आभासी यथार्थ के दौर में भारतीय पत्रकारिता

मैं यथार्थ हूं, मुझे पकड़कर, छूकर देखा, महसूस किया जा सकता है लेकिन आईने में नज़र आ रही मेरी छवि को छुआ या पकड़ा नहीं जा सकता। यह आभासी यथार्थ है। आईने के सामने से हटते ही मेरा वजूद तो क़ायम रहता है मगर मेरी छवि का वजूद समाप्त हो जाता है। इसी तरह मेरा चित्र जो चाहे हाथ से बनाया गया हो या किसी फ़ोटाग्राफ़र ने खींचा हो उसे छुआ या पकड़ा तो जा सकता है लेकिन जिस तरह मैं सजीव हूं वह सजीव नहीं होता। इसके अलावा सामने से लिए गये उस चित्र में यह नहीं देखा जा सकता कि मैं दायीं-बायीं ओर या पीछे से कैसा दिखता हूं?

अब अगर हम इससे भी आगे चलें तो वीडियो यानि चलचित्र की दुनिया आती है उसमें मैं सजीव तो महसूस होता हूं। मुझे चलता-फिरता देखा जा सकता है लेकिन मुझे छुआ या पकड़ा नहीं जा सकता। इससे भी और आगे चलें तो तकनीक के क्षेत्र में वर्चुअल रियलिटी का दौर आता है जिसमें 360 डिग्री वीडियो कैमरे से खीचा गया वीडियो, गूगल कार्ड बोर्ड या ऑक्लस-गो नामक डिवाइस में मोबाइल लगाकर देखते हुये इस तरह का आभास देता है जैसे मैं भी उस घटना का हिस्सा हूं या मै भी उस घटना में मौजूद हूं।

इससे भी आगे एक और तकनीक आयी है वह है ऑग्मेंटेड रियेलिटी। इसमें आभासी यथार्थ को और भी बेहतर करके दिखाया जाता है। यह तकनीक, वीडियो गेम, शिक्षा, युद्ध प्रशिक्षण, इंजीनियरिंग, शाॅपिंग, चिकित्सा, पत्रकारिता तथा कई अन्य क्षेत्रों में इस्तेमाल हो रही है। अगर युद्ध का प्रशिक्षण दिया जा रहा है तो युद्ध में जो कुछ भी आसपास घटता है उसे इसके द्वारा दिखा दिया जाता है। इसी तरह पत्रकारिता के क्षेत्र में दर्शक को ऐसा लगता है जैसे वह भी युद्ध के मैदान में मौजूद है।

एसोसिएटेड प्रेस द्वारा बनायी गयी फ़िल्म, ‘हाऊस टू हाऊस: ए बैटल ऑफ़ मौसूल” जो एआर-वीआर तकनीक के माध्यम से बनायी गयी है में दर्शक, इराक़ के मौसूल नामक शहर में आईएसआईएस के साथ होने वाले युद्ध में स्वयं ऐसा महसूस करता है जैसे वह आतंकवादियों का मौसूल शहर की गलियों में पीछा कर रहा है। वह शहरी युद्ध में आने वाली परेशानियों का खुद अनुभव कर रहा है।

इसी तरह न्यूयार्क टाइम्स द्वारा बनायी गयी फिल्म, ‘6 लाइफ़ ऑन माॅर्स’ में हवाई द्वीप में रह रहे वैज्ञानिकों का इस तरह फिल्मांकन किया गया है कि दर्शक मंगल गृह के जीवन को जीने का अनुभव हासिल करते हैं। पहले हम किसी कहानी को दो आयाम में देखते थे लेकिन पत्रकारिता में इस्तेमाल की जाने वाली वीआर-एआर तकनीक ने तीसरे आयाम को देखना भी संभव बना दिया है। हम खुद कहानी में डूबकर उसका अनुभव करते हैं।

एआर व वीआर को मिक्स करके 360 डिग्री कैमरे से जो वीडियो बनाया जाता है तो वह एमआर यानि मिक्स रियलिटी कहलाता है। जिस वीडियो में इन सारी विधियों का इस्तेमाल होता है उसको इम्मर्सिव मीडिया तकनीक कहा जाता है। इम्मर्सिव यानि डूब जाना। इसका एक और नाम एक्सटेंडेड रियलिटी भी है।

