतुर्मुर्गों की फौज छोड़ दी है/ मैंने अपनी ही मूर्ति ढाही है/ मैं कबूल करता हूँ कि यह कविता मैंने नहीं लिखी है/ मैंने बीरबल की खिचड़ी पकाई है/ बादशाह को अक्ल की शक्ल दिखाने के लिए….।” यह कविता भारतीय काव्यशास्त्र के ध्वनि-सिद्धान्त का बहुत अच्छा उदाहरण है। इसमें अर्थ की कई परतें अनुगूँजित हो रही हैं।

उस्मान ख़ान के बाद अजन्ता देव का काव्य-पाठ इन पंक्तियों के साथ शुरू हुआ- “वायुमण्डल की सारी परतें भर गई हैं हिंसक ध्वनियों से/ प्रार्थनाएं बुदबुदाई जाती हैं/ प्रार्थना अब चीर देता है अन्तरिक्ष को…..”। और, “आबादी पर गिरते ही बमों का कर्णभेदी विस्फोट/ अब पृथ्वी चोट के निशानों से नीली पड़ गई है…..।” इसके बाद उन्होंने ‘ताँत की साड़ी’- शृंखला के अन्तर्गत छोटी-छोटी कई बेहतरीन कविताएँ सुनाईं , जो इस बात का द्योतक है कि हिन्दी-कविता का पाट कितना विस्तृत होता जा रहा है।

साड़ी आदि अन्य वस्त्रों की उत्पादन-प्रक्रिया में पूंजी के बरक्स श्रम को प्रतिष्ठा, महत्ता और वरीयता प्रदान करते हुए उन्होंने कहा, “मेरे ताने-बाने पर उंगलियों के निशान होते हैं/ जुलाहे कोई दस्ताने नहीं पहने होता/ कहनेवाले कहते रहें मुझे कोरा/ कि मेरी स्मृति कोरी नहीं/ मुझे तो कपास बीननेवाला भी याद है/ कोरी तो सिंथेटिक साड़ी होती है….।” इसी प्रकार एक अन्य कविता में कवयित्री का यह कथन भी द्रष्टव्य है, “मेरे धागों के सिरे पर जिन्दा लोग बँधे होते हैं कठपुतलियों की तरह….।”

विनय सौरभ ने ‘खान बहुरूपिया’ शीर्षक कविता में बेतरह बढ़ती हुई असहिष्णुता, बर्बरता और संकीर्णता की चिन्ताजनक स्थिति का कितना मार्मिक रूपायन किया है- “1986 के बाद वे फिर इधर नहीं आए/ जब रामानन्द सागर रामायण लेकर हमारे घरों के भीतर आए/ उस साल के बाद उस बहुरूपिए की हमें कोई खबर नहीं मिली/ सोचता हूं अच्छा हुआ खान साहब/ आप 1992 के बाद नहीं दिखे/ वरना भगवान शिव के वेश में देखकर किसी भी सिरफिरे का ज्ञान जाग सकता था/ वह पूछ सकता था कि तुम जटाधारी कैसे बे? तुम कैसे जटाधारी? तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई जटाधारी शिव बनने की?

गरीब रिश्तेदारों पर लिखी गई अपनी एक अन्य कविता में विनय सौरभ ने दिखाया है कि उपभोक्तावादी और पूंजीवादी समाज में अपने रिश्तेदारों को भी लोग किस प्रकार हिकारत भरी निगाह से देखते हैं- “एक दोस्त को जानता हूं/ अपने शहर के सब्जी-बाजार नहीं जाता/ उसके बड़े भाई का साला सब्जी बेचता दिख जाता है/ उसे लाज बहुत आती है।

रूपम मिश्र ने भी समकालीन विसंगतियों को बहुत बेहतरीन ढंग से उकेरा। ‘अधिनायक का चरागाह’ शीर्षक कविता में कवयित्री कहती है, “राष्ट्र अधिनायक का चरागाह है/ जिसे वे अपने तरीके से चर सकते हैं/ अवाम सहयोग या उनके चरने की कला का बखान करे तो हत्या से बच सकता है…..।”

शायद ही कोई ऐसा कवि हो, जिसने प्रेम पर कोई कविता न लिखी हो। नफरत के इस बजबजाते माहौल में रूपम मिश्र की यह पंक्ति हमें कितनी ताकत प्रदान करती है- “प्रेम करना ज्यादा मनुष्य होना था…..।” रूपम मिश्र ने अनेक बेहतरीन स्त्रीवादी कविताओं का पाठ किया, जिनमें एक का शीर्षक ही है ‘परम्परा और स्त्रीवाद।’

प्रेम-विरोधी और नारी-विरोधी समाज में चुम्बन लेना और प्रेम करना कितना बड़ा जुर्म है, इसे नेहा नरूका ने अपनी कविता ‘यहाँ चुम्बन लेना जुर्म है’ में बखूबी रूपायित किया है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि फासिस्टों की नजर में लव तो और भारी जुर्म है, जेहाद है, लव लव नहीं है, जेहाद है, लव-जेहाद। फासिस्ट ताकतें विविधता के भी दुश्मन हैं।

इस सन्दर्भ में नेहा नरूका की ‘विविधता’ शीर्षक कविता अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और मौजूं है। ध्यातव्य है इस कविता की ये पंक्तियाँ, “तुम पीपल का पेड़ और मैं आम/ न तुम मुझे पीपल बनने को कहना/ न मैं तुम्हें आम …… न मैं तुम्हें अपने जैसा बनाऊंगी/ न तुम अपने जैसा बनाना/ अगर हम एक जैसा होना भी चाहें/ तो यह सम्भव नहीं/ क्योंकि संसार में एक जैसा कुछ भी सम्भव नहीं/ एक माता के पेट में दो भ्रूण भी/ एक जैसे कहां होते/ फिर हम तो अलग-अलग वृक्ष हैं…।”

इसी सन्दर्भ में ‘गुलाम’ शीर्षक कविता भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है, जिसमें कवयित्री ने यह रूपायित किया है कि गुलामी की बेड़ी से नए-नए आजाद होनेवाले समुदाय की प्रतियोगिता उस समुदाय के साथ सम्भव नहीं है, जो पहले से ही आजाद हैं। वस्तुतः नेहा नरूका द्वारा सबसे पहले यही कविता पढ़ी गई।

हमें नहीं भूलना चाहिए कि धर्मशास्त्रों में शूद्रों, नारियों और कुत्तों को एक श्रेणी में रखा गया है। आरक्षण और दलित-साहित्य के विरोधियों को यह कविता जरूर पढ़नी और सुननी चाहिए। इस कविता के बाद नेहा नरूका ने ‘पार्वती योनि’ शीर्षक कविता का पाठ किया। वस्तुतः यह हिन्दी-साहित्य की सबसे विचारोत्तेजक कविताओं में एक है। यह नारीवादी कविताओं के क्षेत्र में मील का पत्थर है।

प्रसंगवश गोरख पाण्डे का यह कथन याद आता है, “कविता और प्रेम-दो ऐसी चीजें हैं, जहां मनुष्य होने का मुझे बोध होता है।” विहाग वैभव भी मनुष्य को उसकी प्राथमिकताओं से पहचानने की बात करते हैं, “एक शब्द में नहीं अंट पाता समूचा मनुष्य/ नाम भूल जाता हूं, चेहरे बदल जाते हैं/ मैं मनुष्य को उसकी प्राथमिकताओं से पहचानता हूं।”

जाति, सम्प्रदाय, नस्ल आदि के बरक्स मनुष्य को उसकी प्राथमिकताओं से पहचानने की कसौटी कितनी महत्त्वपूर्ण है, कहना अनावश्यक है। सम्प्रदायवाद, जातिवाद और राष्ट्रवाद के कॉकटेल के इस जहरीले दौर में उपर्युक्त कविता के साथ ही विहाग वैभव का ‘यह देश उनका है’ शीर्षक कविता भी अत्यन्त प्रासंगिक और महत्त्वपूर्ण है- “वे जो अधपके खेतों में धूप का सही ताप पहुंचाते हुए दह गए/ वे जो बस्ती भर की प्यास की खातिर धरती में उतरे और पाताल में बह गए/ वे जो हमारे लिए बनाते हुए नया घर नींव की मिट्टी की कमी महसूस कर खुद जवान इमारत की तरह ढह गए/ ये देश उनका है जो किसी वीरान अरहर के खेत में छोड़कर अपना बिलखता हुआ चांद प्रशान्त आंखों से चले आए फांसी के तख्त तक/ हमारे बेहतर कल का ख्वाब लिए/ यह देश उनका है…।”

विहाग वैभव की यह कविता श्रवण कुमार की इस कविता की याद दिला देती कि ‘जिसे तुम लूटते हो और जिसे मैं अपने खून-पसीने से सींचता हूं/ वह हम दोनों की मां नहीं हो सकती।’

गोष्ठी के अन्तिम और सातवें कवि के रूप में कुमार अम्बुज ने भी कई बेहतरीन कविताओं का पाठ किया। ‘नई सभ्यता की मुसीबत’ शीर्षक पहली (मंच से सुनाई गई पहली कविता) कविता में विनिवेशीकरण का विरोध करते हुए कवि ने कहा, “हम चाहते हैं कि तुम हमारे साथ बेहतर सलूक करो/ पर जानते हैं तुम्हारी भी मुसीबत/ कि इस सदी तक आते-आते तुमने/ मनुष्यों की बजाय वस्तुओं में बहुत अधिक उपनिवेश किया है….।” उनके द्वारा पढ़ी गई शेष कविताओं के शीर्षक हैं, ‘आदिवास’, ‘कवि की अकड़’, ‘दैत्याकार संख्याएं’, ‘रोंदा’, ‘सन्ध्या (पत्नी का नाम) की प्रशंसा में’, ‘शीर्षक : उपशीर्षक’, ‘संग्रहालय’, ‘रोटी, कम्बल और पारासेटामोल’ आदि।

इन कविताओं में विशेष रूप से उल्लेखनीय है ‘रोंदा’। सैद्धान्तिक विषयों पर कविता लिखना कितना कठिन काम है, कहना अनावश्यक है। इस कविता में कला, साहित्य, इतिहास, साहित्येतिहास, आलोचना, यथार्थवाद, तथ्य बनाम विचारधारा आदि से सम्बन्धित सैद्धान्तिक सवालों को बड़ी बखूबी से विन्यस्त किया गया है।

बीसवीं सदी के मशहूर शिल्पकारों में अन्यतम रोंदा को प्रसिद्ध साहित्यकार बाल्जाक की मूर्ति बनाने का काम मिला। हमें नहीं भूलना चाहिए कि रोंदा (1840-1917) के मूर्तिकार के रूप में प्रतिष्ठित होने से पहले ही बाल्जाक (1799-1850) का निधन हो चुका था। सात सालों के श्रम, साधना और लगन के बाद जब रोंदा ने बाल्जाक की मूर्ति बनाई तो मूर्ति का ऑर्डर देनेवाले ने वह मूर्ति लेने से इनकार करते हुए कहा कि यह बाल्जाक की प्रतिमा नहीं है, मैं न तो इस मूर्ति का उपयोग करूंगा, न ही इसकी मजदूरी दूंगा। मालिक ने इस ठेके को रद्द कर दिया। किन्तु, रोंदा की मृत्यु के बाद कला-प्रेमियों को लगा कि इससे बेहतर मूर्ति तो दुनिया में है ही नहीं। यह महसूस होते ही फ्रान्स में कई जगह बाल्जाक की रोंदा-निर्मित मूर्ति बैठाई गई और आज यह सर्वमान्य है कि बाल्जाक की रोंदा द्वारा निर्मित मूर्ति सर्वश्रेष्ठ है।

कहना न होगा कि किसी कलाकार या साहित्यकार की रचनाशीलता की अन्तर्यात्रा, उसकी सांस्कृतिक अन्तदृष्टि के निर्माण की विकास-यात्रा के विभिन्न पड़ावों और अन्तर्विरोधों का गहन परीक्षण करना किसी कलाकार या साहित्यकार की बाहरी शक्ल-सूरत उकेरने की अपेक्षा ज्यादा दुष्कर और चुनौतीपूर्ण ही नहीं, उससे बहुत आगे की चीज है।

यह कविता इतनी शानदार है कि इसका लम्बा उद्धरण प्रस्तुत करने से हम लोभ-सम्वरण नहीं कर पा रहे हैं – “शिल्प जब सामने आया रोंदा का बाल्जाक/ सब तरफ से उठा हाहाकार/ ये नहीं है बाल्जाक/ इसमें नहीं है बाल्जाक की कोई पहचान/ यह लम्बोदर, यह असुर, यह रूप सबकुछ हो सकता है, नहीं हो सकता है बाल्जाक/ यह ओवरकोट नहीं है बाल्जाक का ओवरकोट/ इस शिल्प में तो शामिल नहीं है लेखक की कलम भी/ केश-विन्यास में नहीं है बाल्जाक की लट/ इसका एक नाखून तक नहीं है बाल्जाक का नाखून/ इस बाल्जाक को बनाने में तुमने कर दिया है बाल्जाक का खून/ इसमें कुछ भी ऐसा नहीं जिसे कहा जा सके बाल्जाक/ दुःखी रोंदा चौराहे से बाल्जाक को उठा लाया है अपने घर/ वह जानता था लेखक का चेहरा नहीं होता केवल उसका चेहरा/ लेखक के चेहरे में बैठ जाते हैं जमाने भर के चेहरे/ अपने वक्त की यातनाएं, डर, चिन्ताएं घुल जाती हैं उसकी आंखों में/ लिख दिए और न लिखे जा सके शब्द/ बैठ जाते हैं जबरों में/ कनपटियों पर उतर आता है जीवन का बोझ/ अपमान, ध्वस्त सपनों और शिराओं के ऐंठन से प्रियक हो जाता है/ सलवटों से भर जाता है ललाट/ रोंदा बुदबुदाता है, जिसने पढ़ा नहीं है ठीक से बाल्जाक/ वही कह सकता है यह नहीं है बाल्जाक…यह बाल्जाक के बाल्जाक हो जाने का शिल्प है…वस्तुतः रोंदा के पहले नहीं था ऐसा बाल्जाक…।”

(अभय कुमार की प्रस्तुति।)

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