तमिलनाडु में उभरता चुनावी गतिरोध

हाल के दिनों में एआईएडीएमके-भाजपा गठबंधन में टूट जैसे महत्वपूर्ण बदलाव के बावजूद तमिलनाडु की राजनीति में कोई हलचल होती नजर नहीं आ रही है। क्या एआईएडीएमके और बीजेपी के बीच का तलाक स्थायी रहने वाला है या 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले दोनों एक बार फिर से इकट्ठा हो सकते हैं? इस टूटन से क्या डीएमके चुनावी लाभ हासिल करने में सफल हो पाती है और यदि हां तो किस स्तर तक? इस संबंध-विच्छेद से एआईएडीएमके और बीजेपी को व्यक्तिगत तौर पर वोटों का कितना नुकसान हो सकता है? ये वे कुछ सवाल हैं जो 24 के महासमर के लिए रणनीतिक रूप से बेहद अहम साबित होने जा रहे हैं। 

एमके स्टालिन के नेतृत्व में डीएमके सरकार का शासन मुख्यता दो मामलों में चूक कर रहा है- 1) दलितों पर अत्याचार के मामले लगातार बढ़े हैं और 2) कर्मचारियों एवं मजदूरों के विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला इस बीच रोजमर्रा का विषय बन गया है। क्या इन सबका चुनावी प्रभाव पड़ने जा रहा है? या फिर डीएमके की महिलाओं को प्रति माह 1000 रुपये की सहायता जैसी लोकलुभावन योजनायें सत्ता-विरोधी लहर को तटस्थ करने में कामयाब रहने वाली साबित होंगी और 2024 में डीएमके को अपने वोट प्रतिशत में इजाफा करने में सफलता मिल सकेगी?

एआईएडीएमके-भाजपा गठबंधन के टूटन की प्रकृति

पहली बात तो एआईएडीएमके-बीजेपी के बीच का मनमुटाव इसलिए भी कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि यह कोई ऐसा राजनीतिक गठबंधन नहीं था जिसमें दोनों विशिष्ट सामाजिक शक्तियों को प्रतिनिधित्व कर रही थीं और दोनों साझीदार गठबंधन में कोई महत्वपूर्ण योगदान प्रदान कर रहे थे। इसके बजाय यदि भाजपा की बात की जाए तो उसके पास तमिलनाडु के भीतर अपना खास स्वतंत्र चुनावी आधार नहीं है, वह तो बस अपने अखिल-भारतीय स्तर पर अपने प्रभाव के बल पर एआईएडीएमके की पीठ पर सवारी गांठ रही थी। इसलिए एआईएडीएमके के लिए उसे एक झटके में अपने से अलग कर देना कोई बड़ी बात नहीं है।

संबंध-विच्छेद के लिए तात्कालिक उकसावा तमिलनाडु राज्य भाजपा अध्यक्ष अन्नामलाई के द्वारा अपने गठबंधन साझीदार पर सिलसिलेवार अमर्यादित टिप्पणियों में देखा जा सकता है। लेकिन इसके साथ ही एआईएडीएमके की कतारों के बीच में यह अहसास भी लगातर बढ़ता जा रहा था कि भाजपा के साथ गठबंधन के चलते उनके पास से अल्पसंख्यक वोट लगातार छिटकता जा रहा है। इसके अलावा प्रदेश में केंद्र-विरोधी क्षेत्रीय-राष्ट्रवाद की भावना के चलते भाजपा दिनोंदिन पूंजी के बजाय बोझ बनती जा रही है। पार्टी के भीतर अधिकांश लोगों का मानना है कि भाजपा के लिए जिन सीटों को छोड़ा गया वे बर्बाद गईं। 

सहयोगियों के साथ भाजपा की बदलती रणनीति

भाजपा के भीतर भी यह भावना प्रबल हो रही है कि उन राज्यों में जहां उसका गठबंधन है, विशेषकर जूनियर पार्टनर के तौर पर, वहां पर उन्हें अपने सहयोगियों का पिछलग्गू बनकर नहीं रहना है बल्कि केंद्र में अपनी सत्तारूढ़ पार्टी की हैसियत का पूरा फायदा उठाते हुए खुद की ताकत में इजाफा करने के लिए स्वतंत्र पहलकदमी लेने वाले रास्ते पर आगे बढ़ने की जरूरत है। शुरू-शुरू में तो इस दृष्टिकोण को अपनाने से 2019 में पश्चिम बंगाल, केरल, ओडिसा, तेलंगाना और कुछ हद तक तमिलनाडु जैसे राज्यों में भगवा उभार देखने को मिला।

हालांकि, बाद के दौर केंद्र में सत्ता में होने के बावजूद विभिन्न राज्यों के विधानसभा चुनावों में यह उभार धुंधला पड़ता दिखा। अपने एनडीए सहयोगियों के प्रति बेरुखी के चलते, नीतीश, उद्धव ठाकरे, चंद्रबाबू नायडू और शिरोमणि अकाली दल आज एनडीए से नाता तोड़ चुके हैं, और एनडीए लगभग पूरी तरह से बिखर चुका है।

लेकिन 2024 की अपनी तैयारियों में भाजपा ने अपनी रणनीति में स्पष्ट बदलाव किया है। नए गठबंधन को पुख्ता करने के लिए भाजपा की ओर से कर्नाटक में जेडी(एस) के कुमारस्वामी, यूपी में एसबीएसपी के ओम प्रकाश राजभर और बिहार में राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के उपेन्द्र कुशवाहा, विकाशसील इंसान पार्टी के मुकेश सहनी और हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा के जीतन राम मांझी इत्यादि के साथ फिर से मोर्चेबंदी की तैयारी चल रही है। लेकिन तमिलनाडु में इस दृष्टिकोण में विसंगति बनी रह गई।

भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने नाराज चल रही एआईएडीएमके के साथ सुलह करने के बजाय अन्नामलाई की ज्यादतियों को नजरअंदाज करना जारी रखा, जिसके चलते एआईएडीएमके लगातार दूर होती चली गई। ऐसे में सवाल उठता है कि सिर्फ तमिलनाडु को ही अपवादस्वरूप क्यों रखा गया? साफ़ दिखता है कि तमिलनाडु की स्थितियां बाकियों से भिन्न अलग नहीं हैं, इसके बावजूद इस रुख को अपनाने के पीछे चंद चुनिंदा गैर-भाजपा शासित राज्यों में इसे भाजपा के आक्रामक रुख के साथ विस्तार की रणनीति के तौर पर देखा जाना चाहिए।

गैर-भाजपा शासित राज्यों में भाजपा की आक्रामक रणनीति काम नहीं आने वाली

गैर-भाजपा शासित राज्यों में भाजपा की आक्रामक रणनीति में नया क्या है? यह नया आक्रामक रुख बेहद शोरशराबे और ओछापन लिए हुए है। मुख्य रूप से लाउड मीडिया कम्युनिकेशन के माध्यम से विस्तार की कोशिश चल रही है। यह दृष्टिकोण एलके अडवाणी के पार्टी को जमीन से खड़ा करने के नियमबद्ध एवं स्थिर दृष्टिकोण से पूरी तरह से भिन्न है। और यह वाजपेई के विप्क्षित्यों के साथ राजनीतिक लड़ाई में संयमित शैली के पूरी तरह से विपरीत है। पश्चिम बंगाल के सुवेंदु अधिकारी और तमिलनाडु के अन्नामलाई इस प्रकार के गलाफाड़ आक्रामक रुख के सबसे बेहतरीन उदारहण हैं।

भले ही इस तरह के आक्रामक रुख से कुछ हद तक मीडिया में थोड़े समय के लिए सुर्खियां बटोरने का मौका मिल जाए, लेकिन आगे चलकर इसका उल्टा असर पड़ सकता है और आत्मघाती साबित हो सकता है। इससे जमीनी स्तर पर आम लोगों के लिए काम करने और संगठन निर्माण के काम से ध्यान हट जायेगा। 2022 के शहरी स्थानीय निकायों के चुनाव में इस तथ्य की पुष्टि हो चुकी है।

शहरी स्थानीय निकायों के चुनाव में डीएमके ने कोयंबतूर शहरी नगर निगम और यहां तक कि 2019 एवं 2021 में भाजपा के मुख्य उभार वाले नागरकोइल निगम सहित सभी 21 नगर निगमों के चुनावों में जीत दर्ज करने में सफलता हासिल की थी। बता दें कि 2021 विधान सभा चुनाव में भाजपा के उम्मीदवार एमआर गांधी ने नागरकोइल विधानसभा सीट पर जीत दर्ज की थी, जबकि 1999 में भाजपा नागरकोइल की एमपी सीट में विजयी हुई थी।  

