आज भारतीय समाज में बहुस्तरीय संघर्षों की मुखर अभिव्यक्ति दिख रही है। यह स्थिति आज की नहीं है बल्कि यह सिलसिला कम से कम आज से 5000 वर्ष (हड़प्पा-मोहनजोदड़ो की कांस्य युगीन सभ्यता) पुराना है। लेकिन विभिन्न वर्गों और सामाजिक समूहों की संघर्षों की जटिलता, भारतीय उपमहाद्वीप में निजी संपत्ति के आगमन के साथ पैदा हुआ है और यह काफी पुराना भी नहीं है।
बल्कि यह आज से मात्र (2000/2200, मौर्यकाल का विघटन) साल पुराना है और तब यह अपने शैशव अवस्था में थी। तब से भारतीय समाज के उतरोत्तर विकास के साथ जीवन के सुख-सुविधाओं के विविध आयाम खुले हैं और समाज के विभिन्न वर्गों और सामाजिक समूहों की महत्वाकांक्षाएं बढ़ी हैं। आजादी के बाद भारत सरकार द्वारा जारी जनकल्याणकारी योजनाओं को एक-एक करके जिस रफ़्तार में बंद किया जा रहा है, उसी रफ़्तार में निजी संपत्ति का महत्त्व बढ़ रहा है।
परिणामस्वरूप देश के संसाधनों पर वर्चस्व के लिए समाज के विभिन्न वर्गों और सामाजिक समूहों के बीच संघर्ष लगातार तीखे रूप धारण करते जा रहे हैं। इसके परिणामस्वरूप भारत में फासीवाद की एक नई परिघटना जन्म ले रही है जिसे हिंदू राष्ट्रवाद के रूप में चिन्हित किया जा सकता है।
हिंदू राष्ट्रवाद पूंजीवादी समाज की जातिवादी राष्ट्र की अवधारणा है जिसमें संपत्ति संसाधनों पर द्विज जातियों का वर्चस्व तो कायम रहेगा ही, साथ में उनके अधीनता में शूद्र-अतिशूद्र जातियों के अमीरों को समाहित करने का भी स्पेस बना रहेगा। हिंदू राष्ट्रवाद का थिंकटैंक आरएसएस ने यूं ही नहीं श्रेणीबद्ध ऊंच-नीच में बंटे हुए हिंदू समाज को अल्पसंख्यक वर्ग के खिलाफ संगठित कर लिया है। हिंदू राष्ट्र की अवधारणा भारतीय इतिहास के अवैज्ञानिक इतिहास लेखन से निर्मित हुई है जिसकी प्राचीनतम वैचारिक पूंजी वैदिक सभ्यता की अवधारणा है।
वैदिक सभ्यता की अवधारणा एक औपनिवेशिक अवधारणा है जिससे जाति व्यवस्था के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक ढांचे को बनाए रखने में मदद मिलती है। भारतीय समाज में एक ही साथ दो उत्पादन पद्धतियों और उत्पादन संबंधों का सहअस्तित्व तथा उनके अंतर्विरोध पूरे भारतीय समाज में प्रमुख दो अंतर्विरोध हर जगह मौजूद हैं। एक है वर्ण-जाति का अंतर्विरोध और दूसरा है वर्ग अंतर्विरोध।
भारत में जातियां विशिष्ट उत्पादन पद्धति और उत्पादन संबंधों के कारण पैदा हुई हैं। जिसे मैं वर्ण व्यवस्था का उत्पादन संबंध कहता हूं। इसके कारण समाज में द्विज बनाम शूद्र का अंतर्विरोध हर हमेशा बना हुआ है। दूसरा वर्ग अंतर्विरोध है। इसके कारण जातियों के अंदर अमीरी-गरीबी पैदा हुई है। इस सर्वव्यापी दोहरे अंतर्विरोध के कारण भारतीय समाज काफी जटिल आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक ताने-बाने में गुंथा हुआ है। इस कारण ही भारतीय समाज की बदलाव की प्रक्रिया काफी धीमी है।
वर्गविहीन समाज से वर्ग समाज में संक्रमण काल (यहां मै स्पष्ट कर दूं कि संक्रमण काल की अवधारणा द्वंदात्मक भौतिकवाद को भारतीय इतिहास के प्रागैतिहासिक काल(Pre-Historic) के कांस्य/ताम्र और लौह काल पर लागू करके अपनाई गई है क्योंकि भारतीय उपमहाद्वीप के प्राचीन समाज में पहली असमानता के चिन्ह कांस्य/ताम्र काल से मिलने शुरू हो जाते हैं) दुनिया की सभी प्राचीन समाजों में शुरुआती तीन संक्रमणकालीन वर्गों पुरोहित, योद्धा/सैनिक और उत्पादक वर्गों का जिक्र मिलता है।
