मुश्किल में बीजेपी, राहुल बना रहे हैं कांग्रेस का नया रास्ता

इस बार के चुनावों में सभी के लिए कुछ न कुछ था, लेकिन अधिकांश लोगों को उतना ही दिखने वाला है, जितना उन्होंने अपना दायरा बना रखा है। इस बार के चुनावों में दिल्ली में एमसीडी के चुनाव, गुजरात और हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव, मैनपुरी की लोकसभा में उपचुनाव सहित यूपी, बिहार, उड़ीसा, राजस्थान जैसे राज्यों में चुनाव संपन्न हुए, जिसके अलग-अलग परिणाम देखने को मिले हैं। 

इन सभी चुनावों में कोई एक संकेत देखने को नहीं मिलता है, और लोगों ने स्थानीय मुद्दों के साथ-साथ उनके जीवन में घट रहे अनुभवों के आधार पर अपने मत का उपयोग-दुरूपयोग किया है। इस बार के चुनावों में जहाँ चुनावी पंडित इस बात को साबित करने की भरपूर कोशिश में जुटे हुए हैं कि भाजपा को जहाँ गुजरात में ऐतिहासिक जीत हासिल हुई है, वहीं दिल्ली के नगर निगम के चुनावों में 15 साल तक राज करने के बाद मिली हार के बावजूद उसने अपने वोट प्रतिशत में कमी नहीं आने दी है, वहीं हिमाचल में सिर्फ 0.9 प्रतिशत कम मत हासिल करने के कारण उसे सत्ता से बाहर का मुंह देखना पड़ा है। 

सोशल मीडिया के जरिये क्रांति का ख्वाब देखने वाले मित्रों के लिए यह चुनाव बेहद निराशाजनक रहा है। वे गुजरात में मोरबी पुल हादसे के बाद भी भाजपा को हासिल इस प्रचंड जीत के लिए गुजरातियों को कोस रहे हैं, और उन्हें ऐसे ही हादसों और कोविड में लाखों लोगों की मौत के बाद भी मोदीमय गुजरात की बधाई दे रहे हैं। कुछ लिबरल इसके लिए राहुल गांधी को कहीं न कहीं दोष दे रहे हैं कि देश में जब ऐसे महत्वपूर्ण क्षण में 2024 का नैरेटिव गढ़ा जा रहा था, तो वे ‘भारत जोड़ो’ यात्रा पर निकल गये, और गुजरात के बगल से होकर गुजर गये। अपनी सारी उर्जा यात्रा और अपने व्यक्तित्व को चमकाने पर खपा रहे हैं, जो कांग्रेस के लिए शर्मनाक हार का बायस बना है। 

जहाँ तक आम आदमी पार्टी (आप) का संबंध है, उसको लेकर जहाँ एक बड़ी आस बंधी है, वहीं कई नए प्रश्न भी खड़े हो रहे हैं। आप पार्टी और अरविन्द केजरीवाल एक दूसरे के उतने ही पर्याय बन चुके हैं, जितना आज भाजपा की मोदी पर निर्भरता बढ़ गई है। अभी तक ऐसा माना जा रहा था कि आरएसएस और भाजपा के सांगठनिक कौशल के साथ मोदी की लार्जर दैन लाइफ  इमेज से चमत्कारिक नतीजे से कुलमिलाकर भाजपा और आरएसएस को देशभर में खुद को लगातार मजबूत करने का अवसर मिल रहा है, आज स्थिति पूरी तरह से उलट गई है। 

आइए इसे एक-एक कर देखते हैं। पहले आम आदमी पार्टी को लेते हैं। गुजरात में 12% वोट शेयर के साथ अब यह राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर मान्यता प्राप्त पार्टी हो जाएगी। लेकिन गुजरात में सबसे पहले चुनावी अभियान की शुरुआत करने वाली इस पार्टी का चुनावी अभियान अपने आखिरी चरण में उखड़ता नहीं दिखने लगा था? दिल्ली जैसे 2 करोड़ के शहरी मतदाताओं और उनकी जरूरतों का सफलता से प्रतिनिधित्व करने वाली यह पार्टी शुरू-शुरू में गुजरात के शहरों में अपनी रैली और वायदे करती दिखती है, और बाद में अचानक से पता चलता है कि इसने पारंपरिक कांग्रेस के मजबूत गढ़ आदिवासी क्षेत्रों में अपनी घुसपैठ तेजी से बना ली है?

