बाबरी मस्जिद विध्वंस: आज के समय के लिए कुछ महत्वपूर्ण सबक

6 दिसम्बर 1992 भारतीय इतिहास का वह काला दिन था, जब उत्तर प्रदेश के अयोध्या में मध्यकाल में बनी एक ऐतिहासिक मस्ज़िद को लाखों की उन्मादित भीड़ ने गिरा दिया, जिसके बारे में उनका मानना था कि यह मस्ज़िद उनके आराध्य श्रीराम के जन्मस्थल पर स्थित मन्दिर को तोड़कर बनाई गई थी।

क़रीब तीन दशक बीत जाने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने उस स्थल पर रामम‌न्दिर के निर्माण का आदेश देते हुए यह भी कहा कि,”ऐसे कोई पुरातात्विक या ऐतिहासिक साक्ष्य या प्रमाण नहीं मिले हैं कि उस जगह कोई मन्दिर था, जिसे तोड़कर मस्ज़िद बनाई गई थी।”

बाबरी मस्ज़िद विध्वंस के 31 वर्ष बीत चुके हैं, अब तक अयोध्या के सरयू में बहुत पानी बह चुका है। 1992 में बाबरी मस्ज़िद विध्वंस के सभी अपराधी सबूतों के अभाव में दोषमुक्त कर दिए गए।

अयोध्या की उस विवादित जगह पर राममन्दिर का निर्माण ज़ोर-शोर से जारी है, जिसका शिलान्यास देश प्रधानमंत्री ने स्वयं किया था। 2024 के लोकसभा चुनाव के ठीक पहले नवनिर्मित इस राममन्दिर के उद्घाटन की योजना है, जिससे कि भाजपा द्वारा इसका लाभ इस लोकसभा चुनाव में लिया जा सके।

अक्सर बाबरी मस्ज़िद विध्वंस को भाजपा के राजनीतिक उत्थान का एक मील का पत्थर माना जाता है और आमतौर से यह भी कहा जाता है कि 1992 में बाबरी मस्ज़िद विध्वंस के बाद भारतीय राजनीति की दिशा पूरी तरह से बदल गई तथा हिन्दुत्व की राजनीति भारतीय राजनीति के मुख्य एजेंडे पर आ गई, लेकिन यह तथ्य अर्द्धसत्य ही है।

यद्यपि 2002 के गुजरात दंगे पीछे भी राममन्दिर का मुद्दा गहराई से जुड़ा था, जिसमें अयोध्या से लौट रही साबरमती एक्सप्रेस के डिब्बों में अहमदाबाद के निकट कथित रूप से मुसलमानों द्वारा आग लगाने से उन हिन्दू कारसेवकों की जलकर मृत्यु हो गई थी, जिनके बारे में बताया जाता है कि वे अयोध्या से कारसेवा करके लौट रहे थे।

गुजरात दंगों में अपनी कथित भागीदारी के कारण गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी एक विशेष वर्ग के नायक के रूप में उभरे, जिसने उन्हें बाद में प्रधानमंत्री बनाने में अहम भूमिका निभाई। हालांकि दंगों में उनकी कथित भूमिका से सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें मुक्त कर दिया था, इसलिए आमतौर से यह भी माना जाता है कि 2014 से लगातार दो आमचुनाव में भाजपा की विजय के पीछे वह हिन्दूकार्ड है, जिसकी शुरूआत बाबरी मस्ज़िद विध्वंस से हुई थी।

वर्तमान में घटित कोई भी महत्वपूर्ण घटना एकाएक नहीं हो जाती, उसकी जड़ें उसके इतिहास में होती हैं, जिसका विश्लेषण किए बिना हम उस ‌घटना को नहीं समझ सकते। आमतौर से बुद्धिजीवी और समाजविज्ञानी यह मानते हैं कि हमारे यहां एक सांझी संस्कृति थी। हिन्दू-मुस्लिम आपस में सौहार्द से रहते थे, लेकिन अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति ने भारत में साम्प्रदायिकता के बीज बोए, जिसके फलस्वरूप भारत का विभाजन हुआ, लाखों लोगों की मृत्यु हुई तथा करोड़ों का विस्थापन हुआ, जोकि आधुनिक विश्व इतिहास की एक अभूतपूर्व घटना थी।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि 1857 के गदर में मुसलमानों और हिन्दुओं की व्यापक रूप से सामूहिक भागेदारी से अंग्रेजों ने यह समझ लिया था कि भारत पर शासन करने के लिए इनके बीच फूट डालना ज़रूरी है और इसको उन्होंने सफलतापूर्वक अंजाम भी दिया, लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि हमारे राष्ट्रवादी आंदोलन में ही साम्प्रदायिकता या हिन्दूराष्ट्रवाद के बीज छिपे थे, इसमें वो जुझारूपन नहीं था, जो हम एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिकी देशों के राष्ट्रवादी आंदोलनों में देखते हैं।

गांधी जी स्वयं अपने को सनातनी हिन्दू मानते थे, यद्यपि उनका हिन्दुत्व संघ परिवार की तरह फासीवादी हिन्दुत्व नहीं था। राष्ट्रवादी आंदोलन पर तिलक, विवेकानंद और दयानंद सरस्वती जैसे लोगों का गहरा प्रभाव था, जिन्होंने हिन्दू पुनरुत्थानवाद को मजबूत किया।

यह सही है कि अपनी तमाम कमियों तथा कमजोरियों के बावज़ूद महात्मा गांधी द्वारा शुरू की गई जन हिस्सेदारी के राजनीतिक असहयोग के बाद उभरे मेहनतकश वर्ग और किसानों के आंदोलनों ने संगठित साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष को और अधिक ताक़तवर बनाया। ठीक उसी वक्त राष्ट्रीय आंदोलन के लिए दुर्भाग्यवश परिस्थिति यह भी बन गई कि 1920 के दशक के मध्य हिन्दू और मुसलमानों के कुछ कद्दावर नेताओं के साम्प्रदायिक रास्ते पर चलने की प्रवृत्ति तेज़ होती गई।

यह नयी हलचल ब्रिटिश हुक्मरानों के हक़ में थी, ज़ाहिर है कि साम्राज्यवादी शासकों ने इसे प्रोत्साहित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कांग्रेस के नेतृत्व में चले असहयोग आंदोलन के दौरान बनी एकता को तोड़ने के लिए हिन्दू और मुसलमान अलगाववादियों ने अन्दर घात किया।

हिन्दू महासभा के साम्प्रदायिक रवैए (जिसे कांग्रेस की दक्षिणपंथी धारा का समर्थन मिला हुआ था) की वजह से साम्प्रदायिक सौहार्द बनाए रखने में भारी मुश्किलें खड़ी हो गईं, जबकि उग्र मुसलमान राष्ट्रवादियों; ख़ासतौर पर उनके बीच के घोर रूढ़िवादी और प्रतिक्रियावादी तबक़े ने ख़िलाफ़त के मुद्दे को इस रूप में पेश करने का प्रयास शुरू कर दिया, कि इसका ताल्लुक़ सिर्फ़ मुसलमानों से था और इसका उद्देश्य वैश्विक इस्लामी साम्राज्य की स्थापना था।

इस मुद्दे के धार्मिक पक्ष पर ख़ास ज़ोर देकर उन्होंने इस आंदोलन के राजनीतिक और साम्राज्यवाद विरोधी पहलू को कमज़ोर कर दिया।

असहयोग आंदोलन के बाद इनमें से कई साम्प्रदायिक लोग राजनीति में शामिल हो गए, जबकि दूसरे क़ाफी लोग जैसे- मौलाना आज़ाद, अल्लाह बख़्श, डॉ० एमए अंसारी, अब्दुल्लाह बरेलवी, मौलाना हुसैन, अहमद मदनी और सैफ़ुद्दीन किचलू हिन्दू-मुसलमान एकता के प्रति अपनी अटूट प्रतिबद्धता की वजह से कांग्रेस और उससे बाहर साझे स्वतंत्रता संग्राम के नेता बन गए।

यही वह वक्त था, जब हिन्दू और मुसलमान साम्प्रदायिक तत्व एक-दूसरे के पूरक बन गए और ब्रिटिश शासन ने उसे पाला-पोसा। जेल की यातनाओं को सहन न कर सकने के कारण राष्ट्रीय आंदोलन के एक महत्वपूर्ण नेता सावरकर ब्रिटिश शासन से माफ़ी मांगकर जेल से छूट गए तथा वे अंग्रेजी शासन से पेंशन भी लेने लगे। एक समय के राष्ट्रवादी तथा हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रबल पक्षधर सावरकर अब हिन्दूराष्ट्र के सबसे प्रबल प्रवक्ता बन गए।

आज से ठीक सौ साल पहले 1923 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘हिन्दुत्व’ राजनीतिक हिन्दुत्व की पहली महत्वपूर्ण पुस्तक है, जिसमें पहली बार सावरकर ने हिन्दूराष्ट्र की रूपरेखा प्रस्तुत की। ज्ञातव्य है कि सावरकर गांधी हत्याकांड में भी एक प्रमुख अभियुक्त थे, लेकिन सबूतों के अभाव में वे बरी हो गए।

इसी के दो वर्ष बाद 1925 में हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। इस संगठन पर सावरकर के विचारों का गहरा प्रभाव था, जिसकी अभिव्यक्ति आज भी हम भाजपा की राजनीति में देख सकते हैं।

जिस संगठन ने आज़ादी की लड़ाई में भाग नहीं लिया, वह आज़ादी के बाद देश को पाकिस्तान के इस्लामी शासन की तरह हिन्दूराष्ट्र में बदलना चाहता था। कांग्रेस में भी हिन्दूवादी तत्वों का बहुमत था, लेकिन जवाहरलाल नेहरू की दृढ़ धर्मनिरपेक्ष नीति के कारण वह इसमें सफल नहीं हो सका।

अगर हम आधुनिक भारत का इतिहास देखें तो जवाहरलाल नेहरू के बाद कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता की नीति का क्षरण होने लगा। आज वामपंथियों के एक बड़े तबक़े, कांग्रेस तथा अनेक बुद्धिजीवियों को ऐसा लगता है कि भाजपा और संघ परिवार के उग्र फासीवाद का मुकाबला हम उदारवादी हिन्दुत्व की राजनीति से कर सकते हैं।

वास्तव में इस नीति ने भाजपा को ही और अधिक मजबूत किया है। भाजपा का मुक़ाबला सच्ची धर्मनिरपेक्षता की नीति को लागू करने के संघर्ष से ही किया जा सकता है, बाबरी मस्ज़िद के विध्वंस से हमारे लिए यही सबक है।

 (स्वदेश कुमार सिन्हा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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