विश्व पुस्तक मेला: एक धीमे बदलाव वाली संस्कृति

नई दिल्ली। किताबों की दुनिया हर दो-तीन साल में थोड़ी सी परिवर्तित जाती है लेकिन उस फ़र्क को बहुत साफ-साफ नहीं पहचाना जा सकता। यह एक धीमे बदलाव वाली संस्कृति है। हर साल के मुकाबले इस साल मैंने किताबें कम खरीदीं।

इसकी एक बड़ी वजह यह है कि सोशल मीडिया के माध्यम से किताबों के बारे में जानकारी पिछले सालों के मुकाबले सुलभ हुई है और उनको ऑनलाइन खरीदना भी आसान हुआ है। अगर डिलीवरी चार्ज ज्यादा लगता है तो थोड़ा इंतज़ार किया जा सकता है। कई बार सीधे प्रकाशक से बात करने पर अच्छा डिस्काउंट मिल जाता है और प्रकाशकों को भी फायदा मिलता है।

वैसे प्रकाशकों को अपने परंपरागत तौर-तरीके छोड़कर ऑनलाइन मार्केटिंग और बिक्री पर ध्यान देना होगा। बाकी इंडस्ट्री के मुकाबले प्रकाशन उद्योग अभी भी डिजिटल तौर-तरीके अपनाने में पीछे है। मैं लगभग रोज ही घूमा मगर अपनी मर्जी का चक्कर शनिवार को लगा। किताबें उलटी-पलटी, खरीदने वालों को देखा, किस तरह की किताबें खरीदी जा रही हैं, किन लेखकों पर बातचीत हो रही है-इसे भांपने-समझने का प्रयास किया।

सभी जगह घूमा मगर छोटे प्रकाशकों के यहां विशेष रूप से गया। उनके यहां अभी भी कुछ अप्रत्याशित मिल जाता है। वे अपनी किताबों का उतना प्रचार-प्रसार नहीं करते, लिहाजा स्टॉल पर जाने के बाद ही पता चलता है कि उनके पास क्या-क्या है। तो वहीं से अपनी पसंद की किताबें लीं। ज्यादातर नॉन-फिक्शन ख़रीदा, क्योंकि वही पढ़ने का मन हो रहा था।

फिक्शन तो पूरे साल ही फेसबुक पर छाया रहता है। लेखक अपनी किताबें, अपने दोस्तों की किताबें और क्या पढ़ा जा रहा है वो भी डालते रहते हैं, तो काफी किताबमय माहौल रहता है। हिंदी में सबकी पसंद फिक्शन-कविताएं ही हैं, बहुत हुआ तो आजकल इतिहास वगैरह पर भी लोग पढ़ लेते हैं। गंभीर समाजशास्त्रीय या दार्शनिक विषयों पर हिंदी पाठक की उतनी रुचि नहीं है।

इसी भारतीय समाज का अंग्रेजी पढ़ने वाला वर्ग इसके उलट है। वहां पर राजनीतिक-सामाजिक विमर्श काफी है। यहां तक कि हिंदी के लेखक भी इस भाषा में गंभीर विमर्श का हिस्सा हैं। बीते साल में अज्ञेय और निर्मल पर आई किताबें इसका उदाहरण हैं।

मेला देखकर लगा कि बच्चों को अब किस्सों-कहानियों में कम रुचि रह गई है। उसकी भरपाई टीवी के कार्टून शो, रील्स और ऑनलाइन गेम्स कर रहे हैं। कॉमिक्स भी अब कम पढ़ी जा रही है। एक प्रकाशक ने पुरानी वेताल, मैंड्रेक और फ्लैश गार्डन की कहानियां छापनी शुरू की हैं मगर वहां बच्चे नहीं बल्कि युवा और वयस्क थे जिन्होंने बचपन में इन कैरेक्टर्स को पढ़ा था।

अब सारे बच्चे मंगा कॉमिक्स पढ़ रहे हैं। नारुटो, डेथ नोट और ड्रैगन स्लेयर का बच्चों में जबरदस्त क्रेज़ है। सीधी-सादी मासूम कहानियों का समय अब खत्म होता जा रहा है। इसके बावजूद इकतारा और एकलव्य बच्चों के लिए शानदार काम कर रहे हैं। इनका बिजनेस मॉडल कितना सफल है, यह मुझे नहीं पता। मुझे इन प्रकाशनों से शिकायत है कि वे कहीं न कहीं इने-गिने नामों के ट्रैप में फंसे हैं। उन्हें ज्यादा नए लोगों को जोड़ना चाहिए।

बड़े प्रकाशकों के यहां भीड़ तो दिखी। लोग किताबें भी ख़रीद रहे थे। कैश काउंटर वाले अगर व्यस्त हैं तो यह अंदाज़ा लग जाता है कि लोग सिर्फ किताबें पलटने नहीं आते हैं। स्कूल जाने वाला युवा पाठक हिंदी में नहीं है। वह अंगरेजी के स्टॉल पर था। वह दिल्ली से आता है। अंगरेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ाई कर रहा है।

कॉलेज जाने वाले युवा हिंदी में ठीक-ठाक हैं। पहले के मुकाबले बढ़े हैं। ये छोटे शहरों से आते हैं, जिन्होंने दिल्ली के कॉलेजों में दाखिला लिया है या फिर नौकरियां कर रहे हैं। उनकी यादें-जड़ें छोटे शहरों में हैं और भविष्य के सपने-उम्मीदें दिल्ली-पुणे-मुंबई जैसे महानगरों में। लेखकों को कहीं न कहीं इस उभरते पाठक वर्ग पर निगाह रखनी होगी। ये भविष्य में हिंदी के रचनात्मक लेखन की बागडोर संभालेंगे, बतौर लेखक और बतौर पाठक भी।

