आईएमएफ की चेतावनी: भारत एक गहरे कर्ज संकट के मुहाने पर

पिछले साल दो बार अमेरिका की सरकार का शटडाउन हुआ। अमेरिकी सरकार की क़र्ज की सीमा पार हो गयी, कामकाज बंद होने की स्थिति आ गयी, खर्चे रुकने की स्थिति आ गयी। सरकार और विपक्ष को एक साथ बैठना पड़ा, व्हाइट हाउस को समझाना पड़ा, और अंततः यह संकट टला। साल में दो बार ऐसा हुआ।

अभी दिसंबर 2023 में आईएमएफ (अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष) ने इस बार खुलकर भारत सरकार को चेतावनी दी है कि भारत में सरकारों का कुल क़र्ज जीडीपी के बराबर हो रहा है, उससे बड़ा होने जा रहा है। यह किसी भी वित्तीय व्यवस्था के लिए चरम खतरे का बिंदु है। भारत की इस साल की ब्याज की देनदारी उसके कुल राजस्व का लगभग 47 से 48% हिस्सा ले जाएगी।

रिजर्व बैंक ने अक्टूबर में कहा कि बैंकों ने 50 लाख करोड़ से ज्यादा अनसिक्योर्ड लोन (असुरक्षित क़र्ज) बांट दिया है, इसे बंद कराया जाए। पिछले कुछ महीनों से केवल क़र्ज का मामला सुर्खियों में है। चाहे वह क़र्ज सरकार का हो, आपकी हमारी बैलेंस शीट का हो, हमारे क्रेडिट कार्ड का हो, पर्सनल लोन हो, या विदेश से लिया गया क़र्ज हो। ये सुर्खियां इसलिए भी हैं कि इस साल भारत सरकार पहली बार वर्ल्ड मार्केट में अपने बॉण्ड भी बेचने जा रही है।

1949 में संविधान सभा में बहस के दौरान डॉ. अम्बेडकर ने कहा था कि किसी भी स्थिति में किसी भी सरकार को मनचाहे ढंग से क़र्ज उठाने का अधिकार नहीं होना चाहिए। उन्हें किसी भी स्थिति में ऐसी छूट नहीं दी जानी चाहिए। संसद को क़ानून बनाकर इस क़र्ज की सीमा तय करनी चाहिए, और यदि उन्हें क़र्ज बढ़ाना है तो उन्हें संसद के पास आना चाहिए, अपनी सफाई देनी चाहिए, उसके बाद ही उन्हें अतिरिक्त क़र्ज उठाने की अनुमति मिलनी चाहिए।

अगर ऐसा हुआ होता, तो अमेरिका की तरह भारत सरकार भी क़र्ज को इस स्तर तक ले जाने से पहले संसद के पास आयी होती। अमेरिका में सरकार हाउस और सीनेट के पास गयी, हाउस और सीनेट को कॉन्फिडेंस में लिया, उन्हें कारण बताये, खर्चों में कमी का तर्क दिया, यह भी बताया कि इतना क़र्ज लेना क्यों जरूरी था। इसके बाद तमाम तरीक़े की पाबंदियां सरकार के ऊपर लगायी गयीं, तब कहीं 3 महीने की मंजूरी दी गयी। 3 महीने बाद फिर वही सारी प्रक्रिया अपनायी गयी, तब जाकर मंजूरी दी गयी।

सरकारें हमारे, आपके बचत से ही क़र्ज लेती हैं। आम लोग अपनी जो बचतें बैंकों में रखते हैं, बैंक वही बचतें सरकारों को क़र्ज के रूप में दे देते हैं। आज तो हालत यह हो गयी है कि सरकार इस क़र्ज का 46% तो पुराने क़र्ज का ब्याज देने में दे दे रही है।

अब भारत दुनिया के उन खतरे की स्थिति वाले मुल्कों में शामिल हो गया है, जिनका क़र्ज जीडीपी के बराबर हो गया है। अगर डॉ. अम्बेडकर का सुझाया हुआ क़ानून होता तो हम सरकार से यह पूछ सकते थे कि आखिर क़र्ज का यह पैसा गया कहां?