कांग्रेस की इस शर्मनाक हार के पीछे आप पार्टी के इस योगदान को अगले एक हफ्ते में और भी स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है, जब सभी विधानसभा सीटों पर पार्टीवार आंकड़े सामने आयेंगे। कुछ विशेषज्ञ तो यहाँ तक कह रहे हैं कि हिमाचल प्रदेश से इसके बीच में ही गायब हो जाने के पीछे की एक वजह यह भी है कि हिमाचल में आप पार्टी यदि किसी को नुकसान पहुंचाती तो वह भाजपा होती। आप पार्टी की चुनावी कमान और आर्थिक प्रबंधन तब सत्येन्द्र जैन के हाथ में थी, और उनके जेल में होने से यह कवायद बीच में ही छोड़ दी गई। यदि आप पार्टी पूरे दम-खम से गुजरात की तरह हिमाचल में भी लड़ी होती, तो भाजपा के पास 25 सीट से भी काफी कम सीटें आतीं।

आप पार्टी के बारे में दूसरी बात। पार्टी के भीतर सत्ता का केन्द्रीयकरण अधिकतम हो गया है। यह तानाशाही जहाँ उसे केंद्रित होकर अधिकतम परिणाम हासिल करने में सफल बनाती है, वहीं यह इसके आगे के सफर के लिए सबसे बड़ी बाधा साबित होने जा रही है। उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया से लेकर पंजाब के मुख्यमंत्री को अपने लगभग सभी भाषणों में अरविन्द केजरीवाल के नाम की माला जपनी पड़ती है, गोया ऐसा नहीं किया तो उनके लिए खुद को बनाए रखना मुश्किल हो जायेगा। यह बेबसी बसपा, तृणमूल कांग्रेस जैसी पार्टियों के लिए भी है, और उनके राजनीतिक सफर को हम लगातार देख रहे हैं। आज आप पार्टी उभार पर भले ही दिखे, लेकिन संभव है कि यह उसका उच्चतम बिंदु हो। 

पार्टी को दिल्ली में चार सफलताएं मिल चुकी हैं, और उसने कांग्रेस को दिल्ली में लगभग खत्म कर दिया है। यह काम नरेंद्र मोदी और भाजपा ने अपने हाथों में लिया था, लेकिन संपन्न आप पार्टी कर रही है। लेकिन यहीं पर एक दरार भी नजर आती है। कांग्रेस को कुल 9 सभासदों में से 7 सभासद इस बार अल्पसंख्यक समुदाय से प्राप्त हुए हैं, जिसमें पुरानी दिल्ली अपवाद है, जहाँ पर आप पार्टी मुसलमानों को अपने पक्ष में बनाये रखने में कामयाब दिखती है।

लेकिन यह तब्दीली आप पार्टी को अगले विधानसभा चुनावों में बहुत भारी पड़ सकती है, जिसके बारे में नेतृत्व जरुर चिंतित होगा। लोकसभा के चुनावों में पिछली बार आप पार्टी तीसरे नंबर की पार्टी थी, और कांग्रेस को यदि भाजपा के राष्ट्रीय विकल्प के रूप में पेश करने में सफलता मिलती है तो उसे दिल्ली में सफलता मिलने की संभावना है। दिल्ली के मतदाताओं के सामने स्थानीय मुद्दे और राष्ट्रीय मुद्दों के आधार पर चुनाव को लेकर स्पष्ट समझ 2019 की तुलना में बेहतर हुई होगी, और जिस प्रकार से विधानसभा और सभासद से वे कुछ उम्मीद पाले रखते हैं, वैसा दिल्ली के 7 सांसदों से लगातार दूसरी बार न पाकर वे पुनर्विचार कर सकते हैं।

भाजपा ने गुजरात को लेकर एक लंबी रणनीति बनाई थी, और सक्षम विपक्ष के अभाव में यह रणनीति उसे भारी मुनाफे से मालामाल कर गई। उसने न सिर्फ मुख्यमंत्री बदला बल्कि सभी मंत्रियों को हटा दिया और नए मुख्यमंत्री की ताजपोशी की। इतना ही नहीं उन सभी पुराने मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों को टिकट भी नहीं दिया। महाराष्ट्र की कीमत पर गुजरात में एक के बाद दूसरे उद्योग को लाने का काम किया, और समझ लिया कि भले ही महाराष्ट्र हार जायें लेकिन गुजरात को किसी भी कीमत पर बचाए रखना है। इतने से ही संतोष नहीं हुआ तो हार की मानसिकता के साथ 27 साल से घिसट रही कांग्रेस पार्टी से दो दर्जन के करीब विधायकों को तोड़कर कांग्रेस को मरणासन्न कर दिया गया, और उनमें से अधिकांश को भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ाया गया। आप पार्टी ने इसमें कितना सहयोग किया, यह अभी शोध का विषय है। कुलमिलाकर गुजरात की जनता को यह समझाया गया कि मुख्यमंत्री कोई भी ऐरा-गैरा नत्थू खैरा हो, लेकिन असल में आपका मुख्यमंत्री तो वही है, जो डबल इंजन की सरकार का मुखिया है। और जब तक वह है तब तक देश में भले ही कुछ भी क्यों न हो रहा हो, निवेश गुजरात में आएगा, आपके हितों को सर्वोपरि रखने की गारंटी है। विपक्ष विहीन गुजरात के लोगों के पास आस की वह कौन सी किरन थी, जिसे लिबरल मित्र रोना रो रहे हैं और गुजरात को कोस रहे हैं?

जहाँ तक कांग्रेस का प्रश्न है, वह पिछले 8 साल से लगातार निशाने पर बनी हुई थी। परिवारवाद का दाग अगर किसी पर सबसे मजबूती से चस्पा किया गया तो वह कांग्रेस थी। कांग्रेस मुक्त भारत के अभियान को कभी नजरअंदाज नहीं किया गया। सोशल मीडिया और गोदी मीडिया के जरिये लगातार राहुल गाँधी को पप्पू बताकर इमेज को ध्वस्त करने का प्रयास किया गया। सत्ता के केन्द्रीयकरण और हाई कमान की परंपरा कांग्रेस के साथ जुड़ी थी, और एक मृतप्राय संगठन होने के बावजूद उसने इसे लंबे समय तक जारी रखा, जिसके चलते देश के विभिन्न कोनों से बागी स्वर उभरे। सत्ता में बने रहने की आदत और लालसा को जब 2019 में भी निराशा मिली तो जी-23 जैसे विरोधी गुटों से ही कांग्रेस को सुर्खियाँ मिलती रहीं। चौकीदार चोर है, राफेल जैसे मुद्दे उठाने के बावजूद राहुल गाँधी नक्कारखाने में अकेले चिल्ला रहे थे, और उनके अपनी ही पार्टी के वरिष्ठ लोग कुछ अलग स्कीम बना रहे थे। 

राहुल गाँधी ने इन सभी चीजों को लंबे समय से देखा और इस कवायद की व्यर्थता, प्रेस कांफ्रेंस और ट्वीट के माध्यम से लोगों तक पहुँचने के असफल प्रयास और जमीन पर कांग्रेस की लगातार सिकुड़ते जाने की प्रकिया को गहराई से महसूस किया। आज ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के माध्यम से राहुल गाँधी ने कांग्रेस के बिखर चुके सिराजे को एक-एक कर बीनने और जोड़ने की कवायद शुरू की है। इसके जरिये अपनी इमेज पर लगे दाग को भी धो-पोंछने और परिवारवाद, अधिनायकवाद के तमगे को हटाना शुरू किया है। मल्लिकार्जुन खड्गे के रूप में एक दलित अनुभवी वयोवृद्ध दक्षिण भारतीय नेता के पास कांग्रेस की कमान है, जो नरेंद्र मोदी के लिए सीधा हमला बोलने और देश को एक परिवार का गुलाम बनाये रखने के जुमले को बेअसर कर रही है।

आज भी कांग्रेस एक निष्प्राण दल के रूप में नजर आती है, लेकिन इसने एक नए रास्ते को अपनाया है। इसने अपने सिमट चुके दायरे को एक बार फिर से विस्तारित करने का फैसला लिया है, जिसमें आजादी के समय कांग्रेस में जिन-जिन तबकों, समुदायों और वर्गों का प्रतिनिधित्व था को समाहित करने का प्रयास किया है। इन 8 वर्षों में कांग्रेस में पिछले कई दशकों तक जड़ जमा चुके सत्ता के दलालों ने एक-एक कर पलायन करना शुरू कर दिया था, लेकिन अभी भी एक अच्छा खासा तबका बचा हुआ है। 

इंदिरा गाँधी के समय के अधिनायकवाद से जकड़ी कांग्रेस, आज सत्ता के विकेन्द्रीकरण की ओर बढ़ रही है। इसके उलट अरविंद केजरीवाल की आप पार्टी है, जिसके हर पोस्टर, हर भाषण और नारे में केजरीवाल मॉडल है है। भाजपा का संकट सबसे घनीभूत होकर सामने आ रहा है। नरेंद्र मोदी पर निर्भरता इस हद तक बढ़ चुकी है, कि उनके बिना अब दूर-दूर तक कोई नेतृत्व नजर नहीं आता है। हिमाचल प्रदेश में किसी मुख्यमंत्री, विधायक की शक्ल पर नहीं बल्कि नरेंद्र मोदी, अपने बेटे के चेहरे पर वोट दें की अपील के बावजूद हार नसीब होने के बाद भी क्या गुजरात मॉडल को अपनाकर, आने वाले दिनों में हरियाणा, मध्यप्रदेश, कर्नाटक सहित उत्तर पूर्व के आगामी विधानसभा चुनावों में मुख्यमंत्रियों की बलि चढाई जायेगी, यह तो आने वाला समय ही बतायेगा।

(रविन्द्र सिंह पटवाल लेखक और टिप्पणीकार हैं।)

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