पॉलिटिकल फंडिंग में पारदर्शिता लाए बिना राजनीतिक भ्रष्टाचार पर रोक लगाना असंभव

मनीष सिसोदिया के केस में ईडी ने यह इल्जाम लगाया है कि सौ करोड़ रुपये रिश्वत के रूप में शराब लॉबी से लिए गए और जब इस पर सुप्रीम कोर्ट ने सवाल पूछा कि धन किस माध्यम से मनीष सिसौदिया तक पहुंचा, यानी मनी ट्रेल क्या है? तो ईडी अदालत के इस सवाल का कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाई। मामला गोवा के चुनाव का है और मनीष सिसोदिया पर आरोप है कि उन्होंने सौ करोड़ रुपये चुनावी चंदे के लिए शराब लॉबी से लिये। चुनाव के लिए चंदा लेना अपराध नहीं है पर मनी लांड्रिंग के माध्यम से अघोषित धन चंदे के रूप में लेना अपराध है।

साल 2018 में बीजेपी की मोदी सरकार ने चनावी फंड के लिए इलेक्टोरल बॉन्ड की योजना शुरू की थी। उक्त इलेक्टोरल बॉन्ड के बारे में जो महत्वपूर्ण तथ्य हैं, वे इस प्रकार हैं। आंकड़े पुराने हैं, पर पॉलिटिकल फंडिंग में भ्रष्टाचार की पड़ताल के लिए इसकी क्रोनोलोजी को समझना होगा।

इलेक्टोरल बॉन्ड योजना की घोषणा पहली बार 2017 में तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली के बजट भाषण में हुई। 2 जनवरी, 2018 को नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने विवादास्पद इलेक्टोरल बॉन्ड योजना के नियमों को आधिकरिक रूप से जारी किया था। दो महीने बाद ही इन नियमों में प्रधानमंत्री कार्यालय के दिशा-निर्देश के अनुसार बदल कर इलेक्टोरल बॉन्ड की अवैध बिक्री की अनुमति दे दी गई। इलेक्टोरल बॉन्ड योजना का विरोध रिजर्व बैंक, चुनाव आयोग और देश के समूचे प्रतिपक्ष ने किया था, पर तमाम मुखर विरोध के बावजूद इस योजना को लागू किया गया।

इस योजना के द्वारा भारत की राजनीति में बड़े व्यापारिक घरानों के घुसपैठ को वैधता प्रदान कर दी गई और ऐसे तमाम लोगों को गुमनाम रहते हुए राजनीतिक दलों को चंदा देने का रास्ता खोल दिया गया। इससे भारतीय राजनीति में अवैध विदेशी धन के प्रवाह का रास्ता भी सुगम हो गया। ये बॉन्ड चंदादाता की पहचान को पूरी तरह से गुप्त रखता है। चंदादाता को पैसे का स्रोत बताने की भी बाध्यता नहीं है और इसे पाने वाले राजनीतिक दल को यह बताने की जरूरत नहीं कि उसे किसने यह धन दिया।

जिस दिन योजना लागू हुई, उसी दिन इस योजना में एक और बदलाव कर बड़े व्यापारिक घरानों की चुनावी फंडिंग की सीमा को भी समाप्त कर दिया गया। इसका अर्थ यह था कि अब बड़े कॉरपोरेट संगठन अपनी पसंदीदा पार्टी को जितना चाहें उतना धन दे सकते थे।

सरकार ने 2018 में इसके लिए साल भर में 10-10 दिन के चार विंडो का प्रावधान किया था। पहला जनवरी, दूसरा अप्रैल, तीसरा जुलाई और चौथा अक्टूबर में। हर साल इन्हीं चार महीनों के दरम्यान स्टेट बैंक ऑफ इंडिया इलेक्टोरल बॉन्ड की बिक्री कर सकता है। इसके साथ ही यह प्रावधान भी किया गया कि जिस वर्ष में लोकसभा के चुनाव होंगे उस वर्ष 30 दिन का अतिरिक्त विंडो का भी प्रावधान बॉन्ड बेचने के लिए किया गया।

मार्च 2018 में हुई इलेक्टोरल बॉन्ड की पहली बिक्री में ही बीजेपी ने बाजी मारते हुए 95% राजनीतिक चंदे को अपने हक में भुना लिया। इलेक्टोरल बॉन्ड के नियमों को पहले ही मौके पर तोड़मरोड़ कर दिया गया। नियमत: पहली बिक्री स्टेट बैंक ऑफ इंडिया द्वारा अप्रैल 2018 में होनी चाहिए थी लेकिन इसे मार्च में ही खोल दिया गया। मई 2018 में कर्नाटक के विधानसभा चुनावी होने थे।

इस मौके पर प्रधानमंत्री कार्यालय ने वित्त मंत्रालय को निर्देश भेजा कि 10 दिन के लिए विशेष तौर पर इलेक्टोरल बॉन्ड की बिक्री की जाय। हालांकि प्रधानमंत्री कार्यालय ने अपने निर्देश में कहीं भी कर्नाटक के चुनावों से इस बिक्री को नहीं जोड़ा था लेकिन वित्त मंत्रालय के अधिकारियों ने इस इशारे के खुद ही समझ लिया था।

वित्त मंत्रालय के एक अधिकारी ने अपने नोट में लिखा कि प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा विधानसभा चुनावों के मद्देनजर ही अतिरिक्त बिक्री की मांग की गई है। वित्त मंत्रालय के वह अधिकारी लिखते हैं, “इलेक्टोरल बॉन्ड बिक्री की नियमावली जो कि 2 जनवरी, 2018 को जारी हुई है, में पैरा 8(2) में सिर्फ लोकसभा के चुनाव का जिक्र है। इसका अर्थ है कि इलेक्टोरल बॉन्ड की अतिरिक्त बिक्री का नियम राज्यों के विधानसभा चुनाव के लिए मान्य नहीं होगा।”

वित्तीय मामलों के विभाग में तैनात तत्कालीन उप निदेशक विजय कुमार ने आंतरिक फाइलों में अपने ये विचार 3 अप्रैल, 2018 को दर्ज किए। इसके बाद कुमार ने सुझाव दिया कि शायद कमी नियमों में ही है न कि प्रधानमंत्री कार्यालय में, इसलिए नियमों में फेरबदल कर देना चाहिए। 3 अप्रैल, 2018 के नोट में उन्होंने जो नियम लिखे वो लेखक की भावना को व्यक्त नहीं करते हैं जिसके मुताबिक बॉन्ड का इस्तेमाल लोकसभा और विधानसभा दोनों चुनाव के लिए मान्य था। उन्होंने कहा इस गड़बड़ी को सुधारने की जरूरत है।

उनके सुझाव को वित्त सचिव एससी गर्ग ने खारिज कर दिया। उनके मुताबिक अधिकारी का आकलन गलत था। गर्ग ने 4 अप्रैल, 2018 को लिखा कि “बॉन्ड के विशेष बिक्री की व्यवस्था सिर्फ लोकसभा चुनाव के लिए थी। अगर हम विधानसभा चुनावों के लिए विशेष विंडो खोलने लगेंगे तो साल भर के भीतर ही ऐसे अनेक विंडो खुल जाएंगे। संशोधन की जरूरत नहीं है।”

11 अप्रैल, 2018 को यानी एक सप्ताह बाद जूनियर अधिकारी ने नियमों और प्रधानमंत्री कार्यालय की मांग के बीच मौजूद विरोधाभासों को स्पष्ट करने की मांग की। उप निदेशक कुमार ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों को लिखा, “पीएमओ ने चुनावी बॉन्ड जारी करने हेतु 10 दिनों के लिए एक विशेष विंडो खोलने की इच्छा जताई है। जबकि 2 जनवरी, 2018 को जारी इलेक्टोरल बॉन्ड योजना की अधिसूचना के पैरा 8(2) के अनुसार एक महीने के लिए विशेष विंडो सिर्फ उसी वर्ष में खोला जाएगा जिस साल लोकसभा का चुनाव होगा। फिलहाल लोकसभा चुनाव काफी दूर हैं लिहाजा विशेष विंडो खोला जाना मौजूदा अधिसूचना के अनुरूप नहीं है।’’

