परंजॉय गुहा ठाकुरता का साक्षात्कार: मैंने सिर्फ सच लिखा है!

तीन अक्टूबर की सुबह दिल्ली पुलिस ने न्यूजक्लिक कार्यालय के साथ 50 से ज्यादा पत्रकारों, कार्यकर्ताओं और कॉमेडियन के घरों पर आतंकवाद विरोधी कानून के तहत छापे मारे जिसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला माना जा रहा है। पत्रकार परंजॉय गुहा ठाकुरता, कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ और कॉमेडियन संजय राजौरा उनमें शामिल थे जिनके यहां छापे पड़े और पूछताछ के लिए ले जाया गया। पूछताछ के बाद परंजॉय गुहा ठाकुरता ने पत्रकारों को बताया कि संभवत: एक प्राथमिकी गैरकानूनी गतिविधि निवारक कानून (यूएपीए) के तहत दर्ज की गई है।

परंजॉय गुहा ठाकुरता के साथ निम्नलिखित बातचीत फरवरी 2023 में केरल में की गई थी जब वह ट्रांसलेशन स्टडीस की तरफ से प्रकाशित पुस्तक ‘अदानी एम्पायर : बियॉन्ड क्रोनी कैपिटलिज़म’ के विमोचन के लिए आए थे।

क्या हालात थे जो अहमदाबाद की अदालत का आदेश आया कि आप अदानी और उनकी व्यवसायिक इकाइयों पर टिप्पणी या आलोचना नहीं करेंगे?

यह निर्णय आया जब “जस्टिस अरुण मिश्रा’स फाइनल “गिफ्ट” ऑफ रूपीस 8,000 करोड़ टू अदानी” शीर्षक से लेखों की शृंखला आयी। यह अहमदाबाद मजिस्ट्रेट अदालत का सितंबर 2020 का आदेश था। अबीर दासगुप्ता और मेरे लिखे तीन लेखों की शृंखला न्यूजक्लिक ने प्रकाशित की थी। न्यायाधीश का विचार था कि इसकी सामग्री और विशेषकर शीर्षक लोगों की निगाह में न्यायपालिका के सम्मान को गिराते हैं।

इसलिए अदालत ने मेरे और अबीर दासगुप्ता पर अदानी समूह के बारे में टिप्पणी करने या आलोचना करने पर रोक लगाई। पहले यह मानहानि के खिलाफ दीवानी मामला था बाद में आपराधिक मानहानि मामला बन गया। तब न्यूजक्लिक के वकीलों ने उच्च न्यायालय में अपील की। इस मामले के बाद मैंने लगभग ढाई साल तक सार्वजनिक रूप से अदानी मुद्दे पर नहीं बोला।

ढाई साल के बाद आपने कैसे चुप्पी तोड़ी और बोलना शुरू किया?

ढाई साल बाद, हालांकि अदालत का आदेश मुझ पर लागू है पर मैंने तय किया कि बाहरी दुनिया को तथ्य बताने चाहिए। मैं आपके साथ अपनी निजी राय नहीं साझा करूंगा, सिर्फ तथ्य। हर नागरिक मेरे साझा किए तथ्यों से अपना निष्कर्ष निकाल सकता है। यदि मैं कहता हूं कि अदानी के शेयर 24 जनवरी के बाद गिरे तो यह कोई राय नहीं है। मैं यह नहीं कह रहा कि यह अच्छा है या नहीं। यह आप पर है कि आप इसके अलग-अलग पहलुओं का विश्लेषण करें या कोई निष्कर्ष निकालें। अदालत ने क्या रोका है, मेरी राय व्यक्त करना। ऐसा मुझे लगता है। मुझे नहीं पता कि जिस न्यायाधीश ने आदेश जारी किया, उनका इससे ज्यादा कोई अर्थ था।

क्या तथ्य साझा करने के निर्णय का कारण हिंडनबर्ग रिपोर्ट थी?

क्या यह तथ्य नहीं है कि हिंडनबर्ग रिपोर्ट उसी की पुष्टि करती है जो मैं कब से दुनिया को बता रहा था? मेरे जैसे स्वतंत्र पत्रकार और मेरे साथी रवि नायर और अबीर दासगुप्ता 2015 से यह तथ्य बता रहे हैं। अदानी पर मेरी एक महत्वपूर्ण रिपोर्ट अप्रैल 2016 में आई थी, मेरे एकोनॉमिक एण्ड पोलिटिकल वीकली के संपादक बनने के बाद।

मैंने इसकी सामग्री राजस्व खुफिया निदेशालय (डीआरआई), राजस्व विभाग, वित्त मंत्रालय, सीमा शुल्क विभाग आदि से साझा की। मैंने उन्हें 40 सरकारी और निजी फर्म की तरफ से ओवर इन्वॉइसिंग से कोयले और विद्युत उत्पादन उपकरणों के आयात में वित्तीय अनियमितताओं की जानकारी दी। अदानी की कंपनियां इसमें संलिप्त थीं। यह सारी जानकारी हिंडनबर्ग अनुसंधान रिपोर्ट में है।

क्या आपको यकीन है कि अब यह तथ्य साझा करने पर अहमदाबाद मजिस्ट्रेट अदालत आदेश के संदर्भ में कोई अदालती कार्रवाई नहीं होगी?

भविष्य में क्या होगा, मैं कैसे कहूं? गौतम अदानी कैसे बता सकते हैं कि कल क्या होगा? वैसे ही जैसे मैं इस समय नहीं कह सकता कि 2024 के चुनाव में नरेंद्र मोदी के साथ क्या होगा, उसी तरह मामलों की संभावनाएं हैं जो भविष्य में मेरे खिलाफ दाखिल किए जा सकते हैं।

आप अकेले भारतीय पत्रकार हैं जिसका 24 जनवरी 2023 को जारी हिंडनबर्ग अनुसंधान रिपोर्ट में जिक्र है। क्या आप विवरण दे सकते हैं?

मेरे अलावा, सीएनबीसी और एकोनॉमिक टाइम्स जैसे मीडिया संस्थानों का भी इसमें जिक्र है। हिंडनबर्ग रिपोर्ट में अदानी समूह के लिए 88 सवाल थे। मेरा नाम 84वें सवाल में आता है। सवाल है, “गौतम अदानी, यदि आप अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में विश्वास करते हैं, तो आप परंजॉय गुहा ठाकुरता नामक पत्रकार को गिरफ्तार कराने के कदम उठाने तक क्यों गए? अदानी के वकील ने जवाब दिया, “हमारी इसमें कोई भूमिका नहीं है, यह अदालत का फैसला है।’ यह एक तरह से सही भी है।

मुझे लगता है कि लोगों को बताना चाहिए कि वास्तव में क्या हुआ जब अदानी समूह ने हिंडनबर्ग रिपोर्ट में इस मामले में प्रतिसाद दिया। मामला ईपीडब्ल्यू में 2017 में प्रकाशित एक लेख से संबंधित था जब मैं संपादक था। लेख द वायर ने पुनर्मुद्रित किया था। लेख जिसका शीर्षक ‘मोदी गवर्नमेंट’स रूपीस 500 करोड़ बोनांजा टू अदानी ग्रुप’ था, आज भी पाठकों के लिए उपलब्ध है। यह जुलाई 2017 में हुआ। उसके बाद अदानी समूह ने गुजरात की अदालत का रुख किया। उन्होंने भुज और मुंदरा में दीवानी और आपराधिक मामले दाखिल किए। मैं मुंदरा में प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट के समक्ष तीन बार पेश हुआ।

भुज मजिस्ट्रेट ने दीवानी मामले में लेख पूरी तरह से हटाने के लिए नहीं कहा। मजिस्ट्रेट ने लेख का एक शब्द, एक वाक्य वापस लेने को कहा, जो द वायर ने किया। हम सभी को आश्चर्य हुआ जब अचानक मई 2019 में अदानी समूह ने मेरे सह लेखकों और द वायर के खिलाफ़ मामले वापस ले लिए लेकिन सिर्फ मेरे खिलाफ मामला जारी रखने का निर्णय लिया। उस समय तक लोकसभा चुनाव के नतीजों की घोषणा नहीं हुई थी।

बाद में जब कोविड के कारण अदालतें बंद थीं जनवरी 2021 में, पीटीआई में मेरे एक पत्रकार मित्र ने मुझे फोन कर बताया कि मुंदरा अदालत ने मेरे खिलाफ गैर जमानती वारंट जारी किया है। कई अन्य को यह जानकारी मेरे वकील से भी पहले मिल चुकी थी। तब मैं अदालत में पेश हुआ और मेरे वकील ने जिरह की कि मेरे खिलाफ गिरफ़्तारी वारंट सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों के खिलाफ है। दस दिन बाद, गुजरात उच्च न्यायालय ने वारंट के खिलाफ स्थगन आदेश दिए, सो मेरी गिरफ़्तारी नहीं हुई। इसके बाद मैं फरवरी और मार्च 2021 में अदालत में पेश हुआ। मामला अब भी चल रहा है।

आपके मामलों की वर्तमान स्थिति क्या है?

अब दो मामले मुंदरा अदालत में चल रहे हैं। तीन मामले अहमदाबाद अदालत में हैं और वहीं अदानी मुद्दे पर न बोलने का आदेश आया था। मैं भारत में अकेला व्यक्ति हूं जो अदानी की कंपनी के छह मानहानि मामलों का सामना कर रहा है। हाल में एक और मानहानि का आपराधिक मामला मेरे और मेरे सह लेखक अबीर दासगुप्ता व न्यूजक्लिक पोर्टल के खिलाफ राजस्थान के बारां जिले में दाखिल किया गया है। छठा मामला एआईसीसी सदस्य वरुण संतोष और मेरे लिखे लेख के मेरी अपनी वेबसाइट पर “ए फ़ाइल्स” खंड में छापे लेख से संबंधित है। हिंडनबर्ग रिपोर्ट इसमें प्रकाशित कई दस्तावेज़ों और रिपोर्ट का जिक्र करती है।

ईपीडब्ल्यू जैसे एक जाने-माने मीडिया संस्थान ने अपनी विश्वसनीयता पर सवालिया निशान लगाते हुए आपसे अदानी पर लेख वापस लेने को क्यों कहा?

इसका जवाब समीक्षा ट्रस्ट ही दे सकता है और इसके अध्यक्ष प्रोफेसर दीपक नायर को जवाब देना चाहिए। पर मैं अपने इस्तीफे से संबंधित बातें साझा कर सकता हूं। लेख, जिसका शीर्षक ‘मोदी गवर्नमेंट’स रूपीस 500 करोड़ बोनांजा टू अदानी ग्रुप’ था, यह बताता था कि कैसे एक कंपनी, अदानी पावर, को सरकार की स्पेशल इकनॉमिक ज़ोन के लिए विद्युत परियोजनाओं में सरकारी नीतियां बदलने से बड़ा फायदा हुआ था।

इस लेख को लेकर मेरे साथ ट्रस्ट और प्रकाशक को अदानी पावर से कानूनी नोटिस भेज गया। मैंने नोटिस का सीधे अपने वकील के जरिए जवाब दे दिया। समीक्षा ट्रस्ट ने नोटिस का जवाब देने से पहले प्रकाशक की अनुमति न मांगने को लेकर सफाई मांगी। समीक्षा ट्रस्ट का कहना था कि यह मेरी गंभीर विफलता थी और अनुचित कार्य था। हालांकि मैं ऐसा नहीं मानता था, लेकिन मैंने इसे एक तकनीकी त्रुटि माना और ट्रस्ट से माफी मांगी।

उन्होंने यह आरोप भी लगाया कि मैंने विभिन्न तरीकों से ऐसा कार्य किया है जिसने ईपीडब्ल्यू प्रकाशन की प्रतिष्ठा को नष्ट किया है। इसलिए अब मैं अपने पूर्वजों की तरह अपने नाम से ईपीडब्ल्यू में लेख नहीं लिख सकता और यह कि वह एक नया सह संपादक नियुक्त कर रहे हैं।

उन्होंने यह भी कहा कि मैं अपना लेख वेबसाइट से हटाए बिना कार्यालय से नहीं जाऊं। वह करने के बाद मैंने एक कागज पर अपना इस्तीफा लिखा और ट्रस्ट को दे दिया। इस्तीफे का समाचार फैलने के बाद मिली प्रतिक्रियाओं ने मुझे आश्चर्यचकित किया। सैकड़ों लोगों ने मेरा समर्थन किया। उनमें नोबल विजेता आमर्त्य सेन और एंगस डीटन और नोम चोम्स्की भी थे जिनकी मैं बहुत इज्जत करता हूं।

क्या वायर और आपके साथियों के खिलाफ आरोप वापस लिए जाने के बावजूद आपके खिलाफ कानूनी कार्रवाई जारी रखना किसी षड्यन्त्र का हिस्सा हो सकता है? आपको निशाना बनाए जाने का कारण क्या है? इसके पीछे कौन है?

यह बहुत मौजूं सवाल है। पर मैं इसका जवाब नहीं जानता। गौतम अदानी और उनके वकील इसका जवाब दे सकते हैं।

आप केवल लेख ही नहीं लिखते उसके समर्थन में कई महत्वपूर्ण दस्तावेज़ भी देते हैं। इसका जो नतीजा निकलता है क्या वह अदानी को आपके खिलाफ कड़ा रुख अपनाने को बाध्य करता है?

यह आपकी राय है। मैं नहीं कह सकता कि यह सही है या गलत। मैं सिर्फ तथ्य बता सकता हूं, निष्कर्ष आपको निकालना है। भारत के हर नागरिक के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देश के संविधान में है।

यह जाना-माना तथ्य है कि अदानी मोदी और भाजपा के लिए चुनावी निधि का एक बड़ा स्रोत हैं। क्या आपको लगता है कि हिंडनबर्ग रिपोर्ट और शेयर बाजार में संकट जिससे अदानी कंपनियां जूझ रही हैं, का अगले चुनाव पर असर होगा?

मुझे नहीं पता कि 2024 चुनाव में क्या होगा। क्या हमने 2019 चुनाव से पहले पुलवामा और बालाकोट की अपेक्षा की थी? आपको कुछ बातें बताता हूं जिन्होंने मुझे आश्चर्य में डाला। हिंडनबर्ग रिपोर्ट के एक दिन बाद अदानी समूह की प्रमुख कंपनी अडानी इंटरप्राइजेस ने 20 हजार करोड़ के शेयर का अपना फॉलो-ऑन पब्लिक ऑफर (एफपीओ) लाया।

एफपीओ ऐसी प्रक्रिया होती है जिसके जरिए शेयर बाजार में सूचीबद्ध कंपनी निवेशकों, वर्तमान शेयरधारकों या प्रोमोटरों को नए शेयर जारी करती है। एफपीओ का इस्तेमाल कंपनियों की तरफ से अपना एक्विटी बेस विविधिकृत करने और व्यवसाय के लिए पूंजी बढ़ाने के लिए होता है।

एफपीओ खुलने के अगले दिन छुट्टी का दिन था चूंकि यह गणतंत्र दिवस था। केन्द्रीय बजट एक फरवरी को पेश किया गया। मैं आपको बताता हूं कि इस दौरान क्या हुआ। अदानी कंपनी के 20,000 करोड़ के एफपीओ के तुरंत बाद शेयर बाजार से प्रतिसाद सकारात्मक था। पर फिर इसका मूल्य गिरने लगा। जब 31 जनवरी को एफपीओ बाद हुआ, हर किसी को लगा कि अदानी इंटरप्राइजेस का संकट खत्म हुआ।

स्वाभाविक रूप से, जिस दिन बजट पेश हुआ कई कंपनियों के शेयर ऊपर-नीचे हुए। लेकिन अदानी समूह नीचे था। बाद में, आश्चर्यजनक रूप से अदानी इंटरप्राइजेस ने 10.30 बजे घोषणा की कि वह एफपीओ वापस ले रहे हैं और जिन्होंने निवेश किया है, उनके पैसे लौटा रहे हैं। अगली सुबह गौतम अदानी ने एक वीडियो में कहा कि वह एफपीओ नैतिक आधार पर वापस ले रहे हैं।

उससे पहले अदानी समूह ने आरोप लगाया था कि हिंडनबर्ग रिपोर्ट ने बेबुनियाद जानकारी साझा की थी और इसका उद्देश्य उनकी और देश की छवि को नुकसान पहुंचाना था। जब अदानी समूह के मुख्य वित्त अधिकारी ने उस दिन प्रेस सम्मेलन किया, भारत का राष्ट्रीय झण्डा अदानी समूह के लोगों से बड़ा था। उन्होंने जलियांवाला बाग नरसंहार का भी जिक्र किया कि अंग्रेज सैनिकों ने भारतीय जवानों का इस्तेमाल भारतीयों को मारने के लिए किया था आदि।

इस सबके बाद, हम सब जानते हैं कि 24 जनवरी के बाद अदानी समूह के सभी शेयर 50-70 फीसदी गिरे हैं। हमें इंतजार करना चाहिए और देखना चाहिए कि राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्रों में इसके नतीजे क्या होते हैं।

क्या आपने हिंडनबर्ग रिसर्च ऑर्गनाइज़ेशन को रिपोर्ट प्रकाशित करने में मदद की थी जो अदानी कंपनियों के बारे में आई?    

