जीरो माइल अयोध्या यानी दूसरी परंपरा की खोज

जब राममंदिर के साथ अवतरित होती त्रेता युग की भव्य अयोध्या का डंका पूरे देश में बजाया जा रहा हो और राष्ट्रीय स्तर के लेखक और पत्रकार उसका वृहद आख्यान रचने में लहालोट हुए जा रहे हों तब कृष्ण प्रताप सिंह की किताब ‘जीरो माइल अयोध्या’ एक ईमानदार अयोध्यावासी का बेबाक बयान है। यह सच्चे अर्थों में उन आक्रमणकारियों का जवाब है जो अपने धार्मिक, राजनीतिक और आर्थिक बल के बूते पर अयोध्या को जीत कर उसके नाम के अर्थ को पलट देना चाहते हैं।

अयोध्या का अर्थ है कि जिसे युद्ध में जीता न जा सके। लेकिन आज अयोध्या को जीत कर, उसके भवनों और संस्कृति को ध्वस्त कर नई अयोध्या बनाने का जो सिलसिला चल निकला है उसके प्रति एक प्रकार का अस्वीकार है यह पुस्तक। वास्तव में यह अयोध्यावादियों के विरुद्ध अयोध्यावासियों का एक सांस्कृतिक और दार्शनिक प्रतिकार है जिसे इस दौर में नक्कारखाने में तूती की आवाज भी कहा जा सकता है।

विगत चालीस वर्षों से अयोध्या के इतिहास को मिथक और मिथक को इतिहास बनाने का ऐसा जबरदस्त अभियान चल निकला है जिसने पूरी दुनिया में हुई धार्मिक कट्टरता की वापसी को भी मात कर दिया है। इसे रचने वाले वे लोग हैं जो अयोध्या के नागरिकों के दुख दर्द को महसूस किए बिना उसकी संस्कृति और इतिहास को बाहरी लोगों की सत्ता की आकांक्षा के हवाले करने पर आमादा हैं।

उन्होंने अपने इस अभियान से दिल्ली की सत्ता हासिल करने की शक्ति निकाली है, अवध पर गुजरातियों और मराठियों के हावी होने का रास्ता निकाला है और धर्म और अध्यात्म को राजनीतिक और कॉर्पोरेटी संगठनों के पल्लू से बांध दिया है। वे लोग अयोध्यावादी हैं जिन्होंने सांप्रदायिक सद्भाव, समता और स्वतंत्रता के साथ भाईचारे के मूल्यों के संकल्प के साथ खड़े हुए लोकतांत्रिक राष्ट्र को हिंदुत्व के सांचे में ढालने का अभियान चला रखा है।

इसका मुकाबला अयोध्यावासियों ने अपने अपने ढंग से किया और पराजित हुए। उन्होंने इसके लिए प्रताड़ना सही, अपना घर उजड़ते देखा और खामोश होकर हिंसा और प्रतिहिंसा का तांडव देखा।

लेकिन कृष्णप्रताप सिंह उन पत्रकारों में हैं जिन्हें अयोध्या में सक्रिय और लगभग उस पर आक्रमण कर रही राजनीतिक और आर्थिक सत्ता से जुड़ना नहीं सोहाया। वे सदैव वहां के लोकजीवन को खोजते और उसके दुख दर्द के साथ उसकी संस्कृति के मूल तत्त्वों की तलाश करते रहते हैं। एक तरह से यह जिंदगी की तलाश है। इसे कृष्णप्रताप सिंह ने फैजाबाद (अयोध्या) से जुड़े मशहूर शायर पंडित ब्रजनारायण चकबस्त के हवाले से कहा है-

जिंदगी क्या है अनासिर में जहूरे तरतीब।

मौत क्या है इन्हीं अजजां का परीशां होना।

वास्तव में जब अस्सी और नब्बे के दशक में दुनिया के फलक पर धर्म की वापसी हुई तो उसके तीन रूप दिखाई पड़े। उसका एक रूप तो राजनीति के साथ मिलकर सत्ता पाने का सांप्रदायिक जरिया बनता गया। दूसरा रूप कॉरपोरेट के साथ मिलकर कारोबार बन गया। यह दोनों रूप न तो व्यक्ति के लिए हितकारी हैं और न ही समाज के लिए। एक रूप कलही है और दूसरा मुनाफाखोर।

धर्म का एक तीसरा रूप भी है जो मुक्तिकामी है। वह कहीं भारत में आजादी की लड़ाई में और अवध के किसानों के आंदोलन में मददगार साबित होता है तो कहीं लैटिन अमेरिका में लिबरेशन थियोलाजी की रचना करता है। वह रूप व्यक्ति को नैतिक बनाता है और समाज को मर्यादित करता है। कृष्णप्रताप सिंह खुलकर कहते नहीं लेकिन वे धर्म के इसी रूप की तलाश करते हैं और मौजूदा कलही और भौतिकवादी रूप की पग पग पर आलोचना करते हैं।

