देशद्रोह मामले पर लाॅ कमीशन की रिपोर्टः ये दिन भी जाएंगे गुजर, गुजर गये हजार दिन

प्रसिद्ध गीतकार शैलेंद्र का गीत ‘ये ग़म के और चार दिन, सितम के और चार/ ये दिन भी जाएंगे गुज़र, गुज़र गये हजार।’ 1990 के दशक में हम दोस्त अक्सर इस गीत को गाते थे। ‘हजार दिन’ एक उपमा की तरह था। पिछले दिनों जब उमर खालिद और जेलों में बंद साथियों के पक्ष में एक कार्यक्रम का जब पोस्टर आया, तब उस पर जेल में बीता दिये गये 1000 दिन को डिजाईन किया गया था। शैलेंद्र के गीत को गाते हुए हमारे दिलों में उम्मीद और जीत का जज्बा होता था। उस समय हम आर्थिक नीतियों में आ रहे बदलाव के खिलाफ और कठिन होती जिंदगी को आसान करने के ख्वाब के साथ गीत गाते थे और पर्चा बांटते थे। एक कार्यकर्ता के बतौर हम देश, समाज और गांव के बिगड़ते हालात के बारे में बात करते हुए इसे सही रास्ते पर ले चलने के लिए लोगों से एकजुटता का आह्वान करते थे।

तब हम छात्र थे, लेकिन हमारी अपील, हमारे नाटक और पर्चे, हमारे गीत और नारे समाज के हर तबके के बीच होते थे। तब हम राज्य और उसकी सरकार की समझ बनाने के लिए बहुत सारी किताबों को पढ़ गये। कई बार राज्य नौकरशाहों का समूह लगता और कई बहसों में यह निष्कर्ष निकलता की परिवार भी राज्य का हिस्सा है। राज्य का पार्टी के साथ क्या रिश्ता है, और कथित तौर पर चुने गये प्रतिनिधियों और उनकी पार्टी की राज्य के साथ क्या रिश्ता है, और ये राज्य में क्या भूमिका निभाते हैं, पर होने वाली बहस एक निराशजनक स्थिति में चली जाती। उस समय सारी ही पार्टियां एक जैसी नीति अपना रही थीं। समाज के सबसे निचले और दबे कुचले समुदाय का प्रतिनीधित्व का दावा करने वाली पार्टियां भी वैश्वीकरण का अगुवा बनी हुई थीं। वे राज्य में हिस्सेदारी चाहती थीं, और मौके की स्थिति देखकर राज्य के शासन में अपना हिस्सा बना भी रही थीं।

1990 एक ऐसा दशक था, जिसमें समाज के ऊपरी पायदान पर आ जाने वाले समूह अपनी-अपनी सामाजिक प्रतिनिधित्व की दावेदारी के साथ राज्य में हिस्सेदारी का अवसर तलाश रहे थे; जबकि इसमें से परम्परागत तौर पर सबसे ऊपर बना रहने वाला समूह सत्ता के वितरण में नेतृत्वकारी भूमिका निभा रहा था। यह कांग्रेस और भाजपा के गठजोड़ वाली सरकारों और बाद में एकल सत्ता का आरम्भ था। भाजपा अपनी रहनुमाई का दावा करने के लिए खुद को नये सिरे से संगठित कर रही थी। बाजार, वित्त और उद्योग के उन खिलाड़ियों को जो पैसा कमाने की भूख में राज्य को अपने कब्जे में कर लेने के लिए एकदम आतुर थे, उन्हें भाजपा खूब रास आ रहा था। गांव के धनी किसानों का एक हिस्सा शहर में आकर खुद को मध्यवर्ग में बदल रहा था।

यह परम्परा और आधुनिकता का एक ऐसा मिश्रण था जिसमें अमरीका जैसी लूट की चाह थी और गांव के जमींदारों जैसी भयावह क्रूरता थी। इसने दंगों में सीधी हिस्सेदारी करते हुए समाज में एक नये तरह की नैतिकता को जन्म दिया और समाज में हम और वे को गहरे तक विभाजित किया। इसने उद्यम और मीडिया में एक नये दौर को शुरू किया और ‘देश’ को नये सिरे से परिभाषित करना शुरू किया। यह हमारे शिक्षा संस्थानों, खासकर काॅलेज और विश्वविद्यालयों में आया और इसने ‘उपयोगिता’ और ‘संस्कृति’ को किसी भी पाठ्यक्रम की प्रासंगिकता का मानदंड बना दिया। यह राज्य का पुनर्गठन था, जिसमें ध्वंस, षड़यंत्र, अवसरवाद, पतनशीलता, हिंसा और गद्दारी का खुला खेल होते देखा गया।

हम जिस मध्यवर्ग के बीच गीत गा रहे थे, उसका एक हिस्सा वैश्वीकरण में अपना हिस्सा तलाश रहा था। वह वीआरएस की नीति का फायदा उठाने में लगा हुआ था और ज्यादातर ट्रेड यूनियन मंहगाई भत्ता और बोनस की लड़ाई और अधिक हुआ तो छंटनी हो रहे मजदूरों के आर्थिक हितों की लड़ाई लड़ रही थीं। शैलेंद्र के गीत के ‘हजार दिन’ का अर्थ बदल रहा था। और, फैज पर सवाल उठ रहे थे, इक़बाल के गीत पर केस दर्ज हो रहे थे।

राज्य का पुनगर्ठन का अर्थ है बहुत सारे संदर्भों में बदलाव और बहुत सारी नई नीतियों का प्रतिपादन। 15 अगस्त, 1947 के समय में कांग्रेस का नेतृत्व नेहरू के हाथों में था और उन्होंने ही सरकार का प्रतिनिधित्व किया। 1948 में ‘देशद्रोह’ शब्द को हटाने को लेकर काफी बहस हुई और 26 नवम्बर 1949 को इस शब्द को संविधान से हटा दिया गया लेकिन भारतीय दंड संहिता, 1860 का 124 ए बना रहा। ज्यादा समय नहीं बीता, और 1951 में नेहरू ने संविधान का पहला संशोधन बोलने की आजादी को सीमित करने के लिए ले आये। जिसमें राज्य की संप्रभुता और एकता बनाये रखने के लिए बोलने की आजादी को सीमित कर सकता है।

इस तरह यह संसोधन ‘देशद्रोह’ की दंड संहिता के प्रावधान 124ए से जाकर मिल जाता है। इसके बाद अलग-अलग राज्यों में इससे जुड़े हुए कानून बनाये गये और कई बार राज्यों को लेकर केंद्र ने ‘राज्य की संप्रभुता और अखंडता’ को बनाये रखने के लिए कानून बनाये। खासकर, कश्मीर और उत्तर-पूर्व के राज्यों के संदर्भ में बनाये गये कानून देश के संदर्भ में ही बनाये गये। कर्मचारियों और मजदूरों के हड़तालों के संदर्भ में भी ऐसे ही कानून बनाये गये और अक्सर इसे 124 ए से जोड़ दिया गया। आपातकाल में टाडा और मीसा का प्रयोग के बारे में काफी लिखा गया है। इन कानूनों का प्रयोग कांग्रेस के नेतृत्व ने राज्य में हिस्सेदारी का दावा कर रही उभरकर आ रही पार्टियों के कार्यकर्ताओं और नेतृत्व के खिलाफ भी किया।

यहां यह रेखांकित करना जरूरी है कि नेहरू और कुछ हद तक लालबहादुर शास्त्री के समय तक कांग्रेस आरएसएस, स्वतंत्र पार्टी, सोशलिष्ट पार्टी से जुड़े लोगों के लिए कांग्रेस में शामिल होने के लिए दरवाजा खुला रखा। लेकिन, इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने खुद को नये सिरे से पुनगर्ठित किया और खुद को राज्य का पर्याय बना लिया। उस समय इसी आशय का नारा भी गढ़ा गया। इस समय सरकार और राज्य का अर्थ बदल रहा था। सरकार जितना ही गरीबों से दूर हो रही थी, उतना ही उसका खुद का मसीहा बताने में लगी हुई थी। और, गांव और शहर के गरीब जो अपनी हकदारी की लड़ाई लड़ रहे थे, उन्हें सरकार देशद्रोही बता रही थी और उनके आंदोलनों को खत्म करने के लिए और कड़े कानून बनाकर उन पर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज कर रही थी।

1990 के दशक में राज्य में हिस्सेदारी करने के लिए आतुर पार्टियां और उनके नेतृत्व देश को जिस तरह हिंसा में झोंक रहे थे और अर्थव्यवस्था, राजनीति को लेकर जिस तरह की नीतियां अख्तियार कर रही थीं, वह सबकुछ देशद्रोह को लेकर बनाये गये कानूनों के तहत अपराध ही थे। लेकिन, वे खुद राज्य थे और उनकी आपसी लड़ाई शासन की सहूलियतों को हासिल करना था। वे देश की परिभाषा से अधिक राज्य की परिभाषा के ज्यादा करीब थे। दरअसल, वे राज्य में प्रतिनिधि शासक ही नहीं थे, वे खुद राज्य थे और शासन करने की ताकत हासिल करने के लिए लड़ रहे थे। यह एक क्रूर लड़ाई थी जिसमें हजारों बेकसूर लोग मारे गये। निश्चित ही मारे गये लोग देशवासी थे, वे देश के नागरिक होने का दावा कर सकते थे, लेकिन इससे अधिक की दावेदारी उनकी नहीं थी।

1860 में जब अंग्रेजों ने अपने देश में भारतीय दंड संहिता में 124 ए का प्रावधान जोड़ा, तब वे इस देश के शासक थे। 1857 के एक संप्रभु राज्य और राजा को अपदस्थ कर अंंग्रेजों ने बहादुरशाह जफर को देश निकाला दिया। देश की संप्रभुता विक्टोरिया के हाथों में चली गई और शासन का मुख्य केंद्र लंदन हो गया। यह सब अचानक नहीं हुआ था। यहां इस इतिहास की बात इसलिए है, राज्य की संप्रभुता और उसकी अखंडता स्थानान्तरित होती है। यह स्थानान्तरण उपनिवेशवाद की वजह से था।

भारत अंग्रेजों का देश नहीं था, वे इसकी संप्रभुता और अखंडता के मालिक थे और इसका वे अपनी नीतियों के तहत कुछ भी कर सकते थे। उन्होंने यहां की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, कानूनी, सभी तरह के बदलावों पर नियंत्रण रखा, यहां तक कि इसकी भौगोलिक रेखाओं तक को बदला। सैकड़ों समुदायों को ‘राज्य की संप्रभुता और अखंडता के लिए खतरा’ घोषित कर उन्हें अपराधी जाति, समुदाय का दर्जा देकर राज्य और समाज से बहिष्कृत कर दिया और उन्हें आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर जर्जर बना दिया। अंग्रेजों का देश इंगलैंड था, लेकिन उन्होंने देशद्रोह का कानून बनाया और इस देश के लोगों को गुलाम बनाकर रखा। मनमाने तरीके से दूसरे देशों में युद्ध के मोर्चे पर भेजा।

बागानों और खेती के लिए यहां के किसानों को देश के अंदर और देश से बाहर भेजा। वे देश नहीं थे, लेकिन वे राज्य थे और देश शब्द का प्रयोग कर इस देश का तबाह करने में लगे हुए थे। उपनिवेशवाद के खिलाफ इस देश के लोगों ने लंबी लड़ाइयां लड़ीं, कुछ उग्र और हथियारबंद तरीके और कुछ सुधारवादी और अतरंगताभरी मांगों के साथ लड़े। आज, उसमें से हरेक को देशभक्त कहा गया। आज उनमें से कई लोगों पर सवाल उठ रहे हैं कि वे देशभक्त थे, या नहीं। यह सवाल बने रहेंगे, लेकिन जो अंग्रेज शासक थे उनका देशभक्ति पर दावेदारी नहीं हो सकता था। आप यह नहीं कह सकते कि वारेन हेंस्टिंग्स या लार्ड माउंटबेटन या विक्टोरिया देशभक्त हैं। लेकिन, एक समय था जब वे ही देशभक्त थे और वे ही इस मसले के निर्णायक थे और देशद्रोह के मामले में कालापानी की सजा से लेकर फांसी की सजा देते थे।

जब हम कहते हैं कि कानून का राज होना चाहिए, तब हम अक्सर उसके संदर्भों को भूल जाते हैं। जब 2004 में भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने माओवाद को भारत की सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा घोषित किया, और इस संदर्भ में पिछले कानूनों में और अधिक बदलाव लाकर देश की सुरक्षा को और अधिक परिभाषित किया गया, तब इसके निहितार्थों के बारे सिर्फ अनुमान ही किया जा सकता था। उस समय कई वाम पार्टियों और बुद्धिजीवियों ने सरकार की तरह ही माओवाद को आतंकवादी बताते हुए पर्चे, पुस्तिका और किताबें तक लिखीं। उन्होंने यहां तक लिखा कि इसके खत्म हुए बिना वाम आंदोलन आगे जा ही नहीं सकता है, इसलिए इसे खत्म होना, करना जरूरी है।

अगले पांच सालों में ‘अरबन नक्सल’ शब्दावली का प्रयोग मीडिया और कई सारी पार्टियां करने लगी। इस शब्द के अर्थ में ऐसे लोग भी ले आये जाने लगे, जिनका वाम विचारधारा से कोई लेना देना ही नहीं था। अंततः ऐसे सभी लोग जो राज्य की नीतियों की आलोचना कर रहे थे, उसमें बदलाव की मांग कर रहे थे, या राज कर रही पार्टी की सरकार व उसमें शामिल लोगों की आलोचना कर रहे थे, इस शब्दावली की जद में आने लगे। आज इस शब्द का अर्थ सरकार से असहमति के बराबर हो चुका है। इस संदर्भ में बनाये गये कानूनों का प्रयोग भी उतनी ही सरलता और चुने हुए तरीके से करने की प्रवृति बढ़ती गई।

यहां यह ध्यान में रखना होगा, देशद्रोह से जुड़ा 1860 से चले आ रहे कानून को नेहरू द्वारा संविधान की प्रासंगिकता दी गई और इससे जुड़े हुए अन्य कानूनी प्रावधानों को समय-समय पर सदंर्भ के साथ मजबूती दी गई और यह सब संसद, विधानसभा और न्यायपालिका द्वारा किया गया। यह एक संप्रभु व्यवस्था है। यहां समस्या संप्रभुता के मूल निवास की है, या यूं कहें कि इसे कैसे परिभाषित किया जाये। यह एक नेतृत्व वाली पार्टी की सरकार में है, न्यायापालिका में है या प्रशासनिक व्यवस्था में है या संविधान में है। हाल के दिनों में इन मसलों को लेकर टकराहटें देखी गईं। केशवानंदभारती केस के संदर्भ में यह अंतिम रूप से संविधान में है जिसकी मूल संरचना में बदलाव नहीं किया जा सकता, यह अखंडित रहेगा। न्यायपालिका इस मसले पर इसे मानदंड मानती है।

पार्टी नेतृत्व की सरकार जन प्रतिनिधित्व के आधार पर जनता को संप्रभु मानते हुए खुद को उसका संरक्षक मानने का दावा कर रही है। संसद बहुमत के आधार पर संप्रभुता की दावेदारी कर रही है जिसमें विपक्ष की भूमिका संप्रभुता की परिभाषा से बाहर है। यह विवाद संप्रभुता की उस दावेदारी की याद दिला रहा है जिसके तहत यह बेरोकटोक निर्णय ले सके और इन निर्णयों को लागू कर सके। हालांकि, ऐसा कई राज्यों में होता हुआ दिख रहा है। जैसे उत्तर-प्रदेश में श्रम कानूनों में एकबारगी तीन सालों के लिए बहुत सारे प्रावधानों को खत्म कर श्रमिकों के अधिकार खत्म किये गये और पूंजीपतियों, उद्यमियों के लिए बहुत सारे अधिकार मुहैया कर दिये गये। यह सब एकबारगी निर्णय लेकर किया गया और दिये गये अधिकारों को छीन लिया गया।

संभव है, इन अधिकारों की मांग करने वाले ‘अपराध’ की श्रेणी में घोषित हो जायें, क्योंकि यह राज्य की संप्रभु निर्णय की क्षमता पर सवाल की तरह होगा। ऐसे में सवाल उठता है, राज्य के संप्रभु होने का अर्थ क्या है और इस संप्रभुता में जनता की हिस्सेदारी कितनी है। जब यह कहा जाता है कि यह व्यक्ति देशभक्त है और यह देशद्रोही है, तब इसे निर्धारित करने वाली व्यवस्था क्या है? भारतीय समाज में कई स्तर पर विभाजन हैं और ‘हम और वे’ का विभाजन जाति और धर्म की व्यवस्था में गहरे तक पैठी हुई है। ऐसे विभाजनों में आमतौर पर कानून और अंततः देश की संप्रभुता का प्रयोग उनके खिलाफ ही अधिक होता है, जो इन कानूनों और अंततः देश की संप्रभुता में सबसे कम हिस्सेदार होते हैं।

मसलन, एक गांव की जमीन के अधिग्रहण के मामले में संभव है, पूरा गांव ही ‘देशद्रोही’ की श्रेणी में आ जाये। इसी तरह से किसी फैक्टरी में आंदोलनकारी मजदूर इस श्रेणी के शिकार हो जायें। संभव है कि दलित समुदाय के लोगों का आंदोलन इसी अपराध की श्रेणी में डाल दिया जाये। आपातकाल में बड़े पैमाने पर छात्रों को इसी श्रेणी में डालकर उन्हें नजरबंद कर दिया गया। बहुत सारे लोग मार दिये गये।

देश, संप्रभुता और अखंडता समय से बाहर रहने वाली शब्दावलियां नहीं हैं। भारत के इतिहास में इसे हम बदलते और विकसित होते हुए देख सकते हैं। लेकिन, जब हम आधुनिक भारत की बात करते हैं तब इसकी एक निश्चित परिभाषा और इसके निहितार्थ हैं। निश्चय ही इस पर विवाद होते रहेंगे लेकिन उन परिभाषाओं और निहितार्थों से अलग होना जरूरी है जिसे ऐसे लोगों ने बनाया। जो इस देश के नहीं थे लेकिन इस देश का संप्रभु होने का दावा किये और हमें गुलाम बनाकर हम पर काबिज रहे।

हमारी मुक्ति के संघर्षों को उन्होंने देशद्रोह की श्रेणी में डाला। एक ऐसे ही देशद्रोह के कानून 124 ए का 1860 से बना रहना सचमुच चिंतनीय है। उससे भी अधिक चिंता की बात, इस अवधारणा को जिंदा रखना, उसके आधार पर नये नये कानून बनाना, समाज में इस अवधारणा के आधार समुदाय और जातियों के खिलाफ माहौल बनाना, आदि है और निश्चय ही यह उपनिवेशिक दौर की याद दिलाता है।

इस संदर्भ में 22वां विधि आयोग ने गृह मंत्रालय की मार्च, 2016 में दी गई अनुशंसा पर देशद्रोह कानून का अध्ययन किया। इस अयोग ने नवम्बर, 2022 का वह संदर्भ भी ले लिया जिसमें उस समय के भारत के मुख्य न्यायाधीश एन.वी.रमन्ना के नेतृत्व वाले बेंच ने इस प्रावधान पर सुनवाई पर फिलहाल रोक लगाया था और रिपोर्ट आने का संदर्भ दिया था। उस समय यह कहा गया था कि भारतीय दंड संहिता की 124ए धारा वर्तमान सामाजिक हालातों के अनुरूप नहीं है, और इसे तब बनाया गया था जब देश उपनिवेशवादी शासन में था।

अब विधि आयोग की रिपोर्ट आ चुकी है। वह इसे हटाने के पक्ष में नहीं है। देशद्रोह के प्रावधान में जुर्माना, तीन साल से लेकर आजीवन सजा का प्रावधान है। आयोग न्यूनतम सजा को बढ़ाकर साल से लेकर आजीवन करने की अनुशंसा करता है। इस कानून का दुरूपयोग न हो, इसके लिए आयोग का कहना कि इंस्पेक्टर रैंक का व्यक्ति ही प्राथमिकी दर्ज करने की क्षमता में हो। ज्ञात हो कि उपरोक्त कानून इंग्लैंड में 2009 में खत्म कर दिया गया। आयोग का मानना है, कि वहां का यह बदलाव महज ऊपरी है।

आयोग का मानना है कि भारत की एकता और अखंडता पर खतरा बना हुआ है, खासकर माओवादी उग्रवाद, उत्तर-पूर्व की उग्र लड़ाईयां और जातीयता के झगड़े, जम्मू-कश्मीर का आंतकवाद और अन्य जगहों का अलगाववाद। आयोग हिंसा को भड़काने, सार्वजनिक जीवन को अव्यवस्थित करने की मंशा को भी इस प्रावधान में जोड़ देने का आग्रह करता है। आयोग का यह भी कहना है कि इसे उपनिवेशिक विरासत बतला देने से बात नहीं बनती है। यहां बहुत सारी संस्थाएं इसी उपनिवेशिक धारा में ही हैं। जाहिर है, आयोग अपने रिपोर्ट में इस प्रावधान को बनाये रखने के पक्ष में है।

वरिष्ठ अधिवक्ता के शब्दों में ‘आयोग की रिपोर्ट देशद्रोह के प्रावधान को और अधिक खतरनाक बना देने वाली है।’ विधि आयोग की यह रिपोर्ट 160 साल से अधिक पुराने ‘देश की संप्रभुता और अखंडता’ को बचाने वाले कानूनी प्रावधान को और अधिक मौजूं और मजबूत बनाने की अनुशंसा करती है। यह एक डरावना सच है। लेकिन, जो है उसे देखना जरूरी है, ठीक वैसा ही जैसा है और हमें खुद को भी देखना जरूरी है, जैसा हम है वैसा ही। यह हालात ‘शर्म और अफसोस’ का नहीं है।

यह वह स्थिति है जिसमें संप्रभुता का दावा ज्यादा से ज्यादा कानूनी होता जा रहा है। हमें यह जरूर पूछना है, और बार-बार पूछना है इस संप्रभुता में हम कहां हैं, बतौर एक नागरिक हम सिर्फ एक वोट हैं, एक आधार कार्ड हैं, एक श्रमिक हैं, एक मोहल्ले में बसा हुआ एक बाशिंदा हैं जिस पर कभी भी बुलडोजर चल सकता है, या एक..। हमारा यह सवाल बना रहेगा कि इस संप्रभुता की अवधारणा में एक नागरिक कितना बचा रह गया है! 

(अंजनी कुमार पत्रकार हैं।)

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