अमित चटर्जी, हांगकांग, लाॅस एन्जिल्स व टोेरन्टो में अपनी कम्पनी, शैडो फ़ैक्टरी के द्वारा किसी उत्पाद को बेचने के लिए इम्मर्सिव मीडिया तकनीक का इस्तेमाल करते हैं जिसमें ग्राहक खुद उत्पादन प्रक्रिया में डूबकर उत्पाद के निर्माण का अनुभव हासिल करता है। उनकी कम्पनी शैडो फ़ैक्टरी ने स्विटज़रलैंड की एक लक्ज़री घड़ी निर्माता कम्पनी के लिए, “मास्टर ऑफ़ टाइम्स” नामक प्रोग्राम बनाया है जिसमें ग्राहक, फ़ैक्टरी तक पंहुचने व बनाने की प्रक्रिया का जीवंत अनुभव करता है।

‘मैटरपोर्ट’ इम्मर्सिव टेक्नोलाॅजी कम्पनी है जो एमसी 250 हाई रेज़ोलूशन 3 डी स्कैनिंग कैमरे का निर्माण करती है। इसको सबसे पहले एसोसिएटेड प्रेस ने इस्तेमाल करके पहली वर्चुअल रियलिटी स्टोरी, ‘द सूट लाइफ़’ तैयार की। इसमें होटल के कमरों में रहने, वहां की जिंदगी का वास्तविक जैसा अनुभव कराया गया है। एपी के पत्रकारों के लिए विज़ुअल स्टोरी टेलिंग की तकनीक का यह पहला अनुभव था जिसके द्वारा उपभोक्ता को हवाई जहाज़ों, समुद्री यात्राओं, होटलों के फ़स्ट क्लास कमरों की सैर कराना सम्भव हुआ।

एसोसिएटेड प्रेस ही नहीं अब अन्य मीडिया कम्पनियां अपने स्टूडियो बना रही हैं ताकि पत्रकारिता के ‘इम्मर्सिव प्रोजेक्ट’ पर काम कर सकें। इसी क्षेत्र में एक नई तकनीक ‘वोल्यूमेट्रिक कैप्चर’ पर काम चल रहा है जिसमें खाली स्थानों पर घूमने बल्कि 3 डी वस्तुओं को छूने की भी सुविधा उपलब्ध कराने का दावा किया जा रहा है।

2014 में ओएमडी ने एक अध्ययन कराया जिसमें पाया गया कि एक आम आदमी एक घन्टे में 21 बार अपना ध्यान, स्मार्ट फ़ोन, लैपटाॅप व टेबलेट की ओर बदलता है इसलिए किस तरह से उस आदमी का ध्यान अपने एक उत्पाद की ओर खींचकर रखा जाये यह उत्पाद निर्माता कम्पनियों के लिए चिन्ता की बात है।

एम्बलीमेटिक ग्रुप एक वीआर स्टूडियो है जिसने ‘वोल्यूमेट्रिक स्केनिंग तकनीक’ के द्वारा ‘आऊट ऑफ़ एक्साइलः डेनियल स्टोरी’ नामक फ़िल्म बनायी जिसका प्रीमियर 2017 में सनडांस फिल्म फेस्टीवल में हुआ। उसकी संस्थापक नोनी डेला पेना का कहना है कि हम दुनिया का अनुभव अपने पूरे शरीर के साथ करते हैं, इसी तरह क्यों नहीं हम किसी कहानी का अनुभव भी अपने पूरे शरीर के साथ करें।

अब न्यूज़ ऐजेंसियां अपने पत्रकारों, फ़ोटो पत्रकारों को 360 डिग्री कैमरे के साथ घटना स्थल पर भेज रही हैं। यह जो तकनीक की नई लहर पत्रकारिता के क्षेत्र में आयी है इसका सामूहिक नाम, ‘इमर्सिव मीडिया’ है। इसमें 360 डिग्री वीडियो कैमरा, एआर तथा वोल्यूमेट्रिक कैप्चर जिसमें सीजीआई व 3 डी स्कैनिंग शामिल है। इस तकनीक के द्वारा पत्रकार दर्शकों को घटना के बीच पंहुचा देता है। यह बिना भौतिक व आर्थिक रुकावटों के सम्भव होता है। इसमें भाग लेने वाला नये वातावरण में यात्रा करते हुये नयी सच्चाइयों की खोज करता है।

