छत्तीसगढ़ सरकार ने आज इंडियन एक्सप्रेस में दो पेज का विज्ञापन दिया है जिसमें उसने सूबे में रामायण महोत्सव आयोजित करने की घोषणा की है। अगर किसी को याद न हो कि सूबे में कांग्रेस की सरकार है या फिर विज्ञापन में लगी सीएम भूपेश बघेल की तस्वीर की तरफ उसकी नजर न जाए तो वह इस बात को लेकर भ्रमित हो सकता है कि यह बीजेपी का कोई विज्ञापन तो नहीं है। एक ऐसे समय में जबकि राहुल गांधी खुलकर राजनीति में धर्म के बेजा इस्तेमाल की आलोचना कर रहे हैं और इसके लिए सीधे बीजेपी और आरएसएस पर निशाना साध रहे हैं। ऐसा करने के लिए वह विदेश की धरती तक नाप रहे हैं। उसी समय उनकी एक सरकार खुलकर धर्म के पक्ष में माहौल बना रही है।
रामायण महोत्सव के इस कार्यक्रम के तहत पूरे सूबे में आयोजन किए जाएंगे।इसके पूरे केंद्र में राम को रखा गया है। और राम से जुड़े अलग-अलग स्थानों पर इन कार्यक्रमों की करने की योजना है। किसी स्थान को कौशल्या का मायका और राम का ननिहाल बताया गया है तो किसी दूसरे स्थान को राम के किसी दूसरे पक्ष से जोड़ा गया है। पूरे आयोजन में राम को छत्तीसगढ़ के भांजे के तौर पर पेश किया गया है। यह आयोजन राष्ट्रीय स्तर का है और इसमें 12 राज्यों से रामायण टीमें हिस्सा लेंगी।
यानी पूरे छत्तीसगढ़ को राममय कर देने की योजना है। इसके पहले भूपेश सरकार ने इसी तरह से राम वन गमन का आयोजन किया था जिसमें उन्होंने बाकायदा एक राम वन गमन टूरिज्म सर्किट का निर्माण कर दिया था। और अपनी सरकार की जिन कुछ सफल योजनाओं को भूपेश प्रचारित करते हैं उसमें गाय के गोबर की खरीद योजना भी शामिल है। और उसको किसी और योजना के मुकाबले सबसे ज्यादा सफल बताकर प्रचारित किया गया। इस तरह से कहा जा सकता है कि बीजेपी की रमन सरकार भी धार्मिक आधार पर उतने कार्यक्रम नहीं आयोजित कर पायी होगी जितना भूपेश के शासन के दौरान हुआ है। ऐसे में अगर आरएसएस मौजूदा सरकार से खुश हो तो किसी को अचरज नहीं होना चाहिए। और इस तरह से कहा जा सकता है कि छत्तीसगढ़ में उसके दोनों हाथ में लड्डू है। बीजेपी की सरकार को तो अपनी रहती ही है भूपेश की बनी रहे तो भी उसे कोई नुकसान नहीं है।
इस तस्वीर को देखकर किसी को भी अयोध्या प्रकरण की याद आ सकती है। जब सबसे पहले यूपी में कांग्रेस के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत के नेतृत्व में बाबरी मस्जिद में मूर्तियां रखवाई गयीं और उसके बाद 1987 में राजीव गांधी की अगुआई में राम मंदिर का ताला खोला गया। और उसके बाद पूरे मंदिर आंदोलन की कमान बीजेपी ने अपने हाथ में ले ली। और उसका नतीजा यह रहा कि 1992 में बाबरी मस्जिद ढहा दी गयी और अंत में सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने पंचायती फैसले से उस पर मुहर लगा दिया। और कांग्रेस जो कि इन सारी चीजों की सूत्रधार रही वह राजनीति के हाशिये पर चली गयी। वो कांग्रेस जिसका कभी पूरे देश में डंका बजता था और सारे सूबों में राज करती थी वह सिमट कर दो सूबों तक सीमित हो गयी थी।
लेकिन लगता है कि अभी भी पार्टी ने सबक नहीं लिया है। या कहिए इस मसले पर पार्टी की दृष्टि अभी भी साफ नहीं हुई है। एक ऐसे दौर में जबकि बीजेपी और आरएसएस अपने हिंदू राष्ट्र के लक्ष्य को खुल कर सामने रखने लगे हैं। और पीएम मोदी का हर कदम उसकी दिशा में एक साफ संकेत होता है। वह राम मंदिर का निर्माण हो या फिर नई संसद के उद्घाटन का मौका हवन के कर्मकांडों से शुरू हो कर सदन के भीतर राजदंड की स्थापना हर जगह हिंदू राष्ट्र अपने पूरी पहचान के साथ दिखने लगा है। अब सिर्फ कुछ औपचारिकताओं की बात है जिससे बीजेपी-आरएसएस दूर हैं।
छत्तीसगढ़ का यह आयोजन इसलिए भी सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि यह एक पिछड़े समुदाय के मुख्यमंत्री के नेतृत्व में किया जा रहा है। यह बात किसी से छुपी नहीं है कि द्विज समुदाय या कहा जाए सवर्ण बीजेपी के केंद्रीय आधार हैं और एक तरह से उसके कोर का काम करते हैं। इसके साथ ही पिछड़े और दलितों का एक हिस्सा बीजेपी के साथ आ गया है। यह बात सही है कि इसमें ज्यादातर सत्ता में भागीदारी के चलते बीजेपी के साथ हैं या फिर उनका राजनीतिक हित सध रहा है। यह भी सही है कि उसका एक हिस्सा वैचारिक तौर पर बीजेपी-आरएसएस के साथ जुड़ गया है। लेकिन बड़ा हिस्सा अभी भी वैचारिक तौर पर आरएसएस से एक दूरी महसूस करता है।
ऐसे में पिछड़े समुदाय से होने के नाते भूपेश बघेल अपने समुदाय के एक बड़े हिस्से का वैचारिक रूपांतरण कराने में बीजेपी-आरएसएस की मदद कर रहे हैं। और इस तरह से जिन समुदायों का वैचारिक रूपांतरण कर सांप्रदायिक से धर्मनिरपेक्ष बनाने का काम उनके हाथ में था वह खुद उसके उलट उनका सांप्रदायीकरण कर बीजेपी की वैचारिक जमीन मजबूत कर रहे हैं। किसी एक चुनाव में वह इसके सहारे जीत भी सकते हैं और इसमें आरएसएस भी उनकी मदद कर सकता है लेकिन आखिर में जमीन तो दक्षिणपंथ की मजबूत हो रही है और अंतत: वह आरएसएस और बीजेपी के लिए ही लाभकारी होगी।
एक ऐसे समय में जबकि छत्तीसगढ़ में जगह-जगह ईसाइयों पर हमले हो रहे हैं। और यह सब कुछ आरएसएस के हाइड्रा संगठनों द्वारा संचालित किया जा रहा है कहीं वह सर्व आदिवासी समाज के नाम पर हो रहा है तो कहीं बजरंग दल उसकी अगुआई कर रहा है। और इस तरह से पूरे आदिवासी समाज को दो फाड़ कर दिया गया है। ऐसे मौके पर बीजेपी के हिंदू पक्ष को मजबूत कर क्या भूपेश बघेल ईसाइयों को और खतरे में नहीं डाल रहे हैं? यह सबसे बड़ा सवाल बन जाता है। पिछले दो सालों में ईसाइयों को तरह-तरह से प्रताड़ित किया जा रहा है। कहीं उनके सामाजिक बहिष्कार का आह्वान किया जा रहा है। तो कहीं उनके खेतों की बाड़ेबंदी कर दी गयी है। आलम ये है कि मनरेगा तक में ईसाई मजदूरों को काम नहीं दिया जा रहा है। और सारी चीजें धर्म के आधार पर तय की जा रही हैं। लेकिन मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के मुंह से एक भी बयान नहीं आया जिसमें उन्होंने इन हमलावर संगठनों और उसके नेताओं की निंदा की हो।
और उससे भी ज्यादा यह सब कुछ एक आदिवासी बहुल राज्य में हो रहा है जिसकी अपनी अलग-सोच, संस्कृति, परंपरा और जीने का तरीका है। संविधान में उसको महफूज रखने का संकल्प लिया गया है। लिहाजा सूबे में बनने वाली सरकारों की इस सिलसिले में बड़ी जिम्मेदारी हो जाती है। यह मामला इसलिए और ज्यादा गंभीर हो जाता है जब एक ऐसी ताकत न केवल संविधान को तार-तार कर देना चाहती है बल्कि आदिवासियों और उनकी पहचान को मिटाकर मुख्यधारा से जोड़ने के नाम पर उन पर ब्राह्मण संस्कृति और परंपरा थोप देना चाहती है। और इस मामले में अगर भूपेश सरकार उसमें कोई सहयोग करती हुई दिखती है तो यह किसी अपराध से कम नहीं है।
अभी जबकि विधानसभा के चुनाव हैं और उसके बाद लोकसभा के चुनाव होंगे तब कम से कम विपक्षी दलों की यह कोशिश होनी चाहिए कि चुनाव में रोजी-रोटी के सवाल और अपनी सरकार की उपलब्धियों तथा सेकुलर एजेंडा सामने आये। लेकिन ऐसे मौके पर इस तरह के आयोजनों के जरिये आखिर छत्तीसगढ़ सरकार कांग्रेस और उसकी राजनीति को क्या संदेश देना चाहती है? चुनाव में जब राहुल गांधी महंगाई और बेरोजगारी की बात कर रहे होंगे और बीजेपी राम मंदिर निर्माण को उपलब्धि के तौर पर पेश कर रही होगी तब क्या भूपेश बघेल रामायण महोत्सव और राम वन गमन के जरिये बीजेपी के सुर में सुर मिलाएंगे? और अगर ऐसा करते हैं तो फिर आखिर में इसका किसको फायदा होगा? वह पार्टी जो पूरे देश और समाज को सांप्रदायिकता के रंग में रंग देना चाहती है या फिर सेकुलर एजेंडे को स्थापित करने की कोशिश करने वाले विपक्षी दल को?
जनाब खुद नई बनी अपनी एक दूसरी सरकार से ही सबक ले लेते। सिद्धारमैया की सरकार ने आते ही सबसे पहले पुलिस महकमे को सांप्रदायिक चश्मा उतार फेंकने का निर्देश दिया। इसके साथ ही धर्म और संप्रदाय के आधार पर किसी भी तरह के पक्षपात और भेदभाव से बाज आने की उसने बात कही। और इस तरह की किसी भी सांप्रदायिक गतिविधि को रोकने और उसमें शामिल लोगों के खिलाफ कड़ाई बरतने का निर्देश दिया। इतना ही नहीं सरकार ने बीजेपी के दौर में पाठ्यक्रमों में किए गए गैरज़रूरी बदलावों को दुरुस्त करने का ऐलान किया है। आज ही सूबे के शिक्षामंत्री ने कहा है कि हिजाब पर पाबंदी बिल्कुल गैरज़रूरी थी और उसको हटाने पर सरकार विचार कर रही है। लेकिन चूंकि मामला सुप्रीम कोर्ट में है इसलिए अभी तत्काल इस पर फैसला नहीं लिया जा सकता है।
चुनाव तो राजस्थान में भी है और वहां भी कांग्रेस की सरकार है लेकिन उसका एजेंडा तो धार्मिक नहीं है। आज ही गहलोत सरकार ने सूबे की जनता को 100 यूनिट तक मुफ्त बिजली देने का ऐलान किया है। इसके पहले अपनी अनोखी स्वास्थ्य योजना के जरिये वह लोगों को एक बड़ी सौगात दे चुके हैं। और इस तरह से वह जनता के मुद्दों पर ही चुनाव लड़ने के बारे में सोच रहे हैं। लेकिन भूपेश जी बिल्कुल उल्टी गंगा बहा रहे हैं।
इन सारी स्थितियों को देखते हुए कहा जा सकता है कि पार्टी के भीतर वैचारिक मसलों पर अभी भी स्पष्टता नहीं है और एक किस्म का भ्रम बना हुआ है। यह मामला तब और ज्यादा खतरनाक हो जाता है जब यह केंद्रीय नेतृत्व के विचार से टकराने लगता है। बहरहाल कांग्रेस हाईकमान इसको कैसे देखता है और उससे कैसे निपटने की कोशिश करता है। यह महत्वपूर्ण है। लेकिन अगर वह खुद इस गेम का हिस्सा है तो विपक्ष से उम्मीद रखने वालों के लिए यह मामला एक बड़ी चिंता का विषय बन जाता है।
(महेंद्र मिश्र जनचौक के फाउंडिंग एडिटर हैं।)