भारतीय भू-भाग के उत्पादक वर्ग को विस् जन कहा गया है। यह कालखंड मानव इतिहास में पहली बार बराबरी से गैरबराबरी वाले दौर में प्रवेश करने की सूचना देता है। इस दौर में समाज की आवश्यकताओं के लिए सामाजिक श्रम विभाजन पैदा हुआ। उत्पादन की कार्रवाई और मालिकाना सामूहिक है किन्तु उत्पाद के सामूहिक मालिकाने के बावजूद उत्पाद का उपभोग (वितरण) में असमानता है।
स्वाभाविक रूप से भोज्य पदार्थों और अन्य सुख-सुविधाओं का उपभोग पुरोहित और योद्धा/सैनिक ज्यादा करते होंगे क्योंकि यह उनके विशिष्ट काम के कारण होगा। जिसके कारण सामाजिक असमानता की नींव पड़ी। इस असमानता के कारण ही पुरोहित/योद्धा बनाम विस् का अंतर्विरोध पैदा हुआ। यह अंतर्विरोध संक्रमण काल का प्रधान अंतर्विरोध है। अब हम नीचे वर्ण और जातियों के विकास के बारे में संक्षेप में चर्चा करेंगे फिर समाज विकास के अगले दौर में प्रवेश करेंगे।
वर्ण-जातिव्यवस्था के विकास के दो चरण
प्रथम चरण- प्राचीन भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था का विकास दो चरणों में हुआ है। पहला आदिम साम्यवाद से वर्ग समाज में संक्रमण काल है। यह कालखंड ईसा पूर्व (3000/2500 -182/ईसवी सन् की शुरूआत) हड़प्पा-मोहनजोदड़ो से लेकर मौर्य साम्राज्य के अंत तक फैला हुआ है। इस दौर के उत्पादन संबंध को वर्ण व्यवस्था का उत्पादन संबंध कह सकते हैं। इसकी विशेषता यह है कि उत्पादन सामूहिक है किंतु वितरण (उपभोग) में असमानता है। जिसके कारण सामाजिक गैरबराबरी पैदा हुई। पुरोहित, योद्धा/सैनिक संक्रमणकालीन दौर के विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग हैं और विस् उत्पादन की कार्रवाई में लगी आम जनता है।
संक्रमण काल में यह अंतर्विरोध पुरोहित/योद्धा बनाम विस्या का था। संक्रमण काल में राज्य का एक स्वरूप है, सेना भी है, परिवार के रूप में वंश परंपरा है लेकिन निजी संपत्ति का आगमन नहीं हुआ है। संक्रमण काल के उत्पादन पद्धति में जाति एक सामाजिक संस्था है। जाति नामक यह संस्था उत्पादन के पेशों के नाम पर नहीं हैं क्योंकि उत्पादन सामूहिक है। उस दौर में जाति की सामाजिक संस्था गोत्र और इलाके विशेष के नामों से हैं जिस क्षेत्र विशेष से विभिन्न कबीलों का पहचान जुड़ा हुआ था।
दूसरा चरण- वर्ण और जाति के विकास का दूसरा चरण वर्ग समाज का है। यह कालखंड ईसा पूर्व 182 मौर्य साम्राज्य के विघटन/ईसवी सन से शुरू होता है। हालांकि मौर्य साम्राज्य एक राजशाही नहीं थी बल्कि वह एक गण साम्राज्य था जिसकी उत्पादन पद्धति सामूहिक उत्पादन, उत्पाद पर सामूहिक मालिकाना है किंतु उपभोग में असमानता है।
उत्पादन की कार्रवाई सम्राट के प्रत्यक्ष अधीनता में है। मौर्य गण साम्राज्य के विघटन की सिलसिला लगभग (ईसा पूर्व 182 से 300 ईसवी तक) 500 साल तक जारी रहा है और यह पुरा दौर संक्रमणकालीन आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक संरचना का जातिवादी सामंती समाज में तेजी से संक्रमण का दौर रहा है। वर्ग समाज की पहली आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवस्था सामंती काल है।