यह पहली बार हुआ जब अधिकारियों ने लिखित में स्वीकार किया कि, निर्देश सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय से आया है। इसके बाद वित्त सचिव गर्ग को बात समझ में आ गई और उन्होंने अपनी राय बदल दी। 11 अप्रैल को ही उन्होंने वित्त मंत्री जेटली को एक नोट लिखा जिसमें उन्होंने कहा कि, जिस साल लोकसभा के चुनाव नहीं होंगे उन वर्षों में सिर्फ चार बार ही इलेक्टोरल बॉन्ड जारी करने की अनुमति है।

उन्होंने कहा, “यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि इलेक्टोरल बॉन्ड बियरर बॉन्ड होते हैं। यह तभी सुरक्षित माना जाता है कि सामान्य वर्ष (जिस साल लोकसभा चुनाव न हो) में केवल चार विंडो के जरिए इन्हें जारी किया जाय ताकि इसका इस्तेमाल करेंसी के रूप में न हो सके।”

यह सब आरबीआई की चेतावनी के बाद किया गया। फिर भी वित्त सचिव गर्ग ने वित्तमंत्री जेटली को उन नियमों में फेरबदल करने का सुझाव दिया जिन्हें उनकी सरकार ने सिर्फ चार महीने पहले जनवरी 2018 में स्वीकृत और अधिसूचित किया था। गर्ग ने अपनी बात ये कहते हुए खत्म की कि, ‘‘ज़रूरत को देखते हुए, हम अपवाद के तौर पर एक से 10 मई, 2018 की अवधि के लिए एक अतिरिक्त विंडो खोल सकते हैं।’’ गर्ग ने इस “ज़रूरत” को ठीक से स्पष्ट नहीं किया लेकिन जेटली ने इस अपवाद को सहमति दे दी।

वित्त मंत्रालय ने अपनी फाइलों में दावा किया कि कर्नाटक विधानसभा चुनाव से ठीक पहले पीएमओ के निर्देश पर इलेक्टोरल बॉन्ड की इस अवैध बिक्री को एक अपवाद मामले के तौर पर मंजूरी दी गई। लेकिन 2018 के अंत में कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने थे। ऐसे वक्त में इलेक्टोरल बॉन्ड को नियंत्रित करने वाले नियमों में फेरबदल करना बीजेपी सरकार की आदत बन गई।

नवंबर-दिसंबर में छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, मिजोरम, राजस्थान और तेलंगाना में विधानसभा चुनाव प्रस्तावित थे। एक बार फिर से उप निदेशक विजय कुमार ने 22 अक्टूबर, 2018 को अपने सीनियर्स के पास एक नया प्रस्ताव लेकर पहुंचे। इसमें एक बार फिर से नवंबर महीने में इलेक्टोरल बॉन्ड की बिक्री के लिए विशेष विंडो खोलने की बात थी।

ठीक चुनावों से पहले इस बार उन्होंने यह नहीं बताया कि निर्देश कहां से आए थे, लेकिन इन निर्देशों का उद्देश्य साफ़ था। उनके नोट से स्पष्ट हो गया कि बीजेपी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार ने मई 2018 में ‘विशेष विंडो के नाम से इलेक्टोरल बॉन्ड की जो अवैध बिक्री शुरू की थी वह आगे एक परंपरा के तौर पर निभाई जाएगी।

22 अक्टूबर, 2018 को कुमार द्वारा लिखे गए नोट में कहा गया है, “पांच राज्य विधानसभा चुनावों के मद्देनजर इलेक्टोरल बॉन्ड की बिक्री के लिए 10 दिन का अतिरिक्त विशेष विंडो खोलने का प्रस्ताव आया है। इससे पहले एक से 10 मई, 2018 के बीच कर्नाटक विधानसभा चुनाव से पहले भी वित्त मंत्री की सहमति से इलेक्टोरल बॉन्ड की बिक्री के लिए विशेष विंडो खोला गया था।”

मई 2018 में प्रधानमंत्री कार्यालय के आदेश पर जो बात सिर्फ एक बार कानून में तोड़मरोड़ से शुरू हुई थी उसे नवंबर 2018 तक आते-आते मोदी सरकार ने एक स्थापित परंपरा बना दिया। मई 2019 तक 6000 करोड़ रुपये के इलेक्टोरल बॉन्ड की खरीददारी हुई जिन्हें राजनीतिक दलों को बतौर चंदा दिया गया। जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है इस पैसे में सबसे बड़ी लाभार्थी भारतीय जनता पार्टी रही।

उपरोक्त विवरण, न्यूजक्लिक वेबसाइट के एक लेख से लिया गया है। यह लेख इलेक्टोरल बोंड के इतिहास और उससे बीजेपी को कितना लाभ मिला इस का एक संक्षिप्त इतिहास बताता है।

अब सवाल उठता है कि इलेक्टोरल बॉन्ड की जरूरत क्यों पड़ी? यह कोई मजबूरी थी या कुछ और? हुआ यह कि, चुनाव आयोग के नियमों के अंतर्गत सभी राजनीतिक दलों को 20 हजार रुपये से अधिक की धन राशि वाले चंदों का विवरण निर्वाचन आयोग को अनिवार्यतः देना होता है। जिसमें चंदा देने वाले व्यक्ति, कंपनी या ट्रस्ट का नाम, उनके द्वारा दी गई चंदा की राशि, उसका पता, पैन नंबर, चेक/डीडी नंबर, बैंक का नाम और पता दर्ज करना होता है। लेकिन इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये मिले चंदे में यह सब विवरण देने की जरूरत नहीं है।

किस दल को कितना चंदा मिला यह तो राजनीतिक दलों की ऑडिट रिपोर्ट से पता चल जाता है पर वह चंदा किस व्यक्ति, कम्पनी या ट्रस्ट ने दिया है, इसकी जानकारी नहीं मिल पाती है। इस अपारदर्शी प्रावधान से सरकार पर आरोप लगने लगा कि इलेक्टोरल बॉन्ड आने के बाद से मोटी कमाई करने वाले लोग, कॉरपोरेट्स और कंपनियां चंदा देने के लिए इस गोपनीय रास्ते का इस्तेमाल कर रही हैं।

चुनाव सुधार और चुनावी फंडिंग की पादर्शिता की दिशा में काम करने वाली गैर-सरकारी संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने इस मुद्दे पर आपत्ति की है और पॉलिटिकल फंडिंग के इस संवेदनशील विंदु को उठाया है। यह मामला सुप्रीम कोर्ट में भी विचाराधीन है।

अब इलेक्टोरल बॉन्ड से किसको कितना चंदा मिला है, इस पर चर्चा करते हैं।

  • वित्त वर्ष 2019-20 में बीजेपी को इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये सर्वाधिक 2 हजार 555 करोड़ रुपये का चंदा मिला था।
  • इससे पहले 2018-19 में पार्टी को 1450 करोड़ रुपये का चंदा इलेक्टोरल बॉन्ड से मिला था।
  • वहीं कांग्रेस को 2019-20 में इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये 317.8 करोड़ रुपये का चंदा मिला था। हालांकि 2020-21 में ये काफी घटकर महज 10 करोड़ रुपये पर पहुंच गया।
  • अगस्त 2021 में एडीआर ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि साल 2019-20 में राजनीतिक दलों ने कुल 3 हजार 429.56 करोड़ रुपये के इलेक्टोरल बॉन्ड को भुनाया था। इसमें से 76 फीसदी राशि अकेले बीजेपी के खाते में गई थी। वहीं कांग्रेस को सिर्फ 9 फीसदी राशि प्राप्त हुई थी।
  • वर्ष 2019-20 में राष्ट्रीय पार्टियों (बीजेपी, कांग्रेस, एनसीपी, बीएसपी, टीएमसी और सीपीआई) ने अलग-अलग माध्यमों को मिलाकर कुल 4 हजार 758 करोड़ रुपये की कमाई की थी, जिसमें से 3 हजार 623.28 करोड़ रुपये (76.15%) की आय अकेले बीजेपी को हुई थी।
  • इस दौरान कांग्रेस की कमाई 682.21 करोड़ रुपये और सीपीआई को सबसे कम 6.58 करोड़ रुपये थी।
  • वित्त वर्ष 2018-19 से 2019-20 के बीच महज एक साल में भाजपा की आय में 50.34 फीसदी की बढ़ोतरी हुई थी। वहीं इस दौरान कांग्रेस की आय 25.69 फीसदी घट गई थी।