नागरकोइल में भाजपा के पारंपरिक तौर पर मजबूत होने की वजह इसके वाणिज्यिक ननादार समुदाय के बीच प्रभाव को जाता है, जिसमें पोन. राधाकृष्णन और टी. सौंदरराजन जैसे भाजपा नेताओं के इस समुदाय से आना एक बड़ी वजह है। 2021 विधानसभा चुनाव में कोयम्बटूर में भाजपा उम्मीदवार, वनती श्रीनिवासन ने बेहद लोकप्रिय सिने स्टार कमल हासन को चुनाव में पराजित कर दिया था, जिन्होंने अपनी खुद की पार्टी बनाई थी। निगम चुनाव में भाजपा के प्रदर्शन ने संकेत दे दिया है कि पार्टी ने यदि एआईएडीएमके के साथ गठबंधन नहीं बनाया तो इस बात की पूरी संभावना है कि पार्टी के हाथ से दोनों सीटें फिसल सकती हैं। 

क्या अन्नाद्रमुक-भाजपा ब्रेक-अप से डीएमके को बड़ा फायदा होने जा रहा है?

मीडिया के कुछ हलकों में यह धारणा बनी हुई है कि जयललिता की मृत्यु और 2021 विधानसभा चुनावों में बड़ी पराजय के बाद से एआईडीएमके अब लगभग खात्मे के कगार पर है, और स्टालिन के नेतृत्व में डीएमके उत्तरोत्तर मजबूत होती जा रही है। लेकिन यह धारणा सही नहीं है। अन्नाद्रमुक का कोर वोट बेस कमोबेश आज भी जस का तस बना हुआ है, और इसे नीचे दी गई तालिका में देखा जा सकता है।

2016 विधानसभा चुनावों में 43% वोट शेयर के साथ अन्नाद्रमुक-भाजपा गठबंधन का वोट शेयर 2019 लोकसभा चुनावों में गिरकर करीब 23% पहुंच गया था। लेकिन 2021 विधानसभा चुनावों में इसमें सुधार देखने को मिला और यह बढ़कर 36% हो गया था। यह दिखाता है कि जयललिता की मृत्यु और 2021 विधानसभा चुनाव में हार के बावजूद एआईडीएमके के मतदाता आधार में बड़ा बिखराव नहीं हुआ है।

दूसरी बात यह है कि जब तक एमजीआर और जयललिता का नेतृत्व था, तब तक दलित बड़ी संख्या में एआईएडीएमके के साथ बने रहे। सिर्फ डीएमके के बीपीएल के लिए मुफ्त पीडीएस और रंगीन टेलीविजन जैसे उपहारों की वजह से दलितों का एक वर्ग छिटककर डीएमके के पास चला गया है। लेकिन अब जबकि डीएमके सरकार द्वारा दलितों पर अत्याचार के मुद्दों पर कोई कार्रवाई नहीं की जा रही है, तो उनके भीतर यह भावना घर करती जा रही है कि यह सरकार उनके लिए नहीं बनी है।

अगर डीएमके को मिल रहे दलित समर्थन में महत्वपूर्ण गिरावट आती है तो एआईएडीएमके गठबंधन और डीएमके के मोर्चे के बीच वोटों का अंतर घटकर बेहद कड़ा मुकाबला होना संभव है।

तीसरा, चावल के दामों में तीव्र वृद्धि ने मध्य वर्ग को हिलाकर रख दिया है और संभव है कि डीएमके शासन के प्रति उनके समर्थन में कमी आ सकती है। तमिलनाडु में करीब 36 लाख टन चावल सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से वितरित किया गया है, और इतनी ही मात्रा में खुले बाजार में चावल की बिक्री हुई है, क्योंकि मध्य वर्ग पीडीएस की दुकानों के जरिये वितरित किये जाने वाले कम गुणवत्ता वाले चावल का उपभोग नहीं करता है। उन्हें बेहतर क्वालिटी वाला पोन्नी कच्चा चावल खाने की आदत है, लेकिन फिलहाल बाजार में यह 55 रुपये प्रति किलोग्राम बिक रहा है, जबकि 2022 में यह करीब 35 रुपये किलो बिक रहा था।

यहां तक कि श्रमिक वर्ग द्वारा उपभोग के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला कम गुणवत्ता वाला उबला चावल भी 45 रुपये किलो के भाव से बाजार में बिक रहा है। इस बीच दो महीने में दो बार दूध के दाम बढ़ चुके हैं। चेन्नई में एक किलो प्याज 70 से 80 रुपये प्रति किलो बिक रहा है। दो महीने पहले इसी दाम पर टमाटर बिक रहा था। यह कहना यथार्थ से जी चुराना होगा कि इन सबसे सत्ता-विरोधी वातावरण नहीं बन रहा है।

सारी बातों को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि विपक्षी एकता में टूटन से जो कुछ भी चुनावी लाभ डीएमके को हासिल हो सकता था, उसे आम लोगों के बीच में एंटी-इनकम्बेंसी की लहर ने बराबर कर दिया है। ऐसे में बदलते समीकरणों के बावजूद चुनावी गतिरोध जस का तस बना हुआ दिखता है। 

2019 में एआईएडीएमके ने भाजपा के लिए 38 में से पांच लोकसभा सीटें- कोयंबटूर, सिवगंगा, कन्याकुमारी, रामनाथपुरम और थूठुकुदी छोड़ी थीं, जबकि वेल्लोर में चुनाव नहीं हुआ था, लेकिन भाजपा सभी सीटें हार गई थी। अप्रैल 2023 में राज्य भाजपा अध्यक्ष अन्नामलाई ने टाइम्स ऑफ़ इंडिया के साथ अपनी बातचीत में कहा था कि भाजपा ने अपनी ओर से 9 लोकसभा सीटों को चिंहित किया है, जो दक्षिण चेन्नई, कोयंबटूर, द निलगिरी, कन्याकुमारी,तिरुनेलवेली, रामनाथपुरम, सिवगंगा, इरोड और वेल्लोर हैं, और दावा किया था कि पार्टी इन सभी नौ सीटों पर चुनाव लड़ेगी।

भाजापा की ओर से इन लोकसभा क्षेत्रों के लिए जिला चुनाव इंचार्ज तक की नियुक्ति कर दी गई थी। अन्नामलाई के आक्रामक टिप्पणियों के अलावा उनके नेतृत्व के तहत राज्य भाजपा के इस एकतरफा फैसले ने भी ब्रेक-अप को अग्रगति प्रदान करने में अपनी भूमिका निभाई है।  

2019 में डीएमके ने कांग्रेस के लिए 9 सीट, विदुथलाई चिरुथैगल कत्ची (वीसीके), सीपीआई, सीपीआई(एम) के लिए 2-2 सीट और एक-एक सीट एक्टर विजयकांत के नेतृत्ववाली एमडीएमके, कोंगुनाडू मक्कल देसिया कत्ची पार्टी जिसका कोयम्बटूर-इरोड क्षेत्र में बहुसंख्यक गौंदर समुदाय में पैठ है, और आईयूएमएल के छोड़ी थी।

डीएमके ने संकेत दिया है कि उसकी ओर से 2024 में भी इसी पैटर्न को दोहराया जायेगा। केवल एक हिचक अभी भी बनी हुई है कि यदि इस बार एआइएडीएमके ने भाजपा से अलग चुनाव लड़ा तो ऐसे में एमडीएमके जैसी पार्टियों की मोलभाव की ताकत बढ़ सकती है और वे पाला बदलकर एआईएडीएमके के साथ मिलकर चुनाव लड़ सकते हैं। 

आरएसएस के सिद्धांतकार गुरुमूर्ति का भाजपा के तमिलनाडु पालिसी पर कुछ प्रभाव बना हुआ है, और वे तमिलनाडु में भाजपा के स्वतंत्र विकास के लिए नए अवसरों को देख पा रहे हैं। लेकिन एआईएडीएमके और भाजपा दोनों ही पार्टियों में विरोधाभासी खींचतान काम कर रहा है। ऐसी खबरें हैं कि कुछ एआईएडीएमके नेता अभी दोनों पार्टियों के नेताओं के बीच फिर से संपर्क साधने की उम्मीद लगाये हुए हैं, और उन्हें एक बार फिर गठबंधन को लेकर बातचीत की उम्मीद है।

उम्मीद है कि जमीन पर डीएमके के रूप में अजेय प्रतिद्वंदी के रूप में दावेदारी की खबरें पुख्ता होंगी, उतना ही गठबंधन को फिर से अमली जामा पहनाने का मौका बनेगा। ऐसे में भाजपा भी 9 सीटों से अधिक पर जिद नहीं करने वाली है। कुलमिलाकर कह सकते हैं कि चुनावी गतिरोध की वजह से अंतिम नतीजे कोई बड़ा आश्चर्य नहीं पैदा करने जा रहे हैं।

(बी.सिवरामन स्वतंत्र शोधकर्ता हैं। [email protected] पर उनसे संपर्क किया जा सकता है।)

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