समान नागरिक संहिता को लेकर लड़ेगी भाजपा 2024 का चुनाव?

बाइसवें विधि आयोग का कार्यकाल 20 फरवरी 2023 तक था जिसे अब 31 अगस्त 2024 तक बढ़ाया गया है। लेकिन आयोग समान नागरिक संहिता को लेकर अब सक्रियता दिखा रहा है। स्पष्ट है कि अपने मूल कार्यकाल में आयोग ने इस विषय को प्राथमिकता नहीं दी। अगर निर्धारित कार्यकाल में आयोग अपनी रिपोर्ट दे देता तो उसमें समान नागरिक संहिता नहीं होती।

इस मुद्दे को लेकर विधि आयोग तब सक्रिय हुआ जब 2 जून 2023 को उत्तराखण्ड सरकार द्वारा जस्टिस रंजना देसाई की अध्यक्षता में गठित ‘समान नागरिक संहिता कमेटी’ ने जस्टिस ऋतुराज अवस्थी की अध्यक्षता वाले विधि आयोग से दिल्ली में मुलाकात की। जब ‘जस्टिस देसाई कमेटी’ ने आयोग को अपने अनुभव साझा किये तब जाकर 14 जून को आयोग ने ‘समान नागरिक संहिता’ के लिये सभी वर्गों से राय शुमारी की पहल की।

भारत का विधि आयोग एक गैर-सांविधिक निकाय है और भारत सरकार के विधि और न्याय मंत्रालय की एक अधिसूचना द्वारा कानून के क्षेत्र में अनुसंधान करने के लिए एक निश्चित समय सीमा के साथ इसे गठित किया जाता है और आयोग के विचारार्थ विषयों के अनुसार सरकार को (रिपोर्ट के रूप में) सिफारिशें करता है।

वर्तमान आयोग के समक्ष विधि एवं न्याय मंत्रालय द्वारा समान नागरिक संहिता के मामले को संदर्भित किया गया है। आयोग को अपने मूल कार्यकाल के बाद अब समान नागरिक संहिता पर तत्परता दिखाने का सीधा मतलब भारत सरकार का इस मुद्दे को अपनी प्राथमिकता में लाना है। सरकार का इस विषय पर इतनी रुचि दिखाने का मतलब 2024 का लोकसभा चुनाव ही हो सकता है।

मोदी सरकार के ही कार्यकाल में गठित ’21वां विधि आयोग’ साफ कह चुका था कि ‘समान नागरिक संहिता’ की न तो जरूरत है और ना ही वह वांछनीय है। इस स्पष्ट टिप्पणी के बाद भी अगर 22वां आयोग इस विषय को प्राथमिकता दे रहा है तो समझा जा सकता है कि इसमें आयोग से ज्यादा ‘केन्द्रीय विधि एवं न्याय मंत्रालय’ की रुचि है। मंत्रालय द्वारा एक से अधिक मौकों पर कहा भी गया था कि विधि आयोग की राय आने के बाद इस विषय पर फैसला लिया जायेगा।

चूंकि भाजपा शासित उत्तराखण्ड इस मामले में काफी आगे बढ़ चुका है और भाजपा हिमाचल, गुजरात और कर्नाटक के विधानसभा चुनावों में समान नागरिक संहिता का वायदा कर चुकी है। अन्य भाजपा शासित राज्य भी इस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। संविधान के नीति निर्देशक तत्वों वाले अनुच्छेद 44 के तहत राज्य समान नागरिक संहिता बना तो सकते हैं मगर अनुच्छेद 254-ख के अनुसार बिना राष्ट्रपति की अनुमति के वह कानून लागू नहीं हो सकता। जाहिर है कि राज्यों में यह पहल बिना भाजपा शीर्ष नेतृत्व की अनुमति के नहीं हो रही है।

गौर करने वाली बात यह है कि 22 वां विधि आयोग ‘समान नागरिक संहिता’ को लेकर जो सार्वजनिक रायशुमारी कर रहा है उसकी सीख आयोग को उत्तराखण्ड की समान नागरिक संहिता ड्राफ्ट कमेटी ने दी है। कमेटी की अध्यक्षा जस्टिस रंजना देसाई ने केन्द्रीय आयोग से मिलने के बाद दावा किया था कि समान नागरिक संहिता के पक्ष में उत्तराखण्ड का भारी बहुमत है और बहुत थोड़े लोगों ने इसका विरोध किया है।

उत्तराखण्ड में 85 प्रतिशत जनसंख्या हिन्दुओं की है जिसे ‘समान नागरिक संहिता’ से कोई परेशानी इसलिये नहीं कि उनके लिये 1955 और 56 में ही ‘नागरिक संहिताएं’ बन चुकी हैं। वैसे भी कमेटी ने न्यायविदों, कानूनविदों और बुद्धिजीवियों के बजाय आम जनता और खास कर एक राजनीतिक तथा धार्मिक विचारधारा के लोगों की राय एकत्र की थी। राय देने वाले अधिसंख्य लोग किसी अन्य समुदाय के लिये व्यतिगत मामलों में विशेषाधिकार क्यों चाहेंगे?

ऐसी ही रायशुमारी राष्ट्रीय स्तर पर भी होनी है और ‘समान नागरिक संहिता’ के पक्ष में उत्तराखण्ड की तरह राष्ट्रीय स्तर पर भी हिन्दुओं का भारी बहुमत आना लाजिमी है। विधि आयोग के कानों में यह मंत्र उत्तराखण्ड की कमेटी फूंक गयी थी।

लेकिन सवाल उठता है कि क्या इतनी विविधताओं वाले भारत देश में समान नागरिक संहिता व्यवहारिक है। भारत अपनी धार्मिक विविधता के लिए जाना जाता है। भारत में प्रचलित प्रमुख धर्मों में हिंदू धर्म, इस्लाम, ईसाई धर्म, सिख धर्म, बौद्ध धर्म और जैन धर्म शामिल हैं। इसके अतिरिक्त, पारसी धर्म, यहूदी धर्म और जनजातीय धर्मों का पालन करने वाले छोटे समुदाय हैं। भारत कई अलग-अलग संस्कृतियों का घर है, प्रत्येक की अपनी परंपराएं, अनुष्ठान, कला रूप और व्यंजन हैं।

देश की सांस्कृतिक विविधता को मोटे तौर पर उत्तर भारतीय संस्कृति और दक्षिण भारतीय संस्कृति में वर्गीकृत किया जा सकता है, लेकिन इन व्यापक श्रेणियों के भीतर महत्वपूर्ण क्षेत्रीय भिन्नताएं भी हैं। प्रत्येक राज्य और कभी-कभी प्रत्येक शहर की अपनी अनूठी सांस्कृतिक प्रथाएं और रीति-रिवाज होते हैं।

समान नागरिकता का कानून अगर सचमुच व्यवहारिक होता तो संविधानसभा इस मुद्दे को नीति निर्देशक तत्वों में नहीं डालती। अगर इतना आसान होता तो धारा 370 को हटाने से पहले ही देश में यह कानून आ जाता। जब धारा 370 हटायी गयी तो कहा गया था कि एक देश में एक जैसा ही कानून और प्रशासन होना चाहिये इसलिये अलग धारा हटा दी गयी। लेकिन अनुच्छेद 371 की कई उपधाराएं आज भी मौजूद हैं और पूछ रही हैं कि एक देश एक कानून कहां है? अगर एक देश एक कानून व्यवहारिक है तो फिर नवीन पंचायती राज के लिये संविधान का 73वां और 74वां संशोधन पूर्वोत्तर राज्यों में लागू क्यों नहीं है?

यहां सवाल लोगों के मौलिक अधिकारों का भी है। संविधान के अनुच्छेद 25 से लेकर 28 तक भारत के नागरिकों को न केवल धार्मिक स्वतंत्रता की अपितु धार्मिक रीति रिवाजों की स्वतंत्रता की गारंटी भी देते हैं। वैयक्तिक कानून भी धार्मिक रीति रिवाजों में ही आते हैं। संविधान देश की 7 सौ से अधिक जनजातियों के प्रथागत कानूनों को मान्यता देने के साथ ही उनके रीति रिवाजों को मानने की गारंटी भी देता है। इसलिये अनुसूची-6 के क्षेत्रों में स्वायत्तशासी जिलों में उन जनजातीय परम्परागत पंचायतों को मान्यता दी गयी है जिन्हें थोड़े न्यायिक अधिकार भी प्राप्त हैं। इसलिये वहां संविधान के 73वें और 74वें संशोधन लागू नहीं हो सके। जनजातियों में बहुपति और बहुपत्नी प्रथा अब भी चलती है। समान नागरिक संहिता कैसे हस्तक्षेप करेगी। जनजातियों को छेड़ने का नतीजा मणिपुर में दिखाई दे रहा है।

भारत में पारसियों की जनसंख्या एक लाख से भी बहुत कम है। भारत के चहुंमुखी विकास में असाधारण योगदान देने वाले पारसियों की जनसंख्या एक लाख भी नहीं है। बिरादरी से बाहर शादी करने का मतलब वहां जायदाद से हाथ धोना है। ये सख्त नागरिक कानून इसलिये हैं ताकि इस मानव वंश का अतित्व बना रह सके। मुसलमानों से जोर जबरदस्ती करके भले ही वोटों का इजाफा हो जायेगा। लेकिन जनजातियों को छेड़ोगे तो मणिपुर की जैसी स्थिति पैदा हो जायेगी। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार देश में जनजातियों की जनसंख्या 10.4 करोड़ थी। इसी प्रकार मुस्लिम आबादी 17.22 करोड़ थी।

(जयसिंह रावत वरिष्ठ पत्रकार हैं और उत्तराखंड में रहते हैं।)

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