सनातन धर्म पर विवाद: दक्षिण में जोर का झटका, उत्तर में क्या धीरे-धीरे पसरेगा?

सनातन धर्म का नारा पिछले 3-4 वर्षों से सोशल मीडिया और सार्वजनिक बहस में शामिल करा दिया गया था। पिछले कुछ दिनों से हिंदू धर्म और सावरकर के हिंदुत्व को अलग-अलग करके दिखाने का विमर्श भी हिंदी पट्टी के बौद्धिक जगत में शुरू हो गया था। संभवतः इसी वजह से सनातन और सनातनी शब्द को जोरदार तरीके से उछाला गया। और चूंकि इस शब्द को लेकर दिग्भ्रम, विभ्रम की स्थिति लगातार बनी हुई थी, इसलिए बड़ी तेजी से इसने अपनी पहचान स्थापित भी कर ली है।

पिछले कुछ वर्षों से हिंदुत्वादी विचारधारा के अबाध प्रवाह को भोथरा करने में दिल्ली के बॉर्डर्स पर किसानों के जमावड़े और उससे पहले सीएए/एनआरसी के मसले पर भारतीय मुस्लिम परिवारों के धरने-प्रदर्शन के साथ व्यापक पैमाने पर सिखों, दलित-बहुजन समाज के शिक्षित हिस्सों और वाम-लोकतांत्रिक शक्तियों की एकजुटता ने सीमित हद तक अपना असर डाला था।

लेकिन उत्तराखंड के हरिद्वार में आयोजित धर्म-संसद या दिल्ली में भी जंतर-मंतर सहित उत्तरी दिल्ली में 2020 में हुए दंगे, मई माह से जारी मणिपुर हिंसा के बहाने हिंदुत्ववादी शक्तियों के मैतेई हिंदू समुदाय के साथ अंध-एकजुटता का नफरती बुखार और हरियाणा के गैर-सांप्रदायिक चरित्र पर भी नूह-मेवात में जलाभिषेक यात्रा के बहाने हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण की नई इबारत लिख, उत्तर भारत को नए सिरे से खदबदाने का सुनियोजित प्रयास इसके कुछ नमूने मात्र हैं।

गुजरात लेबोरेटरी आज एक स्थापित तथ्य है, जहां 2002 के बाद से मुस्लिम आबादी को मुख्यधारा से लगभग अलग-थलग कर दिया गया है, और उनके घेटोआइजेशन को संस्थाबद्ध कर इस प्रयोग को उत्तर प्रदेश में बिना किसी बड़े सांप्रदायिक दंगों के बावजूद राज्य और धर्म के समेकित प्रयासों से आज ऐसा माहौल बना दिया है गया है, कि इस मरघट शांति को देश के सबसे बेहतर इन्वेस्टर फ्रेंडली राज्य के रूप में बड़ी शान से प्रचारित किया जा रहा है।

मणिपुर प्रयोग तो गुजरात और यूपी से भी दो कदम आगे है, जिसमें राज्य की भूमिका सिर्फ विशेष अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ बल प्रयोग और हिंदू मैतेई समुदाय को खड़ा करने की ही नहीं है, बल्कि देश में पहली बार ऐसा हो रहा है जहां पर राजकीय शस्त्रागारों से हजारों की संख्या में हथियार और गोला-बारूद को सोची-समझी साजिश के तहत लुटाया गया है।

हिंदुत्वादी सनातनी परियोजना का रथ दक्षिण के प्रवेश द्वार कर्नाटक में रोका जा चुका है। यह संघर्ष खत्म नहीं हुआ है, लेकिन निश्चित रूप से इस चुनाव ने भारतीय राजनीति की दशा-दिशा के लिए उन संकेतों की ओर इशारा कर दिया है, जो निकट भविष्य में अनफोल्ड होने जा रही हैं। कांग्रेस पार्टी ने अपने घोषणापत्र में शायद इतिहास में पहली बार हिंदू-मुस्लिम धार्मिक कट्टरता के प्रतीक बजरंग दल और पीएफआई पर प्रतिबंध लगाने की चेतावनी जारी की थी।

हिंदुत्व की विचारधारा की धाक को लेकर भाजपा के सर्वेसर्वा और देश के प्रधानमंत्री ने बजरंग दल को बजरंगबली से जोड़कर जिस आक्रामकता से चुनावी बिगुल फूंका था, कर्नाटक में कांग्रेस और सिद्धारमैया की अहिंदा पॉलिटिक्स और राज्य में भाजपा के 40 प्रतिशत भ्रष्टाचार ने धार्मिक उन्माद के प्रयासों को पूरी तरह से नकार दिया। भारी चुनावी जीत और अहिंदा राजनीति को जमीनी आधार देने के प्रयास, उप-मुख्यमंत्री डी के शिवकुमार के साथ-साथ नए-पुराने कांग्रेसी नेतृत्व की कदम दर कदम नीतियां कर्नाटक कांग्रेस को शेष कांग्रेस से पूरी तरह से अलग छवि पेश कर रही है।

कर्नाटक मॉडल में भाजपा-आरएसएस के शिक्षा मॉडल को नकारने का ही साहस नहीं बल्कि आरएसएस एवं उससे जुड़े संगठनों को पिछली भाजपा सरकार द्वारा भूमि आवंटन को रद्द करने, 5 वायदों को एक-एक कर पूरा करने और राज्य में गरीब, महिला, अल्पसंख्यक समर्थक सरकार साबित करने के प्रयास विपक्षी राज्य सरकारों के लिए जरूरी सबक और भाजपा राज्य सरकारों की नींद उड़ाने के लिए पर्याप्त हैं।

लेकिन इसमें भी कांग्रेस के शीर्ष नेता मल्लिकार्जुन खड़गे के बेटे और मंत्री प्रियांक खड़गे की स्पष्टवादी नो-नॉनसेंस छवि उन्हें सबसे जुदा बना रही है। इस बारे में अभी से कोई ठोस राय बनाना जल्दबाजी होगी, लेकिन इतना स्पष्ट है कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी पिछले एक दशक से भी लंबे समय से अपनी पार्टी के लिए जिस एक्स-फैक्टर की तलाश कर रहे थे, वह आखिरकार उन्हें कन्याकुमारी से कश्मीर की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के दौरान अपनी नई टीम बनाने के साथ पूरी हुई है। दक्षिण से शुरू हुई यह यात्रा यदि उत्तर या पश्चिम से हुई होती, तो क्या टेम्पो बनता या पूरा प्रोजेक्ट ही टायं-टायं फिस्स साबित हो जाता, इस बारे में सहज अनुमान लगाया जा सकता है। लेकिन इस विषय पर आगे बढ़ने से पहले थोड़ा पीछे चलते हैं।

सनातन शब्द के अर्थ (चिरकालिक, परंपरागत, रुढ़िगत, अमर, अक्षय, अघट और प्रथा) पर विचार करें तो इसके मानने वालों के पास भी कोई एक आईडिया ठीक-ठीक नहीं बनता। बस ऐसा आभास होता है कि ऐसा मानने से आपका धर्म चिरकाल की अवस्था को दर्शाता है, जो हिंदू धर्म को विश्व का सबसे प्राचीन लेकिन सबसे समावेशी धर्म साबित कर देता है। लेकिन सनातन यदि अपने भीतर वैदिक, बौद्ध, सांख्य, निर्गुण, सगुण, जैन, चार्वाक सहित आर्य समाज की धारा को समाहित करता है तो इसका सबसे मूर्त रूप तो मनुवाद और उस वर्णाश्रम व्यवस्था में झलकता है, जिसे हजारों वर्षों से अबाध गति से बरकारर रखा गया है।

लेकिन दक्षिण की तुलना यदि उत्तर भारत या गुजरात राज्य से करेंगे तो यह अनुपात गुणात्मक रूप से बदल जाता है। उत्तर प्रदेश में कुछ दिनों पहले ही सुल्तानपुर जिले के एक गांव में एक दलित युवक की सिर्फ इसलिए पीट-पीटकर हत्या कर दी गई, क्योंकि उसने अपनी मेहनत-मजदूरी का भुगतान करने के लिए एक दबंग परिवार से गुहार लगाई थी। लेकिन उत्तर प्रदेश में योगी राज का दावा है कि यहां पर कानून का राज पिछले 7 साल में पूरे देश में सबसे बेहतर है।

हाल ही में बेस्ट सीएम के सर्वेक्षण में किसी न्यूज़ चैनल ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को देश में श्रेष्ठ बताया है। किस आधार पर? यही कि वहां पर कानून का राज चलता है। प्रदेश में नीरव शांति है, जिसका दूसरा अर्थ है प्रदेश में अल्पसंख्यक, दलित और आदिवासी ही नहीं बल्कि ओबीसी समुदाय भी दम साधकर बैठा है।

गुजरात राज्य से भी दलित उत्पीड़न की घटनाओं में कमी आने के बजाय इजाफा ही हो रहा है। लेकिन राजस्थान में दलित उत्पीड़न, बलात्कार और हत्या को लेकर जैसा हो-हल्ला और समाचार पत्रों की सुर्खियां बन जाती हैं, वैसा गुजरात या उत्तर प्रदेश के संदर्भ में क्यों नहीं हो पाता, यह शोध का विषय है। राजस्थान में दमन की घटनाएं हो रही हैं, कांग्रेस की अशोक गहलोत सरकार की ओर से कार्रवाई भी की जाती है, लेकिन उत्तर भारत की कांग्रेस सरकारें मुखरता से डटकर राज्य का प्रशासन चलाने से हिचकती हैं।

यही हिचक या कहें कि पिछड़ों, दलितों और अल्पसंख्यक समाज को साधने के साथ-साथ सवर्ण और सामाजिक रूप से दबंग वर्ग से बिगाड़ के डर से आज भी राजस्थान, मध्य प्रदेश, यूपी और छत्तीसगढ़ ही नहीं बिहार के सामाजिक आंदोलन के अलंबरदार नीतीश बाबू तक भय खाते रहे हैं। यह डर और अवसरवादी राजनीति कांग्रेस पार्टी में 70 के दशक से आज भी जारी है। 80 के दशक की शुरुआत से इसकी पहल खुद एक समय देश की शक्तिशाली और ‘इंडिया इज इंदिरा और इंदिरा इज इंडिया’ जैसे नारों की ईजाद करने वाले चापलूसों से घिरी पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के हाथों हुई थी।

हिंदू और मुस्लिम दोनों प्रकार की सांप्रदायिकता को साधने और बड़ा केक खाने की यही कवायद राजीव गांधी के कार्यकाल में हुई, जिसने कालांतर में कांग्रेस को न घर का, न घाट का बना दिया, और लंबे समय तक हाशिये पर रही आरएसएस/भाजपा के लिए जिसकी विचारधारा को 80 के दशक तक सभ्य समाज में अक्सर हेय और त्याज्य समझा जाता था, के लिए तेजी से जगह बनती चली गई।

कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे की भूमिका

जी-20 सम्मेलन में जहाँ दुनिया भर के राष्ट्राध्यक्षों और 50 देशों के समूह अफ्रीकन यूनियन सहित विदेशी निवेशकों ही नहीं बल्कि 500 भारतीय कॉर्पोरेट जगत के दिग्गजों को भारतीय राष्ट्रपति की ओर से डिनर भोज पर आमंत्रण दिया गया है, उस सूची में मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के नेता और राज्य सभा में प्रतिपक्ष नेता और भारतीय राजनीति में दिग्गज मल्लिकार्जुन खड़गे को निमंत्रित नहीं किये जाने को कांग्रेस सहित INDIA गठबंधन ने आड़े हाथों लिया है।

ऐसा जान पड़ता है कि यह मामला यूँ ही नहीं खत्म होने जा रहा है। अपने यूरोपीय देशों की यात्रा में राहुल गाँधी ने भी ब्रसेल्स में प्रेस वार्ता के दौरान इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाया है। उनके अनुसार मोदी जी ने INDIA गठबंधन को आमंत्रित न कर भारत की 60 प्रतिशत आबादी का प्रतिनिधित्व नहीं होने दिया है। मल्लिकार्जुन खड़गे की सबसे बड़ी यूएसपी उनकी दलित पृष्ठभूमि और बेदाग़ कैरियर को जाता है। ट्रेड यूनियन नेता से अपने कैरियर की शुरुआत करने वाले खड़गे दक्षिण भारत के बजाय उत्तर भारत में एक बड़ा उलटफेर कर सकते हैं।

पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को ओडिशा में मंदिर प्रवेश से मनाही, अयोध्या मंदिर के शिलान्यास में आमंत्रण न देना या मौजूदा राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को भी दिल्ली के हौज खास मंदिर के गर्भ गृह में प्रवेश या नए संसद के उद्घाटन में आमंत्रित न करने की घटनाएं भले ही भाजपा के समर्थन से इस पद पर आसीन होने का सौभाग्य समझा गया हो, लेकिन यह साफ़ साबित करता है कि दलित या आदिवासी राष्ट्रपति, सैकड़ों सांसद और विधायकों की फ़ौज असल में दलित-बहुजन अस्मिता की गारंटी नहीं, वरन बंधक बनाए जाने के नए कुचक्र का आगाज है।

दक्षिण भारत की बहुजन आक्रामकता जिसे जोर के झटके के तौर पर दक्षिणी राज्यों में भाजपा/आरएसएस के लिए देखा जा रहा है, वह उत्तरी भारत में धीरे-धीरे पसर रहा है। मल्लिकार्जुन खड़गे ने इसके लिए प्लान तैयार कर रखा है, ऐसा हाल ही में क्विंट न्यूज़ की एक एक्सक्लूसिव खबर हमें बताती है।

असल मुकाबला मोहन भागवत और मल्लिकार्जुन खड़गे के बीच में

आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत और कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे बड़े ही महीन ढंग से अपने-अपने खेमे की बागडोर संभाले नजर आते हैं। यह अनायास नहीं है कि मोहन भागवत ने हिंदू समाज में जारी 2000 वर्ष के सामाजिक अन्याय का मुद्दा उठा दिया है। उन्होंने स्पष्ट रूप से घोषणा की है कि यदि समाज में गैर-बराबरी बनी रहती है तो आरक्षण की व्यवस्था को अगले 200 वर्षों तक भी जारी रखा जाना चाहिए।

आज वे इस बात को सार्वजनिक मंच पर कहने से तनिक भी नहीं झिझक रहे, क्योंकि वास्तव में धरातल पर न तो सरकारी नौकरी है और यदि है भी तो उसमें दलितों/पिछड़ों और एसटी वर्ग को प्रतिनिधित्व वस्तुतः मिल ही नहीं रहा है। ऊपर से आर्थिक आधार पर आरक्षण और उच्च सरकारी पदों पर लेटरल एंट्री सहित तदर्थ भर्तियों की भरमार ने समूचे आरक्षण की मौजूदा व्यवस्था पर ही बड़ा सवालिया निशान लगा दिया है।

आज लगभग सभी अभ्यर्थियों को मालूम है कि निष्पक्ष ढंग से परीक्षा को संपन्न कराने से कहीं आसान काम चाँद पर चन्द्रयान की सुरक्षित लैंडिंग हो चुकी है। जो सरकारें खुद के लिए ईमानदार, पारदर्शी और निष्पक्ष होने का ढिंढोरा पीटती हैं, वे एक सामान्य-गरीब अभ्यर्थी के लिए निष्पक्ष परीक्षा तक संपन्न कराने में असमर्थ हैं, यह दिन के उजाले में झूठ बोलने के समान है। लेकिन यदि आपके पास मीडिया है, सरकारी अमला है और ठसक है तो आपके झूठ को भी सिर माथे पर लेने वाला बेपेंदी का मध्यवर्ग मौजूद है, जिसे जमीनी सच्चाई की जगह नेता के जुबान की ठसक से संबंध है।

देश में 90 प्रतिशत नौकरियां अब निजी कॉर्पोरेट क्षेत्र में ही बची हैं, जिसमें आपके अंग्रेजीदां होने और शहरी एक्सेंट को प्राथमिकता मिलनी स्वाभाविक बात है। इन नियुक्तियों में प्रतिभागियों की प्रतिभा के आकलन का मापदंड बहुत कुछ नियोक्ता की पूर्व-धारणाओं पर निर्भर करता है, इसलिए इस बारे में व्याख्या करना यहां पर संभव नहीं। कुल मिलाकर न नौ मन तेल है, न राधा नाचने वाली है। इसलिए कितने भी आंसू बहा लिए जायें, होइये वही जो… राखा, वाली सनातनी संस्कार से समझा जा सकता है।

