पटना में हुई विपक्षी दलों की बैठक में अरविंद केजरीवाल शरीक हुए तो यह राष्ट्रीय दल के रूप में मान्यता हासिल करने के बाद उनका नया नज़रिया था। मगर, बैठक खत्म होते-होते जिस तरीके से आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस पर हमला किया उससे इस नजरिए की हवा निकल गयी। क्या कांग्रेस पर हमला करके बीजेपी विरोधी सियासी ध्रुव को मजबूत किया जा सकता है या फिर उसका हिस्सा बना जा सकता है? अगर नहीं, तो अरविंद केजरीवाल ने ऐसा क्यों किया?
आम आदमी पार्टी का जन्म और विस्तार कांग्रेस के खिलाफ और उसकी क़ीमत पर हुआ है। मगर, अब कांग्रेस सत्ता में नहीं रह गयी है। सच कहा जाए तो कांग्रेस के सिमट जाने का सबसे ज्यादा फायदा आम आदमी पार्टी को ही हुआ है। बीते 10 साल में कांग्रेस अपना खोया हुआ जनाधार वापस पाने को बेचैन है और देश के जो राष्ट्रीय या क्षेत्रीय दल कांग्रेस के खिलाफ भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन चलाया करते थे वे आज कांग्रेस के अगल-बगल नज़र आते हैं। ऐसे में अरविंद केजरीवाल का पटना की बैठक में शामिल होना अस्वाभाविक घटना नहीं थी।
अस्वाभाविक है कांग्रेस को नियंत्रित करने की कोशिश
अस्वाभाविक घटना है आम आदमी पार्टी का कांग्रेस को नियंत्रित करने की खुली कोशिश। इससे पता चलता है कि आम आदमी पार्टी अब भी बीजेपी को कांग्रेस के मुकाबले बड़ी चुनौती के रूप में नहीं देखने की गलती कर रही है। दिल्ली अध्यादेश बड़ा मुद्दा है इसमें कोई संदेह नहीं। मगर, यह मुद्दा विपक्ष की एकता से बड़ा मुद्दा कतई नहीं है। विपक्ष की एकता होगी तो दिल्ली अध्यादेश पर लड़ाई अपने आप मजबूत हो जाएगी। महाराष्ट्र में असंवैधानिक सरकार का चलना दिल्ली अध्यादेश से छोटा मुद्दा नहीं कहा जा सकता। मणिपुर में सरकार का फेल हो जाना भी राष्ट्रीय मुद्दा है। क्या इन सवालों पर विपक्ष की एकता नहीं होनी चाहिए? अलग-अलग सभी सवालों पर ऐसा मुमकिन है। मगर, एक बार अगर विपक्ष एकजुट हो गया तो सभी सवालों पर उनकी एकता दिखने लगेगी। इसी बात को अरविंद केजरीवाल नजरअंदाज कर रहे हैं।
दिल्ली में कांग्रेस का साथ लिए बगैर आम आदमी पार्टी बीजेपी को लोकसभा चुनाव में नहीं हरा सकती- यह तय शुदा बात है। पंजाब में आम आदमी पार्टी को कांग्रेस से ही मुकाबला करना है। इसके बावजूद आम चुनाव में आम आदमी पार्टी अपने लिए कोई बड़ा नैरेटिव तभी खड़ा कर सकती है जब वह बीजेपी से मुकाबला करती हुई दिखे। राष्ट्रीय स्तर पर आम आदमी पार्टी इस हद तक खड़ी नहीं हो सकी है कि वह अपने दम पर बीजेपी से मुकाबला करे। ऐसे में बीजेपी को मुख्य प्रतिद्वंद्वी न मानकर कांग्रेस से रार मोल लेने का मतलब है कि आम आदमी पार्टी का मकसद विपक्ष की एकता नहीं, अपनी राजनीति को मजबूत करना है।
आत्मकेंद्रित चिंतन का खुलासा
आम आदमी पार्टी को इस बात से बिल्कुल मतलब नज़र नहीं आता कि 2024 में क्या होना वाला है। उसकी फिक्र सिर्फ इतनी दिखती है कि कांग्रेस से लड़ते हुए वह अपनी ताकत थोडी-बहुत बढ़ा पाती है या नहीं। आम आदमी पार्टी को जितना नुकसान कांग्रेस का करना था, कर चुकी। अब कांग्रेस को नुकसान नहीं, आम आदमी पार्टी के रुख से फायदा होने वाला है। पंजाब में आम आदमी पार्टी सत्ता में है और वह कांग्रेस का विरोध करेगी तो इससे खुद उसका ही नुकसान होगा।
कांग्रेस के लिए आम आदमी पार्टी से ‘मुंह लगना’ नुकसानदायक सिद्ध हो सकता है। लिहाजा कांग्रेस चुप है। कांग्रेस के लिए यह स्पष्ट है कि उसका मुख्य प्रतिद्वंद्वी बीजेपी है आम आदमी पार्टी नहीं। ऐसे में आम आदमी पार्टी के पूछे गये सवालों का जवाब देना भी कांग्रेस के लिए जरूरी नहीं लगता है।
दिल्ली अध्यादेश पर आम आदमी पार्टी को देश के विभिन्न राजनीतिक दलों का समर्थन मिला है। कांग्रेस के लिए भी इसका विरोध करना मुमकिन नहीं होगा। मगर, इस पर फैसला कांग्रेस कब करेगी यह आम आदमी पार्टी तय नहीं कर सकती। अरविंद केजरीवाल के व्यवहार से देश के बाकी दलों के नेता भी हतप्रभ हैं। जब एनसीपी, शिवसेना जैसी पार्टियां कांग्रेस को डिक्टेट नहीं कर सकी हैं तो आम आदमी पार्टी ऐसा कैसे कर सकती है?- बड़ा सवाल है।
अरविंद केजरीवाल दिल्ली अध्यादेश पर जितना शोर करेंगे, राजनीतिक नुकसान उतना ज्यादा है। कांग्रेस इस विषय पर कोई जवाब देने वाली नहीं है। वक्त आने पर कांग्रेस यथोचित व्यवहार दिखलाएगी जो आम आदमी पार्टी की चाहत या उसके प्रभाव से बिल्कुल अलग हो सकती है। मगर, इतना तय है कि बीजेपी के संघीय ढांचे पर हमले वाली स्थिति का समर्थन कांग्रेस कभी नहीं करेगी। यह बात समझते हुए भी अगर अरविंद केजरीवाल आक्रामक तेवर अपना रहे हैं तो इसका मतलब है कि या तो वे कन्फ्यूज्ड हैं या फिर देश की सियासत और अपनी सियासी जरूरतों को भी समझने में वे विफल हो रहे हैं।
(प्रेम कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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