कच्चातिवु द्वीप: राष्ट्रहित के खिलाफ राजनीति

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रविवार (31 मार्च) को कांग्रेस पर आरोप लगाया कि उसने 1974 में “बेरहमी के साथ” कच्चातिवु द्वीप श्रीलंका को दे दिया था। उन्होंने कहा- “भारत की एकता, अखंडता और हितों को कमजोर करना” कांग्रेस के कामकाज के तरीके का हिस्सा रहा है। उसके एक दिन बाद उन्होंने इल्जाम लगाया कि कच्चातिवु के बारे में सामने आई “नई जानकारियां” डीएमके के “दोहरे मानदंडों” को उजागर करती हैं। मोदी ने आरोप लगाया कि डीएमके ने तमिलनाडु के हितों की रक्षा के लिए शोर मचाने के सिवा कभी कुछ नहीं किया है।

प्रधानमंत्री ने एक अखबार में आरटीआई अर्जी से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर छपी खबर को “नई जानकारी” बताया। यह हैरतअंगेज है कि जो व्यक्ति दस साल से भारत का प्रधानमंत्री है, उसे अपने ही विदेश मंत्रालय की तरफ से दी गई सूचना में “नई जानकारी” नजर आई। इस कथित जानकारी में उन्होंने पहले कोई दिलचस्पी क्यों नहीं ली, यह सवाल खुद उन पर उठा है।

बहरहाल, 2015 में उनकी ही सरकार के विदेश मंत्रालय ने एक आरटीआई अर्जी का जवाब देते हुए कच्चातिवु मामले में कहा था कि इस प्रकरण का ‘भारत के किसी क्षेत्र को देने या प्राप्त करने’ से कोई संबंध नहीं है, क्योंकि उस क्षेत्र का सीमांकन कभी नहीं हुआ। जब विदेश मंत्रालय ने यह जवाब दिया, तब एस जयशंकर विदेश सचिव थे। अब वे विदेश मंत्री हैं, और इस मुद्दे पर राय बदलते हुए भारतीय जनता पार्टी की तरफ से इस मुद्दे पर छेड़े गए राग को वे भी अलाप रहे हैं।

मोदी की मंशा क्या है?

यह सवाल प्रासंगिक है कि इस मौके पर प्रधानमंत्री और भाजपा ने एक निराधार विवाद को क्यों हवा दी है। इस बारे में हम कुछ अनुमान लगा सकते हैः

  • इस बार के लोक सभा चुनाव में भाजपा ने तमिलनाडु और केरल में अपना प्रभाव बढ़ाने और वहां से कुछ सीटें निकालने की कोशिश में अपनी पूरी ताकत झोंकी हुई है।
  • इसके पीछे एक मकसद बेशक यह है कि अगर उत्तर और पश्चिम भारत में भाजपा को कुछ सीटों का नुकसान होता है, तो उसकी भरपाई दक्षिण से की जाए। लेकिन उसका मकसद इससे कुछ बड़ा भी है।
  • मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक भाजपा और उसके मातृ संगठन आरएसएस की समझ है कि हिंदू राष्ट्र निर्माण की अपनी परियोजना के तहत उन्होंने भारतीय राजनीति में जातीय, सामुदायिक और वैचारिक आधार पर मौजूद रही पहचान (या विभाजन) रेखाओं को काफी हद तक कमजोर कर दिया है। लेकिन क्षेत्रीय विभाजन रेखा और उसमें भी खासकर द्रविड़ पहचान के आधार पर मौजूद रेखा अभी मजबूत बनी हुई है। 2024 में उन्हें यह संकेत देना है कि उन्होंने इसमें भी सेंध लगा दी है।
  • भाजपा की मुश्किल यह है कि राष्ट्र या समाज निर्माण के किसी बड़े सपने या जन कल्याण की आकर्षक योजना के आधार पर उसके लिए अपने समर्थन आधार को बढ़ाना कठिन बना हुआ है। उसके दस साल के शासन के रिकॉर्ड ने इस सिलसिले में उसकी मुश्किलें और बढ़ा दी हैं। ऐसे में भावनात्मक मुद्दों पर उसकी निर्भरता बढ़ती चली गई है।
  • तो उसने तमिलनाडु के एक द्वीप को “बेरहम नजरिए” के साथ श्रीलंका को दे देने के सवाल पर भावनाएं भड़काने का दांव चला है। संभवतः उसका आकलन होगा कि इससे वह कांग्रेस और डीएमके दोनों को बचाव का रुख अपनाने पर मजबूर कर देगी। इन दोनों दलों में आपसी गठबंधन हैं, तो भाजपा नेतृत्व को यह लगा होगा कि इससे वह दोनों पार्टियों के बीच दरार डाल सकती है।
  • यह दांव चलेगा या नहीं, यह तो चुनाव नतीजों से जाहिर होगा, लेकिन यह पूरे निश्चय के साथ कहा जा सकता है कि इससे भारत के दूरगामी हितों को नुकसान होगा। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार ने कच्चातिवु जैसे निर्णय से भारत के हितों को क्षति पहुंचाई या नहीं, तो यह विवाद का विषय है, लेकिन अब भारत की सत्ताधारी पार्टी जिस तरह से विदेश संबंध से जुड़े एक मसले पर सियासत को गरमा रही है, उससे भारतीय हितों को चोट पहुंचना तय है।

घरेलू राजनीति में फायदा उठाने के लिए विदेश संबंध से जुड़े मसले को मुद्दा बनाना राष्ट्र हित के लिहाज से हमेशा हानिकारक होता है। खासकर इस क्रम में अगर गड़े मुर्दे उखाड़े जाएं, तो उससे तो बहुत ही खराब संदेश जाता है। अगर देश में स्वस्थ राजनीति चल रही हो, तो विदेश और रक्षा नीतियों पर राष्ट्रीय आम सहमति की स्वाभाविक अपेक्षा होती है। अपेक्षा यह रहती है कि सत्ता पक्ष और विपक्ष ऐसे मसलों पर अपने मतभेदों को आपसी संवाद के दौरान एक दूसरे के सामने रखेंगे। मगर मोदी के कार्यकाल का एक दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष यह भी है कि पिछले दस वर्षों से ऐसा संवाद पूरी तरह टूटा हुआ है।

इस बीच खुद प्रधानमंत्री ऐसी बातें कह रहते हैं, जिससे कूटनीतिक हलकों में खलबली मच जाती है। अभी ज्यादा समय नहीं गुजरा, जब मिजोरम विधानसभा का चुनाव हुआ था। उस दौरान नरेंद्र मोदी ने यह अप्रत्याशित बयान दे दिया कि इंदिरा गांधी की सरकार ने मिजोरम के आम नागरिकों पर हवाई बमबारी की थी। यह कहते समय संभवतः उन्हें इसका ख्याल नहीं रहा कि आज उस भारतीय राज्य के सर्वोच्च प्रतिनिधि वे ही हैं, जिसकी तरफ से वो कथित कार्रवाई की गई थी। यह मुद्दा उन्होंने मानव अधिकार की किसी चिंता के तहत नहीं उठाया। अगर ऐसा होता तो वे भारतीय राज्य की तरफ से मिजोरम वासियों से क्षमा याचना करते। वैसे भी मानव अधिकार, क्षेत्रीय स्वायत्तता और सामुदायिक पहचान की मान्यता भाजपा या मोदी की राजनीति का हिस्सा नहीं हैं।

मिजोरम में मोदी ने हवाई बमबारी का मसला विशुद्ध रूप से अपनी राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी पार्टी यानी कांग्रेस को घेरने के लिए उठाया था। अब भी उन्होंने यही किया है। अब चूंकि मोदी ने यह मसला उठाया, तो जवाबी हमले के तौर पर कांग्रेस ने बांग्लादेश के साथ बस्तियों की अदला-बदली का मुद्दा उठा दिया है। इस करार के तहत मोदी सरकार ने 111 बस्तियां बांग्लादेश को दी थीं, जबकि इसके बदले बांग्लादेश ने 55 बस्तियां भारत को दी थीं। साथ ही कांग्रेस ने पूर्वी लद्दाख में 2020 में हुए चीन के अतिक्रमण को लेकर भी मोदी सरकार पर निशाना साधा है। इस तरह तीन देशों से संबंधित कथित विवाद भारत की चुनावी राजनीति का मुद्दा बन गए हैं।

मित्रता बनाम कमजोरी

हालांकि कांग्रेस ने इस बारे में अपेक्षाकृत अधिक जिम्मेदारी का परिचय दिया है। कांग्रेस प्रवक्ता पवन खेड़ा ने एक वीडियो बयान में यह कहा कि मित्रतावश इलाकों की अदला-बदली करने और डर या कमजोरी के कारण ऐसा करने में फर्क होता है। उन्होंने कहा कि बांग्लादेश के साथ मोदी सरकार ने इलाकों की अदला-बदली मैत्री के नजरिए से की, जैसा कि 1974 में इंदिरा गांधी सरकार ने श्रीलंका के साथ किया था। जबकि 2020 से मोदी सरकार यह सर्टिफिकेट भयवश या अपनी कमजोरी के कारण बांटती रही है कि लगातार चीन की तरफ से कोई घुसपैठ लद्दाख में नहीं हुई।

