विचारधारा शून्यता के माहौल में: क्या मोदी-शाह सत्ता गडकरी की पीड़ा पर ध्यान देगी?

मोदी सरकार के वरिष्ठ काबीना मंत्री नितिन गडकरी के इस कथन से कोई बेईमान नेता ही असहमत हो सकता है कि आज जनता की नज़रों में नेताओं की छवि अवसरवादी की बनती जा रही है। वजह है, उनमें विचारधारा की शून्यता बढ़ती जा रही है। लोग कहने लगे हैं कि वर्तमान सांसदों में वैचारिक प्रतिबद्धता का अभाव दिखाई देता है; ऐसे सांसद न तो दक्षिणपंथी हैं और न ही वामपंथी। यदि कुछ हैं तो ‘अवसरवादी’।

विचारधारहीनता लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है। काबीना मंत्री गडकरी ने अपना यह मत किसी जंगल या बुद्धिजीवियों के बीच ज़ाहिर नहीं किया है। बल्कि पिछले दिनों वे दिल्ली में ही सांसदों की सभा में अपने विचारों को खरा-खरा नेताओं और मंत्रियों को सुना रहे थे। उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि अवसरवादी नेता किसी के सगे नहीं होते हैं। किसी की भी सरकार हो, वे उसके साथ हो लेते हैं। लेकिन अपनी विचारधारा पर अडिग नेताओं की संख्या घटती जा रही है। यह लोकतंत्र के लिए शुभ लक्षण नहीं है।

गडकरी अपनी इस पीड़ा को भी छुपा नहीं सके कि “जो लोग अच्छा काम करते हैं उन्हें कभी आदर-सम्मान नहीं मिलता है।लेकिन, जो बुरा काम करते हैं, वे कभी दण्डित नहीं होते हैं।” ज़ाहिर है उनके इन विचारों के निशाने पर कौन लोग हैं और ऐसा कहने के लिए उन्हें क्यों मज़बूर होना पड़ा है। गडकरी की यह पीड़ा सामान्य अवसर पर नहीं फूटी थी, बल्कि उस समय सामने आई जब वे लोकमत संसदीय पुरस्कारों से कांग्रेस के वरिष्ठ सांसद शशि थरूर सहित अन्य नेताओं को सम्मानित कर रहे थे।

सत्तारूढ़ भाजपा के पूर्व अध्यक्ष और वरिष्ठतम नेताओं में से एक नितिन गडकरी के पीड़ा व चेतावनी से भरे समसामायिक विचारों को हंसी-ठिठौली में टाला नहीं जा सकता, बल्कि इन्हें सही परिप्रेक्ष्य में रख कर इनके आर-पार देखा जाना चाहिए। यह सर्वविदित है कि मोदी-शासन के दौरान राजनैतिक नैतिकता -मर्यादा अपने निम्नतम पायदान पर खिसकती जा रही है। हाल ही में देश की आला अदालत ने चंडीगढ़ के मेयर चुनाव में मची धांधली पर तल्खी के साथ कहा था, “हम लोकतंत्र की हत्या नहीं होने देंगे।”

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस तरह की सख्त टिप्पणी किसी भी सरकार को शर्मसार करनेवाली हो सकती है। पिछले आठ -नौ सालों से दल-बदल, सरकार-बदल और पलटूराम+ झपटूराम का कितना शर्मनाक कारोबार चलता आ रहा है; मध्यप्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, गोवा, अरुणाचल, कर्नाटक जैसे प्रदेशों में राजनैतिक अवसरवादिता की खुली नीलामी लगती रही है। करोड़ों रुपयों के कारोबार की चर्चाएं चलती रहती हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने तो भाजपा पर खुला आरोप लगाया है कि उनके विधायकों को तोड़ने की कोशिशें की जा रही हैं।

क्या दल बदलने वाले निर्वाचित सांसद और विधायक चौबीस घंटों में शासक दल की विचारधारा को अपना सकते हैं? क्या एक पार्टी के भ्रष्ट व दागी निर्वाचित प्रतिनिधि शासक दल में प्रवेश करने के साथ ही दुर्योधन+ शकुनि+ दुशासन से युधिष्ठिर+धर्मराज+ हरिश्चंद्र के अवतार बन जाते हैं? क्या वे पलभर में हिंदुत्व की विचारधारा को आत्मसात कर लेते हैं?

सभी जानते हैं कि विरोधी पार्टी के ऐसे नेताओं के भ्रष्टाचारी कारनामों के खिलाफ भाजपा अभियान चलाती रही है। लेकिन, जैसे ही ये भ्रष्ट व पतित नेता केसरिया आंचल ओढ़ लेते हैं, उनके हजार पापों, अपराधों का प्रक्षालन हो जाता है। क्या यही शासक दल का हिंदुत्व है? क्या यही भाजपा ब्रांड हिंदू धर्म है? ऐसे अवसरवादी और बिकाऊ निर्वाचित जन प्रतिनिधियों से किस प्रकार की देशभक्ति, राष्ट्रवाद, धर्मभक्ति, समाज निष्ठा, नैतिकता, मानवीय रिश्तों की अपेक्षा की जा सकती है?

गडकरी जी के इस मत में दम है कि विचारधाराहीन लोग किसी के सगे नहीं होते हैं। वे सिर्फ सत्ताभक्त होते हैं। मोदी-शाह की जोड़ी नीतीश कुमार को पानी पीकर कोसती रही है। लेकिन, अवसर आया तो उन्हें गिद्ध गति से तुरत फुरत झपट लिया। कोई संघ परिवार के शिखर नेतृत्व से पूछे कि यह कौन सी विचारधारा है? क्या ज़मीर फरोश नेताओं के दम पर ’हिंदू राष्ट्र’ का निर्माण करेंगे? क्या ऐसे अवसरवादी व बिकाऊ नेताओं के हाथों में लोकतंत्र, संविधान और राष्ट्र सुरक्षित रहेगा?

ऐसे सवाल गडकरी जी की पीड़ा की ज़मीन से उठते हैं और उनकी ही पार्टी और शिखर नेताओं की कार्य शैली को ललकारते हैं। अगले कुछ महीनों में लोकसभा और कुछ विधानसभाओं के चुनाव हो ने जा रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी जी ने आसमान में नारा उछाल दिया है कि भाजपा मौज़ूदा 303 सीटों से 370 तक पहुंचेगी और गठबंधन एनडीए 400 से ऊपर जाएगा। ऐसे महत्वाकांक्षी नारों से जहां अपने कार्यकर्ताओं के मनोबल को बढ़ाया जाता है, वहीं जनता पर मनोवैज्ञानिक आक्रमण भी किया जाता है। इन आक्रमणों के ज़रिये जनता को घेरा जाता है और उसकी चुनाव -सोच अनुकूलित होने लगती है। उसके समक्ष विकल्पहीनता का वातावरण बन जाता है। इस दृष्टि से, चुनाव मैदान में नरेंद्र मोदी एक मात्र विकल्प के रूप में उभरते हैं।

संघ परिवार के पंखों पर सवार होकर मोदी जी चुनावी आसमान में मुक्त होकर उड़ाने भरने लगते हैं। ऐसे महत्वाकांक्षी नारों से विपक्ष के मनोबल को भी गिराने की कोशिशें होती हैं। बेशक, विपक्ष का इंडिया गठबंधन अभी तक अपना कन्वीनर घोषित नहीं कर सका है और न ही ऐसा चेहरा सामने रखा है जो विकल्प की दृष्टि से मोदी जी को ललकार सके। अब कांग्रेस नेता राहुल गांधी के इस मत से किसी को कोई शिकायत नहीं होनी चाहिए कि उनकी ‘लड़ाई सत्ता की लड़ाई नहीं है। यह विचारधारा की लड़ाई है।” तभी तो प्रधानमंत्री मोदी राहुल पर कटाक्ष करने से चूकते नहीं हैं। मोदी जी को हैरत होती होगी कि चुनाव -जंग में निरंतर हारने के बावजूद राहुल गांधी अब भी अपने सिद्धांतों पर जमे हुए हैं। टूटे नहीं हैं।

बिहार के चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर का कथन है कि यदि राहुल गांधी के समान मोदी जी को असफलताओं का सामना करना पड़ता तो वे मैदान में राहुल के समान टिके नहीं रह सकते थे। मेरे विचार से मोदी जी कमंडल लेकर सत्ता -अखाड़े से बाहर हो जाते!

राहुल गांधी के कथन को केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्री गडकरी जी के विचारों से बल ही मिलता है और भाजपा नेतृत्व के सामने आईना हंसता है। क्योंकि, विचारशून्यता और विचारहीनता, दोनों से ही लोकतंत्र के लिए विभिन्न प्रकार के संकट पैदा हो रहे हैं। यदि निर्वाचित जनप्रतिनिधि अपनी दक्षिण, मध्यपंथी और वामपंथी विचारधाराओं पर अडिग रहते और सत्ता व धन -लोभ का शिकार नहीं होते तो देश में दल-बदल+ पलटूराम – झपटूराम संस्कृति ज्वार नहीं उठता।

लेकिन, जब मंडी सजी हो तो चुनावों से पहले निष्ठां व विचारधारा फरोशों की आवाजाही बढ़ जाएगी। भाजपा में ऐसे लोगों के लिए स्वागत मंच सजा हुआ है। नितिन जी का इशारा ऐसे ज़मीर फरोशों और मंच की तरफ है। क्या माननीय नरेंद्र मोदी, अमित शाह और भाजपा अध्यक्ष ऐसे फरोशों के लिए अपने दरवाज़े बंद रखेंगे? मेरी आशंका है- ‘कतई नहीं!’

(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments