बदनीयती से भरा है अरुंधति रॉय के खिलाफ 13 साल पुराने मामले को खोलना

लेखिका व एक्टिविस्ट अरुंधति रॉय और कश्मीर के एक शिक्षाविद के खिलाफ 2010 के एक आपराधिक मामले को दोबारा खोला जाना बदनीयती से भरा लगता है। दिल्ली के उप-राज्यपाल वीके सक्सेना द्वारा राय और कश्मीर विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर शेख शौकत हुसैन पर मुकदमा चलाने की मंजूरी दिये जाने की कोई अन्य वजह नहीं हो सकती। वर्षों पहले, 21 अक्टूबर 2010 को, दिल्ली में कथित विभाजनकारी भाषण देने और राष्ट्रीय एकता को नुकसान पहुंचाने वाले आरोप लगाने के लिए यह मुकदमा चलेगा। न्यूज़क्लिक के प्रधान संपादक प्रबीर पुरकायस्थ की आतंकवाद-विरोधी कानून और अन्य दंडात्मक प्रावधानों के तहत हालिया गिरफ्तारी के बाद, 13 साल पुराने मामले को दोबारा खोलना सरकार की असहिष्णुता की चुगली करता है। और, यह सिविल सोसाइटी से जुड़े राज्य-के-विरोधी समझे जाने वाले लोगों और मुखर आलोचकों के खिलाफ बदले की भावना के पैटर्न का अनुसरण करता है। 

अहम बात यह है कि दिल्ली पुलिस को उस वक्त ये भाषण राजद्रोह का मुकदमा चलाने लायक नहीं लगे थे, जिसकी मांग एक शिकायतकर्ता ने एक मजिस्ट्रेट कोर्ट में शिकायत वाद के जरिए की थी। हालांकि, मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट ने पुलिस की राय खारिज कर दी और 27 नवंबर 2010 को, प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) दर्ज करने का निर्देश दिया। पुलिस ने आदेश का अनुपालन किया और राजद्रोह, विभिन्न समूहों के बीच शत्रुता को बढ़ावा देने वाले बयानों, राष्ट्रीय अखंडता को नुकसान पहुंचाने वाले आरोपों और सार्वजनिक गड़बड़ी पैदा करने वाले बयानों से जुड़ी, भारतीय दंड संहिता की धाराओं को लगाया। एफआईआर में गैरकानूनी गतिविधियां (निवारक) अधिनियम (यूएपीए) की धारा 13 भी शामिल की गयी, जो‘गैरकानूनी गतिविधियों’ को दंडित करने का प्रावधान करती है।

यह मालूम है कि तत्कालीन सरकार ‘आज़ादी : द ओनली वे’ शीर्षक से आयोजित सम्मेलन में की गयी टिप्पणियों के खिलाफ कोई मामला आगे बढ़ाना नहीं चाहती थी, क्योंकि वह तीन मध्यस्थों के जरिए कश्मीर मुद्दे का राजनीतिक समाधान खोजने की चल रही कोशिश को नुकसान पहुंचाना नहीं चाहती थी। तब से लेकर अब तक कश्मीर में बहुत कुछ बदल गया है, जिसमें निर्वाचित शासन का एक दौर और फिर जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे का समापन और उसका दो केंद्र शासित क्षेत्रों में विभाजन शामिल है। 

ऐसे में, पुराने राजनीतिक भाषणों को अब आपराधिक बनाने का कोई मतलब समझ में नहीं आता। उप-राज्यपाल ने अन्य अपराधों के लिए मुकदमे की मंजूरी दी है, मगर राजद्रोह के लिए नहीं, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह के आरोपों से जुड़ी कार्यवाही पर रोक लगा रखी है। यह साफ नहीं है कि क्या पुलिस यूएपीए के आरोप को भी बनाये रखेगी, क्योंकि इस कानून की धारा 45 केंद्र सरकार की मंजूरी को जरूरी बनाती है, और इससे जुड़े नियम मंजूरी हासिल करने के लिए कड़ी समयसीमा तय करते हैं। 

यह अवश्य जांचा जाना चाहिए कि क्या समयसीमा (लिमिटेशन) मुकदमा चलाने से रोकती है। दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) के तहत, तीन साल तक जेल की सजा वाले अपराधों के लिए समयसीमा तीन साल है। जिन तीन धाराओं – 153ए, 153बी और 505 के लिए मंजूरी दी गयी है, उनके तहत तीन साल की जेल का प्रावधान है। सीआरपीसी, समयसीमा की गणना करते समय, मंजूरी की प्रतीक्षा में लगी अवधि को छोड़ने की इजाजत देती है, लेकिन अगर मंजूरी ही लिमिटेशन अवधि बीतने के बाद मांगी गयी हो तो अदालत शायद ही प्रतीक्षा-अवधि को छोड़ने की इजाजत देगी।

(द हिंदू से साभार।)

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments