Tuesday, October 3, 2023

लक्ष्मीबाई को श्रद्धांजलि देने से पहले ज्योतिरादित्य अपने पुरखों की करतूतों के लिए देश से माफी मांगें

अभी ट्विटर पर अचानक अंग्रेजों के सबसे वफादार व विश्वसनीय राजघराने के साहबजादे का एक ट्वीट देखकर सिर घूम गया। सिंधिया राजघराने के युवराज व बीजेपी नेता ज्योतिरादित्य माधवराव सिंधिया ने वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई की पुण्यतिथि पर एक ट्वीट किया। अपने ट्वीट में उन्होंने लिखा, “वीरांगनाओं के अग्रिम पंक्ति को सुशोभित करने वाली, मराठा साम्राज्य की गौरव, वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई नेवालकर जी की पुण्यतिथि पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि ।”

हैरत में हूँ ….. सियासत में लोग कितना बेशर्म हो जातें है। जिनके पुरखों की अंग्रेज परस्ती रानी लक्ष्मीबाई की शहादत का कारण बनी, आज उनके राजनेता वारिस शब्दों की श्रद्धाजंलि अर्पित कर रहे हैं।

सोचता हूँ, ऐसे लोग इतिहास से कैसे नजरें चुराते होंगें ? ख़ुद से कैसे नज़रे मिलाते होंगे? 

इतिहास गवाह है कि 1857 के विद्रोह में जब झांसी की रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजों के छक्के छुड़ाते हुए ग्वालियर पहुँची तो ग्वालियर के सिंधिया राजघराने ने अंग्रेजों के साथ मिलकर रानी लक्ष्मीबाई के ख़िलाफ युद्ध किया और अंततः रानी लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हुईं।

1857 के विद्रोह में सिंधिया राजघराने की अंग्रेज परस्ती और कायरता पर मशहूर कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान जी अपनी कविता ‘झांसी की रानी’ में लिखती हैं,

“अंग्रेजों के मित्र सिंधिया 

ने छोड़ी रजधानी थी, 

बुंदेले हरबोलों के मुँह 

हमने सुनी कहानी थी

खूब लड़ी मर्दानी वह तो 

झांसी वाली रानी थी।”

इतिहास के पन्नों को खंगालिए …. वहाँ साफ-साफ अंकित है, जब रानी अपने पुत्र दामोदर राव को पीठ पर बांधकर युद्ध लड़ते-लड़ते कालपी पहुंची तो वहां तात्या टोपे से मिलने के बाद अपने साथियों के साथ ग्वालियर की ओर निकल पड़ीं थीं।

जब वीरांगना लक्ष्मीबाई ग्वालियर पहुँची तो ग्वालियर की अधिकांश सेना रानी लक्ष्मीबाई के साथ हो गई और ग्वालियर के महाराजा जयाजीराव सिंधिया आगरा भाग गए। 

16 जून 1858 को अंग्रेजी सेना और रानी लक्ष्मीबाई की सेना में भीषण संग्राम हुआ। रानी लक्ष्मीबाई विजयी हुईं । इसके बाद अंग्रेज परस्ती में डूबे ग्वालियर के महाराजा जयाजीराव सिंधिया और ह्यूरोज ने मिलकर एक षड्यंत्र रचा।  ह्यूरोज ने जयाजीराव सिंधिया से अपने सैनिकों को इस गलती के लिए क्षमा करने और उनके पक्ष में युद्ध करने को कहा। जयाजीराव के घोषित क्षमादान से उसके सैनिक अंग्रेजों के साथ हो गये।

17 जून, 1858 को रानी लक्ष्मीबाई को सिंधिया नरेश का षड्यंत्र समझते देर न लगी, रानी को स्थिति का अंदाजा हो चला था। इसलिए रानी लक्ष्मीबाई ने अपने विश्वासपात्र रामचन्द्र राव से कहा, ‘‘आज युद्ध का अन्तिम दिन दिखाई पड़ रहा है। यदि मेरी मृत्यु हो जाये तो मेरे पुत्र दामोदर राव के जीवन की रक्षा करना तुम्हारा धर्म होगा और इस बात का विशेष ध्यान रहे कि मेरा शव अंग्रेजों के हाथ न लगे’।

अंततः 18 जून, 1858 को वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजों से लड़ते-लड़ते शहीद हो गईं। रानी लक्ष्मीबाई की शहादत पर उनकी वीरता को याद करते हुए अंग्रेज ऑफिसर ह्यूरोज ने कहा, “भारतीय क्रांतिकारियों में यह अकेली मर्द थी”

देश इस बात को भुला न सकेगा कि, एक तरफ रानी लक्ष्मीबाई की चिता की आग भी ठंडी नहीं हुई थी और दूसरी तरफ उनकी शहादत के ठीक दो दिन बाद जयाजीराव सिंधिया ने अपनी जीत की खुशी का जश्न मनाया था और अंग्रेज जनरल ह्यूरोज और सर रॉबर्ट हैमिल्टन के सम्मान में ग्वालियर में भोज का आयोजन किया था।

देश का इतिहास इस बात का गवाह है कि जिस वक़्त सिंधिया राजघराना अपनी अंग्रेज परस्ती में लीन था उस वक्त बांदा के नबाब अली बहादुर अपनी जान की परवाह किए बग़ैर रानी लक्ष्मीबाई के साथ मिलकर अंग्रेजों से युद्ध लड़ रहे थे।

1857 के विद्रोह में महारानी लक्ष्मीबाई बांदा के नवाब अली बहादुर द्वितीय को राखी भेजकर फिरंगियों के खिलाफ मदद मांगी थी। महारानी लक्ष्मीबाई खुद अपने हाथों से बुंदेली भाषा में पत्र लिखा था जिसे अपने विश्वस्त डाकिया लाला दुलारे लाल के हाथों बांदा के नवाब अली बहादुर को भिजवाया था।

बहन की राखी की लाज निभाने के लिए नवाब अली बहादुर द्वितीय अपने दस हजार सैनिकों के साथ अंग्रेजों से युद्ध करने झांसी पहुंच गए थे। 18 जून, 1858 को जब रानी लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हुईं तो बाबा गंगादास की कुटिया में रानी का अंतिम संस्कार नवाब अली बहादुर की देखरेख में ही साधुओं द्वारा किया गया था। 

सिंधिया राजघराना आज अपनी सियासत चमकाने के लिए जितने हथकंडे अपना ले, लेकिन इस बात का क्या जवाब देगा कि, रानी लक्ष्मीबाई की शहादत के करीब 160 वर्षों तक सिंधिया राजघराना उनके नाम से दूरी क्यों बनाए रखा ? विदित हो कि रानी लक्ष्मीबाई की शहादत के करीब 160 साल बाद सिंधिया राजघराने का पहला व्यक्ति ज्योतिरादित्य सिंधिया ने रानी लक्ष्मीबाई की समाधि पर जाकर नमन किया था। और सिंधिया राजवंश के जयविलास पैलेस में उनकी यादों को संजोया था।

1857 के क्रांति के समय सिंधिया राजघराने की वफ़ादारी का वर्णन करते हुए तत्कालीन गवर्नर जनरल कैनिंग ने कहा था, “यदि सिंधिया भी विद्रोह में सम्मिलित हो जाए तो मुझे कल ही बिस्तर गोल करना होगा”।

ज्योतिरादित्य सिंधिया को अगर वाक़ई वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई को अपनी श्रद्धाजंलि अर्पित करनी है तो पहले उन्हें अपने पुरखों के कुकृत्य के लिए देश से माफ़ी मांगनी चाहिए।

(दया नन्द अध्यापक हैं और आजकल बिहार में रहते हैं।)

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