हर कोई बीबा जाणदै: जहाज़ में पानी भर गया है और कप्तान झूठ बोल रहा है

हर कोई बीबा जाणदै
कित्थों कहर घटावाँ आइयाँ
हर कोई बीबा जाणदै
पई अग्गां कीन्हाँ लाइयाँ
हर कोई बीबा जाणदै
मुहब्बतां कीवें टुट्टियाँ
हर कोई बीबा जाणदै
पई इज्जतां कीन्हें लुट्टियाँ
हर कोई बीबा जाणदै
राजा क्यों सी मौन
हर कोई बीबा जाणदै
कौण शहर डेहा सी ढौण
हर कोई बीबा जाणदै
यह नंग मुनंगी रुत्त
इकना ताड़ी मार तमाशा
बाकी हर शय चुप्प
हर कोई बीबा जाणदै
क्यों महल खड़े ख़ामोश
ख़लक़ ख़ुदाई हिस्से मातम
सज्जणा कायी ना होश

-(मदन गोपाल सिंह)

मदन गोपाल सिंह की इन पंक्तियों की प्रेरणा, 1988 में शेरों रॉबिन्सन (Sharon Robinson) द्वारा लिखित और लेनार्द कोएन (Leonard Cohen) द्वारा गाया यह गीत है ‘Everybody Knows’ (हर कोई जानता है)। इस गीत के रहस्यमयी/संकेतात्मक बंद/छंद/पद हमें यह बताते हैं कि, ‘हर कोई जानता है कि बेड़े में पानी भर रहा है/हर कोई जानता है कप्तान (जहाज़ का कप्तान) झूठ बोल रहा है।’ साहित्य के विद्यार्थियों को मदन गोपाल की पंक्तियों, ‘हर कोई बीबा जाणदै, कित्थों कहर घटावां आइयां’ (हर कोई प्यारे जाणतै, कहां से कहर घटाएं आयीं) पढ़के उनके पिता पंजाबी शायर हरिभजन सिंह द्वारा 1984 में दरबार साहिब (स्वर्ण मंदिर) में सेना के प्रवेश के बाद लिखी गई ये पंक्तियां भी आपको याद आएंगी, ‘फ़ौजाँ कौण देस तों आइयाँ’ (फौजें कौन देस से आयीं)’। उपरोक्त कविता मणिपुर में हो रही हिंसा की ओर गहरे संकेत करती है।

किसी भी देश, क्षेत्र, समाज और भाईचारे के लिए ‘हर कोई बीबा जाणदै’ वाली स्थिति बहुत ही भयावह होती है। ऐसे में मौजूदा हालात के लिए दोषी कौन है ये तो सब जानते हैं, लेकिन साथ ही यह मजबूरी भी है कि न तो ज़ुल्म के ख़िलाफ़ उठने वाली आवाज़ों को कोई सुनता है और न ही पीड़ितों की चीख़-पुकार और शिकायतों को। चीख़ें, शिकायतें, मातम लिपटे विलाप सत्ता की दीवारों से टकराकर लौट आते हैं क्योंकि सत्ता ने मन बना लिया है कि उसे क्या करना है। मणिपुर भी ऐसे ही हालात से गुजर रहा है।

शासक और राजनेता किसी क्षेत्र को केवल ख़ून-खराबा करवाने के लिए के लिए ही नहीं आग में झोंकते, इनका मकसद सिर्फ ख़ून-खराबा, हिंसा, भुखमरी, महिलाओं पर अत्याचार, लोगों को बेघर करना, नरसंहार करना ही नहीं है, बल्कि इनके जरिए वे एक खास तरह की राजनीति भी स्थापित करते हैं, जिससे दीर्घकालीन लाभ उन्हें मिलता रहता है। 1984 में सिखों का नरसंहार, 2002 के गुजरात दंगे और इसी तरह की अन्य घटनाओं ने इस विशेष प्रकार की धर्म-आधारित राजनीति को मजबूत और धर्मनिरपेक्ष राजनीति को कमजोर किया है। यही काम हुजूमी हिंसा की कार्रवाइयों ने भी किया। मणिपुर में वर्तमान हिंसा इसी उद्देश्य की पूर्ति कर रही है। एक खास तरह की राजनीति जो लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष राजनीति को उखाड़ फेंकना चाहती है, सफल हो रही है।

पिछले दशकों में पंजाब, जम्मू कश्मीर (अब केंद्र शासित प्रदेश), असम, नागालैंड आदि जैसे कई राज्य ‘हर कोई बीबा जाणदै’ वाली स्थिति से गुज़रे हैं। दो दशक पहले तक खबरें अखबारों, टेलीविजन चैनलों और रेडियो के माध्यम से पहुंचती थीं, अब सोशल मीडिया पर दुनिया में फैलती हैं। मणिपुर में दो महीने से ज्यादा समय तक इंटरनेट बंद रहा। लोगों ने ऐसी बहुत सारी घटनाएं रिकॉर्ड की होंगी, जिनमें से कई अब सोशल मीडिया पर आ रही हैं, जिससे देश में रोष और गुस्से की लहर है।

मैक्स वैबर आधुनिकता, अफ़सरशाही, सामाजिक अभियान, प्राधिकार, हैसियत, तर्कसंगतता आदि क्षेत्रों से जुड़े विचारक हैं, जिनके विचार अत्यधिक विवादास्पद रहे हैं। उन्होंने दो प्रकार की ‘राजनीतिक नैतिकता’ के बारे में तर्क दिए हैं: ‘विश्वासों की नैतिकता’ (Ethics of Conviction) और ‘ज़िम्मेदारी की नैतिकता’ (Ethics of responsibility)। बहुत सरल भाषा में कहें तो, वैबर के अनुसार ‘विश्वासों की नैतिकता’ पर अमल करने वाले राजनेता जो अपने विश्वासों के लिए समाज और राजनीति को किसी भी दिशा में ले जा सकते हैं; इस तरह की राजनीति अपने कार्यों से होने वाले नुकसान की जिम्मेदारी नहीं लेते; वह समाज में अपने विश्वासों की जीत को ही अपना लक्ष्य मानते हैं। वेबर का तर्क है कि समाज और राजनीति को ‘जिम्मेदारी की नैतिकता’ की अधिक आवश्यकता होती है। जिसके अनुसार हर राजनेता को यह जिम्मेदारी लेने की आवश्यकता होती है कि उसके कामकाज का समाज और राजनीति पर क्या असर पड़ रहा है।

ये दोनों अवधारणाएं इतनी सरल नहीं हैं लेकिन कुछ समय से वैबर के ‘जिम्मेदारी की नैतिकता’ के तर्क पर जोर इसलिए दिया जा रहा है क्योंकि आज की राजनीति में नैतिकता और सदाचार के लिए बहुत कम जगह बची है। राजनीतिक विशेषज्ञ राजनीति की व्याख्या सत्ता के खेल के रूप में करते हैं जिसमें चुनाव जीतकर सत्ता हासिल करने को ही अंतिम लक्ष्य मान लिया गया है। सत्ता पाने के लिए इसे राजनीतिक नेताओं का सर्वोत्तम गुण माना जाता है।

लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में यह तर्क यह तब दिया जाता है जब लोगों ने किसी विशेष राजनीतिक दल को चुना हो तो वह दल और उसके नेता सद्गुणों का भंडार बन गये हैं। उनके काम को सही सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है। उदाहरण के तौर पर भारतीय जनता पार्टी बहुसंख्यकवादी (Majoritarion) राजनीति (जिसमें बहुसंख्यक हिंदू समुदाय के मन में भाजपा, आरएसएस द्वारा पैदा की गई भावनाओं को सर्वोच्च आदर्श के रूप में स्थापित किया जा रहा है) को इस आधार पर इसे सही कहा जाता है कि यह राजनीति बहुसंख्यक समुदाय की उन भावनाओं की अभिव्यक्ति है जिसे काफी समय तक दबा कर रखा गया था। ऐसे तर्क देकर सत्ताधारी पार्टी अपने कामकाज और कार्रवाइयों के प्रति अपनी नैतिक जिम्मेदारी लेने की आवश्यकता को ठुकराती और धुंधला कर देती है।

कुछ राजनीतिक चिंतकों ने वैबर के ‘जिम्मेदारी की नैतिकता’ के तर्क पर जोर देते हुए कहा गया है कि राजनेताओं का अपने कार्यों की जिम्मेदारी लेना ही राजनीतिक नैतिकता और सदाचार का आधार हो सकता है। इस सिद्धांत के अनुसार, मणिपुर की मौजूदा स्थिति केंद्र और राज्य सरकारों से यह जवाब देने की मांग करती है कि मणिपुर की स्थिति के लिए कौन से राजनीतिक नेता जिम्मेदार हैं, किन नेताओं की कौन सी नीतियों के चलते मणिपुर में रहने वाले अलग-अलग संप्रदाय के लोगों के बीच नफ़रत की भावनाएं इतना भड़की कि 3 मई के बाद घटी घटनाओं को लेकर सारे देश को शर्मसार होना पड़ा है।

‘जिम्मेदारी की नैतिकता’ का सिद्धांत यही मांग करता है कि हिंसा को नियंत्रित क्यों नहीं किया गया; राज्य की पुलिस के हथियार एक संप्रदाय के लोगों में कैसे बांटे गये; राज्य/स्टेट इतना शिथिल कैसे पड़ गया; हिंसा का नग्न नृत्य क्यों होने दिया गया? इस स्थिति के बारे में बोलने वाले हर नेता को अपने शब्दों से उत्पन्न भावनाओं के लिए जिम्मेदारी लेनी होगी कि उन शब्दों से नफ़रत और हिंसा भड़की या ऐसी भावनाओं पर काबू पाने में मदद मिली। राजनीतिक नेताओं को भी बोलने और चुप रहने का अधिकार है, लेकिन प्रधानमंत्री सहित उन राजनीतिक नेताओं को ‘जिम्मेदारी की नैतिकता’ के सिद्धांत का पालन करते हुए यह बताना चाहिए कि वे लंबे समय तक चुप क्यों रहे।

एक तरफ नैतिक जिम्मेदारी और ‘जिम्मेदारी की नैतिकता’ के सवाल हैं तो दूसरी ओर ‘हर कोई बीबा जाणदै’ वाली स्थिति है। ये स्थितियाँ आपस में टकरा रही हैं। यह बात अब हर कोई जानता है मणिपुर में इस स्थिति के लिए कौन जिम्मेदार है लेकिन संबंधित राजनेता इसकी जिम्मेदारी लेने से इनकार कर रहे हैं। यह इनकार लोगों का अपमान है। मौजूदा राजनीति इस तरह के इनकार पर पनपती है और राजनेताओं को सत्ता में बनाए रखती है।

ये भी देखा गया है कि किसी खास समुदाय के ख़िलाफ़ हिंसा कुछ राजनेताओं की सत्ता मजबूत करती है। जब सत्ता मजबूत होती है तो राजनेता ‘जिम्मेदारी की नैतिकता’ जैसे मानक सिद्धांतों की परवाह क्यों करें? 4 मई को मणिपुर के कंगपोकपी जिले में दो महिलाओं को निर्वस्त्र करके घुमाने वाली शर्मनाक घटना का स्वत: संज्ञान (Suo Motto) लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, ”सांप्रदायिक तनाव वाले क्षेत्र में हिंसा भड़काने के लिए महिलाओं को एक साधन के रूप में इस्तेमाल किए जाने को स्वीकार नहीं किया जा सकता। यह संविधान का अपमान है।” ऐसे शब्दों का राजनेताओं पर कोई असर नहीं होता।

उपरोक्त विश्लेषण हमें उस दुखद और निराशाजनक स्थिति के रूबरू करता है जिससे नैतिकता मंद पड़ गयी है। क्या इसका यह मतलब है कि हम ऐसी स्थिति के सामने हथियार डाल दें? नहीं, स्थिति के सामने हथियार डाल देना अपने मनुष्य होने को पीठ दिखाना है।

इतालवी विचारक ग्राम्शी ने कहा था, “स्थितियां और उदासीनता इतिहास में एक बड़ी भूमिका निभाती हैं।” दुखद और निराशाजनक समय में भी मनुष्य को, मनुष्य बने रहने के लिए इस उदासीनता को तोड़ना होता है; ग्राम्शी का कथन है, “आधुनिक काल में, सही ढंग से जीने का अर्थ है भ्रमों (Illusions) से मुक्त होकर, निराश (Disillusioned) हुए बिना जीना।” ऐसा जीवन मांग करता है कि हम ‘हर कोई बीबा जाणदै’ की स्थिति से आगे बढ़ें और जानने वालों से जवाबदेही की मांग करें। यह कार्य आसान नहीं है; वक़्त का तक़ाज़ा है कि लोकतांत्रिक ताकतें एकजुट होकर यह काम करें। मणिपुर के लिए न्याय की मांग देशवासियों की सामूहिक जिम्मेदारी है।’

(डॉ स्वराजबीर, पंजाबी ट्रिब्यून के संपादक हैं।)

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