सामंती काल में ही पहली बार निजी संपत्ति का आगमन हुआ। निजी संपत्ति के आगमन के साथ एक चौथे सामाजिक समूह का जन्म हुआ जिसे शूद्र कहा गया। इससे पहले न ही शूद्र वर्ण की उपस्थिति है और न ही शूद्र शब्द की। इस परिघटना की ओर विशेष ध्यान देने की जरूरत है कि संक्रमण काल में विशेषाधिकार प्राप्त संक्रमणकालीन वर्गों पुरोहित, योद्धा/सैनिक से विस्या का समाज में पैदा हो रही गैबराबरी को लेकर ही संघर्ष था। निजी संपत्ति आने के साथ समाज में एक और विभाजन हुआ और उत्पादक समूह विस्या की एक बड़ी आबादी निजी संपत्ति रखने के खिलाफ बगावत कर दी जिन्हें शूद्र कहा गया और इन्हें निजी संपत्ति रखने के कानूनी अधिकार से वंचित कर दिया गया। क्योंकि वे असमानता का ही विरोध कर रहे थे।
मनुस्मृति में शूद्रों के प्रति नफरत और हिंसा इसी अंतर्विरोध की अभिव्यक्ति है। विद्वानों का मानना है कि मनुस्मृति की रचना काल दूसरी/तीसरी सदी के आसपास का है। इस परिघटना के साथ ही दो विषमताएं संक्रमण काल की सामाजिक विषमता और वर्ग समाज की आर्थिक विषमता आपस में विलय कर गईं। इससे दोहरी गैरबराबरी ने जन्म लिया। संक्रमण काल की सामाजिक विषमता ने वर्ग समाज में द्विज जातियों को संपत्ति संसाधनों पर वर्चस्व की जमीन मुहैया कराई और वर्ग समाज की आर्थिक विषमता ने जातियों के अंदर अमीरी-गरीबी को जन्म दिया। इस तरह शूद्र जातियों को दोहरी गैरबराबरी ने समाज में और भी पीछे धकेल दिया। निजी संपत्ति आने के साथ संक्रमण काल की सामाजिक संस्था जाति जो गोत्र और स्थान विशेष के नामों से बनी हुईं थीं, एक बार फिर नई जातियों को जन्म दिया। अब जातियां गोत्र और स्थान विशेष के नामों के अलावा पेशे विशेष के रूप में भी जानी जानें लगीं। यह वर्ग समाज में श्रम विभाजन का पहला विस्तार था। समाज में तकनीकी विकास और उत्पादन के नए-नए क्षेत्रों के अस्तित्व में आने के साथ ही जैसे-जैसे श्रम विभाजन बढ़ता गया, नए-नए पेशों के नाम से जातियों का विस्तार होता चला गया।
द्विज जातियों की संपत्ति के पारंपरिक स्रोत-
व्यापार प्राचीन काल से ही विभिन्न सभ्यताओं के बीच होता रहा है। भारतीय लोग मिस्र और मेसोपोटामिया के लोगों से व्यापार करते थे। उस दौर के प्राप्त सिक्के इसके प्रमाण हैं। जाहिर है व्यापार में सामाजिक अधिकार संपन्न वर्णों के लोग की ही इसमें विशेष भूमिका बनेगी और जिससे वे विविध भाषाओं और ज्ञान-विज्ञान की योग्यताओं से लैस होंगे। भूमि अनुदान- ‘भूमि-दान का सबसे प्राचीन पुरालेखीय प्रमाण ईस्वी पूर्व की पहली शताब्दी के एक सातवाहन अभिलेख में मिलता है, जिसमें अश्वमेघ यज्ञ में एक गांव दान करने की चर्चा है। किंतु यहां भी प्रशासनिक अधिकारों की कोई चर्चा नहीं है। मगर विचित्र बात यह है कि अभिलेखों में उस प्रकार का शायद पहला प्रमाण दूसरी शताब्दी में बौद्ध भिक्षुओं को दान किए गए गावों के सिलसिले में मिलता है। यह दान सातवाहन राजा गौतमी पुत्र शातकर्णि ने दिया था। उन भिक्षुओं की दान की गई भूमि में राज-सेना का प्रवेश वर्जित था, राज्याधिकारी वहां के जीवन क्रम में कोई विघ्न-बाधा नहीं डाल सकते थे और न जिला पुलिस के लोग ही उस क्षेत्र में कोई हस्तक्षेप कर सकते थे। पांचवीं शताब्दी में ऐसे अनुदानों की प्रवृति खूब बढ़ी। (संदर्भ- पेज-12, भारतीय सामंतवाद-रामशरण शर्मा, प्रकाशक-राजकमल’)।
इतिहासकार रामशरण शर्मा अपनी इसी किताब में अन्य जगह दर्ज करते हैं कि गुप्त काल के कुछ अभिलेखों से ज्ञात होता है कि धर्म-कर्म में लगे पुरोहितों और पंडितों के अतिरिक्त गृहस्थों को भी अनुदान-स्वरुप गांव दिए जाते थे; किंतु ये लोग उन गावों से होने वाली आय का उपयोग धार्मिक प्रयोजनों के लिए करते थे। सातवाहनों और कुषाणों के अधीन शिल्पियों के संघों को धर्म कार्यों में लगाने के लिए राज्य की ओर से नगद राशियां दी जाती थीं, लेकिन गुप्तों के शासन काल में इसी उद्देश्य से अधिकारियों तथा अन्य लोगों को भूमि-अनुदान दिए जाते थे। (पेज-19,)