आईएमएफ ने यह चेतावनी 2 साल पहले भी दी थी, लेकिन दो साल बीत गये, सरकार की ओर से इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी। इस बार आईएमएफ की चेतावनी पहले से ज्यादा तीव्र है। दो साल पहले जब चेतावनी आयी थी तब श्रीलंका में क़र्ज का संकट चल रहा था, दुनिया की निगाहें वहां लगी हुई थीं।

उसी समय आईएमएफ ने बताया था कि भारत का कुल सार्वजनिक क़र्ज, जिसमें केंद्र और राज्य सरकारों और सरकारी कंपनियों का क़र्ज भी शामिल है, जीडीपी के बराबर पहुंचने वाला है। यानि भारत के सार्वजनिक क़र्ज के कुल मूल्य के बराबर ही उसकी अर्थव्यवस्था का कुल उत्पादन है। इतना क़र्ज भारत की राज्य सरकारों, लगभग 200 कंपनियों और केंद्र सरकार ने ले रखा है।

विश्वबैंक और आईएमएफ के पैमाने के अनुसार किसी भी देश के कुल सार्वजनिक क़र्ज का स्तर उसके जीडीपी के 60% से ज्यादा नहीं होना चाहिए। यह एक आदर्श स्थिति है, इसके ऊपर खतरे की घंटी बजना शुरू हो जाती है। आईएमएफ की अक्टूबर 2023 की रिपोर्ट आने तक भारत के क़र्ज के हालात और भयावह हो गये थे।

अब भारत दुनिया के उन खास देशों में शामिल हो गया है, जिन्हें हम संकटग्रस्त देश कह सकते हैं। इन देशों में वेनेजुएला, इटली, पुर्तगाल और ग्रीस जैसी बीमार अर्थव्यवस्थाएं हैं। ग्रीस डिफॉल्ट हो चुका है, पुर्तगाल संकटग्रस्त है, इटली 2008-09 के संकट में ही घायल हो चुका है और वेनेजुएला की अर्थव्यवस्था लगातार संकट में चल रही है।

इन देशों के अलावा इस संकटग्रस्त समूह में भूटान, सूडान और मोजाम्बिक जैसी छोटी अर्थव्यवस्थाएं हैं, जिनकी अर्थव्यवस्थाएं बहुत सीमित संसाधनों पर चलती हैं। इसलिए आज भारत वहां खड़ा है, जहां इसकी अर्थव्यवस्था की तुलना एक तरफ इन संकटग्रस्त देशों से की जा सकती है, तो दूसरी तरफ इन छोटे देशों से की जा सकती है।

ऐसा भी नहीं है कि यह हालत कोविड की वजह से हुई है, हलांकि सरकार ने सफाई देते हुए कोविड को कारण बताया। कोविड से पहले की अपनी आर्थिक समीक्षाओं में खुद सरकार ने स्वीकार किया था कि क़र्ज और जीडीपी का अनुपात 2016 के बाद से ही बिगड़ना शुरू हो गया था। तब तक कोविड कहीं नहीं था।

2016 के बाद से सरकार ने भारी मात्रा में क़र्ज लेना शुरू किया, हलांकि इससे अर्थव्यवस्था को क्या फायदा हुआ, इसे मापने का कोई आंकड़ा नहीं है, न ही सरकार ने कभी बताया है। लेकिन 2016 में यह अनुपात 45% था, जो 2020 में, कोविड से पहले ही 60% हो गया था। इसके साथ ही राज्यों के क़र्ज का अनुपात भी 2016 में 25% था, जो कोविड से पहले ही, 2020 में, बढ़कर 31% हो गया था।

यानि कोविड से पहले ही राज्यों का क़र्ज भी बढ़ रहा था। कोविड से पहले ही केंद्र और राज्यों का कुल क़र्ज जीडीपी का 91% हो चुका था। आज की स्थिति में भारत की सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों का क़र्ज, प्राइवेट क़र्ज और बाक़ी क़र्ज मिलाकर जीडीपी से बड़ा हो चुका है।

भारत में निजी स्तर पर भी आय बढ़े बिना क्रेडिट कार्ड से, और पर्सनल लोन लेकर खर्च करते रहने का आम रुझान है। इसलिए यहां क़र्जग्रस्त होने में सरकारों के साथ-साथ लोगों का भी योगदान है। यहां क़र्ज-साक्षरता का अभाव दोनों ही स्तरों पर है। आईएमएफ ने कहा है कि भारत का जोखिम भारत के घरेलू क़र्ज से है। यह विस्फोटक जोखिम है। भारत में विदेशी क़र्ज ज्यादा नहीं है।

आईएमएफ की ग्लोबल फाइनेंशियल रिपोर्ट के अनुसार भारत की अर्थव्यवस्था में बैंकों और सरकार का एक नेक्सस (गठजोड़) काम कर रहा है, इसी के कारण यह क़र्ज का फंदा (डेट ट्रैप) तैयार हो रहा है। सरकार अंधाधुंध खर्च करती है, बड़ी-बड़ी योजनाओं के लिए। एक तरफ वह राज्यों को खर्च कम करने की सलाह देती है, लेकि खुद क़र्ज बढ़ाती जाती है।

बैंकों से कहा जाता है कि वह उसके कार्यक्रमों को फाइनेंस करें। बैंक हमारी जमाओं के द्वारा सरकारी बॉण्ड्स और ट्रेजरी बिलों में निवेश करते हैं। यह पैसा सरकार को मिल जाता है। इसके अलावा हमारी छोटी बचतों, जैसे डाकघर बचत योजना, सुकन्या समृद्धि योजना का पैसा भी सरकार को मिल जाता है। पीपीएफ का पैसा भी सरकार के पास पहुंचता है।

आज बैंकों की टोटल क़र्ज होल्डिंग में सरकारी क़र्ज का हिस्सा 30% से ऊपर है। इस पैमाने पर भारत दुनिया के सबसे चुनौतीपूर्ण देशों में है। इससे ज्यादा खराब स्थिति केवल घाना, मिस्र और पाकिस्तान की है। इसके अलावा बैंकों की कुल परिसंपत्तियों में सरकारी प्रतिभूतियों, यानि सिक्योरिटीज के हिस्से के मामले में भी भारत दुनिया में तीसरे स्थान पर पहुंच चुका है। बैंकों की परिसंपत्तियों का बड़ा हिस्सा सरकार को क़र्ज देने में फंसा हुआ है।

पिछला पूरा साल जीएसटी कलेक्शन की सुर्खियों से भरा रहा। रिकॉर्ड, 1 लाख 20 हजार करोड़ रुपये के आस-पास संग्रह किया गया। सरकार ने राज्यों को जीएसटी का कंपेंसेशन देना भी बंद कर दिया। शानदार राजस्व, टैक्स संग्रह हुआ, इसके बावजूद सरकार ने 2023-24 में 15.43 लाख करोड़ रुपये का क़र्ज लिया।

कोविड के लॉकडाउन के दौरान सरकार ने जितना क़र्ज लिया था, जिसके आधार पर कहा जा रहा है कि कोविड के कारण क़र्ज संकट आया है, वह मात्र 13 लाख करोड़ रुपये के आस-पास था। 2023-24 का यह क़र्ज उससे भी ज्यादा है। इस साल सरकार ने क़र्ज भी ज्यादा लिया, और वह भी महंगी ब्याज दरों पर। जबकि पिछले एक साल से सरकार के 10 साल वाले बॉण्डों पर 7% के आस-पास ब्याज दर दिखाई दे रही है।

पिछले आर्थिक सर्वेक्षण में सरकार ने खुद माना कि सरकार का 70% क़र्ज छोटी अवधि, यानि 10 साल तक का है। दरअसल सरकार में इतना दम ही नहीं है कि वह लंबी अवधि के क़र्ज का बोझ उठा सके। अभी ताजा आंकड़ों के अनुसार इस साल सरकार पर ब्याज की देनदारी अब तक के रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंच चुकी है।

उसे इस साल 10 से 11 लाख करोड़ रुपये ब्याज के भुगतान के लिए चाहिए। छोटी अवधि का क़र्ज हमेशा महंगा होता है, क्योंकि ब्याज दरें महंगी होती हैं। तो जब खुद केंद्र सरकार की क्षमता और साख लंबी अवधि का क़र्ज लेने की नहीं है, तो राज्य सरकारों को क्या कह जा सकता है।

वित्त मंत्रालय की तिमाही क़र्ज रिपोर्ट के अनुसार 2023 में 4.21 लाख करोड़ सरकार को पुराना क़र्ज चुकाना पड़ा, क्योंकि ये ट्रेजरी बिल मेच्योर हो गये थे। इसके लिए उसे नया क़र्ज लेना पड़ा। सरकार की आर्थिक समीक्षा और दस्तावेजों के अनुसार 2023 से 2028 के पांच सालों में सरकार पर क़र्ज के रिपेमेंट का बोझ औसत दर की तुलना में चार गुना बढ़ जाएगा। यह कम अवधि का वही क़र्ज है, जिसकी देनदारी अब सामने आ खड़ी होने लगी है।

यह सारी जानकारी सार्वजनिक रूप से उपलब्ध है। इसी की ओर आईएमएफ ने भी इशारा किया है।

1- सार्वजनिक क़र्ज का जीडीपी के बराबर पहुंच जाना

2- कम अवधि के क़र्ज लेना

3- क़र्ज का बड़ा हिस्सा पुराने क़र्ज को चुकाने में खर्च होने लगना

4- कोविड के खत्म हो जाने के बाद भी सरकार के क़र्ज लेने में कोई कमी नहीं आयी, बल्कि क़र्ज बढ़ता ही जा रहा है।

इन सारी चीजों ने मिलकर आईएमएफ को यह बताने को मजबूर किया कि भारत का क़र्ज खतरनाक स्थिति में पहुंच गया है। आईएमएफ केवल केंद्र और राज्य सरकारों के क़र्ज की चर्चा करता है, लेकिन क़र्ज की दुनिया तो इससे बहुत बड़ी है। कंपनियों द्वारा लिया गया क़र्ज, निजी लोगों द्वारा क्रेडिट कार्ड पर लिया गया क़र्ज, लोगों के होम लोन, पर्सनल लोन वगैरह।

दुनिया में कोई भी देश जब दूसरे देश में निवेश के बारे में सोचता है तो वह पूरे सिस्टम के हर कोने में हर तरह के क़र्ज की स्थिति को देखता है कि कहां-कहां कितना-कितना क़र्ज है। इसी क़र्ज ऐसेसमेंट के आधार पर उस देश में निवेश के खतरों का आकलन किया जाता है।

किसी भी देश में, उस देश के परिवार जो शुद्ध बचत (यानि क़र्ज को घटा कर की गयी बचत) करते हैं, वही उस देश की आर्थिक और वित्तीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ होती है। अर्थव्यवस्था में इस बात की गणना इस आधार पर की जाती है कि किसी भी देश के लोग कितना क़र्ज लेते हैं और उस अनुपात में कितनी बचत कर रहे हैं।

यानि वह बचत जो क़र्ज के अलावा है, वही अर्थव्यवस्था के काम का है। उसी से आप अपने क़र्ज को चुका सकते हैं, या अपनी अर्थव्यवस्था में संसाधनों के तौर पर इस्तेमाल कर सकता हैं। इसी बचत को सरकार के कुल घाटे के अनुपात में देखा जाता है। सरकारों के कुल घाटे, यानि राजकोषीय घाटा, यानि केंद्र और राज्य सरकारों की आय और खर्च के अंतर के अनुपात में इसी बचत को देखा जाता है।

क्योंकि यही शुद्ध बचत सरकारों के काम आती है। यही बचत आपको बैंकों में दिखाई देती है, यही बचत छोटी बचत योजनाओं में जाती है, और इसी से सरकारें क़र्ज लेती हैं। लेकिन जो सबसे चौंकाने वाला आंकड़ा 2023 के अंत में आया, जिस पर सरकार ने अभी तक कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है, वह यह है कि भारतीय परिवारों की शुद्ध बचत जीडीपी के अनुपात में पिछले पचास सालों के न्यूनतम स्तर पर आ गयी है।

जीडीपी के अनुपात में परिवारों की शुद्ध बचत घट कर 5.1% रह गयी है, जबकि परिवारों का क़र्ज बढ़कर जीडीपी का 5.8% हो गया है। यानि प्रत्येक परिवार जितना बचा रहा है उससे ज्यादा क़र्ज में डूबा हुआ है।

रिजर्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार भारतीय परिवारों का क़र्ज और आय का अनुपात 48% है। अंतरराष्ट्रीय पैमाने के अनुसार केवल 12% होना चाहिए। यह उससे चार गुना ज्यादा है। नॉर्डिक देशों में भी यह अनुपात ज्यादा है, लेकिन उनकी आय भी बहुत ज्यादा है।

2023 में, जबकि भारत में जीडीपी के अनुपात में परिवारों की शुद्ध बचत घट कर 5.1% रह गयी है, इसी साल रिजर्व बैंक द्वारा प्रोजेक्ट किया गया राजकोषीय घाटा केंद्र का 5.9% और राज्यों का 3.1% मिलाकर समग्र राजकोषीय घाटा 9% हो गया है। यानि भारत के लोग कुल मिलाकर जितना बचा रहे हैं, उससे ज्यादा घाटा तो सरकारों का है।

देश के परिवारों की कुल बचत भी सरकार के क़र्ज को फाइनेंस करने के लिए पर्याप्त नहीं है। बाक़ी क़र्ज तो अलग से है ही। यह स्थिति इसलिए खतरनाक है कि इस अंतर को पाटने वाली पूंजी की जरूरत को पूरा करने के लिए आपको या तो ज्यादा नोट छापने पड़ेंगे और मुद्रास्फीति को हमेशा के लिए आमंत्रित करना पड़ेगा, नहीं तो आपको विदेश से क़र्ज लेना पड़ेगा।

अतः हमको भारत के क़र्ज के संकट को केवल आईएमएफ की चेतावनी की रोशनी में नहीं, बल्कि भारत की बचत की स्थिति आदि अन्य बड़े महत्वपूर्ण इंडिकेटरों की रोशनी में देखना चाहिए। इसलिए पिछले साल तक जो सरकार विदेशी बाजार में जाने से डरती रही थी, खुद सरकार के लोग सॉवरिन बॉण्ड पर तमाम टिप्पणियां करते रहे थे, उन्होंने अचानक सॉवरिन बॉण्ड का उत्सव मनाना शुरू कर दिया, अपनी तारीफ करना शुरू कर दिया कि भारत सरकार के बॉण्ड अब ग्लोबल बॉण्ड इंडेक्स में शामिल होंगे।

भारत के लिए अब तक विदेशी क़र्ज का ज्यादा न होना अच्छी बात है, लेकिन जैसा कि आईएमएफ ने भी कहा है, यह राहत की बात इसलिए नहीं है कि हमारे अपने बैंक और लोगों की बचत खतरे में है। दूसरी बात यह है कि विदेशी क़र्ज के मामले में सरकार सच नहीं बताती।

सीएजी की एक रिपोर्ट आयी थी, जिसमें बताया गया था कि 2021-22 के दौरान भारत में सरकार ने विदेशी क़र्ज की सही जानकारी ही देश को नहीं दी, उसे छिपाया गया और कम करके बताया गया। सरकारी आंकड़ों में विदेशी क़र्ज 4.39 लाख करोड़ दिखाया गया था, जबकि यह वास्तव में 6.58 लाख करोड़ था।

इसमें सरकार ने डॉलर और रुपये के ग़लत विनिमय मूल्य को आधार बनाया था, क्योंकि वह पुराना विनिमय मूल्य था। इस तरह सरकार ने करीब 2.91 लाख करोड़ रुपये का क़र्ज अपने खातों में छिपा लिया था। सीएजी ने अपने फुटनोट में यह बात कही थी।

लेकिन क़र्ज चाहे विदेशी हो, या देशी, वह क़र्ज ही होता है। क़र्ज रक्तबीज की तरह होता है, वह खत्म नहीं होता। उसे एक खाते की बजाय दूसरे खाते में पहुंचाया जा सकता है, लेकिन वह कहीं न कहीं रहेगा, और निकल कर बाहर दिखता रहेगा।

लोग अक्सर अमेरिका की चर्चा करते हैं और कहते हैं कि अमेरिका पर तो जीडीपी का कई गुना ज्यादा क़र्ज है। लेकिन अमेरिका का मामला भारत से अलग और पेचीदा है। अमेरिका दुनिया की ‘फिएट करेंसी’ (एक तरह से स्वयंभू मुद्रा) का मालिक है।

दरअसल पूरी दुनिया अमेरिका से डॉलर लेकर उसे क़र्ज देती है। अमेरिका की मुद्रा पूरी दुनिया के कारोबार का आधार है, इसलिए अमेरिकी सरकार के बॉण्डों में, ट्रेजरी बिलों में पूरी दुनिया का निवेश होता है। भारतीय रिजर्व बैंक का भी निवेश, विदेशी मुद्रा भंडार का जो निवेश है, वह अमेरिका के बॉण्ड्स में है, और चीन के विदेशी मुद्रा भंडार का निवेश भी अमेरिका के बॉण्ड्स में है।

इसलिए फिएट करेंसी होने के कारण अमेरिका क़र्ज के मामले में दुनिया से अलग खड़ा होता है। लेकिन सांवैधानिक तौर पर सरकार इसके बावजूद मनमानी क़र्ज नहीं ले सकती। ऐसा नहीं है कि कोई वित्तमंत्री अपनी मर्जी से बैंकों से क़र्ज लेने के लिए बॉण्ड्स, ट्रेजरी बिल्स जारी कर दे।

वहां जैसे ही क़र्ज का अलार्म बजता है, सरकारें रुक जाती हैं, तनख्वाहें रुक जाती हैं, भुगतान रुक जाते हैं, अस्पतालों में दवाओं की खरीद रुक जाती है, विपक्ष सवाल पूछता है, सरकारों को सफाई देनी होती है।

शेयर बाजारों में घबराहट फैल जाती है, अर्थव्यवस्था गिरने लगती है, चुनौतियां खड़ी हो जाती हैं, राष्ट्रपति सारा काम छोड़कर विपक्ष के साथ बैठते हैं, उसे समझाते हैं, उसके बाद सहमति का एक रास्ता निकाला जाता है, और क़र्ज की सीमा बढ़ाने से पहले सरकार को क़र्ज कम करने और खर्च सीमित करने के कार्यक्रम पर देश को विश्वास में लेना होता है।

डॉ. अम्बेडकर भी यही चाहते थे कि सरकारों को क़र्ज लेने से रोका न जाए, लेकिन क़र्ज की सीमा तय की जाए। यह तय किया जाए कि वे कितना क़र्ज ले सकती हैं और अगर वे और ज्यादा क़र्ज चाहती हैं तो संसद के सामने आकर देश को इस बारे में सहमत करें, कन्विन्स करें ताकि देश के लोग, जिनकी बचतें क़र्ज के रूप में जा रही हैं, वे यह देख तो सकें कि सरकार के खर्चों से उन्हें मिल क्या रहा है।

वे जानें कि उस खर्च से मिलने वाली उत्पादकता और उससे होने वाले फायदे कितने ज्यादा हैं। लेकिन आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ, और आज हम बढ़ते-बढ़ते एक खतरनाक मुकाम पर पहुंच गये हैं।

अब हम विदेशी क़र्ज की ओर प्रस्थान कर रहे हैं। यह आश्चर्य और चिंता का विषय है कि ऐसे समय में, जब भारत में घरेलू क़र्ज की स्थिति विस्फोटक हो चुकी है, परिवारों का क़र्ज, बैंकों में छोटी बचतों पर क़र्ज, सरकार के सिस्टम का क़र्ज सबसे ज्यादा चुनौतीपूर्ण और विस्फोटक स्थिति में है, ऐसे में सरकार विदेशी बॉण्ड्स जारी करने और सरकारी बॉण्ड्स को विदेशी बाजारों में सूचीबद्ध कराने जा रही है। यह डरने वाली बात है।

आईएमएफ ने कहा है कि भारत सरकार द्वारा घरेलू बैंकों से लिया गया जो क़र्ज है, वह एक क़िस्म का ‘डूम लूप’, यानि दुर्भाग्यपूर्ण भंवर है। तकनीकी तौर पर देखा जाए तो कोई भी सरकार अपने बैंकों से क़र्ज लेकर दिवालिया नहीं हो सकती है, क्योंकि बैंक और सरकारें, दोनों उसी देश की हैं। लेकिन बैंकों से क़र्ज लेते जाने से सिस्टम में एक खास क़िस्म का संकट पैदा हो जाता है, और यह संकट बैंकों को भी ले डूबता है, और सरकारों को भी।

1998 के रूस और 2001 के अर्जेंटीना में लगभग ऐसी ही स्थिति बनी थी। वहां भी घरेलू बैंकों ने खूब क़र्ज दिया था और एक क़िस्म का डूम लूप बन गया था, जिसके बाद वहां के बैंक बुरी तरह से क्षत-विक्षत हुए थे और वहां की करेंसी पर भी काफी बुरा असर पड़ा था। रूस और अर्जेंटीना की मुद्राओं की बहुत बुरी हालत हो गयी।

आईएमएफ ने अपनी रिपोर्ट में यह भी कहा है कि सरकार का मौजूदा राजस्व क़र्ज की चुकौती के लिए पर्याप्त नहीं है। जाहिर है कि राजकोषीय घाटे को फाइनेंस करने के लिए परिवार जितनी बचत अभी कर रहे हैं, उसकी दोगुनी बचत करें तब सरकार का काम चलेगा, जो संभव ही नहीं है। दूसरी तरफ सरकार की क़र्ज की जरूरत लगातार बढ़ती ही जा रही है, इसीलिए विदेशी क़र्ज की खिड़की खोली जा रही है।

भारत की प्राइवेट कंपनियों के बॉण्ड्स तो वैश्विक निवेश के लिए पहले से ही खुले हुए हैं, लेकिन भारत सरकार पहली बार ऐसा कर रही है, और इस कमजोरी का उत्सव मनाया जा रहा है। विदेशी क़र्ज की खिड़की इसलिए खोली जा रही है कि शायद अब सरकार को भी लगने लगा है कि घरेलू क़र्ज लेने की सीमा पार हो चुकी है।

इस साल जून से भारतीय सॉवरिन बॉण्डों की यह ट्रेडिंग शुरू करने की योजना है और 3 ट्रिलियन डॉलर मिलने की उम्मीद है। लेकिन यहीं से सबसे बड़ा जोखिम भरा वक़्त शुरू हो रहा है। आईएमएफ की चेतावनी ऐसे वक़्त पर आयी है, जब क़र्ज को लेकर बहुत सारी चेतावनियां और खतरे की घंटियां बज रही हैं।

सरकार पर देशी बैंकों की देनदारी रिकॉर्ड स्तर पर होगी, क्योंकि 2023 से 28 के बीच सबसे ज्यादा घरेलू क़र्ज वापस करना है, भारत सरकार जब ‘जे पी मॉर्गन’ के ग्रुप पर जाकर अपने बॉण्ड्स को सूचीबद्ध करायेगी और जून से इनकी ट्रेडिंग शुरू होगी, तो वैश्विक निवेशक बाजार सरकार का जो पहला आंकड़ा देखेंगे, वह क़र्ज का ही होगा, क्योंकि सॉवरिन बॉण्ड्स का मार्केट सबसे ज्यादा सरकारों के क़र्ज पर चिढ़ता है।

ऊपर से भारत की ‘सॉवरिन नेटिंग’ (जोखिम को कम करने की सरकारी कवायद) सबसे ज्यादा खराब है। एक तो करेला, दूजे नीम चढ़ा! भारत की सॉवरिन नेटिंग ठीक कराने के लिए सरकार बहुत कोशिश कर रही है, लेकिन पिछले एक दशक से सरकार की साख में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई है। क़र्ज की पूरी कुंडली सबके सामने आ जाने से अब यह कवायद यूं भी बेकार हो जाएगी।

क़र्ज का टाइम बम टिक-टिक कर रहा है। निवेशक भारत के सॉवरिन बॉण्ड्स में निवेश करने से पहले जीडीपी के बराबर खड़े इस क़र्ज को भी देखेंगे, परिवारों के क़र्ज और आय के बिगड़ते हुए अनुपात को भी देखेंगे, और बैंकों के क़र्ज के हालात भी देखेंगे।

अगर अभी की योजना के अनुसार ग्लोबल बॉण्ड मार्केट में भारतीय सॉवरिन बॉण्ड को सूचीबद्ध कराया ही जाता है, और जून से इनकी ट्रेडिंग शुरू होती है, तो बॉण्ड मार्केट बहुत सख्त नसीहतें देगा। यह भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बड़े जोखिम की शुरुआत होगी। अगले कुछ महीनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि इतने बड़े जोखिम के बावजूद क्या भारत सरकार इन बॉण्डों की लिस्टिंग और ट्रेडिग करायेगी! और इस पर निवेशकों रुख क्या होगा।

लेकिन फिलहाल सरकार की तरफ से क़र्ज कम करने की कोई बात, या किसी योजना की चर्चा नहीं की जा रही है। अब तो सरकार चुनावों में जाने को तैयार है। अब अगली सरकार जब जुलाई में बजट पेश करेगी तब जाकर पता लगेगा कि इस चेतावनी का भारतीय अर्थव्यवस्था पर क्या असर हुआ, और सरकारों ने क्या बदलाव किये।

फिलहाल आज की हालत हमें यही बता रही है कि सरकारें हों, या परिवार हों, कंपनियां हों, या व्यक्ति हों, अंधाधुंध क़र्ज लेने की छूट किसी को नहीं होनी चाहिए। सिर्फ क़र्ज के संकट के कारण हमने जेट एअरवेज, किंगफिशर, दीवान हाउसिंग फाइनेंस जैसी तमाम अच्छी-खासी कंपनियों को बरबाद होते देखा है।

(जाने-माने अर्थशास्त्री अंशुमान तिवारी का लेख, मनी9 के कार्यक्रम ‘इकोनॉमिकॉम’ से लिप्यांकित, प्रस्तुति- शैलेश)

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