नई सरल आसान हिंदी में कही गई बातें उन्हें समझ में आ रही हैं। एलिमेंट्री साहित्यिक रीडिंग वहीं से शुरू हो रही है मगर ऐसा नहीं है कि यह नई उम्र का पाठक सिर्फ आसान ज़बान में आसानी से समझ में आने वाली किताबें पढ़ना चाहता है। जटिल बातों और विचारों में भी उसकी रुचि है, बशर्ते कोई सही तरीके से लिखने-सोचने वाला भी हो।

अब प्रकाशनों को यह समझ में आ गया है कि वे सिर्फ अपने दम पर किताबें नहीं बेच सकते। लिहाजा वे लेखकों को मंच पर और मुख्यधारा पर लाते हैं। अंगरेजी की तरह अब हिंदी का लेखक भी अपने नाम और चेहरे के साथ बिकता है। कुछ सेलिब्रिटी का दर्जा पा गए हैं, कुछ पाने की कोशिश में हैं और कुछ पहले से सेलिब्रिटी हैं और हिंदी लेखन हाथ आजमा रहे हैं।

अगर किसी लेखक के फेसबुक पर 10 हजार से एक लाख तक फॉलोअर हैं तो कहीं न कहीं प्रकाशक निश्चिंत रहता है और उसका भरोसा थोड़ा ज्यादा दिखता है। लेकिन सिर्फ सोशल मीडिया किताब के बिकने की गारंटी नहीं है। प्रकाशक लगातार अपने पाठक तलाश रहे हैं।

कोई आंदोलनों के माध्यम से अपने पाठकों तक पढ़ने की सामग्री पहुंचा रहा है तो किसी का टार्गेट हल्की-फुल्की कहानियों में रुचि लेने वाले युवा हैं। कोई बिकने वाले चेहरों के दम पर किताबें भी बेच रहा है, किसी ने किसी खास कम्युनिटी या हाशिये के पाठक पकड़े तो कुछ प्रकाशक गूगल की तरह ट्रेंडिंग टॉपिक्स भांपकर बहती गंगा में हाथ धोने की कोशिश में हैं। मगर यह तय है कि पहले के मुकाबले प्रकाशक ज्यादा मेहनत कर रहे हैं। उसका आर्थिक गणित मुझे नहीं पता मगर जो दिखा वही मुझे समझ में आया।

एक नया वर्ग आया है, जो हिंदी में बहुत अलग तरह का पढ़ रहा है। इसमें एडवेंचर स्टोरीज़ हैं, विज्ञान फंतासी है, छोटे शहरों की प्रेम कहानियाँ हैं, जासूसी और माइथोलॉजी से जुड़ी फंतासी कहानियां हैं। कुछ-कुछ किताबों की दुनियां में ओटीटी जैसा कंटेंट या फिर अंग्रेजी का जो पल्प फिक्शन हम साठ-सत्तर के दशक में देखा करते थे, वैसा लिखा जा रहा है।

ये वो पीढ़ी है जिसने साहित्य नहीं पढ़ा है, डायमंड और राज कॉमिक्स पढ़कर बड़ी हुई है। सेल्स और बैंकिग के कामों में उलझी हुई है, मगर कुछ-कुछ पढ़ना भी चाहती है। सोशल मीडिया के माध्यम से इस नए पाठक वर्ग को कैप्चर किया गया है। उनको ध्यान मे रखकर लिखने वालों को आप भले न जानते हों मगर अपने पाठकों के बीच वे लगभग सेलिब्रिटी का दर्जा पा चुके हैं।

अब कुछ दिक्कतों पर चर्चा। किताबें बहुत जल्दी में लिखी जा रही हैं। ऐसा पहले भी होता था मगर तब लेखक अदृश्य होता था, जैसे कि मलाला सुर्खियों पर है तो कोई प्रकाशक उनकी बायोग्रॉफी छाप देगा या कोई आतंकी घटना हो गई तो उस पर झटपट किताब लिख दी जाती थी। कुछ वैसा ही अब लेखक भी करने लगे हैं।

सूचनाएं हासिल करना आसान है, इसलिए किसी विषय पर आसानी से लिखा भी जा सकता है, मगर बिना अनुभव के कोई लेखन गहरा असर नहीं छोड़ता। लेखक अपने विचारों को और सूचनाओं को अनुभव में बदले तभी पाठक से जुड़ पाएगा। लेकिन सिर्फ अनुभव ही अच्छे साहित्य की कसौटी नहीं है। अपने से परे हटकर अपने निजी सुख-दुःख, राग-विराग को वृहत्तर जन-समुदाय से जोड़ना और खुद को उनमें तिरोहित करना भी आना चाहिए।

किताब एक धीमे बदलाव वाली संस्कृति है। मैंने आरंभ में ही जिक्र किया था। किताबें लंबे समय तक ठहरती हैं। यह ठहराव तभी आएगा जब लेखक की दृष्टि का विस्तार अगले दस-बीस-तीस सालों तक जा सके। नहीं तो आज जो ‘बेस्टसेलर’ है कल वह रद्दी में बदल जाने को अभिशप्त होगा।

(दिनेश श्रीनेत वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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