लेकिन कांग्रेस के खेमे से भी इसको लेकर कुछ मंथन तो चल रहा है, इसकी भनक द क्विंट वेबसाइट की खबर से मिलती है, जिसके अनुसार मल्लिकार्जुन खड़गे के विचार में यूपी में बसपा के साथ इंडिया गठबंधन के संश्रय के बजाय स्वतंत्र राह चलना अधिक फायदेमंद साबित हो सकता है।

पिछले एक दशक से यूपी, बिहार की दलित अस्मिता की राजनीति अंधेरे बियाबान में भटक रही है। इसकी मिसाल एक समय के प्रमुख दलित चिंतक-विचारक बद्री नारायण के कांशीराम की राजनीति से भाजपाई संस्करण में संक्रमण से साफ़ देखी जा सकती है। यहाँ तक कि सोशल मीडिया और प्रिंट मीडिया में पिछड़ों और दलितों की मुखर आवाज के रूप में सबसे चमकदार नाम, दिलीप मंडल के बौद्धिक विमर्श से भी इसकी ताकीद की जा सकती है।

ऐसे में द्रविड़ राजनीति में सनातन धर्म की सांगोपांग आलोचना और इसे स्पष्ट रूप से वर्णाश्रम व्यवस्था को नए सिरे से लागू कराने की भाजपा/आरएसएस की रणनीति के रूप में पेश करने की इस नई पेशबंदी ने वस्तुतः खुलेआम ऐलान कर दिया है कि अब दक्षिण भारत में हिंदुत्ववादी शक्तियों के लिए एक इंच भी स्थान नहीं दिया जाने वाला है।

उदयनिधि स्टालिन के साथ-साथ कार्ति चिदंबरम और कर्नाटक से प्रियांक खड़गे की स्पष्ट वैचारिकी दक्षिण के राजनीतिक रंगमच पर नए युवा नेतृत्व की खुली चुनौती को पेश कर रही है। महाराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी, बंगाल में ममता बनर्जी और मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़, उत्तराखंड सहित हिमाचल प्रदेश में भले ही कांग्रेस नेतृत्व इस नई वैचारिकी के सामने खुद को बड़े असमंजस में पा रहा हो, लेकिन कहीं न कहीं कांग्रेस और विशेषकर मल्लिकार्जुन खड़गे की नजर में उत्तर भारत में उन आंबेडकरवादी और वाम-लोकतांत्रिक युवा समूह पर नजर बनी हुई है, जिसके लिए 2014 के बाद से उग्र हिंदुत्व की विचारधारा ने खुली हवा में सांस लेना भी दूभर कर डाला है।

ऐसी सूचना है कि यूपी और बिहार राज्यों के आंबेडकरवादी एवं लेफ्ट-लिबरल तबके में द्रविड़ राजनीति और विशेषकर कर्नाटक के युवा मंत्री प्रियांक खड़गे की लोकप्रियता काफी बढ़ी है। उनके लिए उत्तर भारत में ऐसे ही नायक की तलाश है, जिसे अनुभवी और बुजुर्ग दलित नेता मल्लिकार्जुन खड़गे सबसे बेहतर ढंग से समझते हैं।

मल्लिकार्जुन खड़गे निकट भविष्य में दलित अस्मिता के सबसे बड़े नायकों में एक बनने की राह पर दिख रहे हैं। उनके सम्मान को ठेस जी-20 सम्मेलन में लगी है, तो वे पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद और मौजूदा राष्ट्रपति के सम्मान की लड़ाई लड़ अपने लिए और दलित-आदिवासी बहुजन समाज की बड़ी गोलबंदी को यूपी, बिहार, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश ही नहीं गुजरात तक में असरकारी बना सकते हैं।

राहुल गांधी की नई इमेज बिल्कुल फोटोजेनिक है, जिसमें देश के करोड़ों नए युवाओं और शहरी मध्यवर्ग को संवेदित करने की नई संभावनाएं हैं। महिलाओं की अस्मिता और सम्मान के बारे में देश पहले ही चर्चा में शामिल है, देखना है सनातन धर्म की इस नई बहस से किसके हिस्से में क्या-क्या आता है। दिल्ली दूरस्त…आज दोनों विचारधाराओं के लिए समान रूप से कही जा सकती है। जो कुछ भी है, वह भविष्य की गोद में है।

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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