उपरोक्त संदर्भों से पता चलता है कि गुप्ता काल में द्विज वर्णों के ब्राह्मणों व प्रशासनिक कार्य में लगे अन्य को भूमि अनुदान व मुद्राएं दी जाती थीं। दूसरा भूमि अनुदान बौद्ध भिक्षुओं और बौद्ध मठों को भी दिएगए हैं जिस पर उभरते राज्य का प्रत्यक्ष कानून लागू नहीं होता था। यह निजी संपत्ति के आगमन के साथ उत्पादक वर्ग का राज्य से अलगाव के तरफ इशारा करता है जिन्हें आगे चलकर शूद्र कहा गया है। यानि शूद्र वर्ण की उपस्थिति गुप्ता काल से पहले नहीं है।
ऋग्वेद के दशवें मंडल में शूद्र वर्ण का जिक्र है। विद्वानों का मानना है कि इसे बाद में जोड़ा गया है लेकिन भाषा विज्ञान के आधार पर भी विद्वानों ने नहीं बताया है कि दशवें मंडल की भाषा किस कालखंड की है। भारतीय इतिहास में पहली बार निजी संपत्ति के अधिकारों से जुड़े दस्तावेजीकरण गुप्ता काल में शुरू हुआ। तब शूद्र वर्ण संपत्ति रखने के अधिकार से वंचित है क्योंकि वह निजी संपत्ति से पैदा हो रही गैरबराबरी के विरोध में है और उभरते राज्य से अलगाव में है तथा संघर्ष और एकता के सूत्र में बंधे हुए हैं। इसी आर्थिक,सामाजिक और सांस्कृतिक ढांचे के साथ भारतीय वर्ग समाज की नींव पड़ी जिसे मुगलों ने इस फेब्रिक को तोड़ने के बजाय जस के तस अपना लिया और शासन-प्रशासन में द्विज वर्णों को वरीयता दी।
अंग्रेजी राज ने इस आर्थिक, सामाजिक संरचना को उसी हद तक बदलने की कोशिश की जिस हद तक पुरे देश को एक सूत्र में पिरोकर इस पर राज किया जा सके। अंग्रेजों ने तो और आगे बढ़कर जातियों के अधिकारों का भी दस्तावेजीकरण कर दिया और जातियां आधुनिक ताने-बाने में एकता और संघर्ष के सूत्र में बंधने लगी।
1947 के आजादी के बाद आर्थिक और सामाजिक असमानता के मद्देनजर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनतातियों के लिए आरक्षण का प्रावधान लाया गया जो शूद्र आबादी का बहुत छोटा हिस्सा था और अस्पृश्यता का शिकार था।
नब्बे के दशक में पहली बार ओबीसी. जातियों को आरक्षण के दायरे में लाया गया। शूद्र जातियों का संपत्ति विहीन होना या देश के संपत्ति संसाधनों में उनकी बहुत कम भागीदारी भारतीय समाज के ऐतिहासिक विकास क्रम के कारण हैं।
इसी ऐतिहासिक विकास के कारण देश के पूंजीपति या अन्य वर्ग परम्परागत रूप से किसी न किसी वर्ण और जाति समूह का हिस्सा हैं। उनके विचार और पक्षधरता पर हर-हमेशा उनके वर्ण और जाति की छाप अनिवार्य रूप से होती ही है। यदि उपरोक्त ऐतिहासिक विकास प्रक्रिया पर ध्यान दिया जाए तो SC, ST और OBC जातियों को उनके जनसंख्या के प्रतिशत के अनुपात में आरक्षण को बढ़ाया जाना चाहिए। जिससे देश के संपत्ति संसाधनों से द्विज जातियों का वर्चस्व टूटेगा और बदलाव की गतिकी को बल मिलेगा।
संदर्भ ग्रंथ-
1.परिवार निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति-फ्रेडरिक एंगेल्स, प्रकाशक- पी.पी.एच
2. दर्शन विषयक पांच निबंध- माओत्से तुंग, प्रकाशक- राहुल फाउंडेशन
3. भारतीय सामंतवाद- रामशरण शर्मा, प्रकाशक- राजकमल
(नन्हेंलाल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
वेरी गुड।