दलित विमर्श: दलितों को चाहिए राम मंदिर, हिंदू धर्म या कुछ और?

हाल ही में एक खबर राजस्‍थान के झालावाड़ जिले के खानपुर थाने के अंतर्गत मुंडला गांव से आई कि दलितों के पैसे से भगवान राम को भोग नहीं लगेगा इससे प्रभु श्री राम अपवित्र हो जाएंगे जो प्रसादी बनेगी वह भी अपवित्र हो जाएगी। इसलिए उनका पैसा भगवान श्री राम के प्रसाद के लिए नहीं लिया जा सकता। मुंडला गांव के दलितों का कहना है कि नागर समुदाय के लोग राम मंदिर और कलश यात्रा के नाम पर हमसे चंदा मांगने आए। हमने अपनी क्षमता के अनुसार चंदा इकट्ठा किया और वह उन्‍हें दे दिया। कुछ दिन बाद में उन लोगों ने हमारा चंदा यह कर वापस कर दिया कि दलित जातियों के धन से खरीदी गई सामग्री से भगवान को भोग नहीं लगाया जा सकता। इससे यह सिद्ध हो गया कि भले ही आज हम भारत के लोग इक्‍कीसवीं सदी में जी रहे हों लेकिन दलितों के साथ होने वाली छुआछूत और भेदभाव में कमी नहीं आई है।

काबिले-गौर है कि देश को आजाद हुए 76 वर्ष हो चुके हैं और संविधान लागू हुए 74 वर्ष – पर दलितों के साथ छुआछूत और भेदभाव यथावत् जारी है। दरअसल हिंदू धर्म को मानने वाले वोट बैंक के लिए तो दलितों को हिंदू कहते हैं पर बात जब बराबरी और दलितों की मानवीय गरिमा तथा सम्‍मान की आती है तो वे अछूत हो जाते हैं।

दलितों का एक तबका तो जागरूक हुआ है पर अधिकतर दलित आज भी धर्मांध हैं। वे अपनी मेहनत की कमाई के धन का चंदा कर उससे राम मंदिर के लिए और राम लला के लिए सोने-चांदी की ईंटे भिजवाते हैं, विभिन्‍न प्रकार की सामग्री भिजवाते हैं। पर इस कड़वी सच्‍चाई से रूबरू नहीं होते कि उन मंदिरों में उन्‍हें ससम्‍मान प्रवेश करने नहीं दिया जाएगा। ऐसी भी खबरें आती हैं कि दलितों के मंदिर प्रवेश करने पर सवर्णों ने दलितों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा।

बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर का साफ कहना था कि जब तक हिंदू धर्म है तब तक छुआछूत है, ऊंच-नीच है, जातिभेद है, तब तक अछूतों पर अत्‍याचार जारी रहेगा। यह धर्म कभी उन्‍हें आत्‍मसम्‍मान से और स्‍वाभिमान से जीने नहीं देगा।

इसलिए उन्‍होंने काफी सोच समझकर और कई धर्मों का गहन अध्‍ययन कर यह निर्णय लिया था कि ‘मैं हिंदू धर्म में मरूंगा नहीं।’ उन्‍होंने जाति के विनाश की बात कही थी।

पर आज हालात ये हैं कि जाति के विनाश की बात तो दूर अगर कोई हिंदू धर्म की आलोचना भी कर दे तो हंगामा हो जाता है। उन्‍हें सीधा-सीधा देश विरोधी कह दिया जाता है। हिंदू धर्म की महानता का बखान तो किया जाता है पर उसकी बुराईयों का नजरअंदाज कर दिया जाता है।

जनमानस के राम बनाम कॉरपोरेट मीडिया, मोदी और भाजपा के राम

कॉरपोरेट मीडिया या कहें गोदी मीडिया ने आजकल मोदी और मंदिर लहर चला रखी है। ऐसा लग रहा है जैसे अयोध्‍या में मंदिर का उद्घाटन और प्राण प्रतिष्‍ठा ही देश का एक मात्र मुद्दा है।

महंगाई, बेरोजगारी, स्‍वास्‍थ्‍य और शिक्षा जैसा कोई मुद्दा है ही नहीं। इस गोदी मीडिया की नजर से देखें तो हर जगह रामराज आ गया है और लोगों को किसी प्रकार की कोई समस्‍या नहीं है।

हमारे देश के जनमानस में जो राम बसे हुए हैं उनकी छवि लोक कल्‍याणकारी, सर्वहितकारी, मानवीय, प्रेम और करूणा की है। उन्‍हें मर्यादा पुरूषोत्‍तम कहा जाता है। हालांकि वैज्ञानिक सोच और तर्कशील व्‍यक्तियों द्वारा राम की आलोचना भी की जाती रही है कि राम अपनी पत्‍नी की अग्नि परीक्षा लेते हैं। उन्‍हें जंगल भेज देते हैं। निर्दोष शंबूक ऋषि का वध कर देते हैं। राम पौराणिक पात्र हैं – ऐतिहासिक नहीं, आदि।

पर भाजपा और मोदी के राम अलग हैं। बाबरी मस्जिद तोड़ कर मंदिर बनाने, मुसलमानो की भावनाएं आहत होने का उन पर कोई असर नहीं होता। हद तो तब हो जाती है जब राम को प्रधानमंत्री की उंगली पकड़ कर चलते बाल रूप में दिखाया जाता है जहां मोदी की छवि बड़ी और राम की छवि छोटी होती है। इतना ही नहीं मोदी को विष्‍णु का अवतार तक बता दिया जाता है।

राम लला की प्राण प्रतिष्‍ठा भी अपने आप में अनोखी है। हास्‍य-व्‍यंग्‍य के कवि सुरेंद्र शर्मा कहते हैं कि राम इंसानों में प्राणों की प्रतिष्‍ठा करते हैं पर आज हम इंसान राम की प्राण प्रतिष्‍ठा कर रहे हैं!

दलितों को वैज्ञानिक चेतना और आत्‍मसम्‍मान की जरूरत

दरअसल दलितों को शिक्षा की जरूरत है। शिक्षा उन्‍हें जागरूक करेगी। उन्‍हें उनके अधिकारों का ज्ञान कराएगी। चेतनशील बनाएगी और वैज्ञानिक चेतना से लैस करेगी। बाबा साहेब अंबेडकर ने कहा था कि शिक्षा वह शेरनी का दूध है जो पियेगा वह दहाड़ेगा। बात सही है। शिक्षा ही दलितों को सशक्‍त इंसान बनाएगी। तर्कशील बनाएगी।

आज के समय में दलितों में तर्कशीलता और वैज्ञानिक चेतना का होना परमावश्‍यक है। इससे वे अपने आत्‍मसम्‍मान को बचा पाएंगे। लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था को जानेंगे। संविधान का ज्ञान प्राप्‍त करेंगे और अपने अधिकारों तथा मान-सम्‍मान के लिए संघर्ष करने हेतु संगठित होंगे और संघर्ष करेंगे।

उच्‍च शिक्षित और तार्किक होने पर सियासी नेताओं द्वारा उन्‍हें मूर्ख बनाना भी मुश्किल होगा। आजकल दलित नेता भी दलित हितैषी कम और स्‍वहितैषी अधिक होते हैं। ऐसे में दलितों की जागरूकता उन्‍हें अच्‍छे बुरे नेता में भेद करना भी सिखाएगी। वे नेताओं की करनी-कथनी में अंतर करना सीख जाएंगे।

सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और धार्मिक समझ जरूरी

उच्‍च शिक्षित और वैज्ञानिक चेतना से लैस दलित अपनी सामाजिक स्थिति का सही-सही आंकलन करने में सक्षम होता है। समाज में इतनी विषमता क्‍यों है, इसकी उसे जानकारी होती है। शिक्षित और तर्कशील दलित ये समझने में सक्षम होंगे कि उनका शोषण क्‍यों हो रहा है। उनके शोषणकर्ता कौन हैं।

समाज में इतनी आर्थिक विषमता क्‍यों है। संसाधनों का असमान वितरण क्‍यों है। जागरूक दलित ही अपने आर्थिक अधिकारों के लिए आवाज उठा सकते हैं। अशिक्षित की बजाय शिक्षित दलित आर्थिक रूप से अधिक सशक्‍त हो सकते हैं।

आज के समय में दलितों में राजनीतिक समझ होना बहुत जरूरी है। सत्ता या हुकूमत किस प्रकार दलितों का दुरूपयोग करती है, इसके प्रति जागरूक होना अत्‍यावश्‍यक है। राजनीति में अपना प्रतिनिधित्‍व कैसे हासिल करें इसकी जानकारी होनी चाहिए। आज के समय में राजनीतिक सशक्तिकरण परमावश्‍यक है। बाबा साहेब ने भी राजनीति को ‘मास्‍टर की’ कहा था।

धर्म के बारे में यह ज्ञान होना चाहिए कि दलित धर्म की सही अवधारणा को समझें, धर्मांध न बनें। सच्‍चा धर्म इंसानियत सिखाता है। मानव-मानव के बीच प्रेम, सौहार्द, समानता, स्‍वतंत्रता, न्‍याय और बंधुत्‍व सिखाता है। एक दूसरे का सम्‍मान करना सिखाता है। वह इंसान को इंसाने से भाईचारे का पैगाम देता है – घृणा नहीं फैलाता।

शिक्षित और तार्किक दलित राजनीति और धर्म को अलग करके समझता है। इन दोनों को घालमेल नहीं करता और न ही धर्म का इस्‍तेमाल राजनीति के लिए करता है। वह यह भी समझने में सक्षम होता है कि कौन धर्म के नाम पर प्रेम, करूणा और मानवता की बात कर रहा है और कौन धर्म के नाम पर नफरत फैला रहा है।

यह सब ज्ञान हमें शिक्षा से मिलता है इसलिए दलितों को स्‍कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटीज की जरूरत है – मंदिरों की नहीं।

(राज वाल्‍मीकि दलित मामलों के जानकार हैं।)

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