यह सवाल मुझसे कई लोगों ने पूछा है। रिपोर्ट आने से पहले मैंने इस संस्था का नाम भी नहीं सुन था। मैं केवल पॉल वॉन हिंडनबर्ग को जानता था जिसने कभी जर्मनी पर शासन किया था। मैं यही जानता था कि उन्होंने पहले विश्व युद्ध में इम्पीरियल जर्मन आर्मी का नेतृत्व किया था और 1925 से अपनी मृत्यु तक जर्मनी के राष्ट्रपति रहे थे।

आप ऐसे व्यक्ति हैं जो लगातार क्रोनी पूंजीवाद के बारे में और लोकतंत्र व वित्तीय क्षेत्र में इसके जरिए उत्पन्न संकट के बारे में लगातार लिख रहे हैं। राजनीतिक अर्थव्यवस्था आपके मीडिया हस्तक्षेप का केन्द्रीय विषय कैसे बनी?

मैं पत्रकार होने के साथ एक छात्र भी हूं जो देश और दुनिया की अर्थव्यवस्था का अध्ययन करता है। मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय से एकोनॉमिक्स की पढ़ाई की और बाद में दिल्ली स्कूल ऑफ एकोनॉमिक्स से पोस्ट ग्रैजुएशन किया। तब से मैं विभिन्न विषयों पर लिख रहा हूं, कुछ वृत्तचित्र बनाए हैं और किताबें लिखी हैं। मैं अंशकालिक शिक्षक भी था और मीडिया में 45 साल से हूं और सभी महत्वपूर्ण व्यावसायिक संस्थानों पर रिपोर्ट लिखी हैं। 2014 में अंबानी पर मेरी एक किताब “गैस वार्स: क्रोनी कैपिटलिज़म एण्ड द अंबानीस” आई थी।

अदानी पर आपने फोकस कैसे किया?

मैं कभी किसी खास व्यवसायिक इकाई पर फोकस नहीं करता। मैं अदानी पर तब से अनुसंधान कर रहा हूं और लिख रहा हूं जब वह कम समय में दुनिया के दूसरे और तीसरे अमीर व्यक्ति बन गए। अदानी ने एक इंटरव्यू में कहा था कि राजीव गांधी सरकार और पीवी नरसिंह राव सरकार की उदारीकरण नीतियों ने उनके गुजरात में व्यवसाय को बढ़ने में मदद की। आज उनकी गिरावट नाटकीय और आश्चर्यजनक है जैसे कि उनका तब विकास था। मेरी हमेशा राजनीति और व्यवसाय के बीच संबंधों और उनके बीच लेन-देन में दिलचस्पी रहती है। और इसका हमारे चुनावों और लोकतान्त्रिक प्रणालियों से भी संबंध है।

देश में क्रोनी पूंजीवाद कोई नई बात नहीं है। यह देश और दुनिया में काफी समय से है लेकिन भारत में इसमें नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद क्या बदलाव आया?

एक महत्वपूर्ण बदलाव देखा जा सकता है कि यह क्रोनी पूंजीवाद से कुलीन तंत्र का पूंजीवाद बन गया। मोदी शासन से पहले व्यवसायिक संस्थाओं के एक समूह को विशिष्ट लाभ मिलते थे अब एक ही कंपनी को मिलने लगे हैं। अतीत में बिरला, टाटा, रिलायंस और कई अन्य कंपनियां सरकारी नीतियों कार्यक्रमों को प्रभावित करने में सफल रही है। यह बातें जानने-समझने में मेरी दिलचस्पी रही है लेकिन यह अदानी के प्रति घृणा या विरोध नहीं है।