एडीआर के मुताबिक बीजेपी की 70 फीसदी से अधिक की कमाई इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये होती है। वहीं कांग्रेस की कमाई में 46.59 फीसदी, तृणमूल कांग्रेस की कमाई में 69.92 फीसदी और एनसीपी की कमाई में 23.95 फीसदी हिस्सा इलेक्टोरल बॉन्ड का है।

जैसे नोटबंदी और जीएसटी के भी नए नए नियम बनाए जाते रहे, कुछ वैसा ही प्रयोग इलेक्टोरल बॉन्ड के साथ भी होता रहा। कुछ उदाहरण देखें।

  • 2017 में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने जब पहली बार इलेक्टोरल बॉन्ड का प्रस्ताव संसद में रखा तब रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) ने चेतावनी दी थी कि इस तरह के बॉन्ड का दुरुपयोग मनी लाउंड्रिंग के लिए हो सकता है। लेकिन देश के सबसे बड़े बैंक की यह चेतावनी अनसुनी कर दी गई।
  • जब योजना की रूपरेखा पेश हुई तो वह कुछ इस प्रकार थी-

० केवल स्टेट बैंक ऑफ इंडिया, एसबीआई को इलेक्टोरल बॉन्ड बेचने का अधिकार दिया गया।

० इसे कोई भी व्यक्ति, कॉरपोरेशन, एनजीओ अथवा कानूनी रूप से वैध संस्था खरीद सकता है और अपनी पसंद के राजनीतिक दल को दान कर सकता है।

० पॉलिटिकल पार्टी चंदे में मिली इस धनराशि को एक तयशुदा बैंक एकाउंट में जमा कर देगी।

वित्त वर्ष 2020-21 में क्रमशः, बीजेपी को 477.5 करोड़ रुपये (गिरावट 39% की), कांग्रेस को 74.5 करोड़ रुपये (46 % की गिरावट), एनसीपी को 26.2 करोड़ रुपये, सीपीएम को 12.8 करोड़ रुपये, तृणमूल कांग्रेस को 42.5 लाख रुपये, सीपीआई को 1.49 करोड़ रुपये का चंदा मिला। रिपोर्ट के मुताबिक बसपा ने हमेशा की तरह अपनी अनुदान रिपोर्ट में 20 हजार रुपये से अधिक का शून्य चंदा दिखाया है। 20 हजार रुपये से ऊपर के चंदे के संदर्भ में अधिकांश पार्टियों के चंदे में 41.5% की गिरावट हुई है।

जो आंकड़े दिए गए हैं, वे राजनीतिक दलों को मिले चंदे का पूरा विवरण नहीं है। 20 हजार रुपये या इससे कम राशि का चंदा भी लोग देते हैं। बीएसपी अपने आय के खाते में ऐसे ही चंदे का विवरण बताती है। 2014 के बाद सरकार ने पॉलिटिकल फंडिंग के लिए इलेक्टोरल बॉन्ड यानी पार्टियों को चंदा देने का एक ऐसा तरीका लागू किया गया जो विशेषज्ञों की नजर में अपारदर्शी था।

कहां तो जरूरत थी कि पॉलिटिकल फंडिंग को पारदर्शी बनाया जाय और आय व्यय का विवरण राजनीतिक दलों की अधिकृत वेबसाइट पर नियमित रूप से डाला जाए, उसे अपडेट किया जाय, लेकिन एक ऐसी व्यवस्था लाई गई जिसने चुनाव सुधार के सबसे महत्वपूर्ण विंदु, पोलिटिकल फंडिंग को और भी जटिल बना दिया। इस प्रकार पिछले कुछ सालों में पॉलिटिकल पार्टियों को जिस माध्यम से सबसे अधिक चंदा मिल रहा है, वह इलेक्टोरल बॉन्ड यानी चुनावी बॉन्ड है। 

राजनीतिक जीवन में जैसी चुनाव प्रक्रिया है, उसे देखते हुए भ्रष्टाचार एक बीमारी नहीं एक जरूरत का रूप ले चुका है। राजनीतिक दलों को मिलने वाला चंदा, राजनीतिक जीवन में संगठित भ्रष्टाचार का एक बड़ा कारण है। निर्वाचन आयोग द्वारा बार बार इस चेतावनी के बाद कि राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे को पारदर्शी बनाया जाय, संसद ने न तो इसे गंभीरता से लिया और न ही भ्रष्टाचार के इस मूल कारण को रोकने के लिए कोई जतन ही किए। और तो और इलेक्टोरल बॉन्ड के रूप के राजनैतिक चंदे की एक ऐसी अपारदर्शी योजना लाई गई जिसने कॉर्पोरेट और सत्तारूढ़ दल के बीच जो भ्रष्ट गठबंधन है उसे और मजबूत ही किया।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि आरबीआई ने इस योजना के लागू होने तक, इसका विरोध किया और बार बार कहा कि, यह योजना मनी लांड्रिंग का एक नया रास्ता खोलेगी जिससे देश में काले धन की समस्या होगी। जब सरकार ने आरबीआई की नहीं सुनी तो रिजर्व बैंक ने दो महत्वपूर्ण सुझाव देकर इस योजना में मनी लॉन्ड्रिंग की संभावना को सीमित करने की कोशिश की। वे है,

  • बॉन्ड को साल में सिर्फ दो बार नियत समय के भीतर बेचा जाएगा। इसे विंडो कहा गया।
  • खरीददार को इसे खरीदने के 15 दिन के भीतर अपनी पार्टी के खाते में जमा करवाना होगा।
  • जनवरी 2018 में वित्त मंत्रालय ने इलेक्टोरल बॉन्ड के क्रय विक्रय से संबंधित नियमावली जारी की। इस नियमावली में यह प्रावधान रखा गया कि,

० इलेक्टोरल बॉन्ड साल में चार बार बेचे जाएंगे।

० बिक्री की तारीख से 15 दिनों के भीतर ही इन्हें भुना लेना होगा और फिर राजनीतिक दल इसका इस्तेमाल अपने चुनाव प्रचार में कर सकते हैं।

अक्सर हम राजनीतिक दलों के नेताओं को सार्वजानिक जीवन में शुचिता और भ्रष्टाचार पर भाषण देते देखते सुनते रहते हैं, पर किसी भी राजनीतिक दल की सरकार ने लोकतंत्र के इस दीमक का पेस्ट कंट्रोल करने का कोई प्रयास करते नहीं देखा और देखा भी तो, उन्हें निर्वाचन आयोग, अदालत और अन्य एनजीओ के उन प्रयासों पर खामोशी ओढ़ते हुए देखा। आरटीआई के दायरे में राजनीतिक दल खुद को लाने के लिए भी तैयार नहीं हैं।

यह तो टीएन शेषन, लिंगदोह जैसे कुछ काबिल मुख्य निर्वाचन आयुक्तों की सजगता और दृढ़ता का परिणाम है कि चुनाव में काफी हद तक काले धन पर रोक लगाने की कोशिश हुई लेकिन यह सारे प्रयास भी अभी तक चुनाव प्रक्रिया को बहुत कुछ साफ सुथरा नहीं कर पाए हैं। सरकार और संसद को पॉलिटिकल फंडिग को न केवल पारदर्शी बनाना होगा बल्कि उसे राजनैतिक दलों को आरटीआई के दायरे में भी लाने पर विचार करना होगा। इससे पूंजी और सत्ता का गंदा गठजोड़ टूटेगा और उसका सीधा असर, सार्वजनिक जीवन पर पड़ेगा।

(विजय शंकर सिंह पूर्व आईपीएस अधिकारी हैं।)

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