स्त्री-पुरुष-दोनों को है एक घर की तलाश

स्त्री की वर्तमान दशा पर तरह-तरह की चिंता की जा रही है। मुसीबत यह है कि चिंता का क्षेत्र बौद्धिक जगत के दायरे से बाहर नहीं निकल पा रहा है। सामाजिक अत्याचार के खिलाफ सामाजिक संवेदनशीलता में भारी गिरावट लक्षित की जा सकती है। अत्याचार और भेद-भाव से समाज में अदृश्य सामाजिक असंतुलन बन रहा है। इस असंतुलन का बहुत बड़ा दुष्प्रभाव बच्चों पर पड़ रहा है। बच्चों की बात उठते ही सहज रूप से ध्यान परिवार की तरफ जाता है।

स्त्री विमर्श के संदर्भ में परिवार की संरचना और संबंधों पर अनिवार्य रूप से विचार करना होगा। परिवार और पारिवारिक रिश्तों के मूल में होता है विवाह पद्धति और वैवाहिक संबंधों में आंतरिक सामंजस्य। स्वास्थ्य परिसेवाओं की उपलब्धता, गुणवत्ता और स्वास्थ्य सुरक्षा की स्थितियों पर भी ध्यान दिया जाना जरूरी है। स्वास्थ्य सुरक्षा में सिर्फ चिकित्सा का ही नहीं, बचाव और पोषण का भी मामला शामिल है। जब स्वास्थ्य का संदर्भ आता है तो इसके केंद्र में सारा ध्यान शारीरिक स्वास्थ्य पर सिमट जाता है। मानसिक स्वास्थ्य का सवाल उपेक्षित रह जाता है। महिलाओं पर हो रहे तरह-तरह के अत्याचार और भावाघात की घटनाओं पर भी विचार आवश्यक हो जाता है।

पढ़े-लिखे लोगों और अकादमिक जगत में स्त्री की स्थिति पर तरह-तरह से चिंता व्यक्त की जाती रही है। इसके बावजूद, सामाजिक सच्चाई यही है कि समाज में पुरुष वर्चस्व के बने रहने के कारण स्वतंत्र स्त्री की सामाजिक दशा में कोई खास अंतर नहीं आया है। बल्कि, पहले से अधिक बिगड़ ही गई है। मर्दवाद के महिमा मंडन का ऐसे सूक्ष्म प्रभाव पड़ रहे हैं, उन्हें विश्लेषणों और निष्कर्षों के दायरे में लाना भी मुश्किल है। यह भी सच है कि भारत के सभी इलाकों, या सभी समुदायों में स्त्री की सामाजिक दशा एक ही जैसी नहीं है। ध्यान में तो यह भी रहना ही चाहिए कि आज के दौर में स्त्री जीवन न तो अपने किसी एक इलाके में सीमित है और न ही समुदाय में।

जयशंकर प्रसाद के महाकाव्य ‘कामायनी’ की कुछ काव्योक्तियों की काफी तीखी आलोचना होती रही है। लेकिन ये आईने की आलोचना की तरह है, आईने में दिख रही अस्वीकार्यता को समझने, महसूस करने और बाहर निकलने की प्रेरणा नहीं बन सकी। खैर, उन काव्योक्तियों में से एक  है-‘आंसू से भीगे अंचल पर मन का सब कुछ रखना होगा, तुमको अपनी स्मित रेखा से यह संधिपत्र लिखना होगा।’ (जयशंकर प्रसाद : कामायनी : लज्जा सर्ग) सभ्यता विकास में विभिन्न नाम-रूप धरकर शुभ-अशुभ का द्वंद्व हमेशा जारी रहा है। इस द्वंद्व में पलड़ा किसी तरफ झुके, स्त्री की दशा में कोई वास्तविक बदलाव होता दिखा नहीं अब तक, ऐसा मानना निराशाजनक लग सकता है। इस निराशा को तोड़ते हुए यह आशा बनाये रखनी होगी कि ऐसी स्थिति आयेगी कि ‘अंचल’ आंसू से भीगेगा नहीं, मन का कुछ हिस्सा स्त्री अपने लिए भी बचाकर रख सकेगी, ‘स्मित रेखा’ से ‘संधिपत्र’ लिखने की विवशता से मुक्ति और ‘प्रेमपत्र’ लिखने की स्वतंत्रता हासिल होगी।

