गांधी-नेहरू की वैचारिकी से परास्त संघ-भाजपा करती है उनका चरित्र हनन

आज कुछ विशिष्ट टाइप के ‘राष्ट्रवादी’ नेहरू और गांधी के बरक्स भगतसिंह और सुभाष चंद्र बोस को खड़ा करते हैं और साथ ही गांधी-नेहरू का चरित्र हनन कर एक आत्मसंतुष्टि का भाव पाते हैं। यद्यपि इस तुलना का कोई औचित्य नहीं, पर जुगुप्सा में आनन्द खोजने वालों के लिए तर्क का क्या मतलब?

गांधी और नेहरू पर लगाए गए बेहूदा आरोप किसी से छुपे नहीं हैं। नेहरू खुद यह जानते थे कि विरोधियों द्वारा किस-किस तरह से उन्हें बदनाम किया जा रहा है। नेहरू ने ब्लिट्ज़ के संपादक आरके करंजिया को एक बार बताया था- “क्या आपको पता है कि खुद मेरे बारे में यह प्रचार किया गया कि मैं रोज शाम बीफ खाने अशोका होटल जाता हूं। पूरी दिल्ली में पोस्टर लगाए गये जिसमें मुझे नंगी तलवार लिए गायों को बूचड़खाने की ओर हाँकते दिखाया गया।”

सांप्रदायिक शक्तियों को लगता था कि वैचारिकी के स्तर पर नेहरू और गांधी को चुनौती देना संभव नहीं, सो उन्होंने नेहरू को खलनायक सिद्ध करने के लिए उनके चरित्र को लांछित करना शुरू कर दिया। सांप्रदायिकता के विस्तार के प्रयासों में नेहरू सबसे बड़ी बाधा थे। नेहरू सद्भाव के पक्षधर थे। धर्मनिरपेक्षता से उनका आशय सभी धर्मों और पंथों के प्रति सद्भाव से था।

स्वतंत्रता आंदोलन की विभिन्न धाराओं में मतवैभिन्नय तो था, पर यह वैभिन्न स्वतंत्रता-समता प्राप्ति के तरीकों को लेकर के था, न कि मूल उद्देश्य को लेकर। सुभाष खुद गांधी को अपना नेता मानते थे, जबकि भगतसिंह अपने एक लेख में लोगों से नेहरू की राह चलने को कहते हैं।

भगतसिंह कीरती पत्रिका में नेहरू और सुभाष बाबू के वैचारिक दृष्टि का विश्लेषण करते हुए कहते हैं कि- “इस समय जो नेता आगे आए हैं वे हैं-बंगाल के पूजनीय श्री सुभाष चन्द्र बोस और माननीय पंडित श्री जवाहरलाल नेहरू। यही दो नेता हिंदुस्तान में उभरते नज़र आ रहे हैं और युवाओं के आंदोलनों में विशेष रूप से भाग ले रहे हैं। दोनों ही हिंदुस्तान की आजादी के कट्टर समर्थक हैं। दोनों ही समझदार और सच्चे देशभक्त हैं। लेकिन फिर भी इनके विचारों में जमीन-आसमान का अंतर है। एक को भारत की प्राचीन संस्कृति का उपासक कहा जाता है, तो दूसरे को पक्का पश्चिम का शिष्य। एक को कोमल हृदय वाला भावुक कहा जाता है और दूसरे को पक्का युगांतरकारी।…….. सुभाष बाबू मजदूरों से सहानुभूति रखते हैं और उनकी स्थिति सुधारना चाहते हैं। पंडित जी एक क्रांति करके सारी व्यवस्था ही बदल देना चाहते हैं।”

ये नए राष्ट्रवादी सुभाष और भगतसिंह के आंदोलनात्मक चरित्र के प्रति अपनी रागात्मकता तो घोषित करते हैं, पर उसे जीवन में नहीं उतारते हैं। वे अपने लोक जीवन में इससे हर संभव दूरी बरतते हैं। गांधी और नेहरू से तो ख़ैर इनका छत्तीस का आंकड़ा है ही।

वे चरखे का मजाक उड़ाते हैं, जो कि उस समय स्वदेशी जीवनशैली व कार्यसंस्कृति का एक प्रतीक बन चुका था। वे कहते हैं कि कांग्रेस कहती है कि हमने चरखे से आजादी दिलवाई है। भाई हमने तो कांग्रेस का ऐसा कोई आधिकारिक वक्तव्य अभी तक तो देखा नहीं। हमें तो नहीं याद आता कि कभी किसी ने कुछ ऐसा कहा हो। चरखा तो विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का एक प्रतीक था। यह अंग्रेजों के प्रभुत्व को खुलकर चुनौती देने का भाव-प्रतीक बन चुका था।

