गीता प्रेस ने कैसे हिंदू राष्ट्र के लिए जमीन तैयार की?

[सामान्य जन धर्म को सत्य के रूप में देखते हैं, बुद्धिमानों के लिए यह मिथ्या है, और शासक इसे उपयोगी मानते हैं। – लुई एनियस सेनेका (रोमन सम्राट नीरो का शिक्षक व सलाहकार)]

पत्रकार अक्षय मुकुल की पुस्तक ‘गीता प्रेस एंड द मेकिंग ऑफ हिंदू इंडिया’ पर चर्चा करने से पहले कुछ जरूरी घटनाओं का उल्लेख उपयोगी रहेगा। विगत सालों में देश के तीन प्रसिद्ध पाखंड विरोधी बुद्धिजीवी व एक्टिविस्टों (नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे और कलबुर्गी) की हत्या कर दी गई। इनकी हत्याओं में कतिपय मिलिटेंट सनातनियों का हाथ माना जा रहा है।

कट्टरवादी-बुनियादपरस्त शक्तियां चाहती हैं कि सनातन धर्म के नाम पर देश एकलधर्मीय राष्ट्र बने, पाखंड व अंधविश्वास यथावत रहे, मिथकीयता इतिहासहीनता, ज्ञान-विज्ञान विहीनता जारी रहे और लोकतंत्र पर मध्ययुगीन सामंती मूल्य व्यवस्था का राज रहे। हिंदू फासीवाद का वर्तमान उभार अचानक घटने वाली घटना नहीं है। ये संयोग मात्र भी नहीं हैं। बल्कि ऐसी घटनाओं की पृष्ठभूमि की निर्माण प्रक्रिया तो गुलाम भारत में ही शुरू हो गई थी। औपनिवेशिक भारत के अंग्रेज शासकों ने इस प्रक्रिया को संरक्षण व प्रोत्साहन ही प्रदान किया।

उत्तर औपनिवेशिक भारत में इस प्रक्रिया की हिंसात्मक शक्ल दिखाई देती है। आज ये शक्तियां भारतीय राष्ट्र राज्य की बहुलतावादी लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था को निर्णायक रूप से हस्तगत करने की दिशा में तेजी से बढ़ रही हैं। धर्म के माध्यम से अंधराष्ट्रवाद, युद्धोन्माद, एकल ध्रुवीय सांस्कृतिक वर्चस्वता और कॉरपोरेटोन्मुख राजनीतिक अर्थव्यवस्था के ‘ग्रांड प्रोजेक्ट’ को लागू करने के प्रयास किए जा रहे हैं। तब इस प्रोजेक्ट की जमीन को आज कुरेदना और भी जरूरी है।

इस जमीन को उर्वरक बनाने के लिए कैसे-कैसे बीजों का अंकुरण किया गया, कौन-कौन-सी खाद डाली गई, कैसी फसल पैदा हुई और इसे कैसे काटा गया (या काटा जा रहा है) इन सवालों का जवाब अक्षय मुकुल की 539 पेजी संदर्भित पुस्तक में तथ्यात्मक ढंग से देने की कोशिश की गई है। इसके लिए लेखक ने गोरखपुर के प्रसिद्ध गीता प्रेस, उसकी पत्रिका कल्याण, अन्य प्रकाशित सामग्री और पत्ररूपी दस्तावेजों की बारिकी से धुनाई की है।

इनकी अंतर्निहित प्रवृत्तियों, असली इरादों या मंसूबों और गीता प्रेस व कल्याण के सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक आधारों को तार्किकता के साथ उजागर किया है। बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी हनुमान प्रसाद पोहार अपने जीवनकाल में कैसे लीजेंड बने, उन्होंने हिंदू राष्ट्रवाद व हिंदू इंडिया (या भारत) की लक्ष्य प्राप्ति के लिए गीता प्रेस प्रतिष्ठान व कल्याण का कैसा इस्तेमाल किया, किस प्रकार सनातन धर्म का प्रयोग किया गया, इसका विश्लेषणपरक विवरण पुस्तक में है।

वास्तव में, हनुमान प्रसाद पोद्दार के नेतृत्व में संचालित गीताप्रेस और कल्याण महज प्रिंटिंग संस्थान एवं पत्रिका ही नहीं थे, बल्कि दीर्घकालीन हिंदुत्व मिशन की ‘मुद्रण सेना’ थे। हिंदी भारत, विशेषत: ग्रामीण भारत को इस सेना ने जितना घेरे रखा, हिंदू परिवारों में इसने जितनी गहरी पैठ बनाई है, शायद ही कोई अन्य धार्मिक पत्रिका व प्रेस ऐसा श्रेय व आदर अर्जित कर सका हो। गांव के सवर्ण परिवारों में तुलसीदास कृत रामचरितमानस और कल्याण पत्रिका की उपस्थिति धार्मिक कृत्य के समान हुआ करती थी।

ग्रामीण समाज में ऐसे परिवारों को आदर की दृष्टि से देखा जाता था। धार्मिक अवसरों में इन परिवारों की सक्रियता बढ़ जाया करती थी। रामचरितमानस और कल्याण के कारण इन परिवारों के मुखिया गांव के परोक्ष धार्मिक गुरु माने जाते थे। चौपालों में रामचरितमानस का पाठ, कल्याण का घरों में क्रमवार वाचन, पुण्य कर्म व अर्जन से कम नहीं हुआ करता था। बेसब्री से पत्रिका के नए अंक की प्रतीक्षा रहती थी। ग्रामीण व कस्बाई पाठकों का गीता प्रेस से संबंध केवल ‘ग्राहक’ होने तक सीमित नहीं था, बल्कि ये लोग उसके अघोषित ‘धार्मिक सैनिक’ हुआ करते थे।

पोद्दार के संपादकीय को ‘धार्मिक उपदेश’ (प्रायः आदेश भी) के रूप में ग्रहण किया जाता था। ऐसा जादुई प्रभाव था गीता प्रेस और उसके प्रकाशनों का। स्वतंत्र भारत के करीब तीन दशकों तक यह जादुई प्रभाव रहा है। गीता प्रेस के कर्ताधर्ता पोद्दार को अपनी इस अनूठी स्थिति का एहसास भी था। इसलिए वह हिंदी उत्तर भारत की धर्मप्राण भावना प्रधान जनता को सनातन धर्म के चरणामृत से मदहोश बनाए रखते, उस पर धार्मिक कर्म व अधार्मिक कर्म के उपदेशों की चाबुक चलाते रहते। सतह पर गीता प्रेस का साहित्य गऊ-समान निर्मल, मैमने-सा मासूम, निरापद व पारदर्शी लगा करता था।

लेकिन, इसमें ऐसी अचूक दीर्घकालीन मारक शक्ति छिपी रहती थी जो आहिस्ता-आहिस्ता अपना असर दिखाया करती थी। चेतना कब अपहृत हो गई है। इसका पता ही नहीं चलता। विशेषतः स्त्रियां और किशोरावस्था की दहलीज पर खड़े बच्चे सहजतापूर्वक इसके शिकार बन जाते। हिंदू महासभा, रामराज्य परिषद, विश्व हिंदू परिषद जैसी संस्थाओं द्वारा आयोजित कार्यक्रमों व आंदोलनों के लिए इन चेतना अपहृतों को धार्मिक सैनिकों के रूप में तैयार किया जाता। बड़े-बड़े गऊ रक्षा आंदोलनों को इनके दम पर भी चलाया गया है। इस समीक्षक का भी यह निजी अवलोकन अनुभव है।

लेखक बतलाते हैं कि 2014 तक गीता प्रेस की 7 करोड़ 20 लाख प्रतियां बेच चुकी थीं। इसके अलावा, कल्याण की दो लाख और अंग्रेजी पत्रिका कल्याण कल्पतरू की एक लाख से अधिक प्रसार संख्या है। रामचरितमानस समेत गोस्वामी तुलसीदास की अन्य कृतियां भी सात करोड़ से अधिक बेची जा चुकी हैं। पुराण, उपनिषदों जैसे धार्मिक ग्रंथों की प्रतियां लगभग एक करोड़ 90 लाख बिकी हैं।

लेखक ने इस बात को बतलाया है कि गीता प्रेस ने किस तरह अपना ‘साम्राज्य’ खड़ा किया और ‘मिलीटेंट हिंदू राष्ट्रवादियों’ का प्रवक्ता बना। स्वतंत्रता पूर्व और पश्चात के प्रमुख आंदोलनों व घटनाओं (गऊ रक्षा आंदोलन, हिंदू कोड बिल, हिंदुस्तानी के स्थान पर हिंदी भाषा, भारत विभाजन व पाकिस्तान निर्माण, धर्मनिरपेक्ष संविधान विरोध, अस्पृश्यता विरोध, स्त्रियों को सनातनी शिक्षा, सनातनी धर्म संस्कार आदि) में पोद्दार और गीता प्रेस का हस्तक्षेप प्रत्यक्ष व परोक्ष दोनों तरह से निरंतर रहा है। इसने इन घटनाओं को दिशा दी है।

आज इलेक्ट्रॉनिक माध्यम का युग है। लेकिन, गीता प्रेस के सेनापति हनुमान प्रसाद पोद्दार ने दोनों कालों (स्वतंत्रता पूर्व व पश्चात) में ही प्रेस से प्रकाशित विभिन्न साहित्य के माध्यम से ‘मुद्रण माध्यम’ की प्रभाव सत्ता निर्विवाद रूप से स्थापित की थी। यह दिखला दिया कि महाजनी पूंजीवाद से औद्योगिक पूंजीवाद तक के संक्रमणकाल में बहुसंख्यक धार्मिक राष्ट्रवाद के निर्माण में प्रेस कितनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। लोकवृत्त को कितना प्रभावित और जनता को संगठित व आंदोलित कर सकता है।

यहां यह उल्लेखनीय है कि गीता प्रेस व कल्याण से काफी पहले राजस्थान के शहर के दो भाइयों- गंगा विष्णु बजाज और खेमराज कृष्णदास बजाज ने 1871 में श्री वेंकटेश्वर प्रेस लगाकर धार्मिक साहित्य का व्यापार शुरू किया था। हिंदू धर्म-दर्शन-आध्यात्मिकता से संबंधित 2,800 पुस्तकें प्रकाशित की। वेंकेटेश्वर- समाचार भी शुरू किया। कल्याण के आरंभिक 13 अंक भी इसी प्रेस में छपे थे।

संदर्भित पुस्तक गीता प्रेस का केवल लेखा जोखा मात्र नहीं है, बल्कि 19वीं सदी से लेकर वर्तमान सदी के प्रथम दशक तक उन नायकों, बुद्धिजीवियों और घटनाओं का भी आख्यान है जिन्होंने आधुनिक भारतीय मानस को बनाने में हस्तक्षेप किया है। महाजनी पूंजीवाद के प्रतिनिधि मारवाड़ी पूंजीपतियों ने धर्म, संस्कृति, आध्यात्मिकता और राजनीति का इस्तेमाल करते हुए अपनी अर्थसत्ता कैसे सुदृढ़ व सुरक्षित रखी, और इसके विस्तार के लिए कैसे-कैसे माध्यम अपनाए, इसका भी सांकेतिक विवरण पुस्तक में उपलब्ध है।

वहीं महाजनी पूंजीपति वर्ग कालांतर में औद्योगिक पूंजीपति वर्ग में रूपांतरित हो जाता है, जो कि स्वतंत्र भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था का चरित्र व दिशा निर्धारित करता है। इस दृष्टि से बिड़ला परिवार अग्रिम पंक्ति में खड़ा नजर आता है। देशभर में बिड़ला मंदिरों का निर्माण केवल संयोग या अकस्मात मात्र नहीं है। बल्कि यह एक सुनियोजित रणनीति का परिणाम है जिसकी जड़ें सनातन धर्म से भी जुड़ी हुई हैं। गीता प्रेस और इसके नायकों से श्री घनश्याम दास बिड़ला और उनके परिवार का संबंध रहा है।

गीता प्रेस की स्थापना 1923 में होती है, और तीन वर्ष पश्चात मासिक कल्याण का जन्म होता है। रोचक तथ्य यह है कि हनुमान प्रसाद पोद्दार के देश के उभरते सामाजिक-राजनीतिक सितारे मोहनदास करमचंद गांधी के साथ भी उतने ही अच्छे संबंध थे जितने कि कट्टरवादी संस्था हिंदू महासभा के साथ। वे दोनों के मध्य बड़ी सुगमता के साथ आवागमन किया करते थे। इसकी पृष्ठभूमि में सक्रिय रहता था मारवाड़ी पूंजीपति वर्ग। नोटतलब यह है कि हिंदू समाज के जाति-श्रेणी तंत्र में वैश्य का स्थान तीसरे पायदान पर रहा है; प्रथम स्थान पर ब्राह्मण; दूसरे स्थान पर क्षत्रिय।

लेकिन, 19वीं व 20वीं सदी में मारवाड़ी पूंजी की आक्रामक सक्रियता के कारण इस श्रेणी तंत्र में अघोषित पायदान परिवर्तन होता चला गया। गीता प्रेस की बहुआयामी गतिविधियों में गहराई से झांकने पर ब्राह्मण-वैश्य गठबंधन की स्पष्ट सत्ता स्वतः उभरती हुई मिलती है। प्रश्न प्रेस स्वामित्व का रहे, या औद्योगिक पूंजी का या फिर सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक आंदोलनों के नेतृत्व का, इस गठबंधन की स्पष्ट छाप हर जगह मिलेगी। गीता प्रेस के नेतृत्व ने इस गठबंधन सत्ता का भरपूर दोहन भी किया।

इस सिलसिले में लेखक ने 19वीं सदी के हिंदी प्रेस के मालिकों, संपादकीय नेतृत्व और राजनीतिक नेतृत्व के सवर्णवादी चरित्र का सटीक विश्लेषण किया है। यह बतलाया है कि किस प्रकार भारतेंदु हरिश्चंद्र गुप्त, बालमुकुंद दास गुप्त, राजा गोकुलदास सहित दर्जनों मारवाड़ी पूंजीपति परिवारों और अखिल भारतीय मारवाड़ी महासभा जैसी संस्थाओं ने पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से और उत्तर औपनिवेशिक भारत में आक्रामकता के साथ, ‘मारवाड़ी अस्मिता’ को स्थापित करने के अभियान चलाए, और इसके लिए ब्राह्मण साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों, राजनेताओं और सामाजिक कार्यकर्त्ताओं से सक्रिय सहयोग लिया गया। यह अकारण नहीं है कि महावीर प्रसाद द्विवेदी, अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, रामनरेश त्रिपाठी, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, वियोगी हरि शिवपूजन सहाय, प्रेमचंद्र, भगवतीचरण वर्मा जैसे प्रतिष्ठित हिंदी साहित्यकारों को भी घेरा गया।

गीता प्रेस और पोद्दार के पहुंच के दायरे में जहां महात्मा गांधी थे, वहीं राजेंद्र प्रसाद, मदनमोहन मालवीय, पुरुषोत्तम दास टंडन, सेठ गोविंद दास, करपात्री महाराज, प्रभुदत्त ब्रह्मचारी, संघ प्रमुख गोलवलकर, सावरकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे अनेक धुर दक्षिणपंथी भी थे। कांग्रेस में हमेशा से दक्षिणपंथियों और नरम हिंदुत्ववादियों की खासी मौजूदगी रही है। पोद्दार और उनके साथियों ने दीर्घगामी रणनीति के तहत ऐसे नेताओं को निरंतर घेरे रखा। हिंदू जनमत के निर्माण में इन नेताओं से लेखन, राजनीतिक संरक्षण और आर्थिक योगदान प्राप्त होता रहा।

गांधीजी के साथ गीता प्रेस के प्रबंधकों और पोद्दार के संबंध समरूपी कभी नहीं रहे। पोद्दार को सामान्यतः गांधीजी का सान्निध्य तो मिला, दोनों के बीच विश्वास भी बना रहा, लेकिन महात्मा के सामाजिक-धार्मिक सुधारों की कड़ी आलोचना भी कल्याण में होती रही। हरिजनों के मंदिर में प्रवेश संबंधी गांधी के कदमों का तो सख्त विरोध किया गया। इन्हें सनातन धर्म विरोधी घोषित किया गया। रोचक तथ्य यह है कि राजस्थान के कारोबारी घराने से संबंधित पोद्दार ने 1907 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में एक आम प्रतिनिधि के रूप में अपने सार्वजनिक जीवन की यात्रा शुरू की थी।

पोद्दार चरमपंथी बिपिन चंद्र पाल से भी प्रभावित हुए थे। इसके पश्चात वह कट्टर हिंदू बनते गए और अंतत: हिंदू महासभाई हो गए। विडंबना देखिए कि निरंतर प्रयोगधर्मी, विकासशील व महामानवतावादी गांधी और कट्टर सनातनी, यथास्थितिवादी एवं जातिगत श्रेणीतंत्रवादी पोद्दार के मध्य जीवन पर्यंत संबंध बने रहे। यह कम आश्चर्य की बात नहीं है। कहीं इन संबंधों का आधार ‘वैश्य जाति’ और ‘मारवाड़ी पूंजी’ तो नहीं थी? यह एक और शोध का विषय हो सकता है।

गांधी और पोद्दार के संबंध बेहद पेचीदा व रहस्यमय प्रतीत होते हैं। एक तरफ गीता प्रेस के सेनापति अपने पत्रों, संपादकियों और प्रकाशित लेखों में गांधीजी की कतिपय नीतियों (हिंदू-मुस्लिम एकता, सांप्रदायिक एकता, नोआखली में आंदोलन, आमरण अनशन आदि) की कड़ी आलोचना करते हैं, वहीं वह गांधीजी को संबोधित अपने एक पत्र (1937) में उन्हें एक डरावने स्वप्न से आगाह भी करते हैं। पोद्दार पत्र में अपने स्वप्न के बारे में गांधी जी को बतलाते हैं कि किसी व्यक्ति ने उन्हें कहा है ‘गांधी लंबे समय तक जिंदा नहीं रहेंगे। उन्हें चाहिए कि वह अपने जीवन का शेष समय ईश्वर की आराधना में बिताएं’ (पृ. 57)।

महान गांधी पोद्दार के इस पत्र को ‘प्रेम का प्रतीक’ की संज्ञा देते हुए लिखते हैं, ‘जहां तक मृत्यु का संबंध है, यह जन्म की संगी है, और विश्वसनीय है। यह कभी असफल नहीं रहती है। मृत्यु को समीप से देखने पर ही किसी को ईश्वर की पूजा क्यों करनी चाहिए? … यदि मुझे सौ बरस भी जीना हुआ तो भी मेरे मित्रों को यह बहुत छोटा लगेगा। तब यह आज घटे या कल, क्या अंतर है ?’ (पृ. 57)।

पोद्दार का यह कैसा त्रासद स्वप्न था कि जो करीब 10 वर्ष बाद सच में बदलता है, और 30 जनवरी 1948 को कट्टर हिंदुत्ववादी नाथूराम गोडसे महात्मा गांधी की हत्या कर देता है। यह कैसा रहस्यमय संयोग है कि पत्र लेखक पोद्दार भी हत्या वाले दिन दिल्ली में ही होते हैं। इतना ही नहीं पोद्दार, गीता प्रेस और कल्याण गांधीजी की हत्या के लिए जिम्मेदार हैं। गीता प्रेस के एक पूर्व प्रबंधक व हनुमान प्रसाद पोद्दार के करीबी सहायक महावीर प्रसाद पोद्दार द्वारा इस संदेह को प्रचारित किया जाता है। लेखक मुकुल के अनुसार गांधीजी के साथ इतने गहरे संबंध होने के बावजूद गोरखपुर स्थित गीता प्रेस व पोद्दार के निजी संग्रहालय में गांधी हत्या का कोई उल्लेख नहीं मिलता है।

हनुमान प्रसाद के संबंध में लिखे गए कई मॉनोग्राफों और उनकी स्तुतिपूर्ण जीवनियों में भी गांधी-हत्या को बिल्कुल ही नजरअंदाज किया गया है। केवल एक ही अप्रकाशित जीवनी में इतना उल्लेख मिलता है कि “पोद्दार 30 जनवरी 1948 को दिल्ली में थे जिस रोज हत्या (गांधी जी की) हुई।” यहां तक कि गीता प्रेस भी इस हत्याकांड पर खामोश रहा। कल्याण में भी कोई उल्लेख नहीं किया गया। तीन महीने बाद कहीं जाकर अप्रैल 1948 में पोद्दार गांधी को याद करते हैं। मुकुल पूछते हैं, “महत्त्वपूर्ण प्रश्न तो अनुत्तरित है: कल्याण के फरवरी व मार्च के अंकों में गांधी का उल्लेख (हत्याकांड) क्यों नहीं हुआ?” (पृ. 58 )। क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है?

पुस्तक में गुप्तचर विभाग के संग्रहालय से प्राप्त सामग्री के हवाले से बतलाया गया है कि पोद्दार 4 फरवरी 1948 को प्रतिबंधित राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की रक्षा में सक्रिय थे। जब नेहरू सरकार ने 15 जुलाई 1949 को संघ पर से प्रतिबंध हटा लिया तब गोरखपुर में आयोजित सार्वजनिक सभा में पोद्दार र पांजजन्य के संपादक अटल बिहारी वाजपेयी के साथ मौजूद थे। हनुमान प्रसाद ने भी सभा को संबोधित किया। पोद्दार का संघ के साथ संबंध सभा में उपस्थित रहने तक ही सीमित नहीं था, बल्कि इससे अधिक था। जब 1949 में गुरु गोलवलकर को जेल से रिहा किया गया तब भी विभिन्न नगरों में आयोजित स्वागत सभाओं की अध्यक्षता पोद्दार ने की थी (पू.59)।

गीता प्रेस के प्रबंधकों और हनुमान प्रसाद पोद्दार के हिंदू महासभा के साथ-साथ संघ परिवार से भी गहरे रिश्ते रहे हैं। लेखक मुकुल अपने पाठकों को यह हैरतअंगेज जानकारी भी देते हैं कि 22-23 दिसंबर 1949 की रात्रि को बाबरी मस्जिद में भगवान राम की मूर्ति के अचानक प्रकट होने में भी पोद्दार का हाथ था। पुस्तक बतलाती है, “आरएसएस के अंतरंग और जाने-माने हिंदी पत्रकार राम बहादुर राय ने हाल ही में अयोध्या में अचानक प्रकटी मूर्ति के संबंध में दहला देने वाली बात उजागर की है। राय ने लिखा है कि संघ नेता नानाजी देशमुख ने उन्हें बतलाया था कि पोद्दार के नेतृत्व में सरयू नदी में पवित्र स्नान कराने के पश्चात मूर्ति (रामलला) को अयोध्या परिसर में रखा गया था।” लेखक ने इस जानकारी का संदर्भ यथावत पत्रिका के संपादक राय का उनकी ही पत्रिका में प्रकाशित (अंक 1-15 दिस. 2013) लेख ‘बाबरी मस्जिद : ध्वंस की राजनीति’ से दिया है (पृ. 319-320)।

मुकुल लिखते हैं कि पोद्दार ने मूर्ति के प्रकट होने के समाचार पर अपार प्रसन्नता व्यक्त की थी। वह राम के साथ-साथ मथुरा में भगवान श्रीकृष्ण और सालासर में हनुमान की मूर्तियों की पुनर्स्थापना-योजना से भी संबद्ध थे। इसका यह अर्थ निकला कि रामलला की मूर्ति के प्रकटीकरण में मनुष्य का हाथ था, न कि यह कोई दैविक चमत्कार था। पोद्दार स्वयं भी अयोध्या थे और मूर्ति को यथावत रखने के लिए उन्होंने कुछ कदम भी उठाए थे। सारांश में देश की चरम व नरम दक्षिणपंथी शक्तियों और गीता प्रेस परिवार व पोद्दार के मध्य अत्यंत मधुर संबंध थे। वैचारिक योगदान के अतिरिक्त संगठनात्मक आंदोलनात्मक, आर्थिक और राजनीतिक सहयोगों का आदान-प्रदान भी इन दो कट्टर सनातनी ध्रुवों के बीच होता रहा है। यह कम दिलचस्प नहीं है कि गीता प्रेस परिवार जवाहरलाल नेहरू के प्रति लगातार उदासीन रहा। स्वतंत्रता आंदोलनकारी व प्रधानमंत्री, दोनों ही रूपों में नेहरू और उनके प्रगतिशील साथियों की उपेक्षा की।

कल्याण ने हमेशा अपने लेखों में भारतीय मुसलमानों की निष्ठा को शंका से देखा। मोहम्मद अली जिन्ना को ‘नए युग का औरंगजेब’ घोषित किया- मुस्लिम लीग को चेतावनी दी कि जिन्ना भी औरंगजेब की नियति को प्राप्त होगा (पृ. 249)। पोद्दार स्वतंत्र भारत को हिंदू राष्ट्र के रूप में देखना चाहते थे। उन्होंने इस संबंध में कांग्रेस, हिंदू महासभा, सनातनियों, जैनियों और सिखों से एक 12 सूत्री अपील भी जारी की थी। अपील की कुछ प्रमुख बातें हैं एक इंडिया को हिंदुस्थान या आर्यावर्त कहा जाना चाहिए; दो यह पूर्णरूपेण हिंदू राष्ट्र होना चाहिए; झंडे का रंग केसरिया व वंदे मातरम राष्ट्रगान होना चाहिए; चार, भारतीय सेना में केवल हिंदू रहने चाहिए; पांच मुसलमानों को ऊंचे पदों पर न रखा जाए।

वैसे तो गीता प्रेस परिवार और उसके नेतृत्व ने हमेशा धर्म व आध्यात्मिकवाद की दुहाई दी। बार-बार यह भी कहा कि उनका राजनीति और अर्थतंत्र के साथ कोई लेना-देना नहीं है। भाई जी (पोद्दार) पूरी तौर पर निस्पृह व्यक्ति हैं। वह ईश्वर उपासना में लीन रहते हैं। वह हिंदू समाज के प्रति समर्पित हैं। सच्चाई यह है कि गीता प्रेस और हनुमान प्रसाद पोद्दार की राजनीतिक तटस्थता या तथाकथित निस्पृहता स्वार्थ सापेक्ष थी। गीता प्रेस परिवार समाजवाद व साम्यवाद का घोर विरोधी था। पोद्दार ने साम्यवादियों का विरोध करने के लिए रणनीति बनाई, और जनसंघ (आज भाजपा), अ.भा. विद्यार्थी परिषद, स्वास्तिक प्रकाशन सहित संघ से संबद्ध विभिन्न संस्थाओं के साथ तालमेल किया।

पोद्दार की नजरों में साम्यवाद एक ‘शैतानी विचारधारा’ है। वह पश्चिम बंगाल के शासन की कड़ी आलोचना करते हैं। व्यापारी समुदाय भयभीत है। चीन सहित विश्व के विभिन्न भागों में बढ़ते समाजवाद व साम्यवाद के प्रभावों को लेकर सनातनी सेनापति पोद्दार बेहद चिंतित थे। उनकी दृष्टि में अमीरों को लूटकर गरीबों को खिलाने का लक्ष्य विफल होगा क्योंकि भारत का छद्म आरंभ से ही धार्मिक है। यह भारत की रग-रग में बसा हुआ है। कल्याण में योजनाबद्ध ढंग से साम्यवाद व मार्क्स विरोधी लेखों का प्रकाशन होता रहा। हिंदू, समाजवाद-साम्यवाद के प्रभावों से दूर रहें, उनका आत्मिक उत्थान होता रहे, वे सच्चे सनातनी व ईश्वर भक्त बने, इसलिए कल्याण ने अपने पाठकों से कहा कि वे हिंदू कलैंडर माह के भीतर साढ़े तीन लाख करोड़ बार “हरे राम, हरे राम, राम राम हरे हरे, हरे कृष्णा हरे हरे” जैसे मंत्र का जाप करें।

पोद्दार ने अपनी घोषित राजनीतिक तटस्थता के बावजूद इंडियन एक्सप्रेस के मालिक रामनाथ गोयनका के पक्ष में चुनाव अपील की थी। गोयनका ने 1971 में जनसंघ के टिकट पर विदिशा से लोकसभा का चुनाव लड़ा था। पोद्दार का अजीबो-गरीब तर्क था कि गोयनका केवल उद्योगपति ही नहीं हैं, बल्कि एक सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं। वह धार्मिक भी हैं। मैं उन्हें बचपन से जानता हूं। इसलिए “मैं मतदाताओं से अनुरोध करता हूं कि वे उन्हें अधिकतम वोटों से उनकी विजय सुनिश्चित करें। जनता को उनकी सेवावृत्ति से लाभ होगा” (पृ. 69)। सवाल है, यह कैसी राजनीतिक निरपेक्षता व आध्यात्मिकता है, शोषित, उत्पीड़ित और गरीब समर्थक राजनीति (साम्यवाद व समाजवाद) को अधार्मिक व हिंदू शत्रु घोषित किया जाता है, लेकिन पूंजी समर्थक राजनीति को धार्मिक व जनकल्याणकारी बताया जाता है।

लेखक मुकुल का निष्कर्ष है कि पोद्दार आध्यात्मिक होने के बावजूद मुक्त अर्थव्यवस्था के समर्थक थे। मुकुल के शब्दों में पोद्दार “एक असफल व्यापारी रहे होंगे, लेकिन वह अपने सार्वजनिक जीवन में सदैव मुक्त बाजार और राज्य हस्तक्षेप से मुक्त उद्योग व व्यापार के पक्षधर थे” (पृ. 101)। वह कांग्रेस के जमींदारी उन्नमूलन, निजी उद्यमों के राष्ट्रीयकरण और जातिगत भेदभाव के अंत के विरोधी थे। सनातनी वैवाहिक रीति-नीति में परिवर्तन अंतर्जातीय विवाह, विधवा विवाह, अंतर्जातीय भोज आदि के भी वह सख्त विरोधी थे।

मुकुल का यह रोचक विश्लेषण है कि गीता प्रेस परिवार एवं पोहार एक प्रकार से भक्ति से लाभ का बनिया मॉडल’ के हिमायती थे। वह वैष्णवभक्ति परंपरा से त्वरित लाभ (धन, मानसिक शांति, स्वास्थ्य, पुण्य, आध्यात्मिकता आदि) के प्रचारक थे (पृ. 229)। वह समाज के अंतर्विरोधों को वर्ग सहयोग के माध्यम से हल करना चाहते थे। यहां तक कि जब एक स्त्री ने पोद्दार से बलात्कार की बात कही तो उन्होंने उसे सिर्फ वर्ष भर रामनाम की माला का जाप करने का आदेश दिया। उन्होंने उससे यह भी कहा कि वह अपने पति को इस घटना के बारे में नहीं बतलाएं।

इसके विपरीत पोद्दार रामकृष्ण डालमिया जैसे भ्रष्ट सीमेंट उद्योगपति को संकट से उबारने के लिए सक्रिय हो जाते हैं। प्रभावशाली व्यक्तियों से संपर्क करते हैं। उन्हें पत्र लिखते हैं। पुरुषोत्तम दास टंडन को सक्रिय करते हैं। सेठ गोबिंद दास भी शेयर खरीदी के मामले में पोद्दार से सहायता लेते हैं। बहुपत्नीवादी डालमिया के दामाद शांति प्रसाद जैन भी पोद्दार को ‘डालमिया परिवार’ का वरिष्ठ शुभचिंतक बतलाते हैं। लालबहादुर शास्त्री काल (1965-66) तक पोद्दार डालमिया जैन परिवार के पक्ष में खड़े दिखाई देते हैं। पोद्दार विश्व हिंदू परिषद के नेता विष्णु हरि डालमिया के भी संपर्क में रहे। यह भी विचार का विषय है कि घनश्याम दास बिड़ला के बड़े भाई जुगल किशोर बिड़ला अफीम, सोना-चांदी के व्यापार से अपार दौलत जमा करने के बाद हिंदू महासभा के नेताओं से जा मिलते हैं। कल्याण में लेख भी लिखते हैं (पृ. 175)।

लेखक लिखते हैं कि पोद्दार “अपने समय के अधिकांश मारवाड़ी व्यापारी परिवारों के करीबी थे” (पृ.60)। रामकृष्ण डालमिया के औद्योगिक मामलों के अलावा उनकी ‘यौन अतृप्ति’ के साथ-साथ उनकी पुत्री रमा (शांति प्रसाद जैन से विवाह करने के पश्चात रमा जैन) की शिक्षा जैसे मामलों में भी पोद्दार अपनी सलाह दिया करते थे। इसी तरह अनेक व्यापारी-औद्योगिक परिवार और सभाओं (बजाज परिवार, बिड़ला परिवार, गोयंदका परिवार, म.प्र. का राम सिंह परिवार, डालमिया-जैन ट्रस्ट, गोयनका, अग्रवाल महासभा आदि) के साथ पोद्दार के बहुआयामी संबंध थे। वह अवसरानुकूल इन संबंधों का इस्तेमाल करते रहते थे।

बेशक पोद्दार में सभी प्रकार के लोगों के विश्वास अर्जन की अद्भुत कला थी। जहां व्यापारी उद्योगपति, नेता सामाजिक कार्यकर्ता, बुद्धिजीवी कलाकार और साधु-संतों के वह प्रिय थे, वहीं भांति-भांति की महिलाएं भी उन पर मोहित रहती थीं। अपने गहन अध्ययन में लेखक मुकुल ने इस मारवाड़ी व सनातनी आइकॉन के निजी वृत्त में भी झांका हैं। यह भी कम दिलकश नहीं है, महिलाएं उन्हें कृष्ण रूप मानती थीं। वे स्वयं को उनकी गोपियां कहती थीं। उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है कि उनके जीवन में तीन महिलाएं थीं- रामदेई (पत्नी), दक्षिण भारत की चिनमयी देवी और सावित्री सेखसरिया। इनमें सावित्री बंबई के समृद्ध परिवार से थीं। लेकिन मुकुल के अध्ययन के अनुसार अन्य तीन भद्रलोकी महिलाओं ने भी पोद्दार के जीवन को प्रभावित किया था। ये महिलाएं थीं- सरोजिनी देवी, रेहाना तैयबजी और इरेन वोल्फिंगटन (अमेरिकी)।

पोद्दार के लिए सरोजिनी के प्रेम की तुलना राधा के कृष्ण के प्रति प्रेम से की गई है। रेहाना तैयबजी के प्रेम व आकर्षण की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है। वह गांधीजी और पोद्दार के बीच भटकती रहीं। तीनों के बीच संबंध “जटिल, बहुस्तरीय और विरोधाभासी प्रतीत होते थे” (पृ. 75)। रेहाना एक अच्छी भजन गायिका भी थीं। गांधीजी रेहाना को कभी ‘मैड रेहाना’, ‘रेहाना दि क्रेजी’ और कभी कभी ‘प्यारी पुत्री’ कहा करते थे। लेकिन रेहाना को पोद्दार में ‘कृष्ण रूप’ दिखाई देता था। पोद्दार ने तो रेहाना को आदेश भी दिया कि वह उनके द्वारा भेजे गए पत्रों को नष्ट कर दें। लेकिन रेहाना रूपी राधा ने ऐसा करने से मना कर दिया।

वह अपने भावनात्मक पत्र में कहती हैं, “भाई साहेब, मुझे आपके खतों को नष्ट कर देना चाहिए। ओह ईश्वर! क्या मुझे ऐसा करने से पहले स्वयं को मार नहीं देना चाहिए? मैं उसकी आवाज को सुनने में समर्थ हूं, और आप चाहते हैं कि मैं उसका गला घोंट डालूं, यह किस ढंग का निष्ठुर आदेश है? आप डरे नहीं। कृष्ण द्वारा प्रेरित आपके शब्द किसी अयोग्य-अवांछित व्यक्ति तक नहीं पहुंचेंगे। भाई साहेब, आपके शब्द कृष्ण की सौगात हैं” (पृ. 75)। इस भावुक पत्र ने पोद्दार को पिघला दिया और उन्होंने सब कुछ कृष्ण पर छोड़ दिया। उन्होंने अपने बाद के पत्रों में कृष्ण के विभिन्न रूपों, गोपियों के साथ रासलीलाओं, आध्यात्मिक उत्थान आदि का विस्तार से वर्णन भी किया।

रेहाना अपने उत्तर में लिखती हैं कि वह उनके पत्रों को दिन में एक दफा जरूर पढ़ती हैं। पोद्दार भी अपने पत्रों में बतलाते हैं कि उन्हें स्वप्न में कृष्ण के साथ कैसे-कैसे अनुभव हुए। वह एक पत्र में रेहाना से स्वीकार करते हैं, ‘मैं बतला नहीं सकता कि तुम्हारे लिए मेरा प्रेम किस कदर बढ़ रहा है। मेरा कृष्ण तुम्हारा मित्र है। यह किस प्रकार का आनंद है और कैसा संबंध है? यह हिंदू-मुस्लिम प्रश्न हमारे संबंधों के दायरे से बाहर है। उसका हम लोगों से क्या लेना-देना है? मुझे तुम्हारा उन्मुक्त व्यवहार पसंद है (पृ.76)। लेकिन, आजादी के पश्चात यह कथा गुमनामी में खो जाती है। केवल 18 मई, 1975 के टाइम्स ऑफ इंडिया में इतना ही छपता है कि सूफी रेहाना का निधन हो गया, जो कि हिंदू-मुस्लिम एकता और स्त्री मुक्ति के लिए समर्पित थीं। रेहाना तैयबजी, कोई सामान्य महिला नहीं थीं। वह अलीगढ़ के एक प्रतिष्ठित परिवार से थीं।

बीती सदी के तीसरे दशक में पोद्दार ने तो यहां तक घोषणा की थी कि उन्हें ईश्वर के दर्शन (16 सित. 1927) हुए हैं। स्वयं भगवान विष्णु व राम उन्हें दर्शन दे चुके हैं। उनका दावा था कि वह कमल पर सवार थे। ह.प्र. पोद्दार ने यह भी दावा किया कि ईश्वर ने उन्हें 12 सूत्री सलाह दी है। ईश्वर ने इस सनातनी भक्त से कहा कि वह दर्शन की बात को गुप्त रखे। इससे उसे लाभ होगा। मेरे अवतार का समय अभी बहुत दूर है। 1936 में भी इस दावे को दोहराया गया। 1950 में तो ईश्वर की सलाह के विपरीत भक्त पोद्दार मुक्त भाव से ईश्वर-दर्शन की चर्चा किया करते थे। यहां तक कि उनके कतिपय अनुयायियों ने तो उन्हें 1980 व 2000 में ‘ईश्वर का दूत’ तक बना दिया था (पृ. 77)।

पोद्दार को ईश्वर दर्शन हुए या नहीं, यह संदेह व विवाद का विषय है। लेकिन ऐसे दावों से जनता जरूर भ्रमित हो जाती है। कई प्रकार के मिथ उसे दबोच लेते हैं। उसमें विवेचनात्मक चेतना व तर्कशक्ति सुप्त हो जाती है। वह व्यवस्था के असली चरित्र को समझ नहीं पाती है। वह शासक वर्ग की अंधभक्त बन जाती है, अंधराष्ट्रवाद की शिकार हो जाती है और धर्म का अंधानुकरण करने लगती है। यह स्थिति प्रकारांतर से तानाशाही, फासीवाद-नाजीवाद का मार्ग प्रशस्त करती है।

आशाराम बापू और राम रहीम जैसे रास-रंग वाले तथाकथित धर्मगुरूओं के यहां उमड़ने वाला जन सैलाब कहीं गीता प्रेस की सेना द्वारा निर्मित ‘भक्ति संस्कृति’ का ताजातरीन संस्करण तो नहीं है? वैसे गीता प्रेस संस्कृति के कलकत्ता स्थित उद्गम स्रोत ‘गोविंद भवन’ में भी बहुचर्चित ‘सेक्स कांड’ हुआ था। इसकी लपटें गोरखपुर तक पहुंची थीं। 1927 के इस कांड में सेठ जयदयाल गोयंदका सहित कई हस्तियां झुलसी थीं। इससे भारत का मारवाड़ी समाज दहल गया था (पृ. 116)। इस कांड के कारण मारवाड़ी समाज के निजी जीवन के परखचे उड़ गए थे। पत्र-पत्रिकाओं में खुलेआम लिखा जा रहा था कि मारवाड़ी पुरुष अपनी औरतों को नौकरों के हवाले कर व्यापार व लाभ-अर्जन में डूबे रहते हैं, हीरालाल गोयनका जैसे ‘गॉड मैन’ महिलाओं को अपनी हवस का शिकार बनाते हैं।

हनुमान प्रसाद पोद्दार इस कांड से जरूर बचे रहे, लेकिन उनके वरिष्ठ गोयंदका की छवि पर दाग लगा। क्योंकि इस कांड के नायक गोयनका के साथ उनके समीपी रिश्ते थे। नोटतलब यह है कि गोयनका ने स्वयं को भी ईश्वर का रूप घोषित किया था। इसलिए मारवाड़ी महिलाएं उसकी वासना की शिकार होती चली गईं। गोयंदका के अनुयायी भी उन्हें ‘ईश्वर का अवतार’ माना करते थे। गोयंदका ने इस धारणा के विरुद्ध अपने लोगों को चेताया भी, और यहां तक कि मारवाड़ी पतियों से अनुरोध करना पड़ा कि वे अपनी पत्नियों को क्षमा कर दें क्योंकि उन्होंने अज्ञानतावश हीरालाल को ‘ईश्वर का अवतार’ समझकर स्वयं को समर्पित किया था। (पृ. 117-21) इस कांड से गीता प्रेस परिवार में पनप रही ‘अवतार संस्कृति’ व व्यभिचार ही उजागर होते हैं।

वैसे भी स्त्रियों के प्रति इस परिवार की अत्यंत दकियानूसी दृष्टि रही है। इतना ही नहीं, गीता प्रेस ने जर्मन स्त्रियों को संबोधित हिटलर की इस अपील को भी प्रकाशित किया कि उन्हें घर तक सीमित रहना चाहिए। वे मां और पत्नी की भूमिका निभाती रहें। मुकुल लिखते हैं कि औरतों के मामले में फासीवादी शासक, नाजी जर्मनी और गीता प्रेस व हिंदू राष्ट्रवादी संगठनों (हिंदू महासभा, संघ आदि) के बीच काफी समानताएं रही हैं। (पृ. 386-87)।

आज भी इन प्रवृत्तियों का प्रभाव दिखाई देता है। ‘ऑनर किलिंग’ इसका उदाहरण है। कल्याण अपनी नैतिकता को आरोपित करने के लिए ‘सीता’, ‘सावित्री’ का राग अलापा करता था। विधवा को प्रभु-पूजा की सीख दी। पुनर्विवाह के मामले में मनुस्मृति का सहारा लेकर इसका विरोध होता। हिंदू विधवाएं दहलीज को लांघे नहीं, उनकी शुचिता अखंड रहे इसे लेकर 12 सूत्री हिदायतें भी प्रकाशित की गईं। पहला उपदेश तो यही है कि हिंदू स्त्री को पति के मरने के पश्चात सती हो जाना चाहिए। (पृ. 372) सनद रहे राजस्थान के शेखावटी इलाके में कई ‘सती मंदिर’ भी हैं। 1987 में मारवाड़ियों के इसी इलाके में ही प्रसिद्ध सती रूपकंवर कांड’ घटा था।

यह पुस्तक गीता प्रेस और उसके संस्थापकों-संचालकों का सिर्फ लेखा-जोखा नहीं है, बल्कि यह एक ऐसे दौर का विमर्शात्मक आख्यान है जब आधुनिक राष्ट्र राज्य की बुनियाद रखी जा रही थी। पुस्तक पढ़ने से ज्ञात होता है कि हिंदू समाज, विशेष रूप से उत्तरी हिंदू भारत में रेडिकल समाज सुधार क्यों नहीं हो सके, जाति-संरचना कैसे मिलिटेंट रही, इसने किस प्रकार के सामाजिक बौद्धिक-आर्थिक-राजनीतिक नेतृत्व को जन्म दिया। क्या यह अकारण है कि गीता प्रेस से प्रकाशित साहित्य के लेखक सवर्ण जाति व उच्च वर्ग से रहे हैं। डॉ. अंबेडकर, महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान जैसे विद्रोही नेताओं व बुद्धिजीवियों को कल्याण व कल्याण कल्पतरू से दूर ही रखा गया।

भारत में 19वीं व 20वीं सदी में अनेक आदिवासी किसान विद्रोह हुए हैं। बीती सदी में तेलंगाना विद्रोह भी हुआ। कई क्रांतिकारी हुए, कई फांसी पर चढ़े। गीता प्रेस की इन घटनाओं के प्रति खामोशी कचोटने वाली लगती है।

कल का महाजनी मध्यवर्ग आज के औद्योगिक व कॉरपोरेटी मध्यवर्ग में तेजी से रूपांतरित हो रहा है। मारवाड़ी का भी काया रूपांतरण हो रहा है, लेकिन इसके साथ ही महाजनी मूल्य दृष्टि के आधुनिक उपभोक्तावादी अवतार भी सामने आ रहे हैं। संघ परिवार के नैतिक कोतवाल नया-नाय पाठ्यक्रम तैयार कर रहे हैं। मध्ययुगीन मानसिकता के साथ अकादमियों, संस्थाओं में हस्तक्षेप किया जा रहा है, इतिहास के पुनर्लेखन के प्रयास किए जा रहे हैं, और आधुनिक वैज्ञानिकों से कहा जा रहा है कि वे मिथकीय ऋषि-मुनियों (दधिचि आदि) से विज्ञान की शिक्षा लें।

इस हाईटेक सदी में कैसे राष्ट्र और राष्ट्रवाद का निर्माण किया जा रहा है? ऐसे राष्ट्र के निर्माण का एक बड़ा आधार गीता प्रेस बना। इस प्रश्न का उत्तर मुकुल की पुस्तक में भी छिपा हुआ है। तभी तो धर्म, शासक वर्ग के लिए उपयोग व उपभोग की ‘कमोडिटी’ है।

(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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Pradeep
Pradeep
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9 months ago

I m of the opinion that column is not neutral…..I do not know that on what basis people says that Ramayana and other epics are myth…..even various sources proofs are tabled…..
Today if u go with the research of Sanskrit language there are some people who will start chanting that this is not good and is myth language
Publishing article of such writers is definitely waste of time