अभी की स्थिति में घटी घटनाओं का ब्योरा यहां देने से जानबूझकर बचने की कोशिश करना उचित है। वैसे तो सामान्य अपराधों की घटनाओं में बहु तेज बढ़त दर्ज की जा रही है। स्त्रियों, दलितों, आदिवासियों, परप्रांतियों के प्रति अत्याचार और अपराध की घटनाओं में इतनी बढ़त हो गई है कि उन्हें अलग-अलग संवर्गों में रखकर विचार किया जाना जरूरी है। इन अपराधों में स्त्री के प्रति होनेवाले अपराध सबसे अलग हैं। ऐसा इसलिए कि दलित आदिवासी ‘अत्याचारियों’ के वास-स्थान से अलग इलाके में रहते हैं, दलित ‘अत्याचारियों’ से के वास-स्थान के पास अलग टोलों में रहते हैं, जबकि स्त्री ‘अत्याचारियों’ के घर रहती हैं! स्त्री पर किये जानेवाले अत्याचारों, तथाकथित ‘सांस्कृतिक परंपराओं’, आपराधिक मनोवृत्तियों  और रोज-ब-रोज हो रहे अपराधों की गिनती की जाये तो पूरा समाज ही अपराधी ठहरने लगेगा। और इस अपराध में पुरुष ही नहीं स्त्री भी शामिल मिलेंगी।  

पहले तो यह स्वीकार कर लेना होगा कि पूरी दुनिया में कहीं भी, किसी भी तरह का बड़े स्तर पर अत्याचार हो उसका कहर सबसे बुरे अर्थ में स्त्री पर ही टूटता है। कहा जाता है-स्त्री इस सभ्यता का अंतिम उपनिवेश है। सारे धर्म शास्त्र ऐसे प्रसंगों, ऐसी उक्तियों से अटे पड़े हैं, जिन्हें स्त्री गरिमा के उपयुक्त नहीं माना जा सकता है। कहीं कोई बात स्त्री के पक्ष में है भी तो, वह प्रभावकारी या मुख्य बात नहीं है। ऐसा है तो, क्यों है? पड़ताल करनी चाहिए। स्त्री-स्थिति पर बहुत सारे विद्वानों ने विचार किया है। साथ-साथ उन्हें  याद करते चलना जरूरी है। महिलाओं पर होनेवाली हिंसा बड़ी है, कौन छोटी है, यह कहना और विचार करना भी बहुत काम का नहीं है। बात कहीं से तो, शुरू करनी होगी। घर की तलाश से शुरू करते हैं।

घरेलू हिंसा के पार घर की तलाश

यह पढ़ते हुए आपका मन उदास हो सकता है। यह सब लिखते हुए मेरा भी मन उदास है। मगर, मुझे तो, लिखना ही होगा। खैर, घर कहां है! हम सांस्कृतिक और पारंपरिक दृष्टि से सोचें, अपने अनुभवों को याद करें। घर हो तो, घरेलू हो! असल बात है कि स्त्री के पास कोई घर नहीं है। घर नहीं है, घरेलू हिंसा है! घर नहीं है, लेकिन घरैतिन कही जाती है! है न, अद्भुत बात। विवाह के बाद लड़की जिस घर से विदा होती है, वह घर किसका होता है-अपना! भाई का! मां का! पिता का! दादा का! दादी का! किस का!

पिता का यानी पितृवंश का होता है, मातृवंश का नहीं। वह भविष्य में कभी पिता के घर नहीं लौटती हैं। जहां लौटती हैं, उसे मायका कहा जाता है। विदा होते समय घर पिता का था। उसके बाद पिता के घर में उसके लिए कोई जगह नहीं होती है, जगह मायका में होती है। इसलिए वह वहां लौटती हैं। मां, बेटी दोनों रोती हैं। यह रोना अब परंपरा है। इस परंपरा के बनने के पहले वह भय था। भय कि मायका में मां का तो, कुछ है ही नहीं! वह विदा होकर कहां जाती है? पति के घर, श्वसुर के घर। ससुराल जाती है। पता नहीं, श्वसुर शब्द की व्युत्पत्ति व्याकरण क्या बताये!

आजकल हर प्रसंग में किसी-न-किसी तरह से मिथ को सामने कर देने का रिवाज बन रहा है। सांस्कृतिक संदर्भ के लिए मिथ का इस्तेमाल करें तो उमा खुद ‘शक्ति स्वरूपा’ बताई जाती है, ऐसी कि जिसके बिना शिव अपने-आप में ‘शव’ से अधिक कुछ नहीं होता है। विवाह के बाद, उमा को विदा करते हुए मां ने उमा को आंसू भरी आंखों से सीख दी, ‘सुंदर सीख’! सीख यह कि सदा अपने पति शंकर की पद पूजा करना, नारी का पति के अलावा कोई धर्म नहीं होता है! दुखद है, मगर सच है, ‘कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहुं सुखु नाहीं।।’ (तुलसीदास : रामचरितमानस : बालकांड)

नारी की यह दशा क्यों और कैसे हुई? वह पराधीन कैसे हो गई! किस की अधीनता है! यदि वह पराधीन है तो घर क्या उसके लिए कारा है! क्या विवाह के बाद वह कारावास में पड़ जाती है! हां या ना जो भी कहना हो दबे स्वर में ही कहना होगा क्योंकि सीधा और सरल जवाब देना मुश्किल है। शायद इसीलिए, ई.वी. रामासामी जिन्हें 1938 में प्रगतिशील महिला संघ (प्रोग्रेसिव वूमेंस एसोसियेशन) ने पेरियार, अर्थात महान होने का सम्मान दिया था। यह इतना लोकप्रिय हुआ कि उनके नाम के साथ सदा के लिए जुड़ गया; सम्मान का संबोधन बन जाना किसी भी व्यक्ति के लिए बड़ी बात होती है। स्त्री, दलित या धार्मिक परंपराओं में निहित वंचनाओं को दूर किये जाने के संदर्भ में उन्हें याद करना लाजिमी है।

ई.वी. रामासामी पेरियार ने तो विवाह संस्था को आपराधिक तक घोषित कर दिया था। (स्त्रियों को गुलाम क्यों बनाया गया: ई.वी. रामासामी पेरियार: स्त्री विमर्श/सामाजिक न्याय – ओमप्रकाश कश्यप :हिंदी संस्करण)‎ घर में विवाहित स्त्री की पराधीनता का लक्षण है कि उसकी अपनी पहचान खो जाती है और उसका अस्तित्व सिर्फ रिश्तेदारी के नामों ‘अमुक की पत्नी या मां, बहू आदि) में बची रह पाती है!

स्त्री के लिए अपनी पहचान, अपने स्वत्व का सवाल सदैव महत्त्वपूर्ण रहा है, एक प्रसंग यशपाल के उपन्यास ‘दिव्या’ से, “कुछ क्षण मौन रह कर दिव्या फिर बोली—“ज्ञानी आर्य, जिसने अपना स्वत्व ही त्याग दिया, वह क्या पा सकेगी? आचार्य दासी को क्षमा करें। दासी हीन होकर भी आत्मनिर्भर रहेगी। स्वत्वहीन होकर वह जीवित नहीं रहेगी!” आचार्य अपनी असीम क्षमता में असमर्थ अनुभव कर दिव्या की कठिन मूर्ति की ओर विवश दृष्टि किये मौन बैठे रहे। आचार्य मौन बैठे थे, उस समय आचार्य के आसन के समीप आकर भिक्षु ने पुकारा—“आर्ये तथागत का सेवक भिक्षु पृथुसेन समाज से प्रताड़ित नारी को तथागत की शरण ग्रहण कराने के लिये उपस्थित है।” (यशपाल : दिव्या : उपन्यास)

अब सवाल उठता है कि क्या आज स्थिति में कोई खास परिवर्तन हुआ है? मेरा दुखद अनुभव तो यही है कि समाज के व्यापक क्षेत्र में आज भी नारी की ‘पराधीनता’ में कोई गुणात्मक अंतर नहीं आया है। परिवार में हमेशा शक्ति संतुलन का संघर्ष चलता रहता, रस्साकशी चलती रहती है, पढ़े-लिखे लोगों के परिवार में भी यह सब होता रहता है; क्या इसे ही संस्कार कहते हैं! आज-कल संस्कारों के पालन, अनुसरण के लिए समाज के बड़े इलाके में ‘पवित्र दबाव’ पर जोर बढ़ रहा है!

इस तरह के ‘पवित्र दबाव’ बनानेवालों के बारे में महिला क्या सोचती हैं? महिलाएं अपनी सोच को किस तरह अभिव्यक्त करती हैं? इन सवालों का कोई सीधा-सरल उत्तर मेरे पास नहीं है। वैसे सुना है देश में लोकतंत्र है और महिला मतदाताओं का मत ही सत्ता का भरोसेमंद औजार बन गया है। यह सब गहरे सामाजिक विश्लेषण और निर्मम आत्मावलोकन का विषय है। कोई पारंगत ही इस काम को कर सकता है।

बता सकता है कि ‘लाडली बहनें’ मतदान का मन बनाते समय स्त्री पर होनेवाले भांति-भांति के दुर्व्यवहारों और अत्याचारों की रोक-थाम के लिए सत्ता के उत्तुंग शिखर पर बैठे ‘लाडले भाई’ क्या नजरिया रखते हैं! ओलंपिक पदक जीतकर देश का नाम रोशन करनेवाली उनकी बहन-बेटियों को भी पुरुष अत्याचार झेलना पड़ता है तो ‘लाडले भाई’ के खामोश तथा निष्क्रिय रह जाने पर जरा भी नहीं सोचती हैं! हाथरस से लेकर बनारस तक, यहां से लेकर वहां तक कोई जगह नहीं है, त्रेता से लेकर कलियुग तक ऐसा कोई समय नहीं है  जो स्त्री पर अत्याचार के मामले में अपवाद हो।

कारण दूसरे भी हैं, लेकिन भारत के बड़े भाग में घरेलू हिंसा को जानना हो तो, दहेज को जानना होगा। सामंती युग में युद्ध में जीतने के बाद विजेता सैनिक वहां से स्त्री और धन को साथ लाता था। यही धन दहेज है। दहेज लेनेवाले नहीं जानते, वे क्या ले रहे हैं। दहेज देने वाले नहीं जानते, वे क्या दे रहे हैं। लेने वाले, लोभ से फुलाई गयी जरूरत को जानते हैं। देनेवाले, अपनी वर्धित क्षमता को जानते हैं। दोनों अपनी-अपनी हैसियत को ऐसे समय में सामान्य से कुछ अधिक ही जानते हैं। दोनों के पास अपने-अपने तर्क होते हैं। वर और कन्या के मन को कोई नहीं जानता।

पैतृक संपत्ति में लड़की के हक का उलझा सवाल अपनी जगह है। यह नहीं समझना चाहिए कि दहेज का कोई संबंध पैतृक संपत्ति में हिस्सेदारी के सवाल से है। पैतृक संपत्ति का उत्तराधिकार पुत्र को मिलता है। पैतृक उत्तरदायित्व भी पुत्र को वहन करना पड़ता है। मातृक संपत्ति, यदि हो तो, का उत्तराधिकार और उत्तरदायित्व से पुत्री का क्या संबंध होता है! सवाल जटिल है।

ध्यान में रखना होगा कि उत्तराधिकार और उत्तरदायित्व दोनों साथ-साथ चलते हैं। नये-नये कानून बन रहे हैं। इसकी अंतर्निहित जटिलताओं और अंतर्विरोधों पर कानून बनानेवाले जरूर सोच रहे होंगे। इनका समाधान भी निकाल लेंगे, ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए; हम सांस्कृतिक और सामाजिक परंपराओं को समझने की कोशिश कर सकते हैं। कानूनी अपेक्षाओं को सांस्कृतिक और सामाजिक समर्थन से ही अपेक्षित सफलता मिल सकती है। फिलहाल, यहां सांस्कृतिक और सामाजिक परंपराओं की जड़ों की तलाश है। जड़ों की इस तलाश में पितृवंश परंपरा और मातृवंश परंपरा को समझने तथा पितृसत्तात्मकता और मातृसत्तात्मकता के पन्नों को भी पलटने की जरूरत होगी।