कुल 19 लेखों या खंडों में विभाजित यह पुस्तक ‘और अंत में’ राजनेताओं और धनपतियों के सामने वह आवश्यक प्रश्न उपस्थित करती है जिसका सीधा जवाब देने को न तो वे तैयार हैं और न ही उनका जयकारा कर रहा मध्यवर्ग।

वे कहते हैं, “वे अयोध्यावासियों को अभी भी अयोध्या को पर्यटन नगरी बनाने का सपना बेच रहे हैं, जिसके साकार होने के बाद वह धर्मनगरी की अपनी परंपरागत पवित्रता व छवि की शायद ही रक्षा कर पाए। कई जानकार सत्ता प्रायोजित इस ध्वंस को गरीबों को उजाड़कर पर्यटकों की आवभगत के लिए पलक पांवड़े बिछाने की सरकारी कवायद के रूप में देख रहे हैं। उन्हें लगता है कि यह कवायद उसी कड़ी में है, जिसमें हाल के दशकों की प्रायः सभी सरकारें नागरिकों के हितों के विरुद्ध निवेशकों के हितों को तरजीह देती आई हैं।”

उनका यह सवाल सबसे ज्यादा प्रासंगिक है कि क्या भगवान राम को अपनी उजाड़ी गई राजधानी की नई फिजां रास आएगी? बकौल कैफी आजमी (कृष्ण प्रताप सिंह भी) छह दिसंबर को तो वह रास नहीं आई थी।

यह पुस्तक अयोध्या का कोई व्यवस्थित इतिहास नहीं है बल्कि आंधी तूफान वाले दिनों से लेकर सरकारी दीपावली तक पहुंचे एक नगर की सांस्कृतिक, सामाजिक और बौद्धिक यात्रा है। इस यात्रा के मार्गदर्शक हैं कृष्णप्रताप सिंह, जो अपनी समर्थ लेखनी, संवेदना और समझ के कारण प्रभुत्वशाली हिंदुत्व के आख्यान के मुकाबले लोक इतिहास का एक प्रतिपक्ष खड़ा करते हैं।

इसमें मत-मतांतर मेलजोल है, तो सीता और बड़ी बुआ हैं, इतिहास की लूट है, तो पलटू दास की त्रासदी है। इसमें 1857 के नायक मौलवी अहमदउल्ला शाह उर्फ डंका शाह हैं, तो हनुमानगढ़ी के पुजारी रामचंद्रदास हैं, बेगमपुरा के अच्छन खां हैं तो हसनू कटरा के अमीर अली हैं, जिनकी शहादत ने अवध ही नहीं देश में हिंदू मुस्लिम एकता की मिसाल कायम की थी।

इसमें 1921 में अयोध्या फैजाबाद में गांधी जी का आगमन है, तो हिंसा कर रहे किसानों को अहिंसा और सत्याग्रह की सीख है। पुस्तक में 1920 का किसान आंदोलन और उस दौरान बनी किसानों और साधु संतों की एकता है और उससे घबराती अंग्रेज सरकार है। सशस्त्र क्रांतिकारी संघर्ष है तो उसकी मदद के लिए उतरे मंदिरों के महंत हैं। पहला कमर्शल बैंक कायम करने वाले हरिप्रसाद अग्रवाल हैं तो अंग्रेजों का जुल्म झेलती रानी और उनकी मदद करते सेठ हरिप्रसाद का त्याग है।

बावले नायकों की जमीन और साहिल और सलभ शीर्षक से लिखी गई दो मूल्यांकनपरक टिप्पणियों में उन लोगों की बौद्धिक और राजनीतिक उपस्थिति है जिन्होंने पहले अयोध्या और फैजाबाद में एक सुंदर समाज बनाने का नया सपना देखने, बाद में उसके बिगड़ते माहौल को बचाने की जीतोड़ कोशिशें कीं।

ऐसे लोगों में महात्मा हरगोविंद, राजबली यादव, शांतिस्वरूप वर्मा, रमजान अर्मा टांडवी, पद्मश्री मोहम्मद शरीफ, साहिल और शलभ श्रीराम सिंह जैसे सभ्य, विचारशील, रचनाशील और समर्पित लोग शामिल हैं। जनमोर्चा अखबार के संस्थापक महात्मा हरगोविंद ने न सिर्फ आजादी की लड़ाई में संघर्ष किया बल्कि उसके बाद भी अनवरत संघर्ष और जेल यात्राएं करते रहे। उनकी पुस्तकों की संख्या 22 है और वे सब लोगों की समझ बढ़ाने वाली और उन्हें प्रेरणा देने वाली हैं।

एक लेख में बताया गया है कि किस तरह बिहार और झारखंड के गरीब और जाति व्यवस्था से पीड़ितों के लिए अयोध्या एक शरणस्थली भी रही है। एक ओर मालपूआ का मजा लेते साधु हैं तो दूसरी तरफ मटर की घुघनी रानी और सत्तू से अपना पेट भरते गरीब हैं। आज जब अयोध्या को ध्वंस करके नई अयोध्या बनाई जा रही है तब फिर उन्हीं गरीबों पर गाज गिर रही है जो किसी तरह से अपना जीवन यापन करते थे।

एक अध्याय अयोध्या-फैजाबाद की अदब की परंपरा पर है। इसका शीर्षक है- शायरी का अलबेला दयार। यह वर्णन कृष्णप्रताप सिंह के शब्दों में सुनने लायक है- 1760 में फैजाबाद के अवध की राजधानी बनने के बाद 15 सुनहरे वर्षों में ही उसकी धरती पर उर्दू शायरी का जो दयार, जल्दी ही अपना उजाड़ देखने को अभिशप्त होने के बावजूद उसने उर्दू को उसका शेक्सपियर तो दिया ही, मर्शियागोई को उसका मीर और अल्लामा इकबाल को उसका सबसे प्यारा दोस्त भी दिया।

बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का, जो चीरा तो इक कतर-ए-खून निकला- जैसा नायाब शेर कहने वाले हैदर अली आतिश यहीं के थे। उर्दू के शेक्सपियर कहे जाने वाले मीर बबर अली अनीस जो कि मीर अनीस के नाम से मशहूर हुए भी यहीं के थे। मर्सियागोई में वे अपना कोई सानी नहीं रखते थे।

एक और मशहूर शायर पंडित ब्रजनारायण चकबस्त जो कश्मीरी ब्राह्मण थे इसी धरती पर जन्मे थे। कश्मीरियत के नाते उनकी अल्लामा इकबाल से गहरी दोस्ती थी। मात्र 44 साल में इस दुनिया के अलविदा कहने वाले इस शायर में आजादी और देशप्रेम की भावना कूट कूट कर भरी थी। इसीलिए उनका यह शेर अक्सर उद्धृत किया जाता है-

जुबां को बंद करें या मुझे असीर करें।

मेरे ख्याल को बेड़ी पहना नहीं सकते।

इस किताब का सबसे लंबा अध्याय है ‘इंसाफ नहीं फैसला’। वैसे तो लेखक की वैचारिक प्रतिबद्धता हर पन्ने पर परिलक्षित होती है लेकिन 20 पृष्ठों के इस खंड में नौ नवंबर 2019 बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बहाने सांप्रदायिकता, हिंसा, धर्मनिरपेक्षता, संविधान और संघ परिवार के संगठनों की सोच और प्रवृत्ति पर लंबी चर्चा है।

चूंकि छह दिसंबर 1992 वह घटना है जिसने अयोध्या ही नहीं इस देश के संवैधानिक इतिहास को विभाजित कर दिया, इसलिए उम्मीद की जा रही थी कि सुप्रीम कोर्ट इस घटना पर बेहद संवेदनशील और ऐतिहासिक दृष्टि से ऐसा न्याय करेगा जो भारत को एक राष्ट्र के रूप में उच्च नैतिक स्तर ही नहीं स्थायित्व भी प्रदान करेगा। लेकिन जो फैसला आया उसमें इंसाफ की मनभावन धुन नहीं हिंदुत्व की जीत का शोर है। उसमें न्यायिक विवेक नहीं पंचायती दबंगई है।

इस फैसले पर लेखक की चेतावनी ध्यान देने लायक है-

“काश! सौहार्द के ये पैरोकार समझते कि सौहार्द कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे सायास स्थापित किया जा सकता है और वह तभी लंबी उम्र पाता है जब उसकी नींव में समता, बंधुत्व और न्याय जैसी पवित्र भावनाएं और उनसे जुड़े मूल्य हों। इस लिहाज से किसी पक्ष की निराशाजनित चुप्पी को गलत ढंग से उसकी असहमति या आत्मसमर्पण के रूप में पढ़ना कतई मददगार नहीं सिद्ध होने वाला।”

बाबरी मस्जिद विध्वंस पर अपनी संवेदनाओं को व्यक्त करने के लिए कृष्णप्रताप सिंह ने सुभाष राय, अदनान कफील दरवेश की कविताएं, कैफी आजमी की मशहूर नज्म, विजय बहादुर सिंह, नरेश सक्सेना, प्रकाश चंद्रायन, कुबेर दत्त, स्वप्निल श्रीवास्तव की कविताओं के माध्यम से बहुत कुछ कहा है। लेकिन कथाकार दूधनाथ सिंह के उपन्यास आखिरी कलाम की यह उक्ति तार्किक रूप से भविष्य का पूरा खाका खींचते हुए दिखाई देती है-

“इस बात का डर नहीं कि कितने लोग बिखर जाएंगे, डर यह है कि लोग नितांत गलत कामों के लिए कितने बर्बर ढंग से संगठित हो जाएंगे। हमारे राजनीतिक जीवन की एक बहुत बहुत भीतरी परिधि है जहां सर्वानुमति का अवसरवाद फलफूल रहा है। वहां एक आधुनिक बर्बरता का चक्करदार आहट है। ऊपर से सब कुछ शुद्ध-बुद्ध, परम पवित्र, कर्मकांडी, एकांतिक, सार्वजनिक, गहन लुभावन लेकिन उबकाई से भरा हुआ आक्सीजन युक्त लेकिन दमघोंटू, उत्तेजक लेकिन प्रशांत-सारे छल एक साथ।”

दूधनाथ सिंह की इस उक्ति का सहारा लेकर लेखक ने ठीक ही कहा है, “जो लोग खुद को मनुष्य के तौर पर बचा पाए हैं, आज की तारीख में उनके इस डर को अपने चारों ओर न सिर्फ साकार बल्कि बड़ा होते देख सकते हैं।”

लेखक ने अयोध्या और फैजाबाद के ऐतिहासिक उथल पुथल और अभिशाप को दर्शाने वाली किंबदंतियों के माध्यम से वर्तमान पर निशाना साधा है। एक अध्याय है इतिहास की लूट। इसमें कहा गया है कि नवाब शुजाउद्दौला की इतिहास प्रसिद्ध राजधानी फैजाबाद में स्थित उसके भव्य मोती महल की 28 जनवरी 1782 को शुरू हुई लूट अब तक रुकने का नाम नहीं ले रही। जानकार इस लूट को इतिहास की लूट की संज्ञा देते हैं।

शुजाउद्दौला ने 1760 में फैजाबाद को अपनी राजधानी बनाई थी और उनकी मृत्यु के बाद 1776 में उनके आसफउद्दौला ने फैजाबाद से राजधानी लखनऊ स्थानांतरित करने का फैसला किया। लेकिन उनकी अम्मी जान बहू बेगम फैजाबाद में ही रह गईं। उन्हें उनके बेटे ने अंग्रेज दुश्मनों से मिलकर लूटा।

सीता ने अपने साथ हुए अन्याय के कारण अयोध्या को जो शाप दिया था वह तो सर्वविदित है। आज भी मिथिला के लोग अपनी बेटियों को अवध में नहीं ब्याहते। लेकिन 17वीं 18वीं सदी की सूफी संत अल्हैया बीवी से कोतवाल ने जबरन शादी का प्रस्ताव रखा तो उन्होंने अपनी दोनों आंखें निकाल कर उसे भेंट कर दीं। उसके बाद उन्होंने शाप दिया कि इस शहर को न तो आगे कोई आलिम अपना ठिकाना बना पाएगा और न ही यहां कोई जालिम पनप पाएगा।

अंत में लेखक की यह टिप्पणी काबिले गौर है- “अयोध्या में इस तरह की अतियां अभी खत्म नहीं हुई हैं। इनमें सबसे बड़ी अति यह है कि तरह तरह के अज्ञानों को ज्ञान का रूप देकर प्रभूत मात्रा में उनका उत्पादन, प्रकटीकरण और वितरण किया जाता रहता है। बहरहाल आप अयोध्या में हैं तो यह आप पर है कि इस ज्ञान से अभिभूत हों या उसे गलत सिद्ध करने लगें।”

कृष्ण प्रताप सिंह ने अयोध्या और फैजाबाद की उन्हीं विभूतियों का जिक्र किया है जो किसी राजनीतिक दल से संबद्ध नहीं हैं। अगर रहे भी हैं तो क्रांतिकारी परंपरा से। वरना यह पुस्तक राम मनोहर लोहिया और आचार्य नरेंद्र देव और उनके अनुयायियों के विस्तृत वर्णन से बड़ा आकार ग्रहण कर लेती। पर वे ऐसे लोग हैं जिनके बारे में देश जानता है।

लेकिन लेखक ने जिन लोगों का जिक्र किया है वे स्पष्ट रूप से दूसरी परंपरा के ध्वजवाहक हैं। देश के लोकतंत्र को यह दूसरी परंपरा ही बचा सकती है।

{जीरो माइल अयोध्या, कृष्ण प्रताप सिंह, वाम प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.152. मूल्य 250}

(अरुण कुमार त्रिपाठी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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