वैसे जहां तक इलाकों की अदला-बदली का सवाल है, तो यह कोई नई बात नहीं है। व्यापक राष्ट्र हित में कई बार सरकारें इस तरह के निर्णय लेती हैं। जिस चीन को लेकर भारत में यह गहरी शिकायत है कि वह दक्षिण एशिया के तमाम देशों के साथ रिश्ते प्रगाढ़ करते हुए भारत की घेराबंदी कर रहा है, उसके बारे में एक तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए। भारत और भूटान के अलावा चीन ने बाकी सभी सरहदी देशों के साथ अपने भूमि सीमा विवाद को इलाकों की लेन-देन के जरिए हल कर लिया है। खबरें हैं कि भूटान के साथ भी उसका ऐसा समझौता होने वाला है। यह नजरिया विदेश संबंध के मामले में चीन के लिए सहायक साबित हुआ है।

भारत के संदर्भ में यह कहा जाएगा चुनावी होड़ के बीच ऐसे मुद्दों को हवा देना किसी लिहाज से उचित नहीं है। इस सिलसिले में देश के अंदर जो कहा जाता है, उसका संदेश विदेश तक जाता है। इससे देश की विदेश संबंध नीति को लेकर अनिश्चय एवं संदेह पैदा होते हैं। क्या जो बातें अभी कही जा रही हैं, उसे श्रीलंका में नहीं सुना जा रहा है? क्या संभव है कि इस पर विपरीत प्रतिक्रिया वहां नहीं हो?

कच्चातिवु का मामला

कच्चतिवू के मामले में यह जरूर याद रखना चाहिए कि इससे संबंधित विवाद की जड़ें दोनों देशों के औपनिवेशिक इतिहास में छिपी थीं। भारत और श्रीलंका दोनों ब्रिटिश उपनिवेश थे। भारत 1947 में आजाद हुआ और श्रीलंका 1948 में। तभी इस द्वीप का मसला खड़ा हुआ। तभी श्रीलंका में मौजूद भारतीय मूल के तमिलों की नागरिकता का एक बड़ा विवाद भी सामने आया। तब से भारत सरकार की प्राथमिकता इन लाखों तमिलों की नागरिकता के प्रश्न को हल करना था। 1974 में दोनों देशों में बनी सहमति के तहत,

 भारत ने लगभग डेढ़ किलोमीटर लंबे और अधिकतम 300 मीटर चौड़े कच्चतिवु द्वीप पर अपना दावा छोड़ दिया।

 इस करार के तहत छह लाख तमिलों को भारत आकर अपना जीवन फिर से संवारने का मौका मिला।

 इसके साथ ही भारत और श्रीलंका के संबंधों में मौजूद एक बड़े कांटे को निकालने में सफलता मिली।

श्रीलंका मामलों की जानकार पत्रकार निरुपमा सुब्रह्मण्यम ने लिखा है- ‘श्रीलंका की तत्कालीन प्रधानमंत्री सिरिमाओ भंडारनायके के चीन से निकट संबंध थे। वह शीत युद्ध का समय था, जिसमें दुनिया दो खेमों में बंटी हुई थी। उस समय कच्चातिवु श्रीलंका को देने से यह सुनिश्चित हुआ कि इस क्षेत्र में कोई तीसरी शक्ति आकर भारत-श्रीलंका के मतभेदों का लाभ ना उठा सके।’

सुब्रह्मण्यम ने लिखा है- ‘1971 में बांग्लादेश के स्वतंत्रता संग्राम से पाकिस्तान टूट गया था। उसके बाद आत्मविश्वास से भरपूर इंदिरा गांधी ने श्रीलंका की तरफ पहल की, जिसने 1971 के युद्ध में पाकिस्तान के लड़ाकू विमानों को अपनी जमीन पर ईंधन भरने की सेवा दी थी। युद्ध में भारत की जीत के बाद श्रीलंका सरकार आशंकित थी कि भारत बदला लेगा। लेकिन इंदिरा गांधी की पहल से उसे आश्वासन मिला कि भारत दोस्ती चाहता है।’ (Modi’s plans for Wadge Bank don’t add up with his rhetoric on Katchatheevu (newslaundry.com))

ऐसी पहल के पीछे प्रेरक तत्व भू-राजनीति की गहरी समझ और दूरदृष्टि होती है। इससे देश के दूरगामी हित सधते हैं। लेकिन जिन नेताओं की दृष्टि येन-केन-प्रकारेण वोट पा लेने से आगे नहीं जा पाती, उनके बारे में यही माना जाएगा कि उनमें राष्ट्र हित और भू-राजनीति की समझ का नितांत अभाव है। राष्ट्र प्रेम से प्रेरित और राष्ट्र निर्माण का सपना रखने वाले नेता इस तरह के काम नहीं कर सकते।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)

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