किसान आंदोलन पार्ट-2: कृषि और किसानों को बर्बाद करने से बाज आए सरकार!

13 फरवरी को पूर्व घोषित कार्यक्रम के अनुसार संयुक्त किसान मोर्चा (अराजनीतिक) के आवाहन पर पंजाब से हजारों किसान दिल्ली की तरफ बढ़ चले। हरियाणा सरकार ने शंभू और खनौरी बॉर्डर पर उनका भव्य स्वागत किया। बॉर्डर की सड़कों पर कील, काटें, खाईं, बैरिकेटिंग, सीमेंट के बड़े-बड़े बोर्डर, कीलों-कांटों वाले तार आंसू गैस के गोले लाठियां और बंदूक की गोलियों के साथ भारी मात्रा में पुलिस और पैरामिलिट्री के जवान स्वागत के लिए तैयार थे।

दिनभर प्रशासन पुलिस पैरामिलिट्री फोर्स और किसानों के बीच लोकतांत्रिक भारत में आंसू गैस, लाठी गोली का पुलिस और ड्रोन द्वारा संवाद चला रहा। लेकिन किसान इस पीछे नहीं हटे। उन्हें जहां रोका गया उसी जगह पर बैठ गए और सरकार के लोकतांत्रिक दमन की काट ढूंढने की कोशिश करते रहे। 13 तारीख को ही किसान पंजाब में शंभू और खनौरी बॉर्डर पर बैठे गये। रह रहकर पुलिस की कार्यवाहियां जारी रहीं।

हरियाणा पुलिस और अर्धसैनिक बलों ने पंजाब की सीमा में घुसकर गोलियां चलाई। एक नौजवान किसान शुभकरण सिंह शहीद हुआ और कई घायल हो गए। उसी रात खनौरी बॉर्डर पर हरियाणा पुलिस के जवान और सैनिक बलों ने पंजाब में घुसकर किसानों के ट्रैक्टर और ट्रालियों को तोड़ा और भारी नुकसान पहुंचा। जिसमें 100 से ज्यादा ट्रैक्टर और ट्रालियों को नुकसान पहुंचा है। गतिरोध बना हुआ है। हवा में तनाव और आंसू गैस की गंध मौजूद है। कभी भी कोई बड़ी घटना हो सकती है।

‌‌एक तरफ सरकार वार्ता कर रही है और दूसरी तरफ दमन। वार्ता और दमन के बीच से फंसा हुआ किसान आंदोलन नई राह खोजने में लगा है। संयुक्त किसान मोर्चा इस आंदोलन में शामिल नहीं था। फिर भी राज्य दमन के खिलाफ एसकेएम द्वारा राष्ट्रव्यापी प्रतिवाद शुरू हो गया। जिसमें भारत बंद से लेकर सड़कों पर ट्रैक्टर प्रदर्शन और हरियाणा के मुख्यमंत्री खट्टर व गृहमंत्री अनिल विज के अलावा केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह का पुतला दहन जैसे कार्यक्रम आयोजित किए गए।

दुनिया भर में किसान आंदोलनकारियों की समझ है कि सरकारें डब्लूटीओ के दबाव में कॉर्पोरेट परस्त नीतियां कृषि क्षेत्र में लागू कर रही हैं। इसलिए भारत के किसानों ने भी 26 फरवरी को “डब्लूटीओ से बाहर आओ” नारे के साथ विश्व व्यापार संगठन का पुतला दहन किया और भारत सरकार को चेतावनी दी कि वह विश्व व्यापार संगठन के दबाव में भारत की कृषि और किसानों को बर्बाद करने से बाज आएं।

पंजाब हरियाणा सीमा पर स्थिति अभी तनावपूर्ण बनी हुई है। लगता है आने वाले समय में भारतीय समाज आंदोलन के इतिहास का सबसे रोमांचक लोकतांत्रिक संघर्ष देखेगा। इस आंदोलन के शुरू होते ही सरकार और उसकी झूठ की मशीनरी सक्रिय हो गई। किसानों के खिलाफ अलग-अलग तरह के मुद्दे और नैरेटिव रचे ले जा रहे हैं तथा बहस को सिख किसान बनाम शेष भारत के किसान यानी पंजाब बनाम शेष भारत के रूप में केंद्रित करने की कोशिश शुरू की गयी। इस आंदोलन में कर्नाटक और उड़ीसा के बहुत थोड़े से किसानों के अलावा पंजाब और हरियाणा के कुछ इलाकों के किसान ही शामिल हुए थे। इसलिए सरकार को ऐसा प्रचारित करने में मदद मिल रही है।