उपरोक्त विवरण, पत्रकारिता के क्षेत्र में जो तकनीकी विकास हुआ है उसको दर्शाता है। तकनीक ने खबरों के क्षेत्र में हलचल मचा दिया है लेकिन इस इमर्सिव मीडिया के लिए मंहगे उपकरण, कृतिम होशियारी यानि आर्टिफ़ीशियल इन्टेलीजेन्स, मंहगा स्टूडियो चाहिये जोकि छोटे मीडिया समूह या पत्रकारों की पंहुच से बाहर है। डायनामिक स्टोरी टेलिंग, परम्परागत रिपोर्टिंग से आगे की बात है, इसमें न्यूज़ एजेन्सी को ग्राफ़िक आर्टिस्ट, गेम डेवलपर और मोशन डिज़ायनर का सहयोग लेना पड़ता है।

वीआर रिपोर्टर को 3 डी एनीमेशन, मोशन ग्राफ़िक, वीडियो एडिटिंग और टेक्निकल रेन्डरिंग का माहिर होना पड़ता है। इम्मर्सिव तकनीक जिस तेजी से बढ़ रही है उससे लगता है कि एआर, एमआर तकनीक से बनी सूचनाएं बहुत जल्द श्रोताओं के बड़े हिस्से तक पंहुच जायेंगी और यह हमारे स्मार्ट फ़ोन पर उपलब्ध होंगी। इसके लिए एप्पिल ने आर्किट, गूगल ने टेन्गो और फेसबुक ने एआर प्लेटफ़ार्म बनाया है।

इस तरह के प्लेटफ़ार्म वह नये औज़ार हैं जो आभासी यथार्थ तकनीक तक आम आदमी की पंहुच को सुगम बना देंगे तथा इन माध्यमों से आने वाली सूचनाओं का आदी बना देंगे, इसलिए यह साधन श्रमजीवी पत्रकारिता करने वालों के सामने एक चुनौती बनकर खड़े हैं। जिस तरह टीवी ने अखबारों को संकटग्रस्त बनाया था उसी तरह इस इमर्सिव मीडिया तकनीक ने फिर से अख़बारों को संकट में डाल दिया है। बड़े पैमाने पर अख़बार दम तोड़ रहे हैं।

जिस तरह 1950 में टीवी के आने से अखबारों की प्रकाशन संख्या में कमी आयी थी उसी तरह 1990 में इन्टरनेट के आने के बाद अखबार संकट में हैं। मीडिया मुग़ल रुपर्ट मरडोक अख़बारों से होने वाली स्थायी आय को सोने की नदी यानि रीवर ऑफ गोल्ड कहते थे, वह अब कहने लगे हैं कि नदी सूखने लगी है।

बफ़ेलो न्यूज़ के मालिक वारेन बफ़ेट कहते हैं कि अगर इसी तरह सेटेलाइट और इन्टरनेट का विकास होता रहा तो अख़बार कभी भी अपना अस्तित्व बचाये नहीं रख पायेंगे। राॅयटर इन्स्टीटयूट फ़ाॅर द स्टडी ऑफ जर्नलिज़्म की रिपोर्ट कहती है कि समाचार की दुनिया में यह जो दूसरी लहर टीवी के बाद इन्टरनेट की आयी है, इसने अखबार उद्योग पर ज़बर्दस्त प्रहार किया है।

मोबाइल फोन, सोशल और दृश्य मीडिया के आने से पत्रकारिता संकट के दौर से गुज़र रही है क्योंकि विकसित देशों में मोबाइल फ़ोन ख़बरों के मुख्य स्त्रोत बन रहे हैं। अमरीका में किसी बड़ी घटना के समय बीबीसी और न्यूयार्क टाइम्स की खबरों का लगभग आधा प्रवाह मोबाइल फ़ोन व टेबलेट पर आ जाता है। इसके अलावा सूचनाओं के क्षेत्र में नये उद्यमियों जैसे एप्पल, डिज़नी, हूलो तथा अन्य ने प्रवेश किया है।

आजकल जिस संन्दर्भ में आभासी यथार्थ या वीआर की चर्चा की जा रही है वह तकनीकी क्षेत्र है लेकिन मानव इतिहास में वर्चुअल रियलिटी कोई नई बात नहीं है। संसार में यथार्थ और मिथ्या का टकराव आदिकाल से होता रहा है। हर दौर में उसको प्रस्तुत करने के अलग-अलग साधन रहे हैं। वर्गीय समाज में शोषक वर्ग मिथ्या को यथार्थ के रूप में जबकि शोषित वर्ग के पक्षधर यथार्थ को यथार्थ के रूप में प्रस्तुत करते रहे हैं।

सामंती समाज में धर्म, यथार्थ के रूप में जिस आभासी संसार का निर्माण करता है उसमें ईश्वर, स्वर्ग-नर्क, देवी-देवता, अवतार, पैग़म्बर होते हैं। इस तरह निर्मित नरेटिव या महाआख्यान को धर्मगुरु, मौलवी, पादरी अपने-अपने धर्म स्थलों से प्रचारित करते रहते हैं और इस आभासी यथार्थ का यह प्रभाव है कि दुनिया की अधिकतर आबादी इसको यथार्थ मानकर परम्पराओं, कर्मकाण्डों का पालन करती हुई धर्मगुरुओं के प्रभाव में बनी रहती है।

आज के दौर में पूंजीवाद, अत्याधुनिक संचार माध्यमों के बल पर शोषण पर आधारित पूंजीवादी व्यवस्था को विकास और समस्याओं के समाधान के रूप में प्रस्तुत करता रहता है। मुक्त बाज़ार पर आधारित राजनीतिक व्यवस्था सबसे उत्तम होती है और समाजवादी व्यवस्था एक अमानवीय और ग़ैर लोकतांत्रिक व्यवस्था है यह बात उन लोगों की चेतना में भी बैठा दी जाती है जिनके खिलाफ़ यह पूंजीवादी व्यवस्था होती है।

मिथ्या को यथार्थ के रूप में प्रस्तुत करने के लिए साधनों और धन की प्रचुरता के कारण पूंजीवाद को काफ़ी आसानी होती है जबकि यथार्थ को यथार्थ के रूप में प्रस्तुत करने के लिए शोषित वर्ग के विचारकों, लेखकों, पत्रकारों के पास साधनों का अभाव होता है जिससे मिथ्या को यथार्थ मानकर बैठी जनता को शोषकों के चंगुल से निकालना कठिन होता है।

दुनिया के किसी भी देश में जब पूंजीवाद संकट में होता है तब वह खुद को बचाने के लिए समस्याग्रस्त जनता का ध्यान प्रवासियों की ओर लगा देता है। आजकल दुनिया भर में यही हो रहा है। चाहे वह यूरोप हो या अमरीका-एशिया सब जगह फ़ासिस्ट पार्टियां और संगठन उभार पर हैं। अमरीका में डोनाल्ड ट्रम्प और भारत में नरेन्द्र मोदी, दोनों अपनी समस्याग्रस्त जनता को यही समझा रहे हैं कि तुम्हारी समस्या का कारण बाहर से आये घुसपैठिये हैं, इसलिए इनको अगर पहचानकर निकाल दिया जायेगा तो आपको राहत मिल जायेगी।

अपनी इस बात को अत्याधुनिक संचार माध्यमों के द्वारा वह अपनी जनता के दिमाग़ में डाल रहे हैं। इसी तकनीक का इस्तेमाल वह चुनाव जीतने के लिए कर रहे हैं। जनपक्षीय पत्रकारों के सामने यह सबसे बड़ी चुनौती है कि जनता को सच्चाई बताने के लिए वह इस महंगी आभासी यथार्थ तकनीक का इस्तेमाल कैसे करें। पूंजीवाद को झूठ और नफ़रत फैलाने के लिए आभासी यथार्थ तकनीक की ज़रूरत है जबकि पत्रकारिता के उच्च मूल्यों में विश्वास रखने वालों को सच्चाई सामने लाने के लिए यही तकनीक चाहिये।

मिसाल के तौर पर पूंजीवाद अपने साम्राज्यवादी हितों को पूरा करने के लिए आभासी यथार्थ का किस तरह इस्तेमाल करता है ऐसी हज़ारों मिसालों में से एक प्रथम खाड़ी युद्ध की है जब अमरीकी राष्ट्रपति बुश सीनियर ने इराक पर हमला करने के लिए अपनी सीनेट से इजाज़त मांगने के लिए एक 15 साल की कुवैती लड़की को बतौर गवाह सेनेट के सामने पेश किया था जिसने रो-रोकर बताया था कि वह कुवैत के एक अस्पताल में नर्स थी और सद्दाम हुसैन की सेनाओं ने अस्पताल में दाखिल होकर मशीनों में रखे हुये नवजात बच्चों को मशीन से निकालकर बाहर मरने के लिए फेंक दिया था।

यह नयीराह टेस्टेमनी यानि गवाही कहलाती है। नर्स लड़की का नाम नायरा अल सबाह था। बाद को पता चला कि ऐसी कोई घटना कुवैत के किसी अस्पताल में नहीं घटी है और वह लड़की नर्स नहीं बल्कि अमरीका में कुवैती राजदूत सऊद अल सबाह की बेटी है। इस गवाही के बाद सेनेट ने पेन्टागन को हमले की इजाज़त दे दी और जार्ज डब्ल्यू एच बुश ने कुवैत से वापस जाती सेनाओं पर बमबारी करके 2 लाख इराकी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया।

इस झूठी गवाही का आयोजन कुवैत सरकार के लिए काम करने वाली पब्लिक रिलेशन अमरीकी कम्पनी हिल एण्ड नाॅल्टन ने सिटीज़न फ़ाॅर ए फ्री कुवैत अभियान के तहत किया था।

इसी तरह आप देखेंगे कि उत्तरी कोरिया के बारे में लगातार झूठी सूचनायें अमरीका फैलाता रहता है। चीन के उईगुर मुस्लिमों के बारे में चीनी सरकार के खिलाफ़ लगातार झूठी ख़बरें नियमित रूप से दुनिया भर के अख़बारों में भेजी जाती हैं। हाॅलीवुड लगातार इस तरह की युद्ध फिल्में बनाता रहता है जिसमें अमरीकी सैनिकों को मानवता को बचाने वाले के रूप में दिखाया जाता है जबकि यथार्थ यह है कि यह अमरीकी सैनिक, अस्पतालों, स्कूलों पर इस तरह से बम गिराते हैं जैसे वीडियो गेम खेल रहे हों लेकिन फिल्मों में उनकी छवि मानवता के रक्षक की ही दिखायी जाती है।

बच्चों की कार्टून फिल्में भी राजनीतिक मकसद से बनायी जाती हैं। इस तरह लोगों की चेतना में झूठ को सच की तरह बैठाया जाता है। यथार्थ का आभास देने वाले झूठे वीडियो- 2016 में डोनाल्ड ट्रम्प के चुनाव अभियान में बड़े पैमाने पर बनाये गये और जनता ने उन झूठे वीडियो को सच मानकर डोनाल्ड ट्रम्प को चुनाव जिता दिया।

बाद में पता चला कि डोनाल्ड ट्रम्प ने ब्रिटेन की केम्ब्रिज एनालिटिका नामक डिजिटल प्रचार कम्पनी को इस बात का ठेका दिया था कि वह फेसबुक से अमरीकियों की निजी जानकारी चुराकर वह आंकडे़ उनके प्रचार प्रबंधकों को दे दे जिन्होंने अमरीकी मतदाताओं को सीधे झूठी सूचनाएं भेजी और उन्हें हिलेरी क्लिन्टन के बारे में भ्रमित कर दिया।

उसी कम्पनी ने यही काम भारत में नरेन्द्र मोदी के लिए किया। मुसलमानों के प्रति नफ़रत पैदा करने वाले प्रोग्रामों की सोशल मीडिया और जिसे गोदी मीडिया कहा जा रहा है बाढ़ सी आ गयी और जनता ने उस पार्टी को 2019 में फिर से वोट दे दिया, जिसने नोटबंदी के नाम पर पूरे देश को अपनी सनक की खातिर लाइन में खड़ा कर दिया था। जिस पार्टी ने शौचालय और कफ़न पर भी जीएसटी लगा दिया था उसको जनता पहचान नहीं पायी और भ्रम का शिकार हो गयी।

नफ़रत फैलाने वाले झूठे वीडियो आज दुनियाभर में सबसे खतरनाक माने जाते हैं। डोनाल्ड ट्रम्प के चुनाव अभियान से फेक-न्यूज़ शब्द प्रचलित हुआ जिसको उनके पूर्व प्रचार प्रबंधक और वर्तमान में सलाहकार केल्लियन केनवे ने नया नाम अल्टर्नेटिव फैक्टस दिया है। सोशल मीडिया प्लेटफ़ार्म फेक न्यूज़ फैलाने में बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। आजकल पत्रकारिता में दोनों पक्ष दिखाये जाते हैं लेकिन उनमें एक पक्ष झूठा होता है। गोदी मीडिया केवल एक पक्ष दिखाता है जो नफ़रत का होता है और नफ़रत पनपे इसके लिए गढ़े गये इतिहास को दिखाता है।

जैसे हम जी़ न्यूज़ को देखें तो उस पर सुरुची प्रकाशन से प्रकाशित झोला छाप इतिहासकारों द्वारा गढ़े गये इतिहास पर रोज़ाना कोई न कोई प्रोग्राम दिखाया जाता है। यह इतिहास कल्पना के बल पर उपन्यास के तरीके से लिखा गया है। इसी तरह के फेक वीडियो, बल्क में बनाये जा रहे हैं जिन्हें बिना स्रोत जाने लोग साझा कर रहे हैं। इस तरह साझा किये जाने वाले वीडियो को डार्क सोशल कहा जाता है।

फेसबुक पर शेयर की जाने वाली 23 प्रतिशत सामग्री डार्क सोशल ही होती है। पीयू रिसर्च सेन्टर की रिपोर्ट के अनुसार अमरीका में लोग इस तरह की फेक न्यूज़ को नस्लवाद, यौन अपराध और आतंकवाद से भी बड़ी समस्या मानते हैं। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि शोध में शामिल आधे अमरीकी फेक न्यूज़ को बड़ी समस्या मानते हैं।

चीन ने फेक न्यूज़ को जो आर्टिफिशियल इन्टेलीजेन्स और बोटस तकनीक से बनायी गयी हो अपराध घोषित किया है। नये नियमों के तहत जो आडियो या वीडियो एआई या वीआर तकनीक से बनाये जाएंगे उन पर चेतावनी लिखनी होगी। यह नियम 1 जनवरी 2020 से लागू हो गए हैं। फेक न्यू़ज़ से आशय है कि जो भी खबरें मज़ाक़िया या जानबूझकर तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश करेगा वह अपराध होगा। यह सूचना चीन की साइबर स्पेस अथार्टी ने जारी की थी।

भारत में जनपक्षीय पत्रकारिता के सामने अनेक चुनौतियां हैं। एक तो मोदी सरकार के आने के बाद सामने आयी है जिसमें रिलायंस ने ज़्यादातर न्यूज़ चैनलों की काफ़ी हिस्सेदारी खरीद ली है और इस तरह वह सारे चैनल गोदी मीडिया में परिवर्तित हो गये हैं। वहां जनता, सरकार और कॉरपोरेट के खिलाफ़ किसी खबर की जानकारी हासिल नहीं कर सकती। जैसे मुकेश अम्बानी ने आयकर विभाग से यह जानकारी छिपायी है कि उनके परिवार के पास विदेशों में काफ़ी काला धन जमा है और इस बारे में मार्च 2019 में आयकर विभाग ने उन्हें नोटिस भेजा है लेकिन यह ख़बर सोशल मीडिया पर तो है मगर प्रमुख न्यूज़ चैनलों से ग़ायब है।

इसके अलावा मोदी सरकार के दौर में अनेक पत्रकारों को या तो अखबारों और न्यूज़ चैनलों से निकाल दिया गया है या उन्हें खुद नौकरी छोड़ने पर मजबूर कर दिया गया है। पुण्य प्रसून बाजपेयी का उदाहरण आपके सामने है ही। ऐसे ही सिद्धार्थ वरदराजन, अभिसार शर्मा, रवीश कुमार बाहर रहकर अपना यूटयूब चैनल चला रहे हैं। यह बेहद आशाजनक है कि यह सभी जनपक्षीय पत्रकार जिनमें से अधिकांश सोशल मीडिया पर आ गये हैं, ने पत्रकारिता के उच्चतम मूल्यों को जीवित रखा है और बड़ी बहादुरी से जनविरोधी ताकतों के खिलाफ़ संघर्ष को जारी रखे हुए हैं।

(लेखक मुशर्रफ अली स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं और आजकल मुरादाबाद में रहते हैं।)

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