यह देखा जा सकता है कि मोदी अधिक दक्षिणपंथी नीतियां लागू कर रहे हैं पिछली यूपीए सरकार से ज्यादा। यूपीए सरकार के कार्यकाल में कल्याणकारी राज्य, नागरिकों के अधिकार, वंचितों के लिए राहत उपाय, महिलाओं, किसानों, आदिवासियों के अधिकार आदि और सभी के लिए आर्थिक विकास की बातें सुनी जा सकती थीं। और, उन दिनों इस दिशा में कुछ नीतिगत कार्यक्रम और गतिविधियां भी हुई थीं। यह सच्चाई है कि तब भी वह नीतियां सम्पन्न वर्ग के पक्ष में थीं। राजनीतिज्ञ और व्यावसायिक इकाइयां हमेशा करीब रही हैं। यही बात भारत के आजादी पाने से पहले भी थी।

मुख्य फर्क अब यह है कि अदानी की कंपनी का भारतीय अर्थव्यवस्था पर अभूतपूर्व असर है और यह व्यवसाय के हर क्षेत्र में हावी है। अदानी ने हीरा और प्लास्टिक वेस्ट क्षेत्र में अपना कारोबार स्थापित किया और बीस साल पहले लोग अदानी के बारे में जानते तक नहीं थे। बहुत जल्द वह दुनिया में दूसरे सबसे बड़े अमीर हो गए। यह कहा जा सकता है कि देश में कारोबार का कोई ऐसा बड़ा क्षेत्र नहीं बचा जहां आज अदानी निवेश नहीं कर रहे। सरकार भी उन्हें समर्थन दे रही है व्यावसायिक अवसर खोलने के लिए भले ही एयरपोर्ट और लड़ाकू विमान निर्माण जैसे क्षेत्रों में उन्हें अनुभव हो या नहीं।

क्या पूंजीवाद के बचने और सफल होने के लिए भी संपत्ति का वितरण आवश्यक नहीं है भले ही उससे समानता नहीं आ जाएगी? तो कुलीन तंत्र का पूंजीवाद जिसके लाभ एक व्यक्ति को ही मिलते हैं, पूंजीवाद की आर्थिक व्यवस्था के ही खिलाफ नहीं है?

बिल्कुल। ऐसा लगता है कि अदानी से समस्याओं का किसी आर्थिक या राजनीतिक विचारधारा से संबंध नहीं है। मान लीजिए आप ऐसे व्यक्ति हैं जिसे लगता है कि पूंजीवाद श्रेष्ठ है। तो क्या वहां भी कोई नियम, कानून नहीं हैं? सेबी और रिजर्व बैंक जैसे संस्थानों का उद्देश्य क्या है? अमेरिका में भी, प्रतिभूति एवं विनिमय आयोग है। यह देखा जा सकता है कि अदानी की कंपनी देश में मौजूद किसी व्यवस्था का पालन नहीं करती।

हिंडनबर्ग रिसर्च रिपोर्ट कहती है अदानी अपने नियमों का पालन नहीं करते। यही कारण है कि सेबी की जांच कई महीनों बाद भी पूरी नहीं हो पाई और कोई रिपोर्ट नहीं आई। मैं कहूंगा कि भारत में आज जो हो रहा है वह पूंजीवादी आर्थिक नीतियां नहीं हैं। पूंजीवाद समान अवसर देने वाली व्यवस्था है। यहां अब विभिन्न कारोबारी इकाइयों के बीच स्पर्धा की संभावना नहीं है।

अदानी से मिलने के हालात कैसे बने?

मैं गौतम अदानी से दो बार मिला हूं और बात हुई है। पहली बार मैं 2017 में तब मिला जब मैं ईपीडब्ल्यू में काम करता था। दूसरी मुलाकात फरवरी 2021 में हुई। बातचीत इस आधार पर हुई कि वह ऑफ द रिकार्ड होगी। मेरे वकील ने इस उम्मीद में पहल की कि मामले अदालत से बाहर सुलझाए जा सकेंगे। हाल में उनके साथ एक फोन वार्ता भी हुई। यह हिंडनबर्ग रिपोर्ट के बाद हुई। मुख्य बात एफपीओ मामले के बारे में हुई। मैंने तब भी मानहानि मामले वापस लेने का अनुरोध किया। मैं सिर्फ इतना ही कह सकता हूं कि उन्होंने इसपर सकारात्मक प्रतिसाद नहीं दिया।

आप कई सालों से अदालती मामलों में उलझे हैं। इसने आपकी ज़िंदगी और पत्रकारिता को कैसे प्रभावित किया है?

मामलों ने मेरे निजी जीवन, मेरे पारिवारिक जीवन और मेरे लेखन को प्रभावित किया है। मेरे वकीलों को मेरे मामलों पर काफी समय देना होता है और यात्राएं करनी होती हैं। कई जगहों पर अदालत जाने के लिए यात्राओं के अलावा हॉटेलों में रहना और खाना भी महंगा होता है। मेरा परिवार तब काफी चिंतित हो गया जब मेरे खिलाफ गैर जमानती वॉरन्ट निकला। उन्होंने मुझे मामलों पर काम बंद करने को कहा कि मैंने जो काम किया है वह काफी है और मुझे शहीद नहीं होना चाहिए।

यह वह हालात थे जब अदानी से संपर्क किया गया और अदालत से बाहर समझौते का अनुरोध किया गया?

संभावनाएं पहले से टटोली जा रही थीं और मेरे वकील ने अपने स्तर पर कोशिश की थी। उन्होंने अदानी से पूछा था कि केवल मेरे खिलाफ मामले क्यों जारी हैं। सामान्य अदालती प्रक्रियाओं से मामला सुलझाने में काफी समय लगता है। तब तक पैसा और समय खर्च करना पड़ता है। इसे एसएलएपीपी, स्ट्रेटेजिक लिटीगेशन अगैन्स्ट पब्लिक पार्टीसीपेशन कहते हैं। यह दूसरों के लिए भी चेतावनी है जिसका उद्देश्य दूसरों को सवाल उठाने से हतोत्साहित करना है।

मैंने सुबीर घोष के साथ मिलकर एक किताब ‘’सू द मैसेंजर’ लिखी है। यह स्पष्ट है कि हमारे लिखने से कोई आहत होता है, उसके खिलाफ मामले दर्ज होने से एक तरह से आरोपी को रास्ते से हटाया जा सकता है।

यदि मामले अदालत से बाहर समझौते से हटाए गए, तो क्या इसे आपका अदानी के समक्ष समर्पण नहीं माना जाएगा? और क्या यह संभव नहीं है कि समझौते में ऐसे प्रावधान हों जो आपको प्रभावित करें?

यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण है। जवाब इस पर निर्भर करता है कि समझौता क्या है। यह बताना असंभव है कि समझौता होने के बाद क्या होगा।

क्या यह गलत नहीं है कि आपकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को दबाया जा रहा है?

संविधान का अनुच्छेद 19 ए सभी नागरिकों और पत्रकारों को बोलने की आजादी देता है। 19(2) भी उचित संयम के साथ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है। इस समय मैं यही कहना चाहता हूं।

आपको लगता है कि आपके जैसे और स्वतंत्र पत्रकार होने चाहिए?

मैं दूसरों को जज कैसे कर सकता हूं। मैं यह कह सकता हूं कि मीडियाकर्मियों का एक बड़ा हिस्सा सरकार के प्रति गहरी निष्ठा रखता है। वह कॉर्पोरेट हितों के आगे मजबूर हैं। बहुत कम पत्रकार हैं जो सत्ता को जवाबदेही के कठघरे में खड़ा करते हैं और कड़े सवाल पूछते हैं।

नरेंद्र मोदी भारत के अकेले प्रधानमंत्री हैं जो प्रेस सम्मेलन नहीं करते। मई 2014 से प्रधानमंत्री बनने के बाद से उन्होंने मीडिया के सवालों का सामना नहीं किया। उन्होंने चुनिंदा पत्रकारों को इंटरव्यू दिया है और उन पत्रकारों ने वही सवाल पूछे हैं जो प्रधानमंत्री चाहते हैं। आपको याद है अक्षय कुमार ने ऐसे एक साक्षात्कार में प्रधानमंत्री से पहला सवाल क्या पूछा था? क्या मोदी आम खाते हैं? दूसरा सवाल था कि वह आम चूसकर खाते हैं या काटकर।

(साक्षात्कार स्वतंत्र पत्रकार एके शिबूराज ने किया था जो मूल रूप से केरालियम मासिका पर प्रकाशित हुआ था। काउन्टर करंट्स से साभार। अनुवाद महेश राजपूत।)

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