मातृवंश परंपरा और पितृवंश परंपरा

ऐसा माना जाता है कि मां सत्य है और पिता विश्वास। जब तक समाज मातृसत्तात्मकता से संचालित रहा  समाज का नैतिक आधार सत्य रहा। जब समाज के संचालन में पितृसत्तात्मकता का वर्चस्व बढ़ा  समाज का नैतिक आधार विश्वास बन गया। सत्य के निर्णय में मां की भूमिका प्रमुख रही। सत्य से जुड़ी नैतिकता सभ्यता का महिला प्रसंग है। सवाल उठता है-कौन-सा सत्य, कैसा सत्य है, जिसे सिर्फ मां जानती है, महिला जानती है! सत्य की खोज में बड़े-बड़े ऋषि-मुनि-दार्शनिक, सत्यान्वेषी लगे रहे, जीवन लगा दिया और पा न सके वह सत्य मां, महिला मन में निवास करता है। इसी सत्य में मां की महिमा का सदावास है। यही सत्य महिला की गरिमा है। इसी महिमा-गरिमा में वह शक्ति है कि ‘छछिया भर छाछ पै’ वे ऋषि-मुनि-दार्शनिक, सत्यान्वेषी सभी को नाच नचाती हैं; सभ्यता को रसखान की याद तो, होगी न! आगे बढ़ें इसके पहले महात्मा बुद्ध को याद करें। बुद्ध ने कहा-दुख का कारण जन्म है।

भारत के हिंदू मतावलंबी जन्म और पुनर्जन्म के पुनर्भवचक्र से मुक्ति को मोक्ष मानता है। जन्म है तो, जीवन है। जीवन सत्य है। जन्म सत्य है। जन्म के सत्य से ही अन्य सारे सत्य अपना प्राण पाते हैं। जन्म के सत्य को सिर्फ मां जानती है। मां के साथ रहकर बच्चे के जन्म के समय उसकी परिचर्या करनेवाली महिला जानती है, अब उस समय सहयोगी पुरुष भी जानते हैं। बच्चे के जन्म के समय सहयोगी स्त्री-पुरुष यह सत्य जानते हैं कि उस बच्चे की मां कौन है। बच्चे का पिता कौन है, यह सत्य सिर्फ मां जानती है। जन्म सत्य को मां जानती है, इसलिए जीवन सत्य को भी मां जानती है। समाज के संचालन में जब तक मातृसत्तात्मकता कायम रही जीवन सत्य और जगत सत्य में ताल-मेल बना रहा। मातृसत्तात्मकता टूटी कैसे, क्यों!

जन्म के रहस्य को पहले स्त्री-पुरुष में से कोई नहीं जानता था। जन्म में स्त्री-पुरुष एक दूसरे की भूमिका नहीं जानता था। बच्चा माँ के गर्भ से जन्म लेता है, या प्रकट होता है! जब इस सत्य का पता चला कि बच्चा स्त्री (मां) के पेट (गर्भ) से निकलता है। तब भी बच्चा के स्त्री (मां) के पेट (गर्भ) में पहुंचने की प्रविधि क्या है? क्षिति-जल-पावक-गगन-समीर में से कोई या सभी सम्मिलित रूप में प्रकट होता है? इस ‘अधम शरीर’ को इन्हीं ‘पवित्र तत्त्वों’ से रचित माना गया। कितना भयानक है यह माना कि ‘पवित्रताएं’  मिलकर ‘अधमता’ को आकार और आयाम देती हैं!

बहरहाल, भिन्न-भिन्न तरीके से इन मान्यताओं का उल्लेख दुनिया भर के पुराने साहित्य में मिलता है। भारत में, भगवान का अवतरण होता है, वे प्रकट होते हैं। उनकी शक्ति को किसी-न-किसी प्राकृतिक शक्ति-पवन, सूर्य आदि से जोड़कर देखा जाता रहा है। किस ने जोड़कर देखना शुरू किया! पुरुषों ने। स्त्री खामोश रही। इसलिए, बच्चे के जन्म के समय के कुछ दिन पहले से स्त्री को सहयोगी स्त्रियां गुप्त स्थान पर छिपाकर रखती थी। बच्चे के जन्म के बाद भी कुछ दिनों तक जच्चा-बच्चा को छिपाकर ही रखा जाता था-छठिहार, सत्तैसा आदि का रिवाज आज भी उसी लुका-छिपी का घिसा रूप प्रतीत होता है।

स्त्री के जानने के बाद कुछ दिन नहीं, कुछ साल, कुछ सदी के बाद पुरुष को पता चला। पुरुष को यह पता चल गया कि बच्चा के जन्म में उसकी भी कोई भूमिका है। यह एक बड़ा रहस्य था। अब यह खुल चुका था। ऐसा लगता है, सभी पुरुषों के सामने यह रहस्य एक साथ न खुला होगा। इस भूमिका की जानकारी के बाद बच्चा का उत्तरदायित्व, स्वामित्व (अभिभावकत्व) पाने के लिए पुरुष का मन मचलने लगा होगा। उत्तरदायित्व, स्वामित्व (अभिभावकत्व) पाने के रास्ते में मुश्किलें अभी बहुत थी। कैसी मुश्किलें!

बच्चा के जन्म में पुरुष जाति की भूमिका सुनिश्चित हो जाने के बाद भी यह पता लगना मुश्किल था कि किस बच्चा के जन्म में किस पुरुष की भूमिका है। अब तो, पुरुषों में बड़ा घमासान मचा! स्त्री को सत्य का पता होता था। पता होता था, प्रमाण नहीं। बहुल संसर्ग के कारण सत्य और अधिक जटिलताओं एवं अंतर्विरोधों में फंसकर रह जाता था। ताकतवर पुरुष अपने कबीले के सभी बच्चों के जन्म में अपनी भूमिका का दावा करता था। ताकत के बल पर अपना दावा मनवा भी लेता होगा। ताकतवर ही राजा होता था। इस प्रकार सभी लोग राजा को पिता की तरह और राजा सभी को संतान की तरह मानने की स्थिति में आ गया। राजा नरेश हो गया, प्रतिपालक  बन गया। लेकिन इससे पुरुषों के बीच संघर्ष रुका नहीं। परोक्ष रूप से स्त्री भी इस संघर्ष में बराबर शामिल रही है।

मनुष्य के मन में राग-अनुराग का नैसर्गिक भाव उत्पन्न हुआ। नैसर्गिक राग-अनुराग का आधार बच्चा बना। इस तरह से माँ ने बच्चा के लिए पिता के सहारे की जरूरत को महसूस किया। पिता अपने पिता होने के सत्य को नहीं जानता था। लेकिन पिता ने अपने पिता होने पर विश्वास किया। यहाँ से सत्य से अधिक महत्त्व विश्वास का हो गया। इस तरह मातृसत्तात्मकता का दौर धीरे-धीरे पितृसत्तात्मकता के दौर में बदलने लगा। संघर्ष विराम के लिए विवाह प्रथा का जन्म हुआ।

इस तरह से स्त्री-पुरुष संबंध और स्त्री की सामाजिक एवं पारंपरिक स्थिति को समझने में विवाह संस्था को समझना जरूरी है; यह इसलिए भी जरूरी है कि विवाह प्रथा की जरूरत पुरुष को ज्यादा थी। कई कारण हैं, इन पर आगे संभव हुआ तो यथा-प्रसंग उल्लेख आयेगा। अभी तो इतना है कि पुरुष अपने विश्वास के लिए सत्य का सामाजिक आधार चाहता था। स्त्री विमर्श के ही नहीं सभ्यता विमर्श के संदर्भ में भी, संतान के जन्म का सवाल अधिक महत्त्वपूर्ण है। बंबई (अब मुंबई) विधान सभा में डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के अंग्रेजी में दिये भाषण के एक अंश का भावानुवाद ध्यान देने योग्य है-‘अगर पुरुषों को प्रसव पीड़ा झेलनी तो, कोई भी एक से अधिक बच्चा को जन्म देने के लिए तैयार नहीं होगा।’ (Shashi Tharoor : Ambedkar A Life : Desai, ‘Feminist battles within the home’‎)

विश्वास से जुड़ी नैतिकता सभ्यता का पुरुष प्रसंग है। नैतिकता में सत्य से अधिक विश्वास का बोलबाला बढ़ा। सत्य आधारित नैतिकता और विश्वास आधारित नैतिकता में अंतर होता है। सत्य आधारित नैतिकता दार्शनिकों के चिंतन-मनन के लिए अधिक आकर्षक होता है। विश्वास आधारित नैतिकता पारंपरिक समाज के लिए अधिक व्यावहारिक होता है। राज्य के लिए न सत्य और न विश्वास मतलब की चीज है। विडंबना यह कि राज्याश्रित आधुनिक आबादी के लिए न सत्य आधारित नैतिकता उतनी उपयोगी है, न विश्वास आधारित नैतिकता उतनी व्यावहारिक है। इस राज्याश्रित आबादी के लिए नैतिकता नहीं वैधानिकता अधिक मायने रखती है।

वैवाहिक नैतिकता के संदर्भ में यह मानना चाहिए कि धार्मिक रीति-रिवाजों का लक्ष्य स्त्री को कारावासी की पटकथा लिखने के अलावा कुछ नहीं है! रीति-रिवाजों  की परंपराओं से हुलसित हुए बिना विवाह और तलाक के कानूनों की व्यापकता तथा उसकी सामाजिक स्वीकार्यता की गहनता पर अधिक सूक्ष्मता से गौर करने की जरूरत है। रीति-रिवाजों की पारंपरिक रूढ़ियों से मुक्त नई रीति की ‘अर्जक विवाह पद्धति’ भी एक बेहतर विकल्प हो सकती है। कोई भी स्थिति तभी न्याय-निष्ठ मानी जा सकती है, जब वह नकारात्मक  लैंगिक भेद-भाव से पूरी तरह मुक्त हो।

अर्थात, ऐसी पारिवारिक परिस्थिति जो लैंगिक विशेषाघिकारों एवं पूर्वाग्रहों के दुष्प्रभावों की आशंकाओं से रहित हो और जिसमें किसी भी आधार पर वर्चस्व की आकांक्षा नियंत्रण में रहे जरूरी है। पारिवारिक रिश्तेदारियों, नातेदारियों  की पवित्रताओं में शांति के आनंद पक्ष के बने रहने के लिए वर्चस्व के किसी भी संस्करण से बचे रहने का संस्कार जरूरी है। परिवार में वर्चस्व के चलते परिवार में बच्चों की मानसिकता और बूढ़ों की जीवन-चर्या तो खराब असर पड़ता ही रहता है, परिवार के अन्य सदस्य भी दुष्प्रभाव से अछूता नहीं रहता है। कोई भी सदस्य मर्दानगी की महिमा’ में छिपी क्रूरता, वीरता, आक्रामकता आदि को दूर किये बिना ‘स्त्रीत्व की  गरिमा’ में कोमलता, करुणा, सहिष्णुता आदि की तलाश करनेवाले स्त्री-पुरुषमन में अवस्थित संस्कार-निष्ठ छल या अज्ञान को समझना चाहिए।  

दिमाग के किसी कोने में यह बात संस्कार बनकर जमी हुई है कि स्त्री का पुरुष के बिना जीवित रहना मुश्किल है। जबकि जरूरत इस सच को दिमाग में बनाये रखने की है कि स्त्री-पुरुष दोनों के साथ के बिना, क्या पुरुष, क्या स्त्री किसी का जन्म ही नहीं हो सकता है। जब जन्म दोनों के साथ से ही संभव है तो ‘जीवित रहना’ भी दोनों के हर तरह से साथ रहने से ही संभव है।

यह बात समझनी होगी कि स्त्री जीवन में समान व्यवहार के सवाल को समझना, उसका निश्च्छल जवाब तलाशना सिर्फ स्त्रियों के लिए जरूरी नहीं है, बल्कि सभ्यता में सम्यक संतुलन के साथ ही मानव जीवन की रमणीयता तथा घर की रहनीयता के लिए भी जरूरी है। है। मर्दानगी की महिमा’ में छिपी क्रूरता, वीरता, आक्रामकता आदि को दूर किये बिना ‘स्त्रीत्व की  गरिमा’ में कोमलता, करुणा, सहिष्णुता आदि की तलाश करनेवाले लोगों को स्त्री-पुरुषमन में अवस्थित संस्कार-निष्ठ छल या अज्ञान को भीतर से समझना चाहिए-स्त्री-पुरुष दोनों को है घर की तलाश। 

आलीशान मकानों में रहनेवाले लोगों को भी चाहिए घर! बेरोजगारी, गरीबी, महंगाई, लाचारी, हारी-बीमारी आदि से जूझते लोगों को भी चाहिए घर! घर जिसके अंदर किसी भी प्रकार के अहं का मलवा न हो, हाँ बीच में उदासी को तोड़नेवाली मीठी-मीठी नोक-झोंक हो जिसे मुस्कान समेट कर ले जाये। ऐसा घर, जहां मन का कुछ हिस्सा स्त्री अपने लिए भी बचाकर रख सके, ‘स्मित रेखा’ से ‘संधिपत्र’ लिखने की विवशता से मुक्त और ‘घर की विश्व-व्यवस्था में प्रेमपत्र’ लिखने की स्वतंत्रता हासिल हो। किसे नहीं चाहिए! जी हां, कमरे चाहे जितने हों, स्त्री-पुरुष दोनों को चाहिए-बस एक घर!

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments