देश को एक नया संसद भवन मिल गया है। हालांकि इस नए भवन के उद्घाटन से नरेंद्र मोदी सरकार का भारतीय लोकतंत्र और संसद के प्रति रुख का पता चलता है। इसके बनने में भी तानाशाही प्रक्रिया अपनाई गई थी लेकिन राष्ट्रपति को उद्घाटन में न बुलाना मोदी की केवल आत्ममुग्धता नहीं है बल्कि वैचारिक कटिबद्धता है। जब राष्ट्रपति ही नहीं आए तो विपक्ष की जरूरत ही क्या। खूब चर्चा है नए संसद को लेकर। लेकिन प्रश्न यह है कि संसद चाहे वह पुरानी इमारत में हो या नए भवन में क्या अपना काम कर रही है। संसद का मुख्य काम है कानून बनाना। खेत मज़दूर वर्ग, जो आबादी का एक बड़ा हिस्सा है, जो आर्थिक और सामाजिक तौर पर हाशिए पर है लेकिन ग्रामीण भारत और कृषि में मुख्य भूमिका निभाता है, आज़ादी के 75 वर्ष बाद भी अपने लिए एक कानून की आशा में ही जी रहा है।
खेत मजदूर सबसे अनिश्चित और असुरक्षित परिस्थितियों में काम कर रहे हैं। कृषि संकट और रोजगार के दिनों में कमी के कारण उनकी स्थिति और भी खराब हो गई है। एक तरफ तो खेत मजदूरों की संख्या में बढ़ोतरी हुई लेकिन कृषि में काम कम हुआ है। कृषि संकट के चलते प्रति वर्ष लाखों छोटे और गरीब किसान खेती छोड़ने को मज़बूर हो रहें हैं और खेत मज़दूरों की फौज में शामिल हो रहे हैं। जब ग्रामीण बेरोजगारी अपने चरम पर है और खेत मज़दूरों की संख्या ज्यादा है, ऐसी स्थिति में न्यूनतम मजदूरी के लिए सामूहिक सौदेबाजी की कोई संभावना नहीं है। एक तो सरकारें न्यूनतम मज़दूरी घोषित नहीं करती हैं और जब करती हैं तो बहुत कम दर घोषित करती हैं, परन्तु बड़ी समस्या तो यह है कि इस न्यूनतम मज़दूरी को लागू करवाने की कोई व्यवस्था ही नहीं है।
आज भी ग्रामीण भारत में खेत मज़दूर न्यूनतम मज़दूरी से कम पर काम करने को मज़बूर हैं। महिलाओं और बच्चों को तो सामान्यत: आधी मज़दूरी ही मिलती है। हालत यह है कि देश के बहुत से स्थानों पर कुछ पेशगी देकर खेत मज़दूरों से मनमानी दिहाड़ी और मनमाने समय के लिए काम करवाया जाता है। गन्ना मज़दूरों की ऐसी कई खबरें मीडिया में आती रहती हैं। शोषण की इन्तहा यह है कि कई शोध और मीडिया रिपोर्ट से पता चला है कि महाराष्ट्र और कर्नाटक में गन्ने के खेत में काम करने वाली महिला खेत मज़दूरों के गर्भाशय तक निकलवा दिए जाते हैं ताकि माहवारी के दौरान काम का नुकसान न हो।
कम होती आय और लगातार बढ़ती महंगाई से खेत मज़दूरों का जीवन ज्यादा कठिन और अनिश्चित हो गया है। अभी तक तो कल्याणकारी राज्य की सार्वजानिक संस्थाओं की सेवाएं और सुविधाएं जैसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली, सस्ती बिजली, सरकारी स्कूल, स्वास्थ्य और कल्याणकारी पेंशन आदि के जरिये कुछ मदद हो जाती थी लेकिन अब तो देश अमृतकाल में प्रवेश कर गया है, जहां देश के चुने हुए तानाशाह और उनकी सरकार की नीतियां कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के ही खिलाफ हैं। बड़े स्तर पर सार्वजानिक ढांचे को बेचा जा रहा है और खेत मज़दूरों के जीवन को जो कुछ राहत मिलती थी, ख़त्म की जा रही है।
रोजगार का संकट इतना गहरा है कि खेत मजदूर आत्महत्या कर रहे हैं, लेकिन राजनीतिक विमर्श में इन आत्महत्याओं का कोई जिक्र नहीं है। वर्ष 2014 में पहली बार खेत मजदूरों की आत्महत्याओं को अलग से दर्ज करने की शुरुआत की गई। इस वर्ष 5,650 किसानों और 6,710 खेत मजदूरों की आत्महत्या दर्ज की गई, जो उन तनावपूर्ण परिस्थितियों का संकेत है, जिसमें वे रह रहे हैं। आत्महत्याओं की संख्या में, साल-दर-साल उतार-चढ़ाव होता रहा, लेकिन कभी भी यह समाचार का और न ही किसी राजनीतिक चर्चा का विषय बना। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार, 2021 में 5,563 खेत मजदूर आत्महत्या के लिए मजबूर हुए हैं। कुल मिलाकर 2014 के बाद से 40,685 खेतिहर मजदूर आत्महत्या करने को मजबूर हुए हैं।
कृषि में नई और उन्नत मशीनों का प्रयोग हो रहा है। कई अध्ययन बताते हैं कि इससे खेत मज़दूरों में हादसों की संख्या में इजाफा हुआ है। इसके अलावा कृषि में खाद, कीट नाशक और खरपतवार नाशक दवाओं का अत्याधिक उपयोग हो रहा है। खेत मज़दूर सीधे इनके संपर्क में आते हैं, जिससे उनमें कई तरह की बीमारियां होती हैं। हालांकि इनके उपयोग के लिए निर्धारित दिशा निर्देश हैं और सुरक्षा उपकरण प्रयोग करने की बाध्यता है लेकिन इनका पालन कभी भी नहीं होता। इसका मुख्य कारण है कि इनको लागू करवाने के लिए न तो कोई कानून है और न ही कोई तंत्र।
मज़दूरों के लिए मौजूदा कानून, खेत मज़दूरों के कोई राहत नहीं दे पाते हैं। देश के आज़ाद होने के बाद से ही खेत मज़दूरों के लिए अलग से एक सर्वसमावेशी केंद्रीय कानून की मांग उठती आई है। यह केवल मज़दूरों की ही मांग नहीं है, बल्कि खेत मजदूरों के कल्याण के लिए गठित विभिन्न समितियों की सिफारिश भी है। कई सरकारी कमेटियों और आयोगों ने भी इसकी जरूरत पर बल दिया है लेकिन कानून कभी बन ही नहीं पाया।
खेत मज़दूरों की समस्याओं की पहचान करने के लिए विभिन्न समितियों का गठन किया गया। मसलन वर्ष 1950-51, 1956-57, 1963-65 और 1974-75 में कमेटियां बनीं, लेकिन कोई कानून नहीं बन सका। 1977 के मई महीने में एक त्रिपक्षीय श्रम सम्मेलन और 1978 में एक विशेष सम्मेलन ने खेतिहर मजदूरों के विभिन्न पहलुओं के समाधान के लिए स्थायी सलाहकार तंत्र गठित करने की सिफारिश की। इसी के चलते सितंबर 1978 में ग्रामीण मजदूरों पर एक केंद्रीय समिति की स्थापना की गई। उस समय के श्रम मंत्री इसके अध्यक्ष थे। इस समिति में मज़दूरों और नियोक्ताओं के संगठन, संबंधित केंद्रीय मंत्री और विभाग, राज्य सरकारों के संबंधित विभाग, सामाजिक कार्यों से जुड़े संस्थान, संगठन और खेत मजदूरों के कल्याण से जुड़े व्यक्तियों के प्रतिनिधि भी शामिल थे।
इस केंद्रीय समिति की अन्य बातों के अलावा दो महत्वपूर्ण संदर्भ-शर्तें इस प्रकार थीं- पहली रोजगार की सुरक्षा, काम के घंटे, मजदूरी का भुगतान, सामाजिक सुरक्षा, मशीनीकरण में सुरक्षा, विवाद निपटान मशीनरी आदि के संबंध में ग्रामीण मजदूरों, विशेष रूप से खेत मजदूरों के हितों की रक्षा के लिए एक केंद्रीय कानून को सूत्रबद्ध करना और दूसरी ग्रामीण मजदूरों के संगठनों के समुचित विकास की परिस्थितियां बनाने के लिए प्रशासनिक और विधायी प्रावधान करना।
29 जनवरी 1979 को इस समिति की पहली बैठक में तीन उपसमितियों का गठन किया गया था। पहली उपसमिति का उद्देश्य खेत मजदूरों की मज़दूरी और रोजगार की शर्तों को विनियमित करने और विवादों के निपटारे के लिए एक तंत्र तैयार करने के लिए केंद्रीय कानून की संभावना पर विचार करना था। दूसरी समिति बंधुआ मजदूरी पर थी। तीसरी समिति को ग्रामीण मजदूरों के संगठन को मजबूत करने के लिए आवश्यक प्रशासनिक और कानूनी उपायों पर रिपोर्ट देनी थी। ग्रामीण मजदूरों के प्रशिक्षण और शिक्षा पर उचित ध्यान देना भी इसका एक मकसद था। इन समितियों ने विभिन्न सिफारिशें दी थीं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण सिफारिश खेत मजदूरों के लिए एक सर्वसमावेशी केंद्रीय कानून बनाने की थी, जो अभी भी एक सिफारिश ही बनी हुई है।
इस बीच वर्ष 1987 में श्रम मंत्रियों के सम्मेलन के 37वें सत्र ने कुछ भ्रम भी पैदा किया। इस सत्र ने सिफारिश की कि समस्या केंद्रीय कानून की कमी की नहीं है, बल्कि मौजूदा कानूनों जैसे कि न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, समान मज़दूरी अधिनियम और ऐसे अन्य कानूनों के कार्यान्वयन की है। इसका मानना था कि यह सारे कानून कृषि सहित असंगठित क्षेत्र के सभी मज़दूरों पर लागू होते हैं। हालांकि इसके बाद हुए श्रम मंत्रियों के सभी सम्मेलनों, भारतीय श्रम सम्मेलन के क्रमिक सत्रों और विभिन्न आयोगों तथा समितियों ने असंगठित क्षेत्र और खेत मज़दूरों के लिए अलग कानून पर चर्चा की है।
हमारे समाज के इस कमजोर वर्ग की कामकाजी परिस्थितियों और उनकी सुरक्षा के लिए सामाजिक कानून के कार्यान्वयन पर गौर करने के लिए ग्रामीण मज़दूरों पर 1987 में राष्ट्रीय आयोग नियुक्त किया गया जिसने 1991 में अपनी रिपोर्ट दी। इस रिपोर्ट में ग्रामीण मजदूरों को गरीबी से बाहर निकालने के लिए एक बहुआयामी रणनीति की सिफारिश की गई।
इन सिफारिशों में मुख्य हैं उत्पादकता और रोजगार में सुधार के लिए बुनियादी ढांचे का निर्माण; न्यूनतम मजदूरी और सामाजिक सुरक्षा को लागू करवाना; रोजगार की सुरक्षा, काम के निर्धारित घंटे, निर्धारित मजदूरी का भुगतान और विवाद निपटान के लिए एक तंत्र गठित करना; खेत मजदूरों के लिए एक केंद्रीय कानून; मज़दूरों के लिए पंजीकरण की प्रणाली शुरू करना; पहचान पत्र प्रदान करने की व्यवस्था और भूमि पर उपकर के रूप में नियोक्ताओं के योगदान और खेत मज़दूरों के मामूली योगदान के साथ एक कल्याण कोष की स्थापना करना।
ग्रामीण मज़दूरों पर राष्ट्रीय आयोग की सिफारिश पर श्रम और रोजगार मंत्रालय ने 1997 में रोजगार के नियमन, सेवा की शर्तों और खेत मजदूरों के लिए कल्याणकारी उपायों के प्रावधान के लिए एक व्यापक कानून का प्रस्ताव किया था।
वर्ष 2001 में हन्नान मोल्ला ने संसद में एक निजी सदस्य विधेयक पेश किया था जिसमें खेत मजदूरों के लिए रोजगार के नियमन, सेवा की शर्तों और उनके कल्याणकारी उपायों के प्रावधान के लिए एक व्यापक कानून की रूपरेखा थी। इस विधेयक की परिभाषा, कवरेज और मुख्य प्रावधान मोटे तौर पर श्रम और रोजगार मंत्रालय के 1997 के विधेयक के समान ही थे। हालांकि इसमें निरीक्षकों द्वारा प्रवर्तन की एक प्रणाली और सुलह मशीनरी और एक कृषि न्यायाधिकरण से मिलकर दो स्तरीय विवाद समाधान संरचना का प्रस्ताव भी था।
इसके बाद भी वर्ष 2010, 2016, 2018 और हाल ही में 2022 में संसद में निजी बिल पेश किए गए। इनमें से कोई भी प्रयास हमारी संसद को प्रस्तावित विधेयक पर चर्चा करने और कानून बनाने के लिए संवेदनशील बनाने में सफल नहीं हुआ है। हालांकि खेत मज़दूरों के काम की शर्तों और परिस्थितियों को विनियमित करने के लिए राज्य स्तर पर कुछ प्रयास किए गए हैं। एक महत्वपूर्ण उदाहरण केरल खेत मज़दूर अधिनियम (1974) और केरल खेत मज़दूर बोर्ड है।
खेत मजदूर ग्रामीण भारत में सबसे अधिक पिछड़े वर्ग से हैं। अधिकतर दलित, खेत मजदूर सभी संसाधनों से वंचित हैं। उनमें से अधिकांश भूमिहीन हैं और उनके पास उत्पादन का कोई साधन नहीं है। उनके पास बेचने के लिए केवल अपनी मेहनत है। उनकी हालत यह है कि वे अपनी मजदूरी की दर तय करने की स्थिति में नहीं हैं, यानी उन्हें निर्धारित मजदूरी से कम पर काम करने के लिए मजबूर किया जाता है। कहने की जरूरत नहीं है कि ज्यादातर मामलों में यह मजदूरी, अन्य मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी से भी कम होती है। उनमें से अधिकांश के पास अपना घर भी नहीं है। वे न केवल आर्थिक रूप से शोषित और संसाधन विहीन हैं, बल्कि ग्रामीण समाज के हाशिए पर भी हैं।
मनुस्मृति के चार वर्णों पर आधारित, इस सामंती समाज में अधिकांश खेत मजदूर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से आते हैं, जिन्हें तरह-तरह के अत्याचार और सामाजिक उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है। सामाजिक रूप से उन्हें मनुष्य के रूप में भी नहीं देखा जाता है और हमारे समाज में सामाजिक भेदभाव की कई प्रथायें हैं। उन्हें इन सभी भेदभावपूर्ण प्रथाओं का पालन करना होता है, अन्यथा उन्हें हिंसा का शिकार बनाया जाता है। अपनी आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों के कारण वे विकास की प्रक्रिया में पिछड़ रहे हैं। उनमें से अधिकांश अशिक्षित थे और मौजूदा समय में भी उनके बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से वंचित रखा जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि उनकी चेतना पिछड़ी रह जाती है। वे संगठित नहीं हो पाते, जिसके कारण उनके ऐसे संघर्षों में शामिल होने की बहुत कम संभावना होती है।
यह सच है कि बंधुआ मजदूर अपनी लोहे की जंजीरों से मुक्त हो गए हैं, लेकिन मजदूर अब भी भूख और बढ़ती बेरोजगारी से बंधे हुए हैं। खेत मजदूरों की सापेक्ष आय में आई गिरावट के कारण अब वे अपने परिवारों का भरण-पोषण करने में सक्षम नहीं हैं। खेत मज़दूर श्रम बल का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। समय के साथ इनमें भी बदलाव आये हैं और जरूरत के अनुसार और परिवर्तन भी आएंगे। इनका भी आधुनिकीकरण होने की जरूरत है।
तकनीक में विकास के साथ खेत मज़दूरों की कार्यशैली विकसित करके उत्पादकता बढ़ सकती है। किसी भी देश के विकास के लिए यह महत्वपूर्ण है लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में सबसे महत्वपूर्ण है खेत मज़दूरों के अधिकार। इस अधिकार का आधार करुणा नहीं बल्कि क़ानूनी होना चाहिए। इसलिए, खेत मजदूरों के लिए एक व्यापक केंद्रीय कानून की वर्तमान समय में केवल मज़दूरों को ही नहीं बल्कि देश को जरूरत है।
(विक्रम सिंह, अखिल भारतीय खेत मजदूर यूनियन के राष्ट्रीय संयुक्त सचिव हैं।)