ख़ैर बावजूद इसके आज स्वदेशी के सबसे बड़े प्रवक्ता ये ही हैं। हां ये अलग बात है कि नई संसद का नाम अंग्रेजी में “सेंट्रल विस्टा” ही रखेंगे और अपने बच्चों को विदेशों में ही पढाएंगे। सो इनका हमेशा से दोहरा चरित्र रहा है। आज राष्ट्रवाद के सबसे बड़े प्रवक्ता यही हैं, लेकिन जब स्वतंत्रता आंदोलन चल रहा था तब ये उसके आस-पास तक नहीं थे।

स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेना तो दूर उल्टे इनके वैचारिक पुरखे भारत छोड़ो आंदोलन को कुचलने के लिए अंग्रेज गवर्नर को सलाहें देते फिरते थे। पर बावजूद इसके नेहरू-गांधी के योगदान की गहन मीमांसा जोर-शोर से करेंगे। स्वतंत्रता आंदोलन के संदर्भ में “संघर्ष के प्रयासों” का इस तरह का तुलनात्मक विवेचन अनौचित्यपूर्ण है। सभी देशभक्त स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु अपने-अपने तरीके से अपनी-अपनी भूमिका निभा रहे थे। कोई किसी से न कम देशभक्त था, न बड़ा। भाव के स्तर पर सभी बराबर हैं। देश की आजादी के लिए अंग्रेजी सत्ता से लड़ते हुए एक अनाम शहीद देशभक्त भी उतना ही पूज्य है, जितना कि गांधी या सुभाष! किसी की भावना का तुलनात्मक विश्लेषण आप कैसे कर सकते हैं?

ये लोग गांधी-नेहरू को कमतर साबित करने के लिए सरदार पटेल, भगतसिंह और सुभाष बाबू के त्याग का हवाला देंगे। ये लोग गांधी-नेहरू पर निशाना साधने के लिए पटेल, सुभाष, आजाद और भगतसिंह के कंधों का इस्तेमाल करते हैं। ऐसा करके वे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को भी खेमों में बांटते हैं। जाति-धर्म के आधार पर राष्ट्रवाद के मापन के गहरे राजनीतिक निहितार्थ हैं, जो वोटों की फसल काटने में उर्वरक की भूमिका निभाते हैं। इससे जमीन की गुणवत्ता प्रभावित हो तो हो, उनके ठेंगे से!

जाहिर है इस खेमेबाजी के अपने मतलब हैं। उन्हें न सुभाष से मतलब है और न भगतसिंह से। उनके लिए तो सुभाष, पटेल व भगतसिंह एक कंधे/ओट से ज़्यादा कुछ नहीं, जिसका सहारा लेकर वे गांधी और नेहरू को निशाना बना सकें। दुनिया-जहान को पता है कि भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद और सुभाष सांप्रदायिक राजनीति के सख़्त खिलाफ थे। सुभाष ने कांग्रेस की अपनी अध्यक्षी में सांप्रदायिक दलों के सदस्यों की कांग्रेस की दोहरी सदस्यता रखने पर प्रतिबंध लगा दिया था। अगर सुभाष इतने ही इनके प्रिय थे, तो फिर स्वतंत्रता आंदोलन में उनके हमसफ़र क्यों न बने? उस समय स्वतंत्रता आंदोलन से बड़ी और कौन सामाजिक भूमिका हो सकती थी?

ये लोग नाम सुभाष, पटेल और भगतसिंह का लेंगे और अपने मुख्यालयों में उनकी फोटो भी खूब लगाएगें लेकिन प्रेरणा और शिक्षा सांप्रदायिक मठाधीशों से लेंगे। नाम सुभाष और भगतसिंह का इसलिए लेंगे, क्योंकि खुद अपनी सांप्रदायिक विचारधारा की तर्कणा की सीमाएं वे बखूबी जानते हैं। वे जानते हैं कि इस तरह से नेहरू की राजनीतिक परंपरा को विस्थापित नहीं किया जा सकता। अपने लिए जगह बनाने के लिए यह जरूरी है कि विरोधी पक्ष के स्तर का प्रतिद्वंद्वी लाया जाए जो लोकप्रियता के स्तर पर भी चुनौती बन सके। जाहिर है इतना बड़ा एक भी व्यक्तित्व इनके पास नहीं है। बड़ी शख्सियत बड़ी सोच से बनती है, न कि छुद्रता भरी सोच से।

भीतरखाने तो सांप्रदायिक खेल चलता ही रहता है। जो सांप्रदायिक राजनीति में ही अपना भविष्य देखता हो, वह भला सुभाष और भगतसिंह की वैचारिकी को कैसे आत्मसात कर सकता है।

भारत के बंटवारे का असली सच

अगर बंटवारे के लिए गांधी- नेहरू ही मुख्य जिम्मेदार थे, तो हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग क्या उस समय द्विराष्ट्रवाद के खिलाफ सत्याग्रह कर रहे थे। उस समय हिंदू महासभा और अन्य हिंदू संगठनों की मुख्य मांग क्या थी। विभाजन के प्रति इन संगठनों की क्या राय थी?

हिन्दू और मुस्लिम दो अलग-अलग राष्ट्र है और दोनों कभी एक साथ नहीं रह सकते का विचार, क्या इन पृथकतावादी संगठनों का मूल विचार नहीं था? इस मूल विचार के कारण ही ये संगठन अपने अस्तित्व में आए हैं, क्या इससे ये संगठन इंकार कर पाएंगे? कहने की जरूरत नहीं कि पृथक धार्मिक पहचान को राष्ट्रीयता के रूप में मनवाने की इच्छा के चलते ही इन संगठनों का गठन किया गया था।

क्या सावरकर ने हिन्दू महासभा के 1937 के अहमदाबाद अधिवेशन में जिसके कि वे अध्यक्ष थे, द्विराष्ट्रवाद का प्रस्ताव नहीं पारित करवाया था। क्या सावरकर ने जिन्ना के अलग राष्ट्रवाद वाले 1940 के लाहौर के “पाकिस्तान प्रस्ताव” पर बधाई नहीं दी थी?

क्या सिंध प्रांत की विधानसभा में 1943 में लीग द्वारा प्रस्तुत “पाकिस्तान प्रस्ताव” के मसले पर हिन्दू महासभा ने मुस्लिम लीग की सरकार से समर्थन वापस लिया था, नहीं न, तो फिर इतनी हायतौबा क्यों। क्या दूसरे का चरित्र हनन करके खुद के पापों को ढका जा सकता है?

यहां बता दें कि सिंध की हिदायतुल्लाह सरकार में ‘हिंदू महासभा’ सहयोगी दल के रूप में बाकायदा मंत्रिपरिषद में शामिल थी।

मुस्लिम लीग के साथ हिंदू महासभा की वैचारिक सहमति ग़जब की थी। बंगाल में भी फजलुल हक की सरकार में हिंदू महासभा के बड़े नेता के तौर पर श्यामा प्रसाद मुखर्जी वित्तमंत्री के रूप में लीग को अपनी बेहतरीन सेवाएं दे रहे थे। ये वही फजलुल हक थे, जिन्होंने लाहौर में पाकिस्तान प्रस्ताव पेश किया था और ये वही मुखर्जी साहब थे, जिन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन को कुचलने के लिए अंग्रेज गवर्नर को सलाह दे रहे थे, जो दस्तावेजों में दर्ज है। मुखर्जी साहब उस समय हिंदुत्ववादी विचारधारा के एक बड़े आइकॉन थे।

देश का बंटवारा तो 1947 में जाकर हुआ, लेकिन आपकी कोशिश तो दशकों पहले शुरू हो गई थी। क्या इससे भी इंकार करेंगे।

जो बंटवारे को रोकने में असफल रहे और जिन्होंने बंटवारे के लिए हो रहे गृहयुद्ध को रोकने के लिए विवशतापूर्ण परिस्थितियों में अनमने से विभाजन को स्वीकार किया, इनकी दृष्टि में असली दोषी वही और जिन्होंने विभाजन की पृष्ठभूमि रची और जो संगठन उसके सूत्रधार थे वे पाक-साफ!

अगर बंटवारे के लिए नेहरू की प्रधानमंत्री बनने की इच्छा जिम्मेदार थी, तो नेहरू के लालच में पटेल क्यों सहभागी बने? उन्हें तो प्रधानमंत्री पद मिलना नहीं था तो आखिर वे नेहरू के हमसफ़र क्यों बने? क्या पटेल का व्यक्तित्व इतना दयनीय था कि कोई भी उन्हें उनकी इच्छा के विरुद्ध बाध्य कर सकता था? अगर पटेल गांधी के लिहाज में नेहरू का नेतृत्व स्वीकार करने को विवश हुए, तो गांधी की शहादत के बाद वे मंत्रिमंडल से इस्तीफा देकर इस विवशता से मुक्ति पा सकते थे, पर उन्होंने ऐसा भी नहीं किया। सोचिए!

और हां, नेहरू की पहली कैबिनेट में श्यामा प्रसाद मुखर्जी क्यों शामिल हुए। अगर मुखर्जी बंटवारे को नेहरू की महत्वाकांक्षा की परिणति मानते थे, तो नेहरू की सरकार में जाना क्यों स्वीकार किया?

(संजीव शुक्ल स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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Jitendra kashyap
Jitendra kashyap
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8 months ago

Excellent