चूंकि किसानों का सबसे बड़ा मंच एसकेएम इस आंदोलन के साथ नहीं था। इसलिए बड़े पैमाने पर किसान दिल्ली कूच में शामिल नहीं हुए। सिर्फ 5 -6 किसान संगठनों ने जो संयुक्त मोर्चे से अलग हो गये थे। उन्होंने ही (अराजनीतिक संयुक्त किसान मोर्चा बनाया है।) इस आंदोलन का आवाहन किया था। जबकि जरूरत थी कि सरकार की हठधर्मिता को देखते हुए आपसी मतभेदों को पीछे रखते हुए आपस में बातचीत करके संयुक्त पहल लेने की। सरकार की हठधर्मिता के खिलाफ आंदोलन की संयुक्त रणनीति बनाकर चौतरफा सरकार को घेरने की। लेकिन ऐसा नहीं किया गया और कुछ किसान संगठनों द्वारा कई ऐसी शर्ते रख दी गई जिससे किसान संगठनों की बृहद एकता बनाना कठिन हो गया है।

अब जब आंदोलन शुरू हो गया है तो जरूरत है की इस आंदोलन को पीछे न हटाने दिया जाए। कभी-कभी आंदोलन में शामिल संगठनों उनके नेताओं के वर्ग चरित्र और विचार को समझते हुए भी आंदोलन के साथ खड़ा होना ऐतिहासिक जरूरत होजाती है। संघर्ष के मैदान में ही आंदोलन की रणनीतियों और कार्य नीतियों विकसित और सुदृढ होती रहती है। जिस स्तर का सत्ता और सरकार का दमन होता है आंदोलनकारी ताकतें भी उसी के अनुरूप अपनी नीतियां कार्य नीतियां विकसित करती रहती हैं।

इसका ठोस उदाहरण हमने 13 महीने तक चले किसान आंदोलन के दौरान बखूबी देखा है। जब नवंबर 19 में किसान दिल्ली के लिए चले थे तो उस समय उन्हें यह उम्मीद नहीं थी कि सरकार इतना क्रूरता पूर्वक उन पर टूट पड़ेगी और आंदोलन 13 महीने से ज्यादा खिंच जाएगा। लेकिन ऐसा हुआ। साढ़े सात सौ से ज्यादा शहादतों के बाद भी आंदोलन वार्ता दमन, षड्यंत्र, आंतरिक वाहृय हमले, मतभेदों से गुजरते हुए सरकार को घुटने टेकने के लिए मजबूर कर सका। यही नहीं इस आंदोलन से किसान संगठनों को सकारात्मक और नकारात्मक अनुभवों का खजाना मिला। जिसे हमें अपने संज्ञान में रखते हुए वर्तमान आंदोलन में खड़ी हो रही जटिल परिस्थितियों का मुकाबला करना होगा।

आंदोलन एक विराट सृजनात्मक कारवाई है। जो आन्दोलन में भाग लेने वाली जनता नेताओं और विरोधियों को भी परिवर्तित, परिमार्जित और परिष्कृत करती है। तथा सामाजिक जीवन में नए जागरण के तत्वों को जन्म देती है। इन अर्थों में आंदोलन शुरू होने और खत्म होने के बीच समाज व्यक्ति और राज्य के आपसी संबंध व्यवहार और जीने के तौर तरीके सभी कुछ बदल जाते हैं।

भारतीय समाज के लोकतांत्रिक करण और उत्पादक शक्तियों के राजनीतिकरण के साथ आपसी संबंधों को लोकतांत्रिक बनाने में आंदोलन का महत्वपूर्ण योगदान होता है। न्याय स्वतंत्रता और भाईचारे के लिए चले किसी भी संघर्ष मे व्यापक जनता के भागीदारी के क्रम में उसके सामाजिक पिछड़ेपन और सामंतीचेतना में बदलाव आने लगता है। नागरिक होने की प्रक्रिया के मजबूत होने से वर्ग दृष्टिकोण विकसित होने लगता है। जिससे समाज के नवजागरण के लिए नये मूल्यों और नए मानवीय दृष्टिकोण के लिए जगह बनती है।

नागरिक के जीवन व्यवहारों में बदलाव शुरू होने लगता है। सदियों से भारत के ग्रामीण जीवन में जड़ जमाए सामंती वर्ण जातिवादी और धार्मिक, अवैज्ञानिक पिछड़ी चेतना की दीवार दरकने लगती है और समाज नए बदलाव के लिए तैयार होने लगता है। भारत के ग्रामीण जीवन में हो रहे सामाजिक राजनीतिक आर्थिक और मुख्यतया भूमि संबंधों में बदलाव ने उस भौतिक स्थिति को जन्म दिया है जिससे भारतीय समाज के लोकतांत्रिक करण की गति को तेज किया जा सकता है।

आंदोलन के भट्ठी की ताप में पिछड़े सामाजिक मूल्यों के गलने से समाज की सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना उन्नत होती है। दुनिया भर का शासक वर्ग समाज के सामाजिक-सांस्कृतिक के परिष्करण से डरता है। इसलिए 13 महीने तक चले किसान आंदोलन के वेग और ज्वाला से पिघले हुए पिछड़े जीवन मूल्यों को फिर से स्थापित करने के लिए मोदी के नेतृत्व में धर्म ध्वजाधारियों की जमात सड़क पर निकल आई है। जो अयोध्या में राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा के भव्य इवेंट के द्वारा समाज के हिंदू कारण करने की हर संभव कोशिश में लगी है। “लोकतांत्रिक” ढंग से चुना हुआ प्रधानमंत्री हिंदू पुजारी का भेष धारण कर मंदिरों, देवी-देवताओं के शरणागत होकर हिंदू समाज की लोकतांत्रिक सांस्कृतिक चेतना को प्रदूषित और सांप्रदायिक करने में लगा है। इस प्रक्रिया में वह भारत में लोकतंत्र को कमजोर करते हुए देश को हिंदुत्व कॉर्पोरेट गठजोड़ के शिकंजे में कैद कर देना चाहता है।

काशी विश्वनाथ कॉरिडोर धाम, अयोध्या में राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा, महाकालेश्वर मंदिर जीर्णोद्धार और कल्कि मंदिर से होते हुए यूएई के मंदिर उद्घाटन के इवेंट और द्वारिका धाम में किए गए तमासे के बीच भारतीय शासक वर्ग ने कल्पना कर ली थी कि सब कुछ उसके नियंत्रण में आ गया है।

लेकिन इसी बीच भारतीय समाज के अंदर से जीवन की बदतर होती स्थितियों के प्रतिरोध स्वरुप उठ रही आंदोलन की तरंगे कुछ और संकेत दे रही है। जिस तरह से मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने दमन और आतंक के द्वारा भय पैदा करने की कोशिश की थी। एक एक कर सभी लोकतांत्रिक मूल्यों फरंपराओं और संस्थाओं को ध्वस्त कर सत्ता पर अपना नियंत्रण कर लिया था। उससे कभी भी संघ परिवार में यह नहीं सोचा होगा कि वह आंदोलनों के ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठा है। परिणाम स्वरूप हजारों किसानों नौजवानों महिलाओं मजदूरों जनजातीय तथा हासिए के समाजों ने सड़कों पर उतर कर संघी और भाजपाई आतंक को हवा में उड़ा दिया है।

यह इस बात का संकेत है कि भारतीय समाज ने लोकतंत्र के फल का “यानी स्वतंत्रता समानता बंधुत्व न्याय और बराबरी” स्वाद चख लिया है। उसे न धर्म की अफीम और न सत्ता की बंदूक द्वारा उससे छीना जा सकता है। साथ ही वह हिंदू राज्य के इस मायावी जाल से छला जाने के लिए तैयार नहीं है।

वर्तमान किसान आंदोलन समग्र अर्थों में 13 महीने तक चले किसान आंदोलन का संपूर्णता में वास्तविक प्रतिनिधि न होते हुए भी यह उस किसान आंदोलन की अजेयता का सबूत तो है ही। भारतीय शासक वर्ग इस आंदोलन को किसान संगठनों की एकता को तोड़ने और संयुक्त संघर्ष को कमजोर करने में प्रयोग करना चाहता है। इसलिए आंदोलन के शुरू होते ही गोदी मीडिया और भाजपा के आईटी सेल ने इसे पंजाब के धनी किसानों का आंदोलन करार दिया। यही नहीं उसने इसे आढ़तियों और खालिस्तानियों के साथ जोड़ दिया। ऐसा ही अभियान उन्होंने 13 महीने तक चले किसान आंदोलन के खिलाफ चलाया था। लेकिन उस समय पूरे देश के किसानों की एकजुटता के कारण यह षड्यंत्र फेल हो गया था। जब भी कोई नया आंदोलन खड़ा होता है तो कॉर्पोरेट मीडिया और भाजपा की झूठ की मशीनरी उसे मोदी की सत्ता को हटाने के षड्यंत्र का हिस्सा बता देती है। लेकिन ये सब औजार अब पुराने पड़ते जा रहें हैं।

ज्यों ही दमन शुरू हुआ तुरंत ही संयुक्त किसान मोर्चा ने 16 तारीख के भारत बंद के द्वारा अखिल भारतीय स्तर पर आंदोलन को फैला दिया। और सरकार को संकेत दे दिया था कि आंदोलन चाहे कुछ संगठनों का ही क्यों ना हो लेकिन सम्पूर्ण भारत के किसान मजदूर आदिवासी जनजातियां अपने जल जंगल जमीन और उत्पादन के उचित मूल्य के लिए लड़ने के लिए तैयार बैठी हैं और दमन के खिलाफ एकजुट हैं। 16 तारीख के आंदोलन में शामिल करोड़ों लोगों के जन उभार को देखकर सरकार दमन से पीछे हट कर वार्ता के कुचक्र में आंदोलनकारियों को फंसा देना चाहती थी। सरकार ने वार्ताकारों के समक्ष एम एसपी की गारंटी के लिए जो प्रस्ताव रखा है। वह वस्तुत: कॉन्ट्रैक्ट खेती को लागू करने का नया मॉडल है।

सरकार ने प्रस्ताव रखा की अगर किसान अरहर, मूंग, उड़द, कपास और मक्का की फसल उपजाए तो वह उन्हें नेफेड और अन्य संस्थाओं द्वारा 5 साल की एमएसपी की गारंटी दे सकती हैं। पर्यावरण संरक्षण और फसल विविधता के नाम पर वस्तुत यह नयी बोतल में पुराना माल भरकर किसानों को परोसने लगी। यह और कुछ नहीं है बल्कि उसी तीन काले कानूनों को चोर दरवाजे से कांटेक्ट खेती को थोपना था। किसान संगठनों ने इसे ठुकरा कर सरकार को संदेश दे दिया है कि उसे किसी तरह सेन ठगा जा सकता है और न उनके संघर्ष को तोड़ा जा सकता है।

वर्तमान किसान आंदोलन की विशेषता यह है कि इसमें कोई नई मांग नहीं रखी है। बल्कि 13 महीने तक चले किसान आंदोलन के साथ सरकार ने जो समझौता किया था। यह आंदोलन उसको लागू करने की मांग कर रहा है। आश्चर्य है की मांगों के लिए आंदोलन करो और समझौता हो जाने के बाद उसके लागू करने के लिए फिर आंदोलन करो। वस्तुत या सत्ता के निरंकुश होने का सबसे बेहतर प्रमाण है।

समझौते की पहली शर्त थी कि सरकार एमएसपी पर कानून बनाएगी। इसके लिए एक कमेटीगठित की जायेगी। जो एमएसपी पर कानून बनाने के लिए सरकार को सुझाव देगी। लेकिन 2 साल से ज्यादा हो जाने के बाद भी सरकार क्या कर रही है। इसकी कोई जानकारी किसान संगठनों को नहीं है। बिजली बिल को नए सिरे से संसद में पेश कर दिया गया है। कर्ज माफी पर नए-नए नैरेटिव गढ़े जा रहे हैं। अजय मिश्रा टेनी अपने बेटे सहित चार किसानों और एक पत्रकार की हत्या कराने के बाद अभी भी मंत्री मंडल में बना हुआ है। निर्दोष किसान जेल में है। किसानों के ऊपर आंदोलन के दौरान थोपे गए मुकदमे वापस नहीं लिए गए हैं। इस तरह की न्यूनतम मांगे पर भी सरकार ने अभी तक कोई कदम नहीं उठाया।

पहले आंदोलन के समय ही किसानों ने अडानी-अंबानी को चिंहिंत कर लिया था। अब वे विश्व व्यापार संगठन को भी अपने निशाने पर ले रहे है। यही वह नाभि में छिपा अमृत है जिसके कारण यह सरकार जिंदा है। अभी किसानों ने WTO से बाहर आने का सवाल उठाकर किसान आंदोलन की मांगों का विस्तार किया है। जो मूलतः एक नीतिगत सवाल है।यानी उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण तथा बाजारीकरण के विरुद्ध किसानों ने मोर्चा लेने की ठान लिया है। साफ बात है कि चाहे कोई किसान संगठन अपने को कितना ही गैर राजनीतिक क्यों न कहे लेकिन उसे आज कॉर्पोरेट परस्त राजनीति और सत्ता को चुनौती देनी ही होगी। अगर वह इस बात को नहीं समझता तो किसान संगठनों की हैसियत सुधारवादी संगठनों और स्वयं सेवी संस्थाओं से ज्यादा नहीं रह जाएगी।

किसानों को अब सिर्फ अपने आर्थिक मांगों तक नहीं बल्कि उसे नीतिगत और राजनीतिक मांगों को भी अपने आंदोलन के एजेंडे में शामिल करना होगा। इस आंदोलन से जो निष्कर्ष निकाला जा सकता है वह यह है कि किसानों के धैर्य का बांध टूट रहा है। कृषि के घाटे में जाने से बढ़ती कर्जदारी और किसानों की आत्महत्या ग्रामीण जीवन में असंतोष और असुरक्षा बोध को बहुत बढ़ा दिया है।

खाद, कीटनाशक, बिजली के दाम बढ़ते जा रहे हैं। बढ़ती महंगाई और लागत में हुई वृद्धि के कारण किसान खेती कर पाने की स्थिति में नहीं है। कर्ज का बोझ बढ़ता जा रहा है और सरकार कर्ज माफी के लिए तैयार नहीं है। सरकारी दलाल और प्रवक्ता इस पर अनेक तरह के कुतर्क गढ़ रहे हैं। किसान या तो खेती छोड़ रहे‌ हैं या उससे उदासीन होते जा रहे हैं।

सरकार यह स्थिति पैदा कर कृषि में कॉर्पोरेट को घुसाने की तैयारी है। अंधाधुंध भूमि अधिग्रहण के कारण जगह-जगह किसान आंदोलन लंबे समय से चल रहे हैं। झारखंड के आदिवासी इलाकों में अडानी को हसदेव के जंगलों का बड़ा इलाका दे देने से तनाव का वातावरण बन गया है। अडानी परस्ती के कारण झारखंड सरकार को अस्थिर करने में मोदी की दिलचस्पी देख कर आप दंग रह जाएंगे। कैसे अडानी को हजारों एकड़ जंगल और जमीन दे दी गई है और इसकी गारंटी के लिए सरकार झारखंड सरकार को अपदस्त कर डबल इंजन की सरकार लाना चाहती है। जैसा महाराष्ट्र में धारावी की झोपड़पट्टी और आरे के जंगलों को लूटने के लिए उद्धव सरकार गिरा कर किया गया था।

वर्तमान किसान आंदोलन की अपनी कुछ जटिलताएं हैं। इसको संचालित करने वाला नेतृत्व जिस तरह से अकेले चलने की नीति पर चल रहा है उससे आने वाले समय में किसान आंदोलन को बड़ा धक्का लगा सकता है। संयुक्त किसान मोर्चा ने सभी संगठनों को एक करने की दिशा ली है। इसके लिए एसकेएम प्रयासरत है। लेकिन संयुक्त किसान मोर्चे में भी कई वर्ग दृष्टिकोण के नेता और संगठन है। उनकी अपनी सीमाएं और वर्गीय कमजोरी है। ऐसे समय में अकूत पूंजी की शक्ति पर सवार वर्तमान सत्ता अपने हजारों टेंटिकल से हमार आंदोलनों व संगठनों और हमारे समाज में घुसपैठ कर सकती है। तथा आंदोलन को दिग्भ्रमित कर उसे कमजोर कर सकती है। आंदोलन में अनेक तरह के विध्वंसक और अराजकता वादी तत्वों को भी घुसा सकती है।

संयुक्त किसान मोर्चा ने किसानों के साथ मज़दूरों छात्रों असंगठित क्षेत्र के कर्मचारियों महिलाओं का व्यापक मोर्चा बनाने की रणनीति ली है। उसे पूरी ताकत के साथ विस्तारित करना चाहिए और आने वाले समय में एक बड़े आंदोलन काआवाहन करना चाहिए। 14 मार्च को दिल्ली में किसान मजदूर महापंचायत का ऐलान करके संयुक्त किसान मोर्चा ने पहल अपने हाथ में ले ली है। अब इस महापंचायत को सफल बनाकर ही आने वाले समय में भारत के राजनीतिक दलों को जन पक्षधर नीतियों को लागू करने के लिये बाध्य किया जा सकता है।

2024 का महा निर्वाचन भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास का सबसे कठिन चुनाव होने जा रहा है। इसलिए सभी तरह के लोकतांत्रिक जन पक्षधर और आंदोलनकारी ताकतों को इस चुनाव को गंभीरता से लेना चाहिए और लोकतंत्र के प्रति अपनी प्रतिबद्धता प्रकट करनी चाहिए। जिससे भारत में संवैधानिक लोकतंत्र और कानून के राज्य की रक्षा की जा सके। उम्मीद है संयुक्त किसान मोर्चा और संयुक्त ट्रेडिंग वालों का विशाल प्लेटफार्म अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी को अवश्य पूरा करेगा।

(जयप्रकाश